सुख का अर्थशास्त्र happiness economics : सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) की भाँति सकल राष्ट्रीय सुख (gross national happiness) के आधार पर नीति निर्माण के तर्क भी दिए जा रहे हैं। ये अध्ययन पारम्परिक अर्थशास्त्र के लिए चुनौती हैं क्योंकि इन अध्ययनों के निष्कर्ष पारम्परिक पश्चिमी अर्थशास्त्र के भौतिक सुख-साधनों के स्थान पर सनातन आध्यात्मिक बोध की ओर ले जाते हैं।
सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10, 11,12, 13, 14 , 15 , 16 , 17से आगे
अर्थशास्त्र को अभावग्रस्तता पर केंद्रित होने के कारण दारुण विज्ञान (dismal science) भी कहा जाता है पर पिछले कुछ वर्षों से अर्थशास्त्र में सुख (happiness) का अध्ययन प्रमुख रहा है। इस विस्तृत अध्ययन के कुछ अंशों की चर्चा हमने विभिन्न रूपों में पिछले लेखांशो में की है। उपयोगिता (utility) का अर्थ और उसका आकलन, सामाजिक कल्याण (welfare) तथा जीवन स्तर सदा से ही अर्थशास्त्र के विषय रहे है पर मनोवैज्ञानिक, व्यक्तित्व, सामाजिक और तंत्रिका (neuroscience) पहलुओं का अध्ययन नया है। इनमें व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और आनुवांशिक पहलुओं का गहन अध्ययन है। अर्थशास्त्र की इस नयी उभरी शाखा को सुख का अर्थशास्त्र (happiness economics) कहते हैं। पारंपरिक अर्थशास्त्र के धन-सम्पत्ति या लाभ के स्थान पर इसमें संतोष और सुख के महत्तमीकरण का अध्ययन किया जाता है। उत्पादन और आय को अधिकतम करने वाले कारकों के अध्ययन की ही भाँति इसमें जीवन पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव डालने वाले कारकों का मात्रात्मक एवं सैद्धांतिक अध्ययन होता है।
स्वाभाविक रूप से अर्थशास्त्र की शाखा कहे जाने पर भी ये अध्ययन पारम्परिक अर्थशास्त्र के लिए चुनौती हैं क्योंकि इन अध्ययनों के निष्कर्ष पारम्परिक पश्चिमी अर्थशास्त्र के भौतिक सुख-साधनों के स्थान पर सनातन आध्यात्मिक बोध की ओर ले जाते हैं। हाल के वर्षों में इन नए अध्ययनों की इतनी चर्चा रही है कि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) की भाँति सकल राष्ट्रीय सुख (gross national happiness) के आधार पर नीति निर्माण के तर्क भी दिए जा रहे हैं। आनंद, संतोष और सुख का मात्रात्मक (quantitative) अध्ययन सरल नहीं है परन्तु विभिन्न देशों के लोगों से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर और जीवन स्तर के आँकड़ों के आधार पर ऐसे अध्ययन किये जाते हैं।
पारंपरिक अर्थशास्त्र में सुख आय का फलन होता है। उपयोगिता फलन (utility function) के आधार पर जिसकी आय अधिक वह अधिक सुखी। बरनौली के दिए अपेक्षित (expected) सिद्धांत के आधार पर यदि दो लोगों की आय समान, कह लें कि एक लाख रुपये, है तो दोनों को समान रूप से सुखी माना जाता है। अन्य कारकों को ध्यान में न भी रखें तो भी यह समझने के लिए भला किसी सिद्धांत की क्या आवश्यकता है कि जिसकी आय पचास हज़ार रुपए से बढ़कर एक लाख हुई है तथा जिसकी दो लाख से कम होकर एक लाख हो गई है, दोनों समान रूप से सुखी नहीं हो सकते! परन्तु उपयोगिता फलन के अनुसार दोनों को समान रूप से सुखी माना जाता है।
हाल के वर्षों में आय के अतिरिक्त आजीविका, सम्बंध नाते, परिवार, स्वतंत्रता, धार्मिक मान्यताएँ जैसे कारकों के अध्ययन में बड़े रोचक परिणाम सामने आए हैं। सैकड़ों शोधपत्रों में कुछ बातें मुख्य हैं जिन्हें अर्थशास्त्र की इस नयी शाखा के सिद्धांत कह सकते हैं। लंदन स्कूल ऑफ़ एकनामिक्स के रिचर्ड लायर्ड इन नए अध्ययनों का सार तीन बिंदुओं में रखते हैं – सामाजिक तुलना, अनुकूलन एवं परिवर्तन। सुख, आय के स्तर के साथ साथ आय की सापेक्षता और सामाजिक तुलना पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिये एक गाँव में जहाँ सभी के पास साइकिल हो, वहाँ एक बाइक पर चलने वाला व्यक्ति शहर के कार वाले से अधिक सुखी होता है जहाँ सभी के पास उससे महँगी कारें हैं। अनुकूलन अर्थात आय की वृद्धि के साथ हर व्यक्ति की यह धारणा कि ‘पर्याप्त आय कितनी होती है’ परिवर्तित होती (बढ़ती) जाती है। और परिवर्तन का अर्थ यह कि हमारी प्राथमिकताएँ समय के साथ बदलती रहती हैं। आशा से अधिक आय की नौकरी लगने के कुछ महीने पश्चात ही जब पता चलता है कि उस कार्यालय में अन्य लोगों की आय कहीं और अधिक है तो क्षणिक सुख दुःख में बदल जाता है। इन तीनों बातों का पारम्परिक अर्थशास्त्र में कोई स्थान नहीं रहा है। सुख और संतोष आय से अधिक हमारी आय की अपेक्षा, आशा और वास्तविक आय के अंतर पर निर्भर करते हैं जो समय के साथ परिवर्तित होती जाती है और हम निरंतर उस अंतर के पीछे भागते रहते हैं। एक वैसे लक्ष्य का पीछा जो परिवर्तित होता रहता है – सनातन बोध की मृगतृष्णा। स्वाभाविक ही है कि रिचर्ड लायर्ड बुद्ध के दर्शनों के बारें में भी लिखते और प्रोत्साहित करते हैं।
2005 में छपी पुस्तक ‘Happiness – Lessons from a New Science’ में वह सात कारकों के बारे में बात करते हैं जिनका किसी भी व्यक्ति के आनंद पर महत्वपूर्ण प्रभाव पाया गया है – पारिवारिक सम्बंध, वित्त, आजीविका, समाज और मित्र, स्वास्थ्य, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन दर्शन या संस्कार। नए शोधों से यह बात निरंतर स्थापित हुई है कि आय के साथ सुख की वृद्धि के स्थान पर ह्रासमान प्रतिफल (diminishing marginal return) होता है अर्थात भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने भर से अधिक आय होने के पश्चात सुख में वृद्धि आय के स्थान पर अन्य कारकों से होने लगती है जिनमें महत्वपूर्ण हैं – अंतर्वैयक्तिक सम्बंध। 2010 में प्रिन्स्टन विश्विद्यालय में नोबेल पुरस्कार विजेता ऐंगस डीटन और डैन्यल काहनेमैन ने मात्रात्मक अध्ययन कर इसे एक अंक भी दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका में 75000 डॉलर से अधिक वार्षिक आय होने पर सुख के स्तर में कोई परिवर्तन नहीं पाया गया।
विभिन्न देशों के वर्षों के आँकड़ों के अध्ययन से यह पता चलता है कि जहाँ विपन्न देशों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ लोगों के सुख के स्तर में भी वृद्धि हुई वहीं समृद्ध देशों में प्रति व्यक्ति आय के साथ लोगों की औसत सुख में कोई वृद्धि नहीं हुई। 1974 में हुए इस अध्ययन को अर्थशास्त्र में ईस्टरलीन विरोधाभास (Easterlin’s paradox) कहते हैं। मनोवैज्ञानिक डीनर और राजनीतिविद इंग्लेहार्ट भी अपने अध्ययनों में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे। ईस्टरलीन के अध्ययन में यह बात भी सामने आयी कि धन के साथ सुख के स्तर में वृद्धि होती है। सुख में वित्त की प्राथमिकता तो निर्विवाद है परन्तु एक स्तर के पश्चात सुख से सम्बंधित कारकों के पारस्परिक सम्बंध गहन तथा जटिल हो जाते हैं। धनी देशों में जीवन स्तर निर्विवाद रूप से श्रेष्ठतर है। विरोधाभास इस स्थापित तथ्य के पश्चात आता है। इन निष्कर्षों में भला नया क्या है? इन नए निष्कर्षों के बौद्ध दर्शन की समरूपता में कई लेख छपे हैं। सनातन दर्शन में इसकी समरूपता देखें तो संदर्भ इतने हैं कि उनमें से चुनना कठिन है। संभवत: जनजीवन को समेटता ऐसा कोई ग्रंथ नहीं जिसमें ये बातें अक्षरश: नहीं कहीं गईं।
यहाँ तीन स्थापित निष्कर्ष सामने आते हैं – वित्त (धन) की महत्ता, एक स्तर के बाद मूल्यों की महत्ता तथा संतोष की महत्ता। अर्थशास्त्र के ये बहुचर्चित शोध ‘साईं इतना दीजिए’ और ‘जब मिलिहैं संतोष धन’ में ही सिमट गये लगते हैं। रिचर्ड लायर्ड की पुस्तक पढ़ते हुए लगता है कि गहन दर्शन भी नहीं हर आरती-दोहे और चालिसे में जो कामना की जाती है बस उन्हीं तक तो सुख के आधुनिक सिद्धांत पहुँच रहे हैं।
