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सनातन दर्शन में स्वयं की प्रशंसा को विद्या का शत्रु कहा गया है – अशुश्रूषा त्वरा श्र्लाधा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः। महाभारत के उद्योग पर्व के इस श्लोक में भी मिथ्या आत्म प्रशंसा को पुरुषार्थ का विरोधी कहा गया है –
असमागम्य भीष्मेण संयुगे किं विकत्थसे।
आरुरुक्षुर्यथा पङ्गुः पर्वतं गन्धमादनम् ॥
एवं कत्थसि कौन्तेय अकत्थन्पुरुषो भव।
अर्थात भीष्म से मुठभेड़ किये बिना तुम क्यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो? जैसे शक्तिहीन एवं मन्दबुद्धि पुरुष गन्धमादन पर्वत पर चढ़ने की इच्छा करता हो, उसी प्रकार तुम भी अपनी झूठी प्रशंसा करते हो। मिथ्या आत्मप्रशंसा न कर पुरुष बनो। स्वयं की झूठी प्रशंसा के संदर्भ में उद्योग पर्व के ही एक अन्य श्लोक का भी अवलोकन करें –
यदीदं कत्थनात्सिध्येत्कर्म लोके धनञ्जय।
सर्वे भवेयुः सिद्धार्था बहु कत्थेत दुर्गतः॥
अर्थात हे अर्जुन! यदि संसार में अपनी झूठी प्रशंसा करके ही अभीष्ट कार्य हो जाते तब तो सभी लोग सिद्धकाम ही हो जाते क्योंकि बातें बनाने में भला कौन दरिद्र और दुर्बल होगा?
सनातन दर्शन में आत्मश्लाघा, आत्मप्रेम, आत्मप्रवञ्चना इत्यादि को स्पष्ट रूप से मिथ्याभिमान तथा अविद्या कहा गया है। वहीं स्वाभिमान की भूरि भूरि प्रशंसा भी की गयी है तथा उसे सद्गुण कहा गया है। अर्थात दोनों का विभाजन स्पष्ट है।
आधुनिक मनोविज्ञान में भी आत्म सम्मान (self-esteem) व्यक्तित्व का एक मुख्य अङ्ग है। आत्म सम्मान अर्थात अपनी दृष्टि में स्वयं का मूल्य – मनोवैज्ञानिक इसकी परिभाषा इस प्रकार से निर्धारित करते हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में हम अपना मूल्याङ्कन किस प्रकार से करते हैं। आत्म सम्मान का व्यक्ति के सफल जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पश्चिमी देशों में आत्म सम्मान (self-esteem) पर अनेक अध्ययन हुए हैं। इनमें जो रोचक बात दिखती है, वह है इसकी महत्ता का मिथ्यानुमान!
इसे कितनी महत्ता दी गयी, उसका एक उदाहरण ही पर्याप्त है – १९८० के दशक में पश्चिमी मनोवैज्ञानिक तथा नीति निर्माता व्यक्तियों में निम्न आत्म सम्मान को लेकर इस प्रकार चिंतित थे कि उन्हें लगता था कि व्यक्तियों में अधिक आत्म सम्मान होने से समाज में उत्पादन में वृद्धि तथा सामाजिक दुर्गुणों यथा असफलता, अपराध इत्यादि में स्वतः घटोत्तरी होने लगेगी। इस अवधारणा की पूर्ति के लिए विद्यालयों तथा संस्थानों में व्यक्तियों को उच्च आत्म सम्मान की अनुभूति कराने के लिए अत्यंत प्रयास किए जाते थे। इन कार्यक्रमों का लक्ष्य था – व्यक्तियों द्वारा स्वयं की अति प्रशंसा करवाना, कौशल एवं कार्य निष्पादन की क्षमता का विचार किए बिना!
