उपनिषद आत्मा की समझ के लिए वासना के परित्याग और इंद्रियों के नियंत्रण पर स्पष्ट है एवं किसी भी भौतिक लक्ष्य से परे का दर्शन है। जबकि यूनानी दर्शन (प्लेटो) जो कालांतर में पश्चिमी दर्शन का स्वरूप बन पड़ा जान पड़ता है। उसके अनुसार मनुष्य अपनी क्षमता से अश्वों की ऊर्जा को सदुपयोग कर रथ-आत्मा के समूह को भौतिक जीवन के उन्नत रूपों (forms) की ओर ले जा सकता है। कठोपनिषद का लक्ष्य उन्नत रूप तथा भौतिक सुख के स्थान पर आत्म-अन्वेषण, बुद्धि और परम लक्ष्य की दिशा में है। यूनानी दार्शनिकों ने सनातन दर्शन के अनेक सिद्धांतों को अपना कर उन्हें पश्चिमी जनमानस के लिए पुनर्संस्कृत किया।
अनुकृत सिद्धांतों में दर्शनशास्त्र का अवलोकन करें तो आत्मज्ञान से सम्बंधित प्रश्न केंद्रीय रहे हैं। पश्चिमी दर्शन में ईश्वर, मृत्योपरांत जीवन, जीवन का अर्थ एवं लक्ष्य, स्वतंत्र इच्छा, आत्मा इत्यादि से जुड़े प्रश्नों की परिकल्पना सर्वप्रथम यूनानी दार्शनिकों ने की। आधुनिक पश्चिमी दर्शन अब भी उन्हीं अवधारणाओं पर आधारित है। इनमें प्रमुख नाम हैं सुकरात और प्लेटो – जिन्हें पश्चिमी दर्शन का जनक भी कहा जाता है।
पश्चिमी दार्शनिक लेखन में इन अवधारणाओं की प्रथम परिकल्पना सुकरात के पूर्व पाईथागोरस, हेराक्लिटस और पारमेनिडस के लेखन में दिखती है। इन विचारकों ने जीवन के अस्तित्व एवं उसकी प्रकृति पर प्रश्न एवं अन्वेषण किए। सुकरात पूर्व सर्वाधिक प्रख्यात यूनानी दार्शनिक था पाईथागोरस। उससे भी पूर्व डेल्फ़ाई के मंदिर में प्राचीन सप्तर्षियों के मंत्र का ‘Know thyself’ के रूप में आत्म-अन्वेषण प्रबोधन मिलता है। रोचक बात यह है कि आधुनिक पश्चिमी दर्शन के मूल यूनानी दर्शन, मिथक एवं प्राचीन खंडहरों को देखते हुए स्वतः ही भारतीय दर्शन के अमिट प्रभाव तथा दोनों दर्शनों में अनंत समानताएँ दिख जाती हैं।
प्राचीन भारत एवं यूनान में इस अद्भुत समानता के क्या कारण हो सकते हैं? पारमेनिडस भौतिक संसार के हर विभिन्नता एवं परिवर्तन में जिस एकल सत्ता (ontos) की बात करता है वह अद्भुत रूप से उपनिषदों के ब्रह्म के समरूप है। ऐसे अनेक तथ्यों को देखते हुए विद्वानों ने समय-समय पर प्राचीन यूनानी दर्शनों के भारतीय दर्शनों से प्रेरित होने की सम्भावना व्यक्त की है। पाईथागोरस-सुकरात-प्लेटो इन सबकी ऐतिहासिक तिथियाँ ज्ञात हैं। वहीं भारतीय दर्शन के मूल उपनिषदों को नया मानने वाले भी उसे २५००-३००० ईस्वी पूर्व का तो मानते ही हैं अर्थात किसी भी अध्ययन के संदर्भ में उपनिषद पाईथागोरस से दो सहत्र वर्षों से भी अधिक प्राचीन थे। और वही सिद्धांत यदि यूनानी दर्शन में उसी रूप में मिले तो इसे किस प्रकार समझा जाय?
यूनानी दार्शनिकों के भारतीय दार्शनिकों से मिलने एवं प्रभावित होने के अनुमानों का सम्भवतः सर्वप्रथम वर्णन तीसरी सदी के रोमन युग के यूनानी दर्शन गुरु फिलोस्ट्रेटस के लेखन में मिलता है जिसके अनुसार पाईथागोरस ने भारत में हिंदू ऋषियों से शिक्षा ली थी। गंगा तट से प्राचीन यूनान के द्वीप देश का सम्पर्क किस प्रकार रहा होगा, इस प्राचीन मान्यता के ऐतिहासिक प्रमाण मिलने तो प्रायः असम्भव ही हैं परंतु पाईथागोरस की शिक्षाओं में भारतीय दर्शन की अमिट छाप दिखती है। या तो पाईथागोरस ने भारत की यात्रा की थी या भारतीय मनीषियों ने यूनान की यात्रा या सम्भवतः पारसियों से होता हुआ भारतीय दर्शन अपने किंचित परिवर्तित रूप में यूनान पहुँचा। पाईथगोरस के शाकाहारी शिक्षण, पुनर्जन्म एवं गणितीय अवधारणाओं पर उस युग के भारतीय दर्शन की स्पष्ट छाप दिखती है। मंत्र एवं तंत्र का रूपांतरण क्रमशः उसके ध्वनि एवं ज्यामिति के ध्यान की विधियों में मिलता है।
सुकरात की शिक्षाओं में भी भारतीय दर्शन की छवि दिखती है जो सम्भवतः पाईथगोरस से प्रेरित हो। प्लेटो के रिपब्लिक के अंतिम अध्याय में पुनर्जन्म का विवरण स्पष्ट रूप से भारतीय दर्शन की उपज प्रतीत होता है। इस विषय पर विस्तृत अध्ययन भी किए गए हैं जो अपने आप में एक लेखन का विषय है।
सनातन दर्शन में आत्म अन्वेषण दर्शन के सर्वोत्तम स्रोत हैं उपनिषद। उपनिषदों के अध्ययन से स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी दर्शन के बीज इस सनातन दर्शन से जुड़े हुए हैं। उपनिषदों में आत्म अन्वेषण के जो प्रसंग हैं, वे पश्चिमी दर्शन की तुलना में अधिक गहन हैं पर समानता देखी जाय तो न केवल वही प्रश्न, उनके उत्तर एवं उन्हें लिखने की विधि भी प्राचीन यूनानी दर