मृत्यु निश्चित है, यक्ष के ‘किं आश्चर्यं?’ की भाँति भले हमें उसका नित्य स्मरण न हो। आधुनिक चिकित्सा ने मृत्यु की अनिश्चितता में घटोत्तरी अवश्य की है अर्थात अकालमृत्यु की घटनाओं में ह्रास हुआ है। चिकित्सीय सुविधाओं एवं उनके प्रभाव में वृद्धि का परिणाम वृद्धों की संख्या में वृद्धि है। विश्व के प्रायः सभी देशों में वृद्धों की संख्या कुल जनसख्या के अनुपात में बढ़ी है जिससे वृद्धावस्था अनेक देशों में एक सामाजिक समस्या के रूप में भी उभरी है। एकल परिवार और वैश्वीकरण के साथ-साथ चिकित्सा में हुए आविष्कारों से दुर्बल परंतु दीर्घकाल तक जीवित रहने वाले वृद्धों की संख्या में बढ़ोत्तरी से यह समस्या और जटिल हुई है। gerontology जराविज्ञान अध्ययन एवं शोध का एक प्रमुख क्षेत्र बन चुका है। चिकित्सा के अतिरिक्त भी अनेक विषयों यथा मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, जीव विज्ञान इत्यादि में इसका अध्ययन विगत वर्षों में महत्त्वपूर्ण होता गया है।
इस विषय पर प्रसिद्ध अमेरिकी चिकित्सक अतुल गावण्डे की अत्यन्त लोकप्रिय पुस्तक Being Mortal: Medicine and what matters in the end ने विशेषज्ञों के परे सामान्य जनमानस का भी इस विषय की ओर ध्यान आकर्षित किया। इस पुस्तक की मुख्य बात थी कि जरावस्था और इससे जुड़ी कठिनाइयाँ अपरिहार्य हैं तथा मात्र चिकित्साशास्त्र इन कठिनाइयों का उत्तर देने में सक्षम नहीं है। चिकित्सा ने जीवन अवधि तो बढ़ा दी पर उसके साथ बढ़ी समस्याओं का उत्तर उसके पास नहीं । मृत्यु अब क्षणिक न होकर एक लम्बी प्रक्रिया का रूप लेती जा रही है। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक हो जाता है कि इस वास्तविकता से भयभीत होने के स्थान पर इसे अंगीकार किया जाय, सही अर्थों में। इससे अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपजते हैं यथा —
- जरावस्था में आत्म-सम्मान किस प्रकार महत्त्वपूर्ण है?
- वृद्धाश्रमों और सेवा केंद्रों को उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधा प्रदान करने के अतिरिक्त क्यों अधिक मानवीय होना चाहिए?
- मृत्यु की वास्तविकता को अंगीकार करने से किस प्रकार मृत्यु सरल हो जाती है?
ऐसे अनेक प्रश्नों पर यह पुस्तक अध्ययनों के संदर्भ में विचार करती है। जन साधारण के लिए स्वयं के या निकट सम्बन्धियों की जरावस्था के बारे में बात करना सरल नहीं है परंतु प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी रूप में इसका सामना करना ही पड़ता है।
जरावस्था अर्थात धीरे-धीरे शरीर के अंगों का शिथिल होते हुए क्षीण होना। इस अवस्था में व्यक्ति बिना सहायता स्वयं अपनी देखभाल करने में अक्षम होता जाता है। अधिक आयु से उपजी व्याधियों के साथ व्यक्ति की स्वतंत्रता में भी ह्रास होता जाता है तथा परिवार, चिकित्सा एवं समाज पर निर्भरता बढ़ती जाती है। चिकित्साशास्त्र भी इसमें कुछ अधिक सहायता नहीं कर पाता। परिवर्तित होते सामाजिक परिवेश से यह भी हुआ है कि धीरे धीरे जरावस्था में जीवनयापन तथा अनंतर मृत्य अपने घरों के स्थान पर सेवा केंद्रों तथा चिकित्सा केंद्रों में होने लगे हैं।