इस संदर्भ में सनातन दर्शन में वर्णित बातों का बड़ा सुंदर वर्गीकरण किया जा सकता है जो इन नए निष्कर्षों से कहीं आगे की बात करते हैं – वित्त की महिमा, धन की परिभाषा आय और मुद्रा से बढ़कर होना, संतोष की महत्ता, धन का उपयोग, धनार्जन के उपायों का वर्णन। यहाँ ध्यान देने की बात है कि विरक्ति की लोकप्रिय धारणा के विपरीत सनातन बोध में अर्थ और धनार्जन की महिमा का भी वर्णन है – ‘अर्थ’ पुरुषार्थों में एक है।
धन की महिमा वैसे तो महाभारत समेत कई ग्रंथों में है पर सबसे पहले भर्तृहरि की स्मृति हो आती है –
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति॥
पंचतंत्र में एक क्रम से धन की महिमा का सरल वर्णन है जो इसी बात की व्याख्या लगता है। धन के बिना कुछ सम्भव नहीं –
न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति। यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥
यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥
पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते। वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥
अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि। एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥
और धन में विवेक की बात हो तो उपनिषदों की गूढ़ता से निकला यह श्लोक मार्गदर्शन करता है –
ईशावास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
यहाँ भी विरक्ति और वैराग्य की मान्यता के विपरीत श्री अरविंद अपने अनुवाद में Enjoy with non-attachment की बात लिखते हैं – ‘All this is for habitation by the lord, whatsoever is individual universe of movement in the universal motion. By that renounced thou shouldst enjoy; lust not after any man´s possession.’
अनुकूल और परिवर्तन से निरंतर अपनी आशा बढ़ाते रहने और एक परिवर्तनशील लक्ष्य के पीछे पड़े रहने वाले हेडोनिक ट्रेडमिल पर महाभारत के आदि पर्व के इन श्लोकों से अच्छे से भला कौन कह सकता है –
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते॥
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत्॥
सामाजिक तुलना वाले सिद्धांत को असाध्य रोग कुछ यूँ कह दिया गया है –
य ईर्षुः परवित्तेषु रुपे वीर्ये कुलान्वये। सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः॥
ये भला नया सिद्धांत कैसे है? –
मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः।
सनातन ग्रंथों में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि वहाँ धन को बार बार मुद्रा से बृहत् बताया गया है। उपयोगिता फलन से विस्तृत्त सोच बहुत पहले से चली आ रही है –
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:। परलोके धनं धर्म: शीलंसर्वत्र वै धनम्॥
धनात् धर्म: – धन से धर्म और धर्म से सुख की बात होती है।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥
धन के गुणगान के साथ धनलोलुप की निंदा सनातन बोध को संतुलित अर्थशास्त्र ही तो बनाती है –
सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धाना-मितश्चेतश्च धावताम् ॥
धन का उपयोग कैसे करें धन का संचय एक स्तर से अधिक नहीं करें के अतिरिक्त सुख के लिए धनार्जन कैसे नहीं करना चाहिए इस पर भी अलग अलग ग्रंथों में विचार हैं। महभारत में स्पष्ट है कि किस प्रकार के धन से सुख नहीं मिल सकता –
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च । आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै ॥
और अंततः चाणक्य धन और सुख पर व्याख्या करते हुये सामाजिक तुलना के सिद्धांत के लिए ही तो कहते हैं – साधव: परसम्पत्तौ खल: परविपत्तिषु।
पुनश्च –
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरित केवला। या तु वेश्येव सामान्या पथिकैः आँप भुज्यते।
(क्रमश:)