‘भारतीय मुसलमान’, मेरे एक मित्र ने इसी नाम से पुस्तिकायें लिखी थीं। वह पत्रकार थे एवं उर्दू तथा दूसरी भाषाओं में मुस्लिम लेखकों-पत्रकारों ने जो कुछ लिखा था उसी के आधार पर उनकी मानसिकता को समझ कर उन्होंने अपनी पुस्तिकायें लिखीं। यह किसी को समझने का सबसे उथला ढंग है, विशेषतः भारत में जहाँ कि कुछ प्रश्नों पर निजी सोच और सार्वजनिक कथन में बहुत अंतर होता है। यह भी तो है कि किसी एक पक्ष के असंतोष या आरोप के आधार पर बनाई मति भरोसे की नहीं होती। यह मान लेना कि जिस समुदाय के हैं उसके बारे में तो जानते ही हैं, भ्रामक है। जो भी हो, उनका निष्कर्ष था मुस्लिम अच्छे होते हैं, बुराई हिन्दू समाज में है।
मेरे दो अन्य मित्र जो पुलिस विभाग में उच्चतम पदों पर रहे हैं, अपने अनुभव से उसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। वैसे तो समाज की मानसिकता को समझने के लिए पद की ऊँचाई का कोई महत्त्व नहीं या उल्टा संबंध है– एक आरक्षी कर्मचारी का लोगों के बीच अधिक घुलना मिलना होता है, अधिकारियों तक अल्प लोगों की पहुँच हो पाती है तथापि बड़े पदों पर बैठे लोगों को यह विश्वास होता है कि उनकी सोच बड़ी है, रपट एवं पुस्तक लिखने की योग्यता उनमें से ही कुछ के पास होती है। बड़ों की बात बड़ों ने कहानियों से लेकर मुहावरों तक मानी है, अतएव उनका निष्कर्ष सिर माथे।
एक अन्य मित्र रहे जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी को लेकर हुई खींचतान का विवेचन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि नागरी लिपि के पक्षधर भारतेन्दु एवं अन्य लोग साम्प्रदायिक थे तथा अरबी लिपि और फारसी अरबी बोझिल उर्दू (शरीफों की जबान) के प्रचलन के पक्षकार सर सैयद अहमद खान सेक्युलर थे। पत्रकारों-लेखकों में ऐसे लोगों की संख्या अत्यधिक है जिनकी राय इस से मिलती जुलती है अपितु उनके बीच आपके समझदार माने जाने का अनिवार्य निबन्धन यह है कि आप ऊपर के निष्कर्ष से सहमत हों। जिस मनुष्य की समझ में इतनी मोटी बात न आती हो कि ऐसा मानना संकीर्णता है, उससे प्रज्ञाहीन भला कौन हो सकता है? यदि वह ऐसा नहीं है, तो पतित है। ऐसे लोगों से संपर्क रखने, उनकी बातें सुनने, या संवाद करने तक में दोष है। बौद्धिक अस्पृश्यता का यह नया संस्करण भारतीय सेकुलरिज्म की देन है।
बौद्धिक जगत में स्वयं सिद्धि का रूप ले चुके इन विचारों से मेल खाती कोई सूचना है तो वह प्रामाणिक है, अनमेल है तो वह विद्वान, ज्ञान की वह शाखा, सूचना का वह माध्यम, वह अनुसंधान, वे प्रमाण सभी संदिग्ध हैं। उदाहरण के लिए पुरातत्व हिन्दुत्ववादी है, जनगणना के वे आँकड़े जिनसे यह सिद्ध होता है कि मुसलमानों की जन्म दर में होने वाली वृद्धि दूसरे समुदायों की तुलना में अधिक है, वे हिन्दू सम्प्रदायवादियों के दुष्प्रचार के अवयव हैं। हिन्दू सम्प्रदायवाद कितनी तेजी से बढ़ता हुआ संस्थाओं में भी प्रवेश करता जा रहा है इसका यह प्रमाण है। और कोई चारा न होने पर यदि मान ले कि यह सही है, तो भी इसे सही मानना हिन्दुत्ववादियों के हाथ में खेलने जैसा है, इसलिए जो अकाट्य है वह भी, सच होकर भी, मान्य नहीं है।
समर्पणवादी बौद्धिकता का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ढूँढ़े नहीं मिलेगा। इसके दबाव में शिक्षित और बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा भाग ऐसा है जो नाम से हिन्दू है परन्तु अपने को हिन्दू कहने में लज्जित अनुभव करता है। इसकी प्रतिक्रिया यह है कि हिन्दुत्व की रक्षा के लिए चिंतित नेता हिन्दुओं से अपने को गर्व से हिन्दू कहने को कहता है, एवं उपहास का पात्र बनता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर आज तक हमारी मुख्य समस्या शैक्षिक और आर्थिक विकास की न रह कर सामाजिक समायोजन की बनी रही है। आज इसकी अपरिहार्यता इतनी बढ़ गई है कि जब तक इसका समाधान नहीं हो जाता, दूसरी समस्यायें रुकी रहेंगी।
