आधुनिक मनोविज्ञान के अनेकों अध्ययन निर्विवाद रूप से इस बात को सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संज्ञानात्मक पक्षपात से अंधे होते हैं। मानसिक रूप से इस अंधेपन के साथ-साथ हमारे हठी एवं अतार्किक होने के भी प्रमाण मिलते हैं। यदि मनुष्य तार्किक एवं ग्रहणशील होते तो उन्हें तथ्यों को पढ़-समझ कर सत्य का आभास हो जाता तथा स्वयं की भ्रामक मान्यताओं को सुधारने में सहजता होती। परंतु ऐसा होता नहीं ! स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक मार्क लेप्पर और सहयोगियों का 1979 में प्रकाशित मनोविज्ञान का एक प्रसिद्ध अध्ययन है Biased assimilation and attitude polarization: The effects of prior theories on subsequently considered evidence. इस अध्ययन में पाया गया कि जिन व्यक्तियों को मृत्यु दंड को लेकर दृढ़ मान्यता थी उन्होनें अन्य व्यक्तियों के स्वयं से भिन्न मतों की पूर्णतया अनदेखी की। यही नहीं, स्वयं से भिन्न विचार सुनने पर उन्हों ने अपनी मान्यता को और दृढ़ रुप से प्रस्तुत किया। ऐसा इस कारण भी होता है कि विपरीत मतों को हमारा मस्तिष्क अपनी आत्म पहचान के लिए संकट मानता है। साथ ही हममें से अनेक लोग अपनी समझ को लेकर अति-आत्मविश्वास से भी भरे होते हैं। हम अपने मतों को दूसरों से श्रेष्ठतर मानते हैं जो स्वाभाविक रूप से हमारे ज्ञान बोध में बाधक होता है परंतु सनातन बोध में वर्णित तथा अनेकों आधुनिक अध्ययनों में पुष्टि होने के पश्चात भी हम उन उपायों को क्यों नहीं करते? जैसे ध्यान एवं मस्तिष्क को वस्तुनिष्ठ रूप से स्वयं तथा संसार को देखने की क्षमता विकसित करने के लिए प्रशिक्षित करना? क्यों हम मनोवैज्ञानिक भ्रांतियों को समझने और उनसे परे होने का प्रयत्न भी नहीं करते? ये कार्य भला कितना कठिन हो सकता है? मन के एकाग्रता की कठिनता के उपनिषदों में अनेकों संदर्भ हैं। बुद्धि एवं मन की एकाग्रता की महत्ता तो भला किस ग्रंथ में नहीं की गयी है। यथा भगवद्गीता से देखें :
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तःस विशिष्यते॥
एवं,
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
परंतु इनकी कठिनता के भी अनेकों संदर्भ हैं। गीता में श्रीकृष्ण इसके लिए कहते हैं :
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चित्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
आश्चर्य यह है कि सब कुछ पढ़ और जान लेने के उपरांत भी क्यों यथार्थ जान लेने में हमारी प्रवृत्ति नहीं होती ? आधुनिक मनोविज्ञान का इस विषय में क्या मत है?
गीता के इस श्लोक के अद्भुत रूप से समरूप एक नवीन शोध हावर्ड विश्वविद्यालय और वर्जीनिया विश्वविद्यालय के आठ शोधकर्ताओं के सम्मिलित प्रयास से वर्ष 2014 में प्रकाशित अध्ययन है – Just think: The challenges of the disengaged mind। इस शोध में एक अत्यंत रोचक तथ्य की पुष्टि की गयी – एकाग्रता की कठिनता का, सहस्रेषु कश्चित्…। ग्यारह भिन्न अध्ययनों से शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य के लिए मस्तिष्क को एकाग्र करना अत्यंत कठिन होता है। सुनने में यह सहज प्रतीत होता है पर यह किस स्तर तक कठिन होता है, इसके लिए इस अध्ययन में आश्चर्यजनक तथ्य मिलते हैं। यह पाया गया कि व्यक्तियों को कुछ न करते हुए एकांत में 6 से 15 मिनट के लिए भी मनन करते हुए समय व्यतीत करने को कहा जाय तो उन्हें यह अल्पकाल भी अत्यधिक कठिन प्रतीत होता है। शांत आंतरिक मनन के स्थान पर व्यक्तियों को अत्यंत नीरस सांसारिक कार्यों को करने में अधिक आनंद आता है। यही नहीं, कुछ व्यक्तियों ने अपने विचारों के साथ एकांत में रहने के विकल्प में बिजली के झटके लगवा लेने तक को वरीयता दी ! 67 प्रतिशत पुरुष एवं 25 प्रतिशत महिलाओं ने 15 मिनट के लिए एकांत में स्वयं के विचारों के शांत अवलोकन एवं मनन के स्थान पर बिजली के झटकों को प्राथमिकता दी अर्थात अधिकतर व्यक्ति कुछ न कर, मनन करने के स्थान पर कुछ भी करने को वरीयता देते हैं, भले ही वह कुछ कितना भी नकारात्मक ही क्यों न हो।
यहीं नहीं, यह पढ़ते हुए भी हम सभी को यह प्रतीत होता है कि हम स्वयं ऐसे नहीं होते तथा शोध में जिन व्यक्तियों की चर्चा है वे अन्य प्रकार के लोग होते हैं। हम अति आत्मविश्वासी, अपने आप से अनभिज्ञ होने के साथ साथ अहंकारी भी होते हैं। भ्रांतियों से घिरे हम अपनी योग्यताओं को भी बढ़ा चढ़ा कर देखते हैं। मनोविज्ञान में इसे वोबेगोन झील प्रभाव (Lake Wobegon effect) या ऐंद्रजालिक वरिष्ठता (Illusory superiority) कहते हैं। इसके अनुसार हम जीवन के प्राय: प्रत्येक क्षेत्र जैसे बुद्धिमता, समझ, रूप, गुण इत्यादि में अपने आपको अन्य व्यक्तियों से वरिष्ठ मानते हैं। यही नहीं, अल्प गुणी व्यक्ति कुछ अधिक ही अतिआत्मविश्वास और अहंकार से पूर्ण होते हैं – सम्पूर्णकुंभो न करोति शब्दं । यह मिथ्या आत्म अभिमान नैतिकता के विषय में अधिक प्रतीत होता है। यदि प्रश्न हो कि हम कितने नैतिक एवं निष्पक्ष हैं तो हम सदैव ही स्वयं को वरिष्ठ श्रेणी में रखते हैं। बहुधा भ्रष्ट व्यक्ति भी अन्य व्यक्तियों को अत्यंत भ्रष्ट एवं अपने को अल्पभ्रष्ट या पूर्णत: नैतिक रूप में देखते हैं।
खल: सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपिन पश्यति ॥
वर्ष 2014 में ब्रिटिश जर्नल ऑफ सोशल साइकॉलजी में प्रकाशित शोध Behind bars but above the bar: prisoners consider themselves more prosocial than non-prisoners के अनुसार कारागार में बंद अपराधी भी अपने को अन्य समान नागरिकों से अधिक दयालु, विश्वासयोग्य एवं निष्ठावान मानते हैं।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं । तदा सर्वज्ञोऽस्मित्य भवदवलिप्तं मम मनः ॥
यह मानना, ऐंद्रजालिक वरिष्ठता का भाव ही इस समस्या के मूल में है कि वरेण्य एवं करणीय को जानते हुये भी लोग कर नहीं पाते। सनातन धर्म के प्रेक्षण एवंअभिलिखित विचार आधुनिक शोधों से कितना मेल खाते हैं !
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