अपेक्षाओं, मान्यताओं एवं कामोत्तेजना का प्रभाव
सनातन बोध पिछले भाग से आगे
किसी वस्तु या व्यक्ति को लेकर हमारी अपेक्षायें (धारणायें) हमारे होने वाले अनुभवों को प्रभावित करती हैं, जैसे – एक नए व्यञ्जन का स्वाद किसी व्यक्ति को कैसा लगेगा? अपेक्षा के इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हम उस व्यक्ति को पहले ही बता दें कि नये व्यञ्जन का स्वाद किस प्रकार का होने वाला है (अच्छा या बुरा) तो उनका अनुभव भी लगभग उसी प्रकार का होता है या यदि हम उन्हें बता दें कि उसमें कोई ऐसी वस्तु पड़ी है जो उन्हें अच्छी नहीं लगती तो भी ऐसा ही होता है। चखने के पश्चात वह व्यञ्जन उन्हें अच्छा नहीं लगता क्योंकि हमारे कहे अनुसार उनके स्वाद की अपेक्षा का स्तर ही वही हो जाता है परन्तु पहले बताने के स्थान पर अनुभव कर लेने के पश्चात यदि हम ऐसी बातें बता भी दें तो इसका प्रभाव अनुभवों पर नहीं पड़ता अर्थात स्वतंत्र मन या अच्छी बातें सुनकर बनी धारणा के पश्चात हमें अच्छे अनुभव होते हैं। अपेक्षा के स्तर से हमारा संवेदी मस्तिष्क भ्रमित हो जाता है।
प्रो. डैन एरिएली और उनके अन्य सहयोगी प्रोफेसरों ने एमआईटी में संवेदी अनुभवों पर अपेक्षा के प्रभाव का अध्ययन करते हुए प्रयोग द्वारा इन बातों को स्थापित किया। अपेक्षाओं के प्रभाव का यह सिद्धान्त – ‘हम जैसा सोचते हैं वैसा ही हो जाते हैं’ वाली सनातन बात ही तो है। हमने अन्य लेखांशों में ऐसे सनातन सिद्धान्तों की चर्चा की है—
दीपो भक्ष्यते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षेयते नित्य जायते तादृशी प्रजा॥
सत्संग का महत्त्व हो या मधुर बोलने की बात, क्योंकि जब जो हम सुनते हैं या अपेक्षा करते हैं, उससे हमारे अनुभव और हमारी मन:स्थिति प्रभावित होनी है, तो भला क्यों न हम मधुर ही बोलें!—
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता॥
अथर्ववेद से यह देखें तो!
मधुमन्म निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः॥
अर्थात मेरा निकट आना मधुर हो, मेरा प्रत्यागमन होना भी मधुर हो। मेरी वाणी मधुर हो एवं मैं मधु सदृश हो जाऊँ!
संवेदी अनुभव ही नहीं, इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि अनजाने में ऐसी अपेक्षाओं से हम रुढ़िवादी (stereotype) भी होते जाते हैं एवं ज्यों ज्यों हम उन रुढ़िवादी बातों को सोचते हैं त्यों त्यों पुनः हमारा अनुभव भी उसी प्रकार का होता जाता है, दूसरों को लेकर ही नहीं स्वयम् अपने लिए भी। इसे समझने के लिये प्रो. शिन, पित्तिन्सकी तथा अम्बाडी का प्रायोगिक अध्ययन रुचिकर है। एक प्रयोग में उन्होंने एशियाई-अमरीकी महिलाओं को गणित के कुछ प्रश्न दिए। इसके लिए उन्होंने महिलाओं को दो समूहों में विभाजित किया एवं गणित के प्रश्नों को हल करने के पहले दोनों समूहों को अलग अलग कुछ प्रश्न दिए, पहले समूह को लिङ्ग (gender) सम्बन्धी एवं दूसरे को प्रजाति (race) से सम्बन्धित। जिस समूह से लिङ्ग से जुड़े प्रश्न किये गए उन्होंने उस समूह की तुलना में गणित के कम प्रश्न हल किये जिनसे प्रजाति से सम्बन्धित प्रश्न किये गए थे। इस प्रयोग का निष्कर्ष यह था कि घिसी पिटी मान्यताओं का भी हमारी अपेक्षाओं तथा धारणाओं पर उसी प्रकार प्रभाव होता है एवं हम स्वयं उससे प्रभावित हो जाते हैं। इस प्रकार हम जिस अवधारणा के बारे में सोचते हैं उसके लिए हमें प्रमाण भी दीखते जाते हैं, उदाहरणतया इस प्रयोग में इस बात से कि ‘महिलायें गणित में मन्द होती हैं एवं एशियाई व्यक्ति तेज!’, दोनों ही समूहों में एशियाई-अमरीकी स्त्रियों के होते हुए भी परिणाम भिन्न आये! इस पूरे शोध को लेकर प्रो. अरिएली अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि अपेक्षायें एवं उससे उपजी अवधारणायें हमारे संवेदी अनुभवों को इस प्रकार प्रभावित कर देती हैं कि हमें केवल अधूरा सत्य ही दिख पाता है— Expectations can influence nearly every aspect in one’s life.
