Holi अश्लील होली उदकसेविका
किंशुक-पलास-ढाक-केशू चटख चूत1, मञ्जरी प्रफुल्ल संग अनंग जमी धूम है ।
फागुन अगन आँच साजन का प्रेम पूत, स्वेद बूँद बन बहे ज्यों बरस रहा सूम2 है ॥
बूर3 पुये बन रहे रंग हुआ आज लण्ड4, प्रियतम का अबीर नेह गण्ड5 रहा चूम है ।
सोम की भी पूछ नहीं भाँग राग रण्ड, जोबना का फाग रास होली की धूम है ॥
[1आम, 2आकाश, 3ऐसे , 4गोबर या पशु मल, 5गाल या कपोल]
आज संवत्सर की अंतिम पूर्णिमा है, फागुन की। वही फागुन जिसमें उद्दाम काम अभिव्यक्ति को छूट मिलती है, वाणी व स्पर्श की मर्यादाओं को टूटने दिया जाता है। पर और आत्म का भेद मिट जाता है। आगामी मधुमास के नवरस सृजन की भूमिका में अश्लीलता व उच्छृङ्खलता को भी छूट मिल जाती है। क्यों है ऐसा?
नर नारी के मिलन की जो मर्यादायें हैं, उनके कसाव की अति कहीं मति ही न फेर दे, इस हेतु वर्ष के एक मास या एक पाख या एक पञ्चक या एक दिन सब को सायास खुलने दिया जाता है, सञ्चित विकारोंं का रेचन है यह!
कल की होली पर शृङ्गारिक दोहे कहे जायेंगे, सम्भोग सङ्केत भरी मधु कविताई होगी, मरजाद की रेख पर नैनमटक्के होंगे, हास्य होगा। कुछ लोग सुंदर काव्यमय रचनायें प्रस्तुत करेंगे तो कुछ भाँग व सुरा पी सूत रहेंगे किंतु अश्लीलता से अधिकांश नागरजन बचेंगे। क्यों बचना है जब इस अवसर पर स्वयं महादेव ने खुली छूट दे रखी है! जुगुप्सित प्रतीत होता यौनाङ्गों का मिलन भी गाया जाना चाहिये। ग्रामलोक में जो होली के दिन सहज ही स्वीकृत है, उसे नागरजन द्वारा उपेक्षित रखना कदापि स्वीकार नहीं। तो क्या है कथा होली में अश्लीलता की? स्कंद पुराण से पढ़ें –
देवी पार्वती को संतान नहीं थी। दु:खी थीं। संताप से हृदय भर आया तो आँसू गिरे (हृदयाम्बु) जिनसे उनकी पुत्री हुई — उदकसेविका। शिव एवं पार्वती के बीच का भैरव काम भाव ही मूर्तिमान हो भैरव कहलाया जिसने उदकसेविका का हाथ माँग लिया।
काम महोत्सव के पश्चात उदकसेविका का उत्सव होता था जिसमें समस्त वर्जनायें टूट जाती थीं।
उदकसेविका एवं भैरव के पुतले बनाये जाते एवं यात्रा निकलती। बच्चे, बूढ़े, लोग, लुगाई सभी, भाँति-भाँति के रूप बनाये रहते — कोई राजसी, कोई संन्यासी, कोई फटे पुराने कपड़े पहने, सभी देह पर भस्म, मल, मूत्र, कीचड़ लपेटे।
जिसके समक्ष उदकसेविका पहुँचती, उसे प्रमत्त, पियक्कड़, विदूषक या पागल की भाँति व्यवहार करना होता। लोग कुत्तों पर सवार हो जाते, एक दूसरे को गालियाँ बकते, चोकरते हुये गीत गाते, नाचते, निर्लज्जता सामान्य हो जाती। पुरुष उदकसेविका के साथ जो चाहे, करते।
नगर ग्राम के भवनों तक को नहीं छोड़ा जाता। उन्हें भी गोबर, कीचड़ इत्यादि से कुछ इस प्रकार अलङ्कृत कर दिया जाता कि नगरी चोरों की नगरी लगने लगती।
शिव की व्याख्या थी कि स्त्रियों एवं पुरुषों के हृदय विपरीतलिङ्गी के यौन अङ्गों के प्रेम में होते ही हैं, सृष्टि इसी से है।
अंत में भैरव को मृत घोषित कर पुतले को सरोवर में फेंक दिया जाता था।
इस प्रकार दिन बिताने के पश्चात सभी के पाप धुल जाते थे!
फागुन में बाबा देवर लगें कि भाँति ही यह लिखा गया है कि पुत्र पिता में भी परस्पर मर्यादा भाव नहीं रह जाता था!
दो सौ वर्षों के अंतर की दो पाण्डुलिपियों में रोचक पाठ भेद हैं। एक उदाहरण:
१. मुहूर्तेनैव स्वजना निर्लज्जत्वं उपागता:
२. मुहूर्तेनैव स्वजना: समशीलत्वं आगता:
एक में निर्लज्जता की बात की गयी है तो दूसरे में समशीलत्व अर्थात सम्बंधों की मर्यादाओं में जो शील भेद होता है, वह मिट जाता था।
सुनें बरसाने के गोविंदा लण्ठों की अश्लील होरी –
आप सबके लिये होली कल्याणी व सर्वमङ्गला हो।