ऐसा माना जाता था कि यदि व्यक्ति को उत्साहित किया जाता रहे तो उसमें कुशलता विकसित हो जाएगी। “मैं” लिख कर उसके बाद रिक्त स्थान में व्यक्ति को अपनी प्रशंसा से भरे शब्द लिखने को प्रेरित किया जाता था यथा – “सुंदर हूँ”, “मेधावी हूँ” इत्यादि। असफल व्यक्तियों को असफलता के कारणों की अनदेखी कर स्वयं के गुणों तथा क्षमता की ओर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया जाता। अर्थात असफलता के कारणों के अन्वेषण को ऋणात्मक माना जाने लगा तथा आत्मश्लाघा को सकारात्मक।
यह परम्परा अभी भी जीवित है – यदि विद्यार्थी असफल हो तो भी उसकी प्रशंसा करते रहना पश्चिमी समाज में सामान्य है। वर्ष १९८६ में कैलिफ़ोर्निया प्रांत ने नागरिकों में आत्म सम्मान विकसित करने के लिए ऐसी योजनाओं पर दो लाख पैंतालिस हजार डॉलर का प्रावधान किया था। इस व्यय के पीछे यह आशा थी कि इस प्रकार व्यक्तियों की मिथ्या प्रशंसा की जाए और उनसे स्वयं भी करायी जाय तो इससे समाज में अपराध में कमी आएगी, अधिक से अधिक व्यक्ति मुख्य धारा के कार्यों में संलग्न होंगे जिससे समाज कल्याण के लिए किए जा रहे व्यय में न्यूनता आएगी, व्यसन तथा असफलता इत्यादि में भी घटोत्तरी होगी।
परंतु हर कठिनाई का रामबाण समाधान प्रतीत होते इस हल की अवधारणाओं पर मनोवैज्ञानिकों ने ही प्रश्न उठाने आरम्भ कर दिए। क्या सच में मिथ्या स्वाभिमान लाभदायक है? इस प्रश्न का उत्तर सारे शोधों में वही निकला – यदीदं कत्थनात्सिध्येत्कर्म लोके धनञ्जय। सर्वे भवेयुः सिद्धार्था बहु कत्थेत दुर्गतः॥
पश्चिमी सभ्यता तथा मनोविज्ञान की एक प्रमुख मान्यता है कि स्वयं के बारे में अच्छी अनुभूति के लिए अति आत्म सम्मान अनिवार्य रूप से आवश्यक है परंतु पिछले कुछ वर्ष में हुए शोधों का अवलोकन करें तो सारे तथ्य इसके विपरीत मिलते हैं।
वर्ष २००५ में प्रसिद्ध समाजिक मनोवैज्ञानिक रोय बोमिस्टर ने वर्ष १९७० से २००० तक इस विषय पर किए गए सारे मनोवैज्ञानिक अध्ययनों की जाँच कर यह निष्कर्ष प्रकाशित किया कि अत्यधिक आत्म सम्मान से कार्य सम्पादन की कुशलता में कमी आती है। ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तिगत सम्बंधों में भी अधिक कठिनाई होती है क्योंकि वह दूसरे व्यक्ति को ही एक समस्या के रूप में देखते हैं जिससे स्वाभाविक है सम्बंधों में कठिनाई आएगी। अति आत्म समान किशोरों को अल्प सङ्कोची बनाता है जिससे उनके आपत्तिपूर्ण व्यवहार में संलग्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
यही नहीं, अति आत्म सम्मान की प्रवृत्ति से व्यक्ति के आक्रामक तथा हिंसक व्यवहार में भी वृद्धि होती है। शोध में यह भी पाया गया कि अति आत्म सम्मान और सुख में सम्बंध होता तो है परंतु इससे सुख नहीं होता इसके विपरीत सुखी व्यक्ति में स्वतः ही आत्म सम्मान होता है। कार्य-कारण सम्बंध को पुराने अध्ययनों में विपरीत रूप से समझा गया था। वर्ष २००८ में जॉर्जिया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक माइकल केरनिस ने इसी प्रकार के एक अध्ययन में यह स्थापित किया कि आत्म सम्मान की पश्चिमी लोकप्रिय मान्यता सत्य नहीं है। अनेक शोधों ने इस मान्यता को चुनौती दी है कि आत्म प्रशंसा के मात्र लाभ ही हैं। शोधों में यह भी पाया गया कि अनेक सकारात्मक तथ्यों का श्रेय आत्म प्रशंसा को मिथ्या रूप से दे दिया जाता था।
अन्य मनोवैज्ञानिकों ने इसे आत्म मुग्धता (narcissism) से भी जुड़ा पाया जो स्वाभाविक ही प्रतीत होता है। वर्ष २०१३ में साइंटिफ़िक अमेरिकन में प्रकाशित एक आलेख में मनोवैज्ञानिक जेनिफ़र क्रोकर तथा जेसिका कारनेवेल ने इसे अहंकार जाल (ego trap) की सञ्ज्ञा दी। जिसमें उन्होंने इसे इस प्रकार से व्यक्त किया – High self-esteem has a few modest benefits, but it can produce problems and is mostly irrelevant for success. The pursuit of self-esteem through a focus on greatness makes us emotionally vulnerable to life’s disappointments and can even lower our chances of success.
इसका हल?
वही शाश्वत सनातन सत्य- Compassion, along with a less self-centered perspective, can motivate us to achieve while helping us weather bad news, learn from our own mistakes and fortify our friendships.