इसी कड़ी में एक अन्य रोचक अध्ययन है जो सदियों से चले आ रहे प्रायोगिक औषधि (placebo) के प्रभावी होने की बात करता है। न केवल ये औषधियाँ प्रभावी होती हैं वरन इससे जुड़ी और भी अनेक रोचक बातें पता चली। प्रयोगों में पाया गया कि अधिक मूल्य देकर क्रीत औषधि अल्प मूल्य पर क्रीत उसी औषधि से अधिक प्रभावी होती है! साथ ही इन अध्ययनों में यह भी पाया गया कि औषधि एवं चिकित्सक की प्रस्तुति से भी प्रभाव पड़ता है। वही वस्तु यदि सजा कर बहुमूल्य दिखने वाली पेटी में रखकर प्रस्तुत की जाय या प्रायोगिक औषधि यदि सूट पहने हुए विशेषज्ञ सदृश दिखने वाले व्यक्ति से दिलाई जाए तो हमारी अपेक्षायें उसी के अनुरूप होती है एवं आश्चर्यजनक रूप से औषधि भी उसी प्रकार प्रभावी होती है। वैज्ञानिक रूप से अप्रभावी इन प्रायोगिक औषधियों की परम्परा का क्या किया जाय, इस पर अभी भी एकमत नहीं होने का यही कारण है।
पुनः इन सिद्धान्तों के सार सनातन बातों का सम्मिश्रण प्रतीत होती हैं— मधुर बोलने, यतः गतानुगतिको लोकः कुट्टनीम् उपदेशिनीम् । प्रमाणयति नो धर्मे यथा गोघ्नम् अपि द्विजम्॥ तथा विभेदकारी बुद्धि का प्रयोग! पहनावे पर ना जाने का बोध तो बारम्बार आया ही है— न मुक्ताभिर्न माणिक्यैः न वस्त्रैर्न परिच्छदैः। हो या मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर:?
आज की कड़ी में एक और सनातन बोध की चर्चा करते हैं जो संभवतः हर ग्रन्थ में ही वर्णित है। बहुधा हर पौराणिक कथा में भी इस बोध के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह सिद्धान्त है उत्तेजना का प्रभाव (The influence of Arousal)। प्रो. अरिएली एवं लोवेंसटीन को एमआईटी ने इस प्रयोग को करने की अनुमति नहीं दी थी तो उन्होंने इसे बर्कली विश्वविद्यालय में किया। उन्होंने इस प्रयोग में छात्रों से कई प्रश्न किये। उन्होंने छात्रों को पुनः वही प्रश्न देकर कहा कि वे स्वयं को कामोत्तेजित कर पुनः उन्हीं प्रश्नों के उत्तर दें। इस साधारण से प्रयोग के निष्कर्ष थे कि लोगों को पता नहीं होता कि कामोत्तेजना की अवस्था में उनके निर्णय लेने की क्षमता किस प्रकार परिवर्तित हो जाती है। वही व्यक्ति जब शांत अवस्था में हो एवं जब कामोत्तेजित अवस्था में, तो उसके सोचने की प्रवृत्ति पूर्णत: परिवर्तित हो जाती है। जर्नल ऑफ़ बिहेवियरल डिसीजन मेकिंग में वर्ष २००६ में छपे संवेदनशील प्रश्नों वाले इस शोधपत्र को आप यहाँ देख सकते हैं – The Heat of the Moment: The Effect of Sexual Arousal on Sexual Decision Making
इस अध्ययन में पूछे गए प्रश्नों और उनके उत्तर का सार यही तो है कि कामोत्तेजित अवस्था में मानव राक्षसी प्रवृति का हो जाता है। इस पूरे शोध को पढ़ें तो पता चलता है कि काम वासना में उलझे नारद के लिए तुलसीदास ने बुद्धि, बल, शील एवं सत्य रूपी मछलियों के लिए बंसी सटीक ही तो कहा। कामान्धता एवं काम वासना के इस प्रभाव के तो अनगिनत सन्दर्भ हैं— नाऽस्ति कामसमो व्याधिर्नाऽस्ति मोहसमो रिपु:। तथा विषयग्रस्त मनुष्य की यह अवस्था इस श्लोक में वही तो है जो उपर्युक्त प्रायोगिक अध्ययन में थी:
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
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