पिछले भाग से आगे
सञ्चार माध्यमों (सोशल मीडिया) के इस आधुनिक युग में मानव व्यवहार की कई बातें सहज ही दिख जाती हैं। विशाल आँकड़ों की उपलब्धता ने कई सिद्धांतों के अध्ययन का नया साधन प्रदान किया है। अंतर्जाल पर हम जो भी करते हैं वह किसी न किसी रूप में आँकड़े को जन्म देता है। जिन बातों या वस्तुओं के बारे में हम अंतर्जाल पर खोजते हैं, से लेकर किस तरह की बातें हम लिखते हैं और कैसी बातें हमें प्रिय लगती हैं – आँकड़ों के वैज्ञानिकों के लिए ये सब संपत्ति हैं। बिना किसी विश्लेषण के भी हम देख सकते हैं कि कैसे लोगों की रुचियों में एक विशेष अनुक्रम दिखता है।
यह बात अपना प्रचार करने वालों को पता होती है यथा उन्हें इस बात का अभिज्ञान होता है कि अतिसवेदंशील लोगों को किस प्रकार की बातें अच्छी लगेंगी। विषण्ण, अधूरे एवं खिन्न लोग बहुधा कुछ विशेष प्रकार के संदेशों को पसंद करते जाते हैं, वैसे सन्देश जो देखने में तो सकारात्मक प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तव में वे व्यक्ति के अधूरेपन का पोषण करने का कार्य करते हैं। ये बातें कुछ इस प्रकार लिखी गयी होती हैं कि लगभग सब को सत्य प्रतीत होती हैं परन्तु व्यक्ति व्यक्ति विशेष के अधूरेपन का शोषण और अहम् को बढ़ावा देने के कार्य करती हैं। ऐसे संदेशों के नीचे बहुधा किसी बड़े लेखक या किसी प्रसिद्ध पुस्तक का सन्दर्भ दिया रहता है। ऐसी बातें हमें सत्य भी प्रतीत होती है। अध्ययनों से पता चलता है कि एक विशेष प्रकार के व्यक्तियों को ये प्रेरणादायक प्रतीत होने वाले आभासी संदेश अधिक रुचते हैं। वाटरलू विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि कम बुद्धिमता के लोगों को अति गम्भीर प्रतीत होने वाले आभासी संदेश अधिक रुचते हैं, वे उन्हें अधिक साझा करते हैं। विभिन्न अध्ययनों में एक बात स्पष्ट है कि हम अपनी मनोदशा के अनुकूल विचारों और अहम् की पुष्टि करने वाले तथ्यों को ढूँढ़ते रहते हैं। स्वयं के विरोधाभासों और द्वंद्व के बीच जो बात हमारे अहम् को सत्य प्रतीत होती है उस बात के साथ विशेषज्ञता का आलम्बन दिखते ही हम उसे अनुमोदित कर देते हैं। इन स्थितियों में प्रेरणादायक प्रतीत होती ये बातें स्वयं के सीखने से अधिक दूसरों को दिखाने के लिए साझा की जाती हैं। प्रेरणादायक कथनों को साझा करने वाले व्यक्तियों का सूक्ष्म अवलोकन करने से पता चलता है कि बातें प्रेरणादायक होने से अधिक, साझा करने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क के बारे में बताती हैं।
जर्नल ऑफ़ जजमेंट एंड डिसीजन मेकिंग में छपे एक शोध के अनुसार भारी शब्दों में लिखे आभासी-प्रगाढ़ (pseudo profound) अर्थहीन संदेशों को लोग प्रसन्नता से साझा करते हैं। इस सन्दर्भ में – ‘शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे। साधवे न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने’ के साथ साथ इस सुभाषित का अवलोकन करें तो –
गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् विक्रियन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता:।
क्या यह बात इस आधुनिक सुचना क्रांति के युग में भी नीर क्षीर विवेकी होने का परामर्श नहीं देती?
