मनोविज्ञान के अध्ययन एवं शोध में अहम (ego) का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यदि आपका किसी आत्म-केन्द्रित (self-centered) तथा स्वयं में ही आसक्त (self-obsessed) व्यक्ति से परिचय रहा है तो इसे समझना अत्यंत सरल है । पश्चिमी साहित्य में आत्म (self) और अहम् (ego) को बहुधा एक दुसरे के अर्थ के रूप में समझ लिया जाता है । इन शब्दों को भी एक दूसरे के लिए प्रयुक्त कर लिया जाना सामान्य है यद्यपि सन्दर्भ के अनुसार इन दोनों का अर्थ पूर्णतया भिन्न होता है । पश्चिमी मनोविज्ञान में भी self का अर्थ बहुधा फ्रायड के अहम् (ego) से ही समझा जाता है, इसका आत्म-स्वरुप के अर्थ में वर्णन अल्प ही है ।
वर्ष २०११ में Review of general psychology में छपे शोधपत्र Self-Centeredness and Selflessness: A Theory of Self-based Psychological Functioning and Its Consequences for Happiness में माइकल डैमबर्न और मैथ्यू रिका ने इस बात की परिकल्पना रखी कि मानवीय मनोवैज्ञानिक तंत्र व्यक्ति के आत्म-स्वरुप पर निर्भर करता है तथा आत्म-केन्द्रित व्यक्तित्व के स्थान पर नि:स्वार्थता से दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति की जा सकती है । अपने इस शोधपत्र में वह आत्म के दो मनोवैज्ञानिक स्वरूपों की चर्चा करते हैं – निःस्वार्थ (selfless) और आत्मकेन्द्रित (self-centered) । इस शोध में आत्म के स्वरुप के परिमाण के रूप में स्थायी और क्षणिक सुख (authentic vs fluctuating) की संरचना The Self-centeredness/Selflessness Happiness Model (SSHM) का प्रारूप प्रस्तुत किया गया । एक अन्य शोध Self-centeredness and Selflessness: happiness correlates and mediating psychological processes में माइकल डैमबर्न ने इन परिकल्पनाओं की प्रयोग से पुष्टि भी की । बौद्ध दर्शन से प्रभावित यह मनोवैज्ञानिक शोध सनातन बोध की सुन्दर प्रस्तुति प्रतीत होता है । इसमें आत्म-स्वरुप के आसक्त होने या नि:स्वार्थ होने के जिन कारकों का वर्णन है वे संस्कारों का वर्गीकरण ही प्रतीत होते हैं, यथा – सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, माता पिता की शिक्षा, आध्यात्म, धर्म, ध्यान, अनुभव इत्यादि । सुख के पश्चिमी मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में बौद्ध दर्शन का वर्णन तो अपरिहार्य ही प्रतीत होता है परन्तु सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य का संज्ञान नहीं होने के कारण अर्थों को उनके संकीर्ण रूप में व्याख्या करना भी सामान्य है । जैसे आत्म स्वरुप को आत्म केन्द्रित समझ लेना । लोकप्रिय पश्चिमी योग शिक्षकों द्वारा आत्म बोध का अर्थ व्यक्ति का आत्म केन्द्रित और स्वार्थी होना तक निकाल लिया जाता है । बुद्ध के आत्मबोध को उनके आष्टाङ्गिक मार्ग को समझे बिना मात्र ध्यान की पद्धति समझ लेना भी सामान्य है । योग और विपासना से कोई आत्मकेंद्रित हो सकता है, यह समझ से परे की बात है !
मनोवैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि आत्म आसक्त (self-obsessed) या आत्म केन्द्रित (self-centered) व्यक्तित्व के व्यक्ति सम्बन्धों में विफल होने के अतिरिक्त अनेक प्रकार की मानसिक व्याधियों से भी ग्रसित हो जाते है । वर्ष २०१७ में Personality and Social Psychology Bulletin में छपे शोध में शिकागो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एकाकीपन और आत्म-आसक्त व्यक्तित्त्व में सम्बन्ध सिद्ध किया – जो व्यक्ति आत्म-आसक्त होता है उसके सामाजिक रूप से अकेला अनुभव करने की भी संभावना अधिक होती है ।
यही नहीं एकाकीपन और आत्म आसक्त होना एक दुसरे के पूरक भी हैं और ये दोनों व्यक्ति के लिए एक दुर्भाग्यरूपी चक्र बन जाते हैं । विकासवादी मनोवैज्ञानिक अकेलेपन और आत्म आसक्त व्यवहार के आपसी संबध की जड़ विकासवाद में देखते हैं – व्यक्ति को अकेलेपन की अनुभूति होती है तब वो आत्म-केन्द्रित होने लगता है क्योंकि पुरातन समय में (जब मनुष्य शिकारी एवं संग्रहकर्ता के रूप में जीवनयापन करता था) इससे व्यक्ति को किसी अनिष्ट से होने वाली क्षति से बचने में सहायता मिलती थी । परन्तु आधुनिक युग में यह एक विनाशक चक्र बन जाता है जिसमें एकाकीपन व्यक्ति को अत्यधिक आत्म-केन्द्रित बनाता है जिससे वह और अकेला और क्रमशः आत्म केन्द्रित होता जाता है । इस साधारण सी लगने वाली बात से अनेक प्रकार की मानसिक व्याधियाँ जुडी हैं – बहुधा मृत्यु भी ।