संयुक्त परिवारों में वृद्धावस्था में भी व्यक्ति अपने घरों में रहते थे तथा अपनी चुनी हुई जीवन शैली स्वतंत्र रूप से जी पाते थे। यह परम्परा धीरे धीरे अनेक देशों में लुप्तप्राय ही हो गयी है। अब इन देशों में चिकित्साविद और सहायताकर्मी वृद्धों की देखभाल करते हैं जो उचित चिकित्सा तथा सुरक्षा तो देते हैं पर यह नहीं समझ पाते की इस अवस्था में व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण क्या है। जैसे, वृद्धावस्था में भी व्यक्ति अपने जीवन से जुड़ी बातों पर स्वयं का नियंत्रण चाहते हैं अर्थात स्वतंत्रता उनकी प्राथमिकता होती है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को खाना बनाने में रुचि है तो वृद्धावस्था में कठिनाई होते हुए भी उसे त्यागने के स्थान पर सहायता के साथ उसे करना उन्हें अधिक भाता है। अर्थात उनका भोजन पका देने के स्थान पर सहायता करने वाले यदि पकाने में उनकी सहायता करें तो उन्हें अच्छा लगता है। स्वयं के घर से दूर होने पर व्यक्ति ऐसी स्वतंत्रता खो देते हैं।
स्टैंफ़र्ड विश्वविद्यालय की मनोवैज्ञानिक लॉरा कार्स्टेन के शोध के अनुसार मृत्यु समीप होने का आभास होने पर व्यक्ति नए अनुभवों की तुलना में पुराने अनुभवों और सुखों को अधिक जीना चाहते हैं। अध्ययन में जहाँ युवा और स्वस्थ व्यक्ति नए अनुभवों से अधिक सुख पाते पाए गए, वहीं वृद्ध तथा असाध्य व्याधियों से पीड़ित व्यक्ति छोटी तथा स्थापित बातों में अधिक सुख पाते हैं। जैसे, नये सम्बंध बनाने के स्थान पर अपने परिवार और पुराने मित्रों के साथ समय व्यतीत करना उनकी प्राथमिकता हो जाती है। चिकित्सा तथा सहायता केंद्र इन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते तथा सहायता प्रदान करते हुए वृद्धों से उनकी मानसिक स्वतंत्रता भी छीन लेते हैं। ऐसे केंद्रों में व्यक्तिगत गोपनीयता तो होती नहीं, एकांत पाना ही दुर्लभ हो जाता है। इन केंद्रों में दूसरे व्यक्ति वृद्धों के लिए निर्णय लेते हैं न कि उन्हें स्वयं निर्णय लेने में सहायता करते हैं। इस समस्या का सरल सनातन समाधान आज भी वही है — परिवार।
पर आधुनिक समय में यह साधारण हल ही कठिन प्रतीत हो रहा है। एक अन्य प्रश्न यह भी उठता है कि चिकित्सा यदि ऐसी है कि जिससे मात्र आयु बढ़ती है, भले ही शेष जीवन अत्यंत दयनीय हो तो ऐसे में अच्छी मृत्य क्या हो? किस प्रकार जरावस्था तथा मृत्यु में भी व्यक्ति मानसिक रूप से स्वतंत्र रहे तथा उसका जीवन भी अर्थपूर्ण प्रतीत हो? एक हल यह है कि चिकित्सक मात्र जीवनावधि लम्बी करने के स्थान पर विकल्पों पर परामर्श दें तथा व्यक्ति एवं परिवार के अन्य लोगों को इन कठिन अवस्थाओं का संज्ञान हो। वे इनका आकलन करें तथा विमर्श करें कि व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है – लम्बा जीवन या अर्थपूर्ण जीवन?
