स्त्री-पुरुष की जिन विशेषताओं को हम असमानता कहते हैं, वे स्त्री-पुरुष की विशिष्टताएं हैं। उन्हें श्रेष्ठ या निकृष्ट कह सौहार्द विखंडित करना मूर्खता है।
सनातन दर्शन में स्त्री और पुरुष में निरर्थक भेदभाव नहीं मिलता। ब्रह्मा के वाम भाग से सतरूपा और दक्षिण भाग से मनु की उत्पत्ति की कथा पुराणों में मिलती है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते — स्त्री के सम्मान से घरों में देवता निवास करते हैं तथा सुख-शांति रहती है ऐसे अनेक कथन सनातन ग्रन्थों में हैं। परन्तु अधूरे अध्ययन के आधार पर दिए गए अनेक विरोधाभासी तर्कों से कभी-कभी संशय की स्थिति भी निर्मित हो जाती है। ग्रन्थों के अवलोकन से यह पता चलता है कि कालांतर में देश-काल-परिस्थिति तथा ऐतिहासिक कारणों से स्त्रियों की वास्तविक स्थिति में परिवर्तन हुए परन्तु सनातन ग्रन्थों में स्त्री-पुरुष तो क्या किसी भी जीव की आत्मा में कोई विभेद नहीं करने का दर्शन है।
मानव सभ्यता के आधार स्तम्भ बुद्धि, धन एवं शक्ति की अधिष्ठात्री देवियों एवं वेदों की देवी के रूप में भी गायत्री के पुरुषों द्वारा पूजन की सनातन परम्परा रही है। ग्रन्थों एवं कर्मकाण्डों में स्त्री के पुरुष की अर्द्धांगिनी एवं सहधर्मिणी का आदर्श आदि प्रकारों से समानता का रूप वर्णित है, जिनके धर्म के मार्ग पर साथ-साथ चलने की बात की गयी है। स्त्री के साथ के बिना धार्मिक अनुष्ठान नहीं होते। स्त्री-पुरुष के सम्बंध का यह रूप गृहस्थ आश्रम में आत्मिक पूर्णता और धर्म प्रतिपालन के लिए आवश्यक माना गया है। दर्शन के अतिरिक्त सनातन धर्म के कर्मकाण्डों में भी स्त्री को वरीयता प्राप्त है।
अनेक वैदिक ऋषि सपत्नीक रहते थे अर्थात ऋषियों के लिए भी विवाह एवं समागम ऐच्छिक था। वैदिक विदुषियाँ पुरुषों के समकक्ष मन्त्रों की द्रष्टा थींं अर्थात स्त्री ब्रह्मचर्य की बाधा नहीं थी। एक विरोधाभास सा यह प्रतीत होता है कि ऐसा होने पर क्यों ऋषियों की तपस्या भंग होने तथा ब्रह्मचर्य-वैराग्य में कामिनी-कंचन से दूर रहने के दृष्टांत मिलते हैं? आधुनिक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से इन विरोधाभासों की किस प्रकार व्याख्या हो सकती है?
सनातन दर्शन के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री पत्नीरूप में ब्रह्मचर्य की बाधा नहीं, न ही उसे कभी निम्न स्तर का कहा गया वरन स्त्री के प्रति विकारग्रस्त दृष्टि न रखना और पुरुष के उस दृष्टि से मुक्त होने की परिकल्पना की गयी :
मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत। आत्मवत सर्वभूतेषु यःपश्यति सः पण्डितः॥
कामिनी-कंचन से दूर रहने के सारे संदर्भ असंयमित विकारों को अनियंत्रित नहीं होने देने को लेकर ही हैं जो मनुष्य को सुसंयत एवं आदर्श जीवन जीने में सहायता करते हैं। ब्रह्मचर्य तो अपने छद्म प्रचारित अर्थ से परे एक ऐसा आचरण प्रतीत होता है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है।
भर्तृहरि एक साथ सौंदर्य एवं वैराग्य शतक की रचना कर देते हैं। रूपसुंदरी रंभा और मुनि शिरोमणि शुकदेवजी की एक सुंदर परिचर्चा है जिसमें रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती और शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का। इसी प्रकार महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भवपर्व’ में इंद्र मेनका को विश्वामित्र का ध्यान भंग करने को कहते हैं। मेनका विश्वामित्र जैसे ऋषि के भय से अपना तर्क रखती हैं और इंद्र सहायता का प्रावधान करते हैं। स्त्री भला क्यों और कैसे पुरुष के अनुसंधान में बाधा हो सकती है? इन प्रसंगों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर मानवीय मनोविज्ञान का एक पक्ष सामने आता है।
क्यों पुरुष को परायी विशेषतया रूपवती स्त्रियों से दूर रहने की बात बारम्बार आती है? पिछले कुछ वर्षों में किए गए अनेक मनोवैज्ञानिक अध्ययन सनातन दर्शनों में इस विरोधाभास से प्रतीत होने वाली बात की न केवल पुष्टि करते हैं अपितु एक सटीक व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि रूपवती स्त्री की उपस्थिति मात्र से पुरुष अनजाने में अनेक संकट (dangerous, risky) भरे कार्य करते हैं अर्थात रूपवती स्त्री की उपस्थिति मात्र पुरुष के मस्तिष्क में एक संज्ञानात्मक पक्षपात को जन्म देती है, पुरुष अधिक संकट भरे निर्णय लेते हैं, द्यूत में अधिक दाव लगाते हैं तथा आवेग में अधिक त्रुटियाँ करते हैं।
