हिंदी – संवैधानिक पृष्ठभूमि व स्थिति : यह लेख पञ्चमाक्षरों ङ्, ञ्, ण्, न्, म् हेतु मानक हिन्दी की व्यवस्था का अनुकरण करता है। संयुक्त व्यञ्जन के रूप में जहाँ पञ्चम वर्ण (पंचमाक्षर) के पश्चात सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता एवं मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि मध्यकालीन नागरी लिपि के अभिलेखों में भी यह प्रयोग मिलता है।
— सम्पादकीय टिप्पणी
यद्यपि भाषा का गतिशील होना आवश्यक है जिसके चलते सभी भाषाओं में समय समय पर परिस्थितियों के अनुकूल अन्य भाषाओ से प्रेरित शब्दावली से अलंकरण होता है, तथापि जब उसके मूल स्वरूप की शनैः शनैः विस्मृति व परिणामस्वरूप विध्वंस होने लगे, तो उस भाषा का अस्तित्व संकट में पड़ना स्वाभाविक है। कुछ ऐसा ही आज के ‘न्यू इंडिया’ के युग में हिंदी को लेकर प्रतीत होता है। निःसंदेह तुर्कियों-मुग़लों का हिंदी पर गहन प्रभाव पढ़ा। परिणामतः सामान्य जन में बोली जाने वाली हिंदी, जो कि देवभाषा संस्कृत एवं प्राकृतों से विकसित हुई, उर्दू-फ़ारसी व कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का कृत्रिम मिश्रण बन गयी, जिसे स्वतंत्रता संग्राम के काल में ‘हिन्दुस्तानी’ नाम दिया गया। गांधी व उनके कांग्रेस के गांधीवादी साथियों ने भी हिन्दू-मुसलमान एकता के नाम पर ऐसी मिश्रित हिंदी (हिंदुस्तानी) को बढ़ावा दिया जबकि कांग्रेस के ही पंडित मदनमोहन मालवीय व पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे दिग्गज नेता विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी के ही समर्थक थे।
संविधान सभा में हिंदी के उपबंध का आलेखन अत्यंत जटिल सिद्ध हुआ। इस प्रश्न पर सभा दो गुटों में विभाजित हुई – एक ओर मुख्यतः उत्तर व केंद्रीय भारत के विशुद्ध हिंदी समर्थक, (जिन्हें ग्रैंविल ऑस्टिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द इंडियन कॉन्स्टिटूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ़ अ नेशन’ में ‘हार्डकोर हिंदीवालाज़’ की उपाधि दी है) थे जो कि अंग्रेज़ी को शीघ्रातिशीघ्र विस्थापित कर हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के तथा सभी शासकीय कार्यों में हिंदी के प्रयोग करने के आकांक्षी थे; एवं दूसरी ओर नरमपंथी (मॉडरेट्स), जो कि हिंदी को, उसके उक्त ‘हिंदुस्तानी’ प्रपत्र में, शासकीय प्रयोग में धीरे-धीरे व सतर्कता से लाने के पक्ष में थे। अंततः दोनों दलों में सहमति हुई एवं ‘मुंशी-अय्यंगार’ सूत्र व ‘हिंदीवालों’ के पक्ष में कई अपवादों के अंतर्गत, हिंदी को हमारे संविधान में राष्ट्रभाषा तो नहीं, अपितु व्यंजना से ‘राजभाषा’ (Official Language) के रूप में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ (ध्यातव्य – आज भी संविधान में केवल हिंदी ही राजभाषा के रूप में एकल स्थापित है, अन्य भारतीय भाषाओं को अनुसूचित भाषाओं के रूप में समाहित किया है, अंग्रेज़ी राजभाषा अधिनियम, १९६३ द्वारा चलायमान है, संविधान द्वारा नहीं)।
संविधान के भाग १७, अध्याय १-अनुच्छेद ३४३ व ३४४, और अध्याय ४- अनुच्छेद ३५१, में हिंदी भाषा के मुख्य उपबंध हैं। अनुच्छेद ३४३(१) स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में हिंदी है। खंड (२) में यह अनुमति दी गई की शासकीय प्रयोजन हेतु १५ वर्ष की अवधि तक अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा परन्तु संसद को अंग्रेज़ी को उक्त १५ वर्ष की अवधि के पश्चात प्रयोग करने हेतु विधि उपबंधित करने का अधिकार उपलब्ध है।
अनुच्छेद ३४४(१) में उपबंध है कि राष्ट्रपति संविधान के प्रारम्भ के पाँच वर्ष की समाप्ति पर एवं तत्पश्चात हर दस वर्ष की समाप्ति पर एक आयोग का करेंगे। आयोग का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को संघ के शासकीय प्रयोजनों हेतु हिंदी भाषा का अधिकाधिक प्रयोग; संघ के या सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों हेतु अंग्रेज़ी के प्रयोग पर निर्बन्धनों; अनुच्छेद ३४८ में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों हेतु प्रयोग की जाने वाली भाषा; संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों किये जाने वाले अंकों के रूप; संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किये गए किसी अन्य विषय, के सन्दर्भ में अनुशंसा करे। खंड(४) में तीस सदस्यों की संसदीय समिति का प्रावधान है (२० लोक सभा से एवं १० राज्य सभा से) जो खंड(१) के अधीन गठित आयोग की अनुशंसाओं की परीक्षा करेगी और राष्ट्रपति को उनपर अपनी राय के सन्दर्भ में प्रतिवेदन देगी। तत्पश्चात् राष्ट्रपति उसपर आवश्यक निर्देश दे सकेंगे।