अगले सिद्धांत की चर्चा से पहले मिथ्या आचरण पर गीता के एक सुन्दर श्लोक का अवलोकन करते हैं –
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
यहाँ कर्मेन्द्रियों के संयमित रहते हुए भी मन से चिंतन करते रहने को हानिकारक बताया गया है। बाह्य आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहने वाले को साधक नहीं वरन् विमूढ़ और मिथ्याचारी कहा गया है। इसके अवलोकन में हम पाते हैं कि मन का स्वभाव है – एक विचार को बारंबार दुहराना, जिससे मन में वह बात दृढ़ होती जाती है अर्थात वासना एवं आसक्ति की उत्पत्ति। तत्पश्चात हमारे मन में आने वाले विचारों का प्रवाह उसी पूर्व निर्मित दिशा में होने लगता है। भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के ‘ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते’ और विषयों के चिंतन की चर्चा हम पिछले लेखांशों में कर चुके हैं। स्वामी चिन्मयानंद इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “विचारों की दिशा निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है।”
यही उस सिद्धांत की सन्दर्भ परिभाषा है जिसकी चर्चा हम करने जा रहे हैं। मनोविज्ञान में जिसे ‘बेडर माइन्होफ़ प्रक्रिया’ (Baader-Meinhof Phenomenon) या ‘आवृत्ति भ्रान्ति’ (frequency illusion) कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार वे नयी बातें जिनके बारे में हम सोचते हैं या पढ़ते हैं वे सीखने के पश्चात हमें बारम्बार दिखाई पड़ने लगती हैं यथा हमने कोई नया शब्द सीखा तो अगले कुछ ही दिनों में वह शब्द हमें बार बार पढ़ने को मिलता है या शार्क पर बनी फिल्म देखने के कुछ दिन पश्चात तक शार्क शब्द बारम्बार दिखना (पढ़ने को मिलना)। ऐसा नहीं है कि वह वस्तु (जैसे नया शब्द) पहले नहीं थी परन्तु पहले हम कभी उस ओर ध्यान ही नहीं देते थे! स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफसर अर्नाल्ड ज्विकी इसे दुहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव मानते हैं। पहला, चयनित ध्यान (selective attention) जब हम किसी नयी बात पर अटक जाते हैं तब अवचेतन मन उस वस्तु को ढूँढ़ता रहता है। दूसरा, पुष्टिकरण पक्षपात (confirmation bias) जिससे हर बार उस वस्तु के दिखने पर इस भ्रम की पुष्टि होती है कि अत्यल्प काल में ही वह बात सर्वव्यापी हो गयी है।
हम जिस विषय के बारे में सोचते हैं वह हमें बारम्बार दिखने भी लगता है – जाकी रही भावना जैसी – यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी, तथा –
यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते । यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥
सोशल मीडिया के युग में इस प्रभाव के बारें में अधिक कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इस सूचना के प्रवाह में से हमें क्या नया देखना है और क्या साझा करना है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बहुधा हमें स्वयं नहीं पता होता कि हम इन बातों से कितने अधिक प्रभावित होते हैं।
इस भ्रान्ति का हम सदुपयोग भी कर सकते हैं – हमें क्या देखकर कैसी बातें सोचना है और कितने तनाव में जीना है इसके लिए उस तरह की नित नयी बातों को पढ़कर और साझा कर।
इसी कड़ी में एक और सिद्धांत चर्चा करने योग्य है वो है डनिंग-क्रूगर प्रभाव (Dunning-Kruger effect)। जिसके अनुसार मूर्ख चूँकि मूर्ख होते हैं इसलिए वे अपनी अक्षमता (मूर्खता) से भी अनभिज्ञ होते हैं – ‘यदा किंञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम् तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः’, की भाँति। और इसलिए बुद्धिमान जहाँ धीर गम्भीर रहते हैं एवं अपनी बुद्धिमत्ता को कम करके बताते हैं, मूर्ख अपने को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने का प्रयास करते हैं – ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ हो या ‘बलं मूर्खस्य मौनित्वं’ का उपदेश, वही बात देखने को मिलती है। डनिंग-क्रूगर प्रभाव अनुवाद सदृश ही तो है इस सुभाषित का, अर्थ भी –
सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दं अर्धो घटो घोषमुपैति नूनं ।
विद्वान् कुलीनो न करोति गर्वं मूधास्तु जल्पन्ति गुणैर्विहीनाः॥
डनिंग-क्रूगर प्रभाव के अनुसार विडम्बना यह है कि मूढ़ व्यक्तियों को लगता है कि वे बुद्धिमान हैं! समय के साथ सुधरते जा रहे हैं, सीखते जा रहे हैं, वे औसत से उच्चतर मनुष्य हैं, वे बहुत लोकप्रिय हैं इत्यादि। इस प्रकार मूढ़ मूढ़ ही बने रहते हैं। वे पुनः पुन; च्युत होते हैं क्योंकि उन्हें कभी पता ही नहीं चलता कि उनसे कभी कोई विपर्यय हुआ भी था! इसे गहरे जाकर समझने के लिए भर्तृहरि के मूर्ख प्रकरण से सुन्दर भला क्या हो सकता है !
प्रहस्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात् समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(मगर के टेंढ़े दाँतों में फँसी मणि निकालना सरल है, तरङ्गित समुद्र को पार करना सम्भव है, कोपमान सर्प को सिर पर पुष्प की भाँति धारण भी किया जा सकता है किन्तु मूर्ख जन को उनकी धारणाओं से बाहर लाना सम्भव नहीं है।)
इस प्रभाव की चर्चा में बहुधा सुकरात के कहे का उदाहरण दिया जाता है – the only true wisdom is to know that you know nothing. अब इस बात का अवलोकन करें तो!
यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं।
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥
(क्रमश:)