पुराणों को पढ़ें तो दिक्काल एवं जैविक सम्बन्धों के जो आयाम दिखते हैं, वे या तो चमत्कृत करते हैं या विरक्त करते हैं। हजारो वर्ष लम्बी तपस्यायें, अरबों खरबों वर्षों तक पसरी अद्भुत घटनायें, जाने कितने आयामों में विचरते ऋषि, देवता, मनुष्यादि, पशु समान अवतारों के पराक्रम जो संसार को, ब्रह्माण्ड को उठा कर इधर उधर कर सकते हैं आदि आदि। ऐसी पुराण कथायें एक उन्नत समाज ही लिख सकता है, जिसके पास अन्न, वस्त्र, घर की चिन्तायें हों तो किन्तु गौण हो चुकी हों। चिन्तन मनन हेतु पर्याप्त समय हो, परिवेश में सुख, शान्ति एवं स्थायित्त्व हो। ऐसे में विगत उपद्रवों, संकटों, विभीषिकाओं पर विचार करते हुये वह अनेक प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ता है, रचता है; गीतों में, आख्यानों में, कथाओं में ढालता है।
भारत में यह काम बहुत ही संगठित एवं सुव्यवस्थित ढंग से किया जाता रहा। कभी नैमिषारण्य में, कभी कुरुक्षेत्र में तो कभी पुष्कर में वर्षों लम्बे चलने वाले सत्र आयोजित होते जिनमें सहस्रों विद्वान भाग लेते। दक्षिण के सङ्गम सम्मेलन हों, बौद्ध संगीतियाँ हों, जैनों के आयोजन हों; उद्योग का सम सातत्य स्पष्ट है। इनका व्यय कौन वहन करता था? समाज ही करता था। उसके पास अपनी आवश्यकताओं से अतिरिक्त होता, तब ही तो कर सकता था? शासक को कर भी तो समाज से ही आता है न ! सनातन की यह लड़ी क्यों टूट गयी? आक्रान्ताओं से जूझता हुआ, उनके अत्याचार पचाता एवं अपने को बचाता हुआ समाज दीर्घकालिक निद्रा में सो गया। नये भारत में भी स्थिति वही बनी रही क्यों कि तन्त्र तो वही रहा। आज भी यदि मन्दिरों को होने वाली सकल आय का राज्य को समर्पण हटा दें एवं वहाँ सनातन सु-तन्त्र स्थापित कर दें तो जाने कितने चमत्कारिक परिवर्तन हो जायें! अस्तु।
चमत्कृत होने एवं विरक्ति से परे हो कर देखें तो पायेंगे कि पुरातन मेधा ने जिनका वर्णन अन्तर्यात्रा कर के किया, नयी सभ्यता बाहर की यात्रा कर के कर रही है। नाग, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, देव, दानव इत्यादि के साथ मनुष्यों के विविध सम्पर्कों एवं संसर्गों के प्रकरण पुराणों में वर्णित हैं जो काल के साथ घिसते घिसते, काव्य की कसौटी चढ़ते चढ़ते अपना बाहरी भौतिक रूप प्राय: खो चुके हैं। विचित्र कथायें उनके विचित्र वर्णन करती हैं। उदाहरण देखना चाहें तो कृष्ण यमपुरी की यात्रा करते हैं, अर्जुन अपने अभियान में उत्तरकुरु को पार कर सुदूर उत्तर तक पहुँच जाते हैं, नारद की दिक्काल यात्रायें तो हैं ही। इन सबके साथ काव्यात्मक एवं नाट्य अतिशयोक्तियाँ जुड़ी हुई हैं किन्तु मात्र इस कारण से उन्हें असत्य कह देना ठीक नहीं। दूसरा पक्ष देखें तो हमारे पुरखे ऐसे थे, वैसे थे, बखान करते हुये निठल्ले पड़े रहने से कुछ नहीं होना जाना, विश्वसनीयता समाप्त तो होती ही है। ऐसे लोग न तो अपना सम्मान बनाये रख सकते हैं, न पूर्वजों का। इतना ही नहीं, भावी पीढ़ी को भी प्रेरित नहीं कर पाते। परिणामत: उसका अपनी जड़ से कटाव एवं उससे घृणा भाव बढ़ता ही जाता है। भावी पीढ़ी जो शिक्षा विद्यालयों में पा रही है, उसका विनाशक प्रभाव कई गुणा होता जाता है। अनावश्यक गर्व को त्याग आवश्यकता इस बात की है कि उन कथाओं के भौतिक सूत्र उद्घाटित किये जायें। न केवल उद्घाटित किये जायें अपितु उनसे प्रेरणा ले उनकी भाँति ही उद्योगी बना जाय। अपने उद्योगी स्वभाव के कारण पश्चिम वाले समर्थ होते चले गये हैं एवं समर्थ के वश तो सब होता ही है। आप ने पढ़ा ही होगा – समरथ को नहिं दोस गुँसाई।
आधुनिक काल में शोध तंत्र बहिर्गामी है – साक्ष्य आधारित, विश्लेषण आधारित, भौतिक उपादानों को महत्व देता हुआ। अंतर्दृष्टि मुख्य भूमिका में नहीं है, वह इस प्रक्रिया में ही विकसित होती चली जाती है। बढ़ी हुई चेतना के साथ मेधा को संयुक्त कर बिना किसी बाह्य यात्रा के अनुमान एवं प्रमाण प्रस्तुत कर देना उसका क्षेत्र नहीं है। बहुत करेगा तो अपने शोध का बहिर्वेशन करते हुये अत्यन्त सावधानी के साथ कुछ अनुमान प्रस्तुत कर देगा जोकि परीक्षा हेतु विद्वत्समाज को उपलब्ध रहेंगे। उसका ढंग परिकल्पना-सिद्धान्त-नियम वाला है। ऐसे में जब हम पुरातन मान्यताओं से मिलते जुलते आधुनिक निष्कर्ष पाते हैं तो बल्लियों उछलने लगते हैं कि हमारे ऋषि, मुनि, योद्धा आदि ऐसे थे, वैसे थे! प्रश्न यह है कि उससे क्या होना? आप रह गये विकासशील ही न, विकसित की श्रेणी में तो आये नहीं !
