पिछली कड़ी से आगे
जिस Endowment effect आसक्ति सिद्धांत की चर्चा से हमने पिछले लेखांश का अंत किया था उस सिद्धांत को इसका नाम देने तथा उस पर शोध करने वाले प्रोफ़ेसर रिचर्ड थेलर को अर्थशास्त्र में इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। प्रोफ़ेसर थेलर को नोबेल पुरस्कार अर्थशास्त्र में व्यावहारिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों को समाहित करने के लिए दिया गया है। प्रोफ़ेसर डैनियल कहनेमैन जिनकी चर्चा हमने पिछली कई लेखांशो में की, के कई शोधों में प्रोफ़ेसर थेलर सहयोगी रहे हैं। थेलर ने आधुनिक मनोविज्ञान और व्यावहारिक अर्थशास्त्र के उन्हीं सिद्धांतों (एक झलक) पर कार्य किया है जिनकी चर्चा हम पिछले लेखांशों में करते आ रहे हैं – संज्ञानात्मक पक्षपात (cognitive biases), हानि प्रतिकूल (loss aversion, prospect theory) इत्यादि।
Endowment effect अर्थात उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति जो हमारी होती हैं। इनसे हमारी आसक्ति इतनी अधिक होती कि बदले में उनके लिये हम प्राय: घाटा भी उठा लेते हैं। उदाहरण के लिये देखें तो हम अपने कॉफ़ी मग को, जिसे हम कुछ समय से प्रयोग कर रहे होते हैं, उसकी लागत से अधिक मूल्य पर भी बेचने को नहीं सोचते, भले ही उसे बेचकर उन पैसों में हमें उससे अच्छा कॉफ़ी मग मिल सकता हो। जहाँ पारंपरिक अर्थशास्त्र पूरी तरह से इस बात पर आधारित होता था कि हमारे सारे आर्थिक निर्णय लाभ-हानि पर निर्भर और तार्किक होते हैं अर्थात कॉफ़ी मग बेचने का निर्णय केवल इस बात पर निर्भर होना चाहिये कि हमें लाभ होगा या नहीं; व्यावहारिक मनोविज्ञान से प्रभावित इन नए सिद्धांतों ने अर्थशास्त्र को एक नयी दिशा दी और आसक्ति प्रभाव को भी निर्णय का एक कारक बनाया ।
इन सिद्धांतों की कड़ी में एक और सटीक उदाहरण है प्रवृत्ति प्रभाव (disposition effect) का जिसके अनुसार हम प्राय: अधिक दिन रखने से इतर उन शेयरों को शीघ्र बेच देते हैं जिनमें हमें लाभ हो रहा होता है। ऐसा करने से हमें प्रतीत होता है कि हम बुद्धिमान निवेशक हैं। हम घाटे में जा रहे शेयरों को नहीं बेचते क्योंकि उससे हमें पराजय की अनुभूति होती है। इस तरह हम तार्किक होने के स्थान पर उन भावनाओं में फँसे रहते हैं जिनकी हमें जानकारी भी नहीं होती। इन सिद्धांतों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि तार्किक होने से इतर मानवीय सोच प्राय: इतनी संकीर्ण होती है कि कहनेमैन उसे ‘आशाहीन मरीचिका’ (hopeless mirage) कहते हैं – आत्म-नियंत्रण की कमी और संसार को सच्चे रूप देख पाने में अक्षम, ठीक माया, अनेकांतवाद, सांख्य के उन कई सिद्धांतों की भाँति जिनमें हमने समांतर बातें देखी। हमने इन सिद्धातों की झलक सनातन दर्शन में होने के कई उदाहरण भी देखे।
आसक्ति प्रभाव (Endowment effect), प्रवृत्ति प्रभाव (disposition effect) और हानि प्रतिकूल (loss aversion) की ही भाँति इसी श्रेणी का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है – विफल निवेश भ्रांति (sunk cost fallacy)। विफल निवेश भ्रांति अर्थात पूर्व में किये गए निवेश से आसक्ति। विफल हो रहे या हो चुके निवेश (समय, धन, प्रयास इत्यादि) को ना छोड़ पाना और इस भ्रांति में पड़े रहना कि वह कभी ना कभी सफल होगा। वे निवेश जो पुनः प्राप्ति योग्य नहीं रहे उनसे छुटकारा नहीं हो पाता। वह घाटा हमारे मस्तिष्क में चलता रहता है और हम अनजाने में उस में और निवेश करते जाते हैं – भोजपुरी की कहावत – गोईंठा में घीउ सोखावल (कण्डे मेंं घी सुखाना) की भाँति।
प्राय: किसी नयी योजना (project) या नये उत्पाद के प्रयोग के असफल हो जाने के बाद भी नेतृत्व उस पर निवेश करता जाता है या उस उत्पाद के स्थान पर नये उत्पाद आ जाने के बाद भी पुराने से निर्माताओं का मोह जुड़ा रह जाता है। इसके उदाहरण कहीं भी मिल जायेंंगे, व्यक्तिगत निर्णयों से लेकर नोकिया जैसी कंपनी जो मात्र पाँच वर्ष की अवधि में, 2007 के फ़ोर्चुन उत्कृष्ट नेतृत्व की 10 शीर्ष कम्पनियों की सूची से 2012 के वाल स्ट्रीट जर्नल की शीर्ष 10 उन कम्पनियों की सूची में आ गयी जो विलुप्त हो जायेंगी। अतीत के सदोष निवेश हमारे भविष्य में लेने वाले निर्णयों को प्रभावित करते रहते हैं – अतीत से आसक्ति एवं विफल निवेश कई बार स्पष्ट रूप से दिखते नहीं हैं क्योंकि हर निवेश को समय, धन या प्रयास के रूप में नहीं देखा जा सकता – जैसे सम्बंध, भावनायें। जो छूट गया वह अप्राप्य है, यह बात हमारे मस्तिष्क के लिए समझनी सरल नहीं होती। यदि हमने भोजन ख़रीद लिया तो ‘पैसा वसूल’ करने के लिए बहुत अधिक खा लेते हैं।