इस विषय पर एक रोचक अध्ययन डॉक्टर बिल टामस द्वारा किया गया एक प्रयोग है जिन्होंने एक वृद्ध सेवा केंद्र में पालतू कुत्ते, बिल्ली, तोते तथा हर घर में पौधे लगवाए, साथ ही उन्होंने वहाँ शिशुओं के कार्यक्रम भी रखवाए। इस छोटे से परिवर्तन के पश्चात स्मृति-दोष तथा अत्यन्त गम्भीर व्याधियों से पीड़ित वृद्धों के भी सुख तथा जीवन अवधि में अत्यधिक सुधार हुआ। इस प्रयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह था कि इस अवस्था में भी व्यक्तियों को जीने का लक्ष्य मिल सकता है — जीवन का अर्थ, सुख और संतोष। जीवन को जीवन का साथ चाहिए। इस प्रयोग में परिवार की महत्ता के साथ वानप्रस्थ के लाभ की सी भी अनुभूति होती है।
सनातन परंपरा में मृत्यु का अर्थ ही भिन्न है। मृत्यु भय न होकर एक मार्ग है। संन्यास आश्रम का उद्देश्य ही मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न है। संसार-चक्र एवं मोक्ष की परिकल्पना से परिचित व्यक्ति भय नहीं, परंतु महाप्रस्थान के लिए अपने को सन्नद्ध करते हैं। जहाँ डॉ अतुल गावण्डे की पुस्तक मृत्यु के चिकित्सीकरण और जरावस्था में व्यक्ति की स्वेच्छा की महत्ता को प्रस्तुत करती है वहीं सुशीला ब्लैकमेन की एक पुस्तक मृत्यु को चिकित्सा और भय के परे एक ऐसी दृष्टि से देखती है जो पूर्णतया भिन्न है। सुशीला ब्लैकमेन की पुस्तक Graceful Exits मृत्यु पर हिंदू, तिब्बत, बौद्ध परम्परा के अनेक गौरवपूर्ण उद्धरण प्रस्तुत करती है। १०८ दृष्टांतों से वे मृत्यु के सनातन अर्थ को प्रस्तुत करती हैं। इन दोनों पुस्तकों के समांतर अध्ययन से आधुनिक युग में किस प्रकार मृत्यु को अंगीकार किया जाय, यह अधिक स्पष्ट होता है। सनातन दृष्टि से देखती यह पुस्तक इस समस्या को प्रेरणादायक स्तर तक ले जाती है और मृत्यु का गौरवमय रूप प्रस्तुत करती है।
महान आत्माओं के दृष्टांतों के परे यह आधुनिक निष्कर्ष भी तो सनातन मूल्यों के ही अनुरूप है कि मृत्यु के समय व्यक्ति अपने घर तथा अपनों के समीप रहना चाहते हैं। आश्रम व्यवस्था के इस युग में सम्भव नहीं होते हुए भी आदिकाल से सनातन परम्परा में वृद्धों की सेवा नैतिक मूल्य एवं धर्म माना गया है। पारिवारिक परम्परा के आदर्शों से ग्रंथ भरे पड़े हैं, उनके दशांश भी यदि पालन में हों तो ये समस्याएँ भला कहाँ से उत्पन्न होगी? वृद्धों की बात सुननी चाहिए ऐसा तो शास्त्रों का कथन है ही – श्रोतव्यं खलु वृद्धानामिति शास्त्रनिदर्शनम् और यह तो प्रसिद्ध ही है —
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं ॥
जीवन के अंतिम वर्षों अर्थात संन्यास आश्रम के लिए ऋग्वेद के युग में भी परिकल्पना थी —
आ प॑वस्व दिशां पत आर्जी॒कात्सो॑म मीढ्वः । ऋ॒त॒वा॒केन॑ स॒त्येन॑ श्र॒द्धया॒ तप॑सा सु॒त इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
अर्थात् हे सोम्यगुणसम्पन्न ! सत्य से सबके अन्तःकरण को सींचने वाले, सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देकर पालन करने वाले, शम-दम आदि गुणयुक्त संन्यासिन्! तू यथार्थ बोलने, सत्यभाषण करने से, सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और प्राणायाम योगाभ्यास से, सरलता से, निष्पन्न होता हुआ, तू अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को पवित्र कर। परम-ऐश्वर्ययुक्त परमात्मा के लिए सब ओर से गमन कर।
संन्यास आश्रम का अर्थ भी तो त्याग और साधना तथा मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होना ही है —
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः । आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ॥
साधना में रत, आत्मनिष्ठ, अन्य कामनाओं से मुक्त, आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचार करे और सत्योपदेश करे।
हिंदू धर्म की समाधि हो, जैन धर्म की सल्लेखना हो या बुद्ध के जरा-मरण से उपजे ज्ञान के संदेश; सनातन परम्परा में मृत्यु का गौरवपूर्ण रूप तथा इन आधुनिक समस्याओं के हल सदा से रहे है। इनमें से कुछ व्यवस्थायें भले आधुनिक युग में सम्भव नहीं, पर उनके मूल दर्शन से सीख आधुनिक युग के अनेक प्रश्नो का सहज हल प्रस्तुत करती है।
और तब —
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