गत 2015-16 के पूर्ववर्ती दशक में 102 विकासशील देशों में सकल निर्धनता प्रतिशत सूची में भारत ने अपनी स्थिति को सुधार कर 54 से 26 पर ला दिया। सुधार में सबसे अधिक योगदान दक्षिणी राज्यों का रहा। बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश-राजस्थान एवं उड़ीसा निर्धनता सूची में सबसे ऊपर हैं, उड़ीसा को हटा कर देखें तो मध्यप्रदेश सहित समस्त हिन्दी क्षेत्र निर्धनता में अग्रणी है। हिन्दी क्षेत्र राष्ट्रीय स्तर पर प्रगति को नीचे ले आता है। ऐसा क्यों है? आप का सोचना न कोई सुनता है, न कोई जानता है। सत्यनिष्ठ हो कर विचार करें, सरकारों को दी जाने वाली गालियों को किनारे कर सोचें तो पायेंगे कि निर्धनता का कारण उद्यमिता एवं सकारात्मक सोच का अभाव ही है जो जीवन के हर क्षेत्र में परिलक्षित होता है। युवजन आत्ममन्थन करें, केवल प्राचीनकाल के श्रेष्ठता गायन एवं व्यर्थ के अहंंकार से कुछ नहीं होना जाना ! धन का सृजन करते नहीं, लूट झपट में सबसे आगे! दयनीय मानसिकता है।
साइबेरिया की अल्ताई पर्वतशृंखला की एक गुहा में 41000 वर्ष पूर्व मृत एक बालिका की एक अस्थि पाई गई। परीक्षणों से पता चला कि यह मानव की एक विलुप्त प्रजाति थी। गुहा के नाम पर ही उस प्रजाति का नाम डेनिसोवन रख दिया गया। कुछ दिनों पहले विस्तृत गुण सूत्र अध्ययनों के आधार पर यह स्थापित हो गया कि आधुनिक मानव के विकास में निअण्डरथल मानवों के साथ साथ इस प्रजाति के साथ भी संसर्ग का योगदान है। दो भिन्न धाराओं में इस प्रजाति ने आधुनिक मानव के पूर्वजों से यौन सम्बन्ध स्थापित किये। तिब्बतियों में जो अल्प प्राणवायु में भी ऊँचाई पर सामान्य जीवन जी लेने का गुण पाया जाता है, वह डेनिसोवन प्रजाति का ही दिया हुआ है। अब महाभारत में कुन्ती द्वारा पाँच देवताओं से संयोग कर पाँच अद्भुत गुण सम्पन्न पुत्रों के जन्म देने पर विचार करें या विवाह पूर्व सूर्य से संयोग पर भी। मानवीय धरातल पर रहते हुये विचार करेंगे तो पायेंगे कि सम्भव है कि उस काल में विविध प्रजातियाँ एक दूसरे के सम्पर्क में थीं, समागम भले न होता हो। सम्भव है कि दुर्वासा द्वारा कुन्ती को दी गई विद्या इष्ट गुण वाले पुरुष के अभिज्ञान से सम्बन्धित रही हो जिसका उपयोग कुन्ती ने गुणवान पुत्रों को उत्पन्न करने में किया। ऐसे अन्य विचित्र उदाहरण भी मिलते हैं। विस्मित होने या गर्व करने से इतर हो सोचें कि हम तो अलङ्कारिक भाषा में मानव विकास से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सोपानों को सुरक्षित कर ढोते रह गये जब कि विकसित देश उन पर काम कर कितने आगे बढ़ गये ! ऋषि परम्परा का निर्वाह वे कर रहे हैं या हम?
