पिछले भाग से आगे
मानव मस्तिष्क के अविवेकी(irrational) होने तथा मानव व्यवहार में भ्रांति (delusion) की चर्चा हम पिछले लेखांशो में कर चुके हैं परंतु मनोवैज्ञानिकों के लिए यह विषय किसी खनिज भंडार की भाँति है जिससे नित नए शोध प्रकाशित हो रहे हैं। पश्चिमी जनमानस को भ्रांति का वैज्ञानिक दृष्टि से सच होना अविश्वसनीय प्रतीत होता है क्योंकि पश्चिमी दर्शन में ऐसी अवधारणाएँ प्रचलित रहीं कि मानवी सोच तथा व्यवहार, दोनों पूर्णतया तार्किक होते हैं। मानव मस्तिष्क में भ्रांति जैसा कुछ सम्भव नहीं है। आँख के देखे और कान से सुने में भला क्या भ्रांति!
वहीं सनातन दर्शन में कार्य-कारण तथा कर्म के सिद्धांत के साथ-साथ भ्रांति का भी आश्चर्यजनक रूप से सटीक विश्लेषण मिलता है। भ्रांति यथा इंद्रजाल, माया या अविद्या की चर्चा किसी एक सनातन ग्रंथ तक सीमित नहीं होते हुए यह सनातन दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धांत है, विशेषकर अद्वैत ग्रंथों में। बौद्ध दर्शन, जिसका परिवर्तित रूप पश्चिमी देशों में लोकप्रिय है, भी स्पष्ट रूप से इन दर्शनों से प्रभावित है। मानव मस्तिष्क के परे ब्रह्मांड के निर्माण, परिवर्तन तथा विस्तार इत्यादि के संदर्भ में भी सनातन दर्शन में इन भ्रांतियों की परिभाषा बृहत् है। आधुनिक मनोविज्ञान, विकासवाद तथा सनातन दर्शन के इन सिद्धांतों में चकित कर देने वाली समानता है। यदि सनातन दर्शन तथा आधुनिक मनोविज्ञान को समानांतर पढ़ें तो सनातन दर्शन की गूढ़ चितियाँ इस संदर्भ में अधिक स्पष्ट होती हैं।
योगवासिष्ठ में बारंबार मोह तथा भ्रांतियों अर्थात delusion of mind की बात की गयी है। सम्पूर्ण ग्रंथ ही इस प्रकार की भ्रांतियों की बात करता है। पूरे ग्रंथ में उस ज्ञान की चर्चा विशेष रूप से की गयी है जिससे भ्रांति का विध्वंस हो जाए। मस्तिष्क में होने वाली भ्रांति, उपजे संशय तथा मिथ्याबोध, उनके कारण तथा रूपों की चर्चा से ग्रंथ परिपूर्ण है। यदि भ्रांतियों तथा मानव मस्तिष्क के अविवेकी (irrational) होने के अध्ययन तथा उससे उपजे सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान के सबसे क्रांतिकारी तथा महत्त्वपूर्ण अध्ययन कहे जायँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। योगवासिष्ठ मस्तिष्क से उपजी भ्रांतियों को ‘संसारमरुमण्डली’ के बिम्ब से दर्शाता है तथा मस्तिष्क के विशुद्ध एवं शांतचित्त होने को भ्रांतियों से मुक्त करना ही बताया गया है। यथा :
न स्वप्तव्यं च संसारमायास्विह विजानता । विषमूर्च्छनसंमोहदायिनीषु विवेकिना ॥ २/१३/३२ ॥
मनःप्रशान्तमत्यच्छं विश्रान्तं विगतभ्रमम् । अनीहं विगताभीष्टं नाभिवाञ्छति नोज्झति ॥ २/१३/४९ ॥
आकाशसदृशी यस्य पुंसः संव्यवहारिणः । कलङ्कमेति न मतिः स शान्त इति कथ्यते ॥ २/१३/८० ॥
यही नहीं, निर्वाण प्रकरण के परिचय में ही कहा गया है कि इसके अध्ययन तथा प्रज्ञा से मौलिक अज्ञानता नष्ट हो जाती है तथा मस्तिष्क हर प्रकार के भ्रांति, मतिभ्रम से स्वतंत्र हो जाता है।
इस विषय पर सम्पूर्ण ग्रंथ में इतने संदर्भ हैं कि उन्हें संकलित करना भी दुर्लभ कार्य है। संक्षेप में तृतीय प्रकरण के ११२ तथा ११३ सर्ग के श्लोकों का सार यही है कि मानव मस्तिष्क एक दोलक की भाँति वास्तविक और आभासी के बीच भटकता है परंतु प्रयास से वही मस्तिष्क बुद्धिमता तथा निरीक्षण से सत्य देख सकता है। इस प्रयास के लिए अनेक हल ग्रंथ में दिए गए हैं :
यत्तत्सदसतोर्मध्यं यन्मध्यं चित्त्वजाड्ययोः । तन्मनः प्रोच्यते राम द्वयोर्दोलायिताकृति ॥ ३/११२/१३ ॥