केवल भाव तीव्रता से बढ़ने पर महँगाई, अराजकता बढ़ने पर शांति एवं व्यवस्था, चुनाव आने पर जीविका को समस्या बनाया जाएगा। सत्तर वर्षों के इस पूरे अभियान में समस्या का समाधान निकालने के प्रयासों के साथ समस्या और विकृत होती चली गई है, अतः निकट भविष्य में दूसरी किसी समस्या पर ध्यान देने के स्थान पर इससे निपट कर ही आगे बढ़ा जा सकता है। समस्या इतनी गंभीर है कि छात्रों के लिए अध्ययन के स्थान पर राजनीति करना अधिक आवश्यक हो गया है। वैसे तो ऊँची शैक्षिक योग्यता के अभाव में राजनीति अधिक सफलता से की जा सकती है पर विवेकशील कहे जाने वाले अध्यापकों का भी मानना है कि छात्रों को कूप मंडूक बनाने से बचाने के लिए उनको राजनीति में झोंकना अधिक आवश्यक है।
स्तरीय शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति विदेशों से इसी काम के लिए भेजे जाने वाले और हमारी हर समस्या का अध्ययन करने वाले विद्वानों से हो जायेगी। इससे उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दबाव की माप तो नहीं की जा सकती परन्तु यह समझा जा सकता है की इस का प्रतिरोध करने की क्षमता बहुत कम लोगों में हो सकती है। विवेकशील व्यक्ति बहुत शीघ्र समझ जाता है कि इससे टकराने में बुद्धिमत्ता नहीं है, सहमत हो कर अपना भाग्य सँवारने में ही है।
ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवियों की जो भर्ती लगातार सेक्यूलर खेमे में होती रही है उसके लिए हम उनको दोष तो नहीं दे सकते, परन्तु इतने निर्बल मेरुदंड के लोगों को बुद्धिजीवी और समाज का मार्गदर्शक भी नहीं मान सकते। मनस्वी व्यक्ति सूचना के स्रोतों की उपेक्षा नहीं कर सकता। ऐसा करने पर वह बौद्धिक विकलांगता का शिकार हो जाएगा। समाज को नीरोग रखने की चिंता करने वाले किसी विषाणु की उपेक्षा करते हुए उसे फैलने का अवसर नहीं दे सकते। हमें गहराई में उतर कर इस बात की पड़ताल करनी होगी कि यह विचार किसी षड्यंत्र के तहत गढ़ा और बढ़ाया गया है या इसका वास्तविक आधार है? सबसे पहले हम उस निष्कर्ष को मानकर उसका परिणाम देखें।
समस्या निरन्तर उग्र होती गई है। यदि यह हिन्दू के कारण है तो इसका एक सरल उपाय यह है कि भारत को हिन्दू मुक्त किया जाए। परिणाम क्या होगा? हमारी दशा बांग्लादेश या पाकिस्तान जैसी हो जाएगी। परन्तु आरोप लगाने वाले कहते हैं भारत की दशा हिन्दुओं के कारण पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसी होती जा रही है। अर्थात् वे भी मानते हैं कि इन देशों की दशा भारत की तुलना में बहुत बुरी है और हमने पाया कि हिन्दू को हटाते ही या उसके अत्यल्प होते ही, एक दिन भारत की दशा उन देशों जैसी हो जाएगी जिस से देश को बचाने की चिंता उनको भी है। यदि भारत की दशा ऐसी नहीं है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि यहाँ हिन्दू बहुमत में है।
हमारे प्रयोग में यह सिद्ध होता है हमारे मित्रों का निष्कर्ष नितान्त काल्पनिक है। हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर गए बिना भी नहीं रह सकता कि इस श्रेणी में आने वाले वाचाल लोगों में अधिकांश लड्डूगोपाल हैं, अथवा लड्डू के लिए पंक्ति में खड़े रहे हैं। उन पर ‘अधिकस्य अधिकं फलं’ का नियम भी लागू पाया जाता है, जो उनके उत्साह को बनाये रखने एवं स्वर को बली रखने में सहायक रहा है। हमने अपने आकलन में उन्नीसवीं शताब्दी को भी रखा है अत: किसी को यह लाभ नहीं मिल सकता कि उनके ऐसे विचार भाजपा और उससे जुड़े संगठनों के कारण हैं।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारी समस्याएं लड्डूगोपालों के कारण हैं। उनके ही कारण मुस्लिम समाज में असंख्य विकृतियों के होते हुए भी यह मानसिकता घर कर हुई है कि वे विकृतियाँ नहीं, धर्माचार हैं और हिन्दू बुद्धिजीवी भी उन्हें विकृति नहीं मानते। वे स्वीकार करते हैं कि सारी विकृतियाँ हिन्दू समाज में हैं। भारत पर खड्ग से आक्रमण कर के मुसलमानों को उतनी बड़ी विजय कभी न मिली जितनी बड़ी विजय स्वतंत्र भारत में लड्डूगोपालों के कारण मिली है। भारतीय मुसलमान स्वयं मुसलमान बने रहते हुए हिन्दू प्रत्याशियों को ‘सेक्युलर’ होने का प्रमाणपत्र बाँटता या छीनता रहता है।
यह ‘भारतीय मुसलमान’ कहीं बाहर से नहीं आया था। इसे स्वतंत्र भारत के लड्डूगोपालों ने रचा है।