थेलर अपने मानसिक लेखा (mental account) के नाम से प्रसिद्ध शोध में इस बात के लिये उदाहरण देते हैं कि यदि हमने किसी कार्यक्रम को देखने के लियेे टिकट ख़रीद रखा हो और कार्यक्रम वाले दिन चक्रवात आ जाये तो हम प्राय: उसका सामना करते हुये भी कार्यक्रम को देखने चले जाते हैं। हमें यह भ्रांति होती है कि हम अपने प्रारम्भिक निवेश का मूल्य दोहन कर रहे हैं। परन्तु हम इस उद्योग में होने वाली असुविधा, समय और धन हानि का लेखा जोखा नहीं करते। इसी लेखा जोखा को उन्होंने मानसिक लेखा (mental accounting) कहा।
विफल निवेश भ्रांति से युद्ध हो जाते हैं, हम वस्तुओं को उनके मूल्य से अधिक धन देकर ख़रीदते हैं, आर्थिक और राजनीतिक नीतियाँ बिना परिवर्तन के वैसे ही चलती रहती हैं। हम अपने घर में अनुपयोगी वस्तुयें जमा करते चले जाते हैं। हम अपने मस्तिष्क से उन लोगों को निकाल नहीं पाते जो एक ‘सदोष निवेश’ मात्र थे! इसे कांकॉर्ड भ्रांति भी कहते हैं।
ब्रिटेन और फ़्रान्स की सरकारों ने कांकॉर्ड व्यवसायिक सूपर सोनिक विमान के विकास की परियोजना के सफल नहीं होने की बात जाने लेने के पश्चात भी उस पर ख़र्च करना जारी रखा। इतना समय, धन और प्रयास निवेश कर देने के पश्चात परियोजना से जुड़े हर व्यक्ति और नेतृत्व को विफल निवेश भ्रांति होनी ही थी। वयस्क मनुष्य के अतिरिक्त अन्य पशुओं और छोटे बच्चों में यह भ्रांति देखने को नहीं मिलती। वयस्क होने के साथ मनुष्य के भीतर गहन चिंतन, प्रतिबद्धता, भावनायें, खेद, अपराधबोध एवं पश्चाताप जैसी बातें गुण होने के साथ साथ जटिलतायें भी लाती हैं। आजकल इस सिद्धांत का उपयोग अर्थशास्त्र के साथ साथ प्रबंधन और निर्णय में किया जाता है।
ये सिद्धांत अर्थशास्त्र की दृष्टि से नये हो सकते हैं पर हमने इन्हें कितनी ही बार सुना है! पश्चिमी दर्शन में ये बातें भले नयी हों पर सनातन दर्शन में इस आसक्ति से निवारण की बात बार बार की गयी है, शब्दश: भी।
महाभारत के इन श्लोकों में विफल निवेश भ्रांति के लिये एक उदाहरण मिलता है। महाभारत में विदुर कई श्लोकों में धृतराष्ट्र से ‘पंडित कौन है – स वै पंडित उच्यते‘ की बात करते हैं। इन श्लोकों में इन कई आधुनिक सिद्धांतों का ठीक इन्हीं शब्दों में वर्णन है। किसी काम को कैसे करना चाहिए। नेतृत्व किस तरह का होना चाहिये इत्यादि का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है। जैसे ‘नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्’ और ‘न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते’ पढ़ते हुए लगता है यही तो है विफल निवेश भ्रांति !
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्। आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः॥
निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥
न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते। गाङ्गो ह्रद ईवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते॥
अर्थात, ज्ञानी वे हैं जो दुर्लभ वस्तु को पाने की उत्कंठा नहीं रखते तथा नष्ट हो गयी वस्तु (a thing that has been lost beyond recovery) के विषय में शोक नहीं करते, विपत्ति आने पर घबराते नहीं अर्थात स्थिर और शांतचित्त रहते हैं। जो व्यक्ति किसी कार्य (परियोजना) को निश्चयपूर्वक आरंभ करता है, उसे बिना कारण नहीं रोकता (execution), समय को व्यर्थ नहीं करता तथा अपने मन को सभी मामलों में नियंत्रित रखता है; जो न तो (सफलता की) प्रशंसा और सम्मान से अहंकार करता है और न (विफलता के) अपमान से संतप्त होता है। इन दोनों से मुक्त जो गंगा के कुण्ड सदृश सदैव क्षोभरहित और शांत रहता है, वही ज्ञानी है।
(क्रमश:)