मा भवाज्ञो भव प्राज्ञः सम्यग्राम विचारय । नास्त्येवेन्दुर्द्वितीयः खे भ्रान्त्या संलक्ष्यते मुधा ॥ ३/११३/३ ॥
संसारबीजकणिका यैषाविद्या रघूद्वह । एषा ह्यविद्यमानैव सतीव स्फारतां गता ॥ ३/११३/११ ॥
येयमाभोगिनिःसारा संसारारम्भचक्रिका । विज्ञेया वासनैषा सा चेतसो मोहदायिनी ॥ ३/११३/१२ ॥
प्रतिभासवशादेषा त्रिजगन्ति महान्ति च । मुहूर्तमात्रेणोत्पाद्य धत्ते ग्रासीकरोति च ॥ ३/११३/२७ ॥
स्वामी वेंकटेशानंद के अनुवाद के अनुसार –
“The psychological tendency (or mental disposition or mental conditioning) is unreal, yet it does arise in the mind: hence it can be compared to the vision of two moons in a person suffering from diplopia. Hence this tendency should be renounced as if it were sheer delusion. The product of ignorance is real only to the ignorant person; to the wise, it is just a verbal expression. Do not remain ignorant, but strive to be wise, by renouncing mental conditioning as you would abandon the idea that there is a second moon.”
स्थिति प्रकरण के एकादश एवं द्वादश उपसर्गों में भी स्पष्टत: कहा गया है कि निश्चित रूप से मस्तिष्क में मतिभ्रमों, भ्रांतियों तथा अविवेकी विचार के विभाग हैं (delusion or hallucination, dreaming and irrational thought) जो उसी प्रकार भ्रम की स्थिति कर देते हैं जैसे आकाश में कल्पित हुआ पुष्प। आधुनिक मनोविज्ञान में वर्णित के भ्रांतियों की भला इससे सटीक परिभाषा क्या होगी? आधुनिक मनोविज्ञान की प्रत्येक भ्रांति इस परिभाषा के अंतर्गत ही आती है। यही नहीं आधुनिक मनोविज्ञान में परिभाषा भी यही है – मनोवैज्ञानिक भ्रांतियाँ मिथ्या विरोधाभासी विश्वास हैं। साइकोलोज़ी टुडे के अनुसार –
Delusions are fixed and false personal beliefs that are resistant to change in the light of conflicting evidence. Delusions are the extreme case of irrational beliefs. People holding delusional beliefs are blind to counter-evidence because they do not want to change their beliefs. लीसा बोर्टोलाटी की वर्ष २०१० में प्रकाशित पुस्तक Delusions and Other Irrational Beliefs के अनुसार भ्रांतियाँ और अतार्किक विश्वास, दोनों एक साथ मस्तिष्क में उपस्थित होते हैं। अनेक अध्ययनों में अभी भी प्रसिद्ध सिद्धांत डैनियल कहनेमैन और एमोस टवेरस्की का ही है जिसके अनुसार मस्तिष्क में दो प्रणालियाँ होती हैं जिनका विस्तृत अवलोकन हम अन्य लेखांशों में कर चुके हैं।
जहाँ मानव व्यवहार में भ्रांतियाँ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, वहीं मनोचिकित्सा में भ्रांतियाँ यदि अधिक हो जाएँ तो वे मनोरोग का रूप ले लेती हैं, जिसके उपचार के लिए मनोवैज्ञानिक उपचार की प्रमुख विधियाँ हैं – मनश्चिकित्सा (psychotherapy) तथा संज्ञानात्मक व्यावहारिक उपचार (cognitive behavioral therapy – CBT) https://en.wikipedia.org/wiki/Mindfulness-based_cognitive_therapy । विगत वर्षों में स्मृति ध्यान (Mindfulness) आधारित उपचार पद्धति इस प्रकार के उपचार में मुख्यधारा में सम्मिलित हो गयी है तथा तीव्रता से लोकप्रिय भी हुई है। स्मृति ध्यान आधारित उपचार पद्धति (Mindfulness-based cognitive therapy) अर्थात व्याधि की सटीक समझ के साथ पुनः वही उपचार भी जो सनातन दर्शन में वर्षों से उपलब्ध है अर्थात सैद्धांतिक समानता ही नहीं अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान के हल भी वही हैं जो सनातन दर्शन के ग्रंथों में हैं! ध्यान-योग आधारित पद्धति (Mindfulness) भला और कहाँ की उपज हैं!