आधुनिक तंत्र कभी अफ्रीका से मानव का उद्भव बता कर उसकी यात्रा दर्शाता है, किन्तु उसके उलट प्रमाण मिलते ही वाद विवाद की दिशा उलट जाती है – अपने अपने पूर्वाग्रह एवं मान्यतायें। किन्तु देखने वाली बात यह है कि इन सबके होते हुये भी मनुष्य आगे बढ़ रहा है, बहुत दिनों तक प्रगति का नेतृत्त्व पश्चिम ने किया, अब पुरातन एशियाई जगत भी आगे निकलने को अँगड़ाइयाँ लेने लगा है। प्रश्न यह है कि हम उनमें कौन हैं, कहाँ हैं, क्या कुछ अनूठा कर रहे हैं? जब मैं अनूठा कह रहा हूँ तो किसी बड़े प्रकल्प की बात नहीं कर रहा। मैं एक व्यक्ति के रूप में, परिवार के रूप में, संस्था के रूप में नवोन्मेष की बात कर रहा हूँ, साथ ही उस अनुशासन की भी जो कि न्यूनतम आवश्यकता है। देश बड़े तभी होते हैं जब उनके नागरिक बड़े होते हैं। विकसित देशों के नागरिकों को देखें तो आप को ऐसे अनेक व्यावहारिक आचरण मिलेंगे जो विकासशील देश के नागरिकों में नहीं मिलेंगे। यह अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, नागरिक देश को उठाते हैं, देश नागरिकों को।
‘सम्बन्ध’ शब्द की गढ़न पर ध्यान दें – सम् बन्ध। विभिन्न देशों के पासपोर्टों का सम्मान स्तर भी इसी कारण एक समान नहीं होता। सम्मान एक दिन में नहीं आ जाता, उसे पाने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं। सम्मान दें तथा सम्मान पायें। नागरिक एक दूसरे का सम्मान करें, यह पहला सोपान है। एक दूसरे का सम्मान अर्थात सार्वजनिक सुविधाओं एवं सम्पत्ति का सम्मान जिसकी हमारे देश में भारी कमी है। सम्मान भाव से ही आप पूर्वाग्रहों से निरपेक्ष हो जो वरेण्य है, जो अग्रगामी है, जो श्रेष्ठ है; उसे आगे बढ़ने बढ़ाने में सहयोग करते हैं। योग्य जन आगे बढ़ेंगे तो समाज आगे बढ़ेगा, समाज से देश आगे बढ़ेगा। यह एक सु-तन्त्र की स्थापना की पहली आवश्यकता है। विकसित देशों में व्यक्ति नहीं, सु-तन्त्र काम करता है। व्यक्ति केन्द्रित रह कर कोई भी समाज, कोई देश विकसित नहीं हो सकता, हाँ इसके संघटक व्यक्ति विकसित हों, अधिकतम होते जायें तो अनुनादी लहर के साथ आज के युग में कुछ दशक मात्र में ही विकसित हो सकता है। सिंगापुर उदाहरण है।
आप को अपना स्व स्वयं गढ़ना होता है, पुरखों का प्रताप, उनके शुभकर्म आप को दृढ़ आधार देते हैं किन्तु कर्म तो आप को ही करना होगा। ध्यान रखें कि रामराज्य के नेपथ्य में भी एक समर्पित राजा द्वारा गढ़ा गया एवं सुस्थापित तन्त्र ही था, दशरथ-राज्य तो मानक नहीं हुआ न, न कुश-लव राज्य। कवि द्वारा नीचे की पंक्तियाँ लिखी जा सकें इस हेतु जाने कितने जन को राममय हो तपना पड़ा होगा :
न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम्
न व्याधिजं भयं वापि रामे राज्यं प्रशासति
निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थः कंचिदस्पृशत्
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते
सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोऽभवत्
राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन्परस्परम्
आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः
निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति
नित्यपुष्पा नित्यफलास्तरवः स्कन्धविस्तृताः
कालवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्ठाः स्वैरेव कर्मभिः
आसन्प्रजा धर्मपरा रामे शासति नानृताः
सर्वे लक्षणसंपन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः
तप से छुटकारा नहीं, मिथ्या एवं आलसी गर्वभाव से छ्टकारा हुये बिना तप नहीं। तप नहीं तो कुछ भी नहीं ! बिना उद्योगी हुये केवल पूर्वजों का गौरव गान कर न कोई जाति आगे बढ़ी है, न बढ़ेगी। भारतीयता को शिखर तक पहुँचाना है तो जन जन को वैसा होना होगा।
अति-महत्वपूर्ण विषय। स्थिति बदलनी है तो घर-मंदिर-शाला, व्यक्तिगत-सामाजिक, हर स्तर पर निरंतर प्रयास आवश्यक हैं।