तदनुसार, प्रथम राजभाषा आयोग १९५५ में नियुक्त किया गया और आयोग ने अपना प्रतिवेदन १९५६ में प्रस्तुत किया। तदनंतर, अनुच्छेद ३४४(४) के अंतर्गत स्थापित संसदीय समिति ने उसपर अपना अभिमत राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया। राष्ट्रपति ने २७ अप्रैल, १९६० को आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि वैज्ञानिक, प्रशासनिक एवं विधिक साहित्य सम्बन्धी हिंदी शब्दावली तैयार करने हेतु तथा अंग्रेज़ी कृतियों का हिंदी में अनुवाद हेतु एक स्थायी आयोग का गठन किया जाए। इसके अतिरिक्त, व्यवस्था की गयी कि संसदीय विधान कार्य का अधिकृत हिंदी अनुवाद एवं संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में वैकल्पिक माध्यम के रूप में हिंदी का प्रचलन किया जाए। इस आदेश के अनुकूल गठित स्थायी आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार संसद द्वारा राजभाषा अधिनियम, १९६३, अधिनियमित किया गया।
जैसे जैसे संविधान द्वारा निर्धारित अंग्रेज़ी के १५ वर्ष के उपयोग की अवधि १९६५ की समाप्ति निकट आने लगी, मद्रास के द्रविड़ विचारधारी व केरल के कुछ अंशों द्वारा हिंदी विरोधी आंदोलन तूल पकड़ने लगा। अंतत: केंद्र की शास्त्रीजी की सरकार ने केवल दो राज्य के किञ्चित हिंदी विरोधियों के समक्ष घुटने टेके और राजभाषा अधिनियम,१९६३ की धारा ३ में संशोधन द्वारा हिंदी के साथ-साथ संघ के प्रयोजनों तथा संसद के कार्य निष्पादन हेतु अंग्रेज़ी के प्रयोग का प्रावधान उपलब्ध कराया, जिसके कारण सम्भवतः सदैव के लिये हिंदी को संपूर्ण भारत की सर्वसामन्वयिक भाषा बनने से बलात् अवरुद्ध कर दिया गया (ध्यातव्य – यह भ्रांति अत्यंत प्रचलित है कि समस्त दक्षिणी राज्य हिंदी विरोधी थे। १९६५ तक का हिंदी विरोधी आंदोलन केवल मद्रास व केरल के कुछ अंश तक सीमित था)।
संविधान निर्माताओं ने निर्णय लिया कि अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित विधायी व न्याय व्यवस्था ही चलायमान रखी जायेगी। अनुच्छेद १२० में और बातों के अतिरिक्त, संसद के कार्य हेतु हिंदी या अंग्रेज़ी को अधिकृत भाषा बताया गया है। समानुरूप, राज्य विधानमंडलों में, अनुच्छेद २१० के अनुसार, कार्य राज्य की राजभाषा में या हिंदी में या अंग्रेज़ी में किया जाता है। परन्तु यदि इन विधानमंडलों का कोई भी सदस्य उक्त भाषाओं में अभिव्यक्ति न कर सके, तो वह उस सदन के पीठासीन अधिकारी की अनुज्ञा से अपनी मातृभाषा में सम्बोधित कर सकता है। अनुच्छेद ३४८ में उपबंध है कि संसद द्वारा विधि लाने तक, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में सभी कार्यवाही अंग्रेज़ी भाषा में होगी; संघ तथा राज्य की विधायिकाओं में सभी विधेयक, संशोधन, अधिनियम, अध्यादेश, इत्यादि के प्राधिकृत पाठ केवल अंग्रेज़ी में होंगे, यद्यपि राज्यपालों को हिंदी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा एवं प्रयुक्त भाषा को उच्च न्यायालय की कार्यवाही या शासकीय प्रयोजनों हेतु प्रयोग करने का प्राधिकरण, राष्ट्रपति की पूर्व-सहमति के उपरांत, उपलब्ध है। केंद्रीय व राज्यीय अधिनियम, अध्यादेश, इत्यादि के प्राधिकृत हिंदी अनुवाद का प्रावधान राजभाषा अधिनियम, १९६३, की धारा ५ और ६ में दिया गया। अनुच्छेद ३५१ संघ को हिंदी भाषा के प्रसार, विकास व समूचे भारत के अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में बढ़ावा देने हेतु कर्तव्यबद्ध करता है और हिंदी के शब्द-भण्डार की समृद्धि हेतु संस्कृत भाषा को मुख्यतः व अन्य भाषाओं को गौणतः स्थान प्रदान करता है।
हिंदी को संविधान द्वारा राजभाषा पदवी देने के पश्चात भी, हमारे संविधान की वास्तविकता यही है कि वह अंग्रेज़ी में ही निर्मित, अंगीकृत व अधिनियमित हुआ; उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में सदैव अंग्रेज़ी में ही कामकाज होने के कारण हमारा संवैधानिक न्यायशास्त्र (Constitutional Jurisprudence) भी अंग्रेज़ी में है। हमारी राजभाषा की उपेक्षा की पराकाष्ठा इससे अधिक क्या होगी कि संविधान का हिंदी में प्राधिकृत पाठ (Authoritative Text) अधिनियमन के ३७ वर्षों के उपरांत {संविधान (अठावनवा संशोधन) अधिनियम, १९८७ जिससे अनुच्छेद ३९४A अंतःस्थापित किया गया, के अंतर्गत} ही प्रकाशित किया गया। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्राधिकृत अनुवाद भी नहीं छपते। आज, हमारे संविधान का हिंदी प्रपत्र में कोई अस्तित्व नहीं है और न ही दूर भविष्य में प्रतीत होता है। क्या हमारी राजभाषा की यह अपमानजनक संवैधानिक स्थिति स्वयं संविधान का ही घोर उल्लंघन नहीं?