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एक रोचक मनोवैज्ञानिक अध्ययन है जिसके अनुसार मानव मस्तिष्क साधारण ज्ञान के स्थान पर विशेष को प्राथमिकता देता है, विस्तृत आँकड़ों के स्थान पर विशेष उदाहरण को। जैसे हमें किसी व्याधि के बारे में बताकर पीड़ितों की सहायता करने को कहा जाय तो हम संभवतः दान नहीं देते परन्तु किसी एक विशेष पीड़ित व्यक्ति का चित्र दिखाकर हमसे सहायता मांगी जाय तो वो अधिक प्रभावी होता है। अभिज्ञेय पीड़ित प्रभाव (identifiable victim effect) के नाम से प्रसिद्ध इस संज्ञानात्मक पक्षपात से किसी भी समस्या की हम तब तक उपेक्षा करते रहते हैं जब तक हम स्वयं या कोई अपना भुक्तभोगी न हो।
समाचारों में एक विशेष प्रकरण प्रसिद्ध हो जाने से उस विशेष व्यक्ति के लिए न्याय की माँग बढ़ जाती है और उसी प्रकार के अन्य पीड़ितों की ओर कोई ध्यान तक नहीं देता। समाज और संस्थाओं में अनैतिकता और धूर्तता में वृद्धि भी इस पक्षपात के कारण होती है जब बिना किसी प्रत्यक्ष उदहारण के अभाव में बिना अपराध बोध लोग अनैतिक कामों में लगे रहते हैं।
शोधों से पता चलता है कि जब तक कर्मचारियों को उनके किये कुकर्मों का सीधा प्रभाव या उत्पीड़ित व्यक्ति नहीं दिखता तब तक उन्हें अपने किये का अपराध बोध नहीं होता।
इसे पढ़ते हुए आँकड़े एवं सामान्य ज्ञान के स्थान पर विशेष उदाहरण से हृदय परिवर्तन के उन अनेक बोध कथाओं की स्मृति हो आती है जिनकी रचना संभवतः इसी बोध से की गयी, जिनमें वर्षों तक अध्ययन तथा तपस्या के पश्चात भी ज्ञान नहीं होने और एक घटना विशेष या एक व्यक्ति विशेष की बात से हृदय परिवर्तन और ज्ञान हो जाने की बात होती है!
पिछले लेखांशों में हमने इस बात का अवलोकन किया कि व्यावहारिक मनोविज्ञान में सिद्धांतों के रूप में प्रचलित कई बातें वास्तव में एक वृहद मनोवैज्ञानिक दर्शन के ढाँचे की उदाहरण मात्र हैं। पश्चिमी देशों में इन सिद्धांतों को भिन्न-भिन्न देखना आधुनिक मनोवैज्ञानिक शोध के प्रयोग आधारित पद्धति के अतिरिक्त पश्चिमी दर्शन के अवस्था विशेष पर सीमित सोच का भी परिणाम है। स्पष्ट रूप से एकरूप सिद्धांत ही विभिन्न शब्दों में व्यक्त किये गए लगते हैं।
इनमें से कई सिद्धांतों को एकीकृत कर एक वृहद सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। ऐसे ही वृहद सिद्धांतों को हम उपद्रष्टा आत्मरूप, अनेकान्तवाद, आसक्ति, सांख्य दर्शन, विभेदकारी बुद्धि इत्यादि के रूप में सनातन दर्शन में शब्दशः उपस्थित पाते हैं। पिछले लेखांशों में हम आसक्ति प्रभाव और प्रवृति प्रभाव की चर्चा कर चुके हैं।
उन्हीं सिद्धांतों के वर्ग में एक सिद्धांत है- आईकिया प्रभाव (Ikea effect)। आईकिया घरेलू वस्तुओं (furniture) के निर्माण की एक विश्वविख्यात कंपनी है। आईकिया की एक विशेषता है कि वह अपने उत्पाद के भिन्न-भिन्न अङ्ग बेचती है, जिन्हें जोड़ना ग्राहक का काम होता है। 2011 में हारवर्ड, येल और ड्यूक विश्वविद्यालय के तीन मनोवैज्ञानिकों ने एक सम्मिलित शोधपत्र में इस संज्ञानात्मक पक्षपात की चर्चा की। इस शोधपत्र के अनुसार जिस कार्य को करने के लिए (या जिस वस्तु के निर्माण के लिए) हम स्वयं परिश्रम करते हैं उससे हमें स्वतः ही अधिक लगाव हो जाता है अर्थात स्वनिर्मित वस्तु क्रय की हुई वस्तु से अधिक प्रिय होती है। इससे पहले 1957 में भी एक शोधपत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें प्रयास समर्थन (effort justification) के नाम से ऐसी ही बात कही गयी थी अर्थात हम अपने प्रयास और परिश्रम से आसक्त हो जाते हैं। इस सिद्धांत का उपयोग उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए वर्षों से होता रहा है। आईकिया के अतिरिक्त कई ऐसे उत्पादों में यह बात देखी गयी है कि उपभोक्ता उन उत्पादों में अधिक रुचि दिखाते हैं जिनमें उन्हें स्वयं परिश्रम या प्रयास करना पड़ता है। आईकिया सदृश व्यवसायों को इस संज्ञानात्मक पक्षपात से दोहरा लाभ मिलता है – श्रमिकों पर किये जाने वाले व्यय की बचत के साथ साथ उत्पादों का लोकप्रिय होना भी।
प्रयोगों में यह पाया गया कि लोग स्वयं की बनायी वस्तुओं का मूल्याङ्कन अधिक करते हैं, भले ही उनकी बनायी वस्तुयें गुणवत्ता और रंग-रूप में हीन ही क्यों न होंं! स्वाभाविक है जितना प्रयास उतना ही अधिक मूल्याङ्कन। वैसे तो ऐसा होने के कई कारण दिए गये पर उन समस्त कारणों के परे एक सीधी सी बात ही इसका कारण लगती है– आसक्ति।
इसी क्रम में एक और सिद्धांत है– अन्यत्र आविष्कृत (not invented here) अर्थात हमें अपने विचारों का दूसरों के विचारों से अच्छा प्रतीत होना। व्यक्ति विशेष हों या संस्थायें, स्वयं की बनायी वस्तुओं को अधिक अच्छा समझा जाता है। इसके कारण कई व्यवसाय ऐसे उत्पाद बनाते हैं जो सरलता से अन्यत्र उपलब्ध होता है किंतु जो उनका मुख्य कार्य नहीं होता। यथा बैंकोंं में स्वयं के सूचना प्रौद्योगिकी उत्पाद विकास विभागों का होना!
ये दोनों ही सिद्धांत आसक्ति प्रभाव के ढाँचे में सटीक बैठते हैं और वही व्याख्या इन पर भी लागू होती है। ये दोनों ही सिद्धांत उस वृहद सनातन सिद्धांत की विशेषावस्था प्रतीत होते हैं पर साथ ही इन सिद्धांतों से जुड़े अनेकोंं प्रयोगों, शोधपत्रों और लोकप्रिय पुस्तकों की बात क्या एक कहावत में ही समाहित नहीं है?
‘अपनी दही को खट्टा कौन कहता है।’
इन सिद्धांतों पर आधारित एक पूरी पुस्तक पढ़ जाने के पश्चात इससे अधिक सीखने को कुछ नहीं मिलता। यदि गहराई में जाकर सोचें तो आसक्ति और विभेदकारी बुद्धि की जिस बात की चर्चा हमने अन्यत्र की थी उससे सहज ही इनकी व्याख्या हो जाती है।
इन सिद्धांतों में तीन सनातन बातों का प्रभाव दिखता है – कामना, आसक्ति और अभिमान। जब कामना और आसक्ति हो तो मनुष्य अथक परिश्रम करता है। इन दोनों के बिना परिश्रम और बल कहाँ! पर जहाँ ये सिद्धांत यहीं समाप्त हो जाते हैं, सनातन दर्शन में काम और राग में भेद की बात भी आती है। इनसे बने इस संज्ञानात्मक पक्षपात के लिए इस श्लोक का अनुकरण करें- बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्। अद्भुत! शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कि अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। वे काम और राग से वर्जित बल अर्थात संज्ञानात्मक पक्षपातों से परे बल की बात करते हैं। आत्मविस्मृति के स्थान पर आत्मस्वरूप की पहचान जनाने वाले कर्म, संज्ञानात्मक पक्षपातों से परे जीने की बात।
इन सिद्धांतों में आसक्ति, अभिमान, कामना और कर्मफल की व्याख्या से परे भला क्या हैं? कामना और आसक्ति से उत्पन्न रागरूप रजोगुण, जो इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है।
इसी बात को कितने सुन्दर ढङ्ग से यूँ कहा गया है- ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते – जब मनुष्य किसी विषय को सुन्दर और सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करता है तब उससे उत्पन्न होती है उस विषय में आसक्ति। इस आसक्ति के और अधिक बढ़ने पर वह उसकी उत्कट इच्छा या कामना का रूप लेती है जिसको पूर्ण किये बिना मनुष्य शान्ति से नहीं बैठ सकता।
स्वामी चिन्मयानन्द गीता के इस श्लोक में इस मनोविज्ञान संज्ञानात्मक पक्षपातों से बचाव की प्रणाली की व्याख्या करते प्रतीत होते हैं:
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
उनके कहे का शब्दशः अवलोकन कीजिये तो क्या कुछ अंतर है? स्वामी चिन्मयानन्द लिखते हैं- अधिकांश लोग अपने दुहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत: हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष, प्रेम और घृणा, काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं। अब तक भगवान ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है। जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें, मिथ्या का त्याग करें। जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं। यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन: लौटा दें।