इस चक्र को तोड़ने के लिए शोधकर्ताओं का सुझाव था, आत्म-केन्द्रता एवं आत्म आसक्ति को समझना एवं उससे बाहर निकलना जो बहुधा सरल नहीं होता । आधुनिक सञ्चार क्रांति युग में जब आत्मविमोहता, आत्मकामिकता (narcissism) और एकाकीपन, तीनों की वृद्धि हो रही है तो ये अध्ययन और महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं ।
आत्म-आसक्त व्यक्ति अर्थात जो अपने आपको प्राथमिकता देते हैं, जिन्हें सदा दूसरों का ध्यान चाहिए होता है एवं जो दूसरों के दृष्टिकोण और भावनाओं को न तो समझने का प्रयास ही करते हैं अपितु उन्हें समझने में कठिनाई भी होती है । ऐसे व्यक्ति को अपनी त्रुटियाँ कभी दिखाई भी नहीं देती । न्यू साइण्टिस्ट पत्रिका में छपे शोध आधारित आलेख ‘Self-Centered Cultures Narrow Your Viewpoint’ के अनुसार जिन संस्कृतियों में व्यक्तिवाद पर बल दिया जाता हैं, जैसे अमेरिका, वहाँ के व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण को समझने में कठिनाई होती हैं पर उन संस्कृतियों में जहाँ परस्परनिर्भरता के मूल्य पर बल दिया जाता है, वहाँ के लोग अपने आपको अन्य व्यक्तियों की परिस्थिति में रख कर सोच पाते हैं तथा अधिक सहानुभूति रखने वाले होते हैं ।
इस अध्ययन में यह भी अवलोकन करने योग्य है कि किस प्रकार मूल्यों में परिवर्तन से व्यक्तित्व में भी परिवर्तन होता है । आत्म-आसक्त व्यक्ति को समझना इतना सरल भी नहीं होता । जब तक उस व्यक्ति के साथ हमारी कुछ दिनों की मित्रता या साथ न हो, हमें व्यक्तित्व के इस पक्ष का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन होता है । स्वाभाविक है कि ऐसे व्यक्ति के अच्छे सम्बन्ध टूटते जाते हैं, मित्र छूटते जाते हैं और वे स्वयं एकाकी होते जाते हैं । मनोवैज्ञानिक इसे अनेक मानसिक व्याधियों से जोड़ते हैं जिनमें प्रमुख हैं – व्यग्रता (anxiety) एवं अवसाद (depression) तथा इन सबका केंद्र –आत्म आसक्ति जिसकी जड़ – अहम (ego) – अर्थात मैं की भावना !- मेरी समस्यायें, मेरा जीवन, मेरे विकल्प, मेरी स्वतन्त्रता – अन्य किसी भी व्यक्ति के बारे में सोचे बिना – अहम् के प्रति सम्मोहन । ‘अहम’ की यही योजना ही होती है कि उसका पोषण होता रहे – आत्म-आसक्ति – सम्मोहन –अहंकार से मोहित अन्तःकरण – पुनः पढ़ने में ये उपदेश सदृश बातें लगती हैं परन्तु ये मनोविज्ञान के शोध साहित्य से ली गयी हैं न कि किसी सनातन ग्रन्थ से ! जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
पश्चिमी मनोविज्ञान हल के रूप में मनश्चिकित्सा के साथ साथ बौद्ध एवं सनातन दर्शन की भी बात करता है । वही दर्शन जो हमने पिछली कई लेखांशों में देखा, सहज परन्तु अत्यंत कठिन भी । मोहपाश का सञ्ज्ञान । मायाजाल के परे आत्म को समझना । आत्म आसक्ति के स्थान पर चेतन एवं आत्म के सार्वभौमिक होने की अनुभूति ! दार्शनिक एलन वाट्स ने बौद्ध दर्शन को मनश्चिकित्सा से स्पष्टतः जोड़ते हुए लिखा – If we look deeply into such ways of life as Buddhism, we do not find either philosophy or religion as these are understood in the West. We find something more nearly resembling psychotherapy । The main resemblance between these Eastern ways of life and Western psychotherapy is in the concern of both with bringing about changes of consciousness, changes in our ways of feeling our own existence and our relation to human society and the natural world.
सनातन दर्शन में आत्म-स्वरुप के बोध का तो अर्थ ही है शाश्वत आत्म का ज्ञान – the real self beyond ego or false self.
किं बहुना ? सनातन दर्शन का तो निचोड़ ही है – स्वयं के बारे में नहीं सोचते हुए कण कण में ईश्वर की अनुभूति करना, स्थिर एवं जागृत होकर लोभ, लालच, ईर्ष्या का त्याग कर संसार की अनित्यता को स्वीकार करना । आत्म के सच्चे स्वरुप को समझना तो सनातन बोध का मूल ही है । त्याग एवं भोग के आंतरिक लय का सूत्र – ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:‘ हो या ‘इदं न मम‘ का शाश्वत दर्शन ! इस दर्शन को जीने वाले में कैसी आत्म आसक्ति!
गीता की चेतावनी – जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है – ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ एवं आत्म ज्ञान से अहंकार को नष्ट कर देने का ज्ञान –
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥
अनेकानेक ग्रंथों में बारम्बार इस दर्शन की चर्चा है !
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