रिचर्ड रोनय और बिल वोन हिप्पेल के सोशल, साइकोलोजिकल एंड पर्सनालिटी साइन्स में छपे एक प्रसिद्ध शोध The Presence Of An Attractive Woman Elevates Testosterone And Physical Risk Taking In Young Men के अनुसार रूपवती स्त्री की उपस्थिति में स्केटबोर्डिंग करते हुए खिलाड़ियों के हार्मोन का स्तर बढ़ा और उन्होंने अधिक संकट भरे करतब किए। उन्हें यह भी भान नहीं रहा कि उन्हें कब रुकना चाहिए। बिना किसी स्त्री की उपस्थिति की तुलना में इस समूह के असफल होने वाले करतबों की संख्या में भी वृद्धि हुई।
इसी प्रकार स्वीडन के शोधकर्ताओं आना ड्रेबर, क्रिस्टर गेर्डेस और पैट्रिक ग्रांसमार्क ने ऐसी ही परिस्थिति में शतरंज के छः सौ से अधिक विशेषज्ञों की चालों का अवलोकन किया उनके निष्कर्ष भी वही निकले। वर्ष २०१० में Beauty Queens And Battling Knights: Risk Taking And Attractiveness In Chess नामक शोध में उन्होंने इसकी चर्चा की। पर इससे यह भी स्थापित हुआ कि शतरंज के विशेषज्ञ जिन्हें घोर तार्किक माना जा सकता है, वे भी प्रकृति प्रदत्त उन अविवेकी जैविक संज्ञानात्मक पक्षपातों से जूझते हैं जिनसे अन्य पुरुष। अर्थात ‘सामान्य पुरुष का तो क्या ही कहना, विश्वामित्र की भी तपस्या भंग हो जाय !’ की वैज्ञानिक पुष्टि!
विकासवादी मनोवैज्ञानिक इसकी व्याख्या जीवविज्ञान की सहायता से करते हैं। पुरुष मस्तिष्क को प्रकृति ने स्त्रियों को आकर्षित करने के लिए बनाया है जिसमें वृषणि हार्मोन (testosterone) का भी योगदान है, वही हार्मोन जिससे पुरुष में आवेग भी होता है और आक्रामकता भी। विकासवादी मनोवैज्ञानिक मार्गों विल्सन एवं डेली ने अपने शोध Do Pretty Women Inspire Men To Discount The Future? में पाया कि पुरुष व्यवहार उन स्त्रियों की उपस्थिति में अधिक आवेग में होता है जिन्हें वे सुंदर पाते हैं।
इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में मानव व्यवहार के विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिक डैन एरीएली और जॉर्ज लोयन्स्टायन ने सिद्ध किया कि कामोत्तेजित अवस्था में पुरुष न केवल अधिक संकट भरे निर्णय लेते हैं बल्कि उनके अनैतिक व्यवहार और सोच में भी अप्रत्याशित रूप से वृद्धि होती है अर्थात आकर्षक स्त्री की उपस्थिति में पुरुष अधिक आपदा से भरे, अविवेकी तथा अदूरदर्शी निर्णय लेते हैं। आश्चर्य नहीं कि इन अध्ययनों का उपयोग उत्पादों की प्रचार सामग्री बनाने में किया जाता हैं जिनमें आकर्षक महिलाओं के उपयोग का प्रचलन बढ़ता गया है।
अध्ययनों में यह भी पाया गया कि सारे पुरुषों पर इसका प्रभाव एक समान नहीं होता है, कुछ पुरुष इस बात से अन्य पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित होते हैं। अध्ययन इस बात का हल नहीं सुझाते परंतु एक बात स्पष्ट है कि इन प्रभावों को समझ पाना अत्यंत कठिन है क्योंकि पुरुष को स्वयं नहीं पता होता है कि वह ऐसी किसी बात से प्रभावित है। चायनीज़ यूनिवर्सिटी ऑफ हांग कांग के मनोवैज्ञानिक प्रो. लेई चांग के एक शोध के अनुसार तो महिलाओं के चित्र देखने मात्र से, पुरुष युद्धभावना से भी अधिक तीव्रता से उत्तेजित होते हैं। विकासवाद के अनुसार पुरुष का मस्तिष्क इस प्रकार से विकसित हुआ कि पुरुष को यदि यह लगे कि उन्हें कोई स्त्री देख रही है तो वे स्वाभाविक रूप से संकट वाले काम करते हैं, जैसे यातायात के नियम तोड़ना इत्यादि। यह कुछ पशुओंं में सींग होने की भाँँति है जिससे वे मादा को ये संकेत देते हैं कि मैं तुम्हें और बच्चों को बचाने के लिए संंकट उठा सकता हूँ।
यह प्रवृत्ति अनजाने रूप में अभी भी मनुष्य मस्तिष्क में उसी प्रकार है। वर्ष २००९ के अध्ययन Interacting with women can impair men’s cognitive functioning के अनुसार स्त्रियों से थोड़े समय की चर्चा से ही पुरुष के बौद्धिक प्रदर्शन में न्यूनता आ जाती है। इसके आधार पर किए गए २०१२ के एक अन्य अध्ययन The Mere Anticipation of an Interaction with a Woman Can Impair Men’s Cognitive Performance में तो यह स्थापित हुआ कि ऐसा सोचने मात्र से भी बौद्धिक प्रदर्शन अल्प हो जाता है।
इन अध्ययनों से स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष में प्रकृति-प्रदत्त शारीरिक और प्रकृति के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए निर्मित विकासजनित कुछ मनोवैज्ञानिक भेद अवश्य हैं जिनका पूर्ण अध्ययन अभी भी शेष है। स्त्री-पुरुष की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें हम सामान्यतया असमानता समझ लेते हैं। वास्तव में वे स्त्री-पुरुष की विशिष्टताएं हैं जैसे गर्भधारण, जन्म एवं शिशुओं के भरण-पोषण के लिए आवश्यक शारीरिक तथा मानसिक विशिष्टताएं जो प्रकृति द्वारा स्त्रियों को प्राप्त हैं वे पुरुषों में नहीं हैं। ऐसी अनेक मूलभूत विशिष्टताएं हैं जिनकी व्याख्या एवं अध्ययन जीवविज्ञान तथा मनोविज्ञान में होते रहे हैं। विकासवादी मनोविज्ञान से ऐसी अनेक विशिष्टताओं को समझने में सहायता मिलती है। इन विशिष्टताओं को श्रेष्ठ या निकृष्ट कह सौहार्द विखंडित करना अनुचित एवं मूर्खता है।
इन अध्ययनों के संदर्भ में सनातन दर्शनों का अवलोकन करें तो विरोधाभास सा प्रतीत होने वाला सत्य स्पष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य तो विचार, वचन और कर्म तथा सभी इंद्रियों का नियंत्रण है। संयम तो सभी विकृत व्यवहारों से होना चाहिए। और इस बात को नकार देने के स्थान पर इसका समुचित ज्ञान होना अत्यावश्यक है। और इसका हल?
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥
अनेक विद्वान, ऋषि, दार्शनिक तथा अध्यात्मवादी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनमें से बड़े से बड़ा भी कभी-कभी विचलित मन के कारण इन्द्रियभोग का लक्ष्य बन जाता है। यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महर्षि भी मेनका के साथ विषयभोग में प्रवृत्त हो गये, यद्यपि वे इन्द्रियनिग्रह के लिए कठिन तपस्या तथा योग कर रहे थे।
इन नए अध्ययनों के संदर्भ में इन श्लोकों का अवलोकन करें तो जिन्हें लोग पुरातन पंथी और पता नहीं क्या क्या कह देते हैं!
नैकयान्यस्त्रिया कुर्याद् यानं शयनमासनम्। लोकाप्रासादकं सर्वं दृष्ट्वा पृष्ट्वा च वर्जयेत्॥
मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्। बलवानिद्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥
सम्पादकीय टिप्पणी
इस लेख से बरबस ही पुरातन काल में गार्गी वाचक्नवी एवं याज्ञवल्क्य के मध्य हुये वाद विवाद के एक ऐसे पक्ष पर ध्यान जाता है जिसका कि मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है। उस वाद विवाद में एक स्थान पर :
सा होवाचाहं वै त्वा याज्ञवल्क्यं यथा काश्यो वा वैदेहो वोग्रपुत्र उज्जयं धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ बाणवंतौ सपत्नातिव्याधिनौ हस्ते कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्का द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थां तौ मे ब्रूहीति पृच्छ गार्गीति। (बृहदारण्यक. 3.8.2)
गार्गी ने कहा – हे याज्ञवल्क्य! जैसे काशी अथवा विदेह में रहने वाला कोई वीर वंशी प्रत्यंचाहीन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर शत्रु पीड़ादायक बाणों को हाथ में ले सन्नद्ध होता है, वैसे ही मैं आप के समक्ष दो प्रश्नों को ले उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे उनका उत्तर प्रदान करें।
क्या स्त्री की उपस्थिति में पुरुष पर पड़ने वाले विशेष प्रभाव के बारे में गार्गी अवगत थीं? क्या उससे आगे बढ़ कर उन्हों ने याज्ञवल्क्य की बुद्धि पर प्रभाव डालने हेतु ऐसा कहा था जिसे याज्ञवल्क्य का पुरुष मन आदिम चुनौती की भाँति ले तथा कोई चूक कर बैठे?
याज्ञवल्क्य ब्रह्मज्ञानी थे, वैसा कुछ नहीं हुआ किन्तु विदुषी गार्गी की उक्त बात के सम्भावित मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिये।