Curse of Expertise विशेषज्ञ दम्भ की सङ्कीर्णता
प्रतिष्ठित विशेषज्ञ भी बहुधा अतार्किक बातें करने लगते हैं तथा प्रायः विशेषज्ञ स्वयं के ज्ञान के दम्भ में इस प्रकार सङ्कीर्ण होते जाते हैं कि उनके क्षेत्र में अन्वेषित नवीन सिद्धान्तों को ग्रहण करने के प्रति उनकी सहनशीलता में भी ह्रास हो जाता है। विद्वता के इस विरोधाभासी अवलोकन को आधुनिक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों तथा सनातन दर्शन दोनों में ही एक जैसी व्याख्या मिलती है। सनातन दर्शन में ज्ञान तथा विद्या के सटीक रूप के तो अनेकानेक सन्दर्भ मिलते हैं। केनोपनिषद् में ज्ञानी को विदित तथा अविदित दोनों से परे सोचने का एक गूढ़ मंत्र है –
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥
स्पष्ट है कि ज्ञानी व्यक्ति को सदा विदित के परे सोचने का लक्ष्य भी रखना चाहिए। सन्तुष्टि कैसी? कितना भी अध्ययन कर लें, विद्या से सन्तुष्ट हो रुक जाना या अपने को विद्वान समझना तो मूर्खता ही होगी। सनातन दर्शन में विद्या तथा ज्ञान प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रयास तथा जिज्ञासु (अथातो ब्रह्म जिज्ञासा) होने की प्रवृति भी प्रमुख रूप वर्णित है। मनु ने भी धर्म के दस लक्षणों में विद्या और ज्ञान पिपासा को स्थान दिया। ज्ञान के मार्ग में निरन्तर अभ्यास तथा विदित के परे सोचने के साथ साथ कठोपनिषद् के प्रसिद्ध श्लोक उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत में इस मार्ग की दुर्गमता का भी वर्णन है – क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति, अर्थात पैनी छुरी के धार पर चलने सदृश।
साथ ही ज्ञानी न होते हुए भी ज्ञानी होने का दावा करने या ज्ञानी होने का भ्रम होने की स्थिति की चेतावनी के तो अनेक सनातन प्रकरण हैं ही, इस अवस्था को मूर्खता की सञ्ज्ञा भी दी गयी है। उपनिषद् के अनुसार इस प्रकार की अविद्या में डूबे लोग अपने को ज्ञानी समझ स्वयं तो नष्ट होते ही हैं, समाज को भी नष्ट करते हैं। यथा एक अन्धा दूसरे अन्धे को मार्ग दिखा रहा हो –
अन्धं तम: प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते।
तो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:॥
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:॥
मिथ्या ज्ञान के अहङ्कारी के लिए महाभारत में भी मूर्ख की सञ्ज्ञा दी गयी है –
अश्रुतश्च समुत्रद्धो दरिद्रश्य महामनाः। अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥
इसके विपरीत जीवन की हर अवस्था में ज्ञान के लिए सदा जिज्ञासु, श्रद्धा तथा सतत प्रयत्न की आवश्यकता है – श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रियः । और प्रयास तो प्रसिद्ध ही है – विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते।
विशेषज्ञ कह दिए जाने से क्या हुआ क्षण-क्षण प्रयत्न तो तब भी आवश्यक है – क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् और ज्ञान से संतोष कैसा? जिसे संतोष हुआ वह ज्ञानी कहाँ? अहंकार कैसा? और संतुष्टि कैसी? महाभारत में व्यासजी युधिष्ठिर से कहते हैं, यज्ञो विद्या समुत्थानमसंतोषः श्रियं प्रति अर्थात यज्ञ, विद्या, उद्योग और ऐश्वर्य के विषय में असन्तोष रखना चाहिए।
अधूरे ज्ञान या स्वयं के ज्ञान का अहंकार हो जाने पर व्यक्ति तर्क के प्रति अन्धा हो जाता है। इसका भर्तृहरि से सुंदर भला कौन वर्णन कर सकता है!
संसार में इस बात के अनेक उदाहरण मिलते हैं जिसमें प्रसिद्ध व्यक्ति ज्ञानी होने के दम्भ में अंततः अतार्किक बातें करने लगते हैं तथा अपने पूर्व ज्ञान के पथ से विचलित भी हो जाते हैं। ऐसी विद्वता या पुस्तकी विद्या का भी क्या लाभ? —
पुस्तकस्या तु या विद्या परहस्तगतं धनं। कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥
आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में इन दर्शनों की पुष्टि कुछ इस प्रकार हो रही है।
वर्ष २०१५ में येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन The Curse of Expertise: When More Knowledge Leads to Miscalibrated Explanatory Insight के अनुसार व्यक्ति बहुधा अपनी समझ तथा विशेषज्ञता को अधिक आँकते हैं, विशेषरूप से अपने अध्ययन क्षेत्र में। मनोविज्ञान में इस प्रकार की प्रवृत्ति को वर्णन करने की क्षमता की भ्रान्ति के नाम से भी जाना जाता है – The Illusion of Explanatory Depth अर्थात विशेषज्ञ घोषित हो जाने पर संकीर्ण हो जाना तथा अपनी विद्वता का आकलन योग्यता से अधिक करना, अर्थात दम्भ!
वर्ष २०१५ में ही प्रकाशित एक अन्य अध्ययन When self-perceptions of expertise increase closed-minded cognition: The earned dogmatism effect के अनुसार स्वयं के विशेषज्ञ होने की अनुभूति होने पर लोग और संकीर्ण सोच के हो जाते हैं अर्थात तथाकथित प्रसिद्ध विशेषज्ञों की बात को यथारूप मानने से पहले हमें और भी अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। इस अध्ययन की मानें या विदुर के कथन को; दोनों ही अवस्थाओं में सहज प्रसिद्धि के इस युग में ऐसे व्यक्ति बुद्धिहीन की भाँति ही तो हैं –
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः । मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः ॥
ज्ञान तो सदा श्रद्धा, विनम्रता और ललक से ही सम्भव है। सनातन दर्शन की इस सीख की पुष्टि वर्ष २०१८ में प्रकाशित अध्ययन से भी होती है — Links between intellectual humility and acquiring knowledge.
सार यही कि अति आत्मविश्वास के स्थान पर अपने ज्ञान का सटीक आकलन तथा ज्ञान के लिए नित प्रयत्नशील रहना। स्वयं के ज्ञान की तो बात ही क्या है, अपनी अविद्या (Ignorance) का भी तो संज्ञान होना अत्यावश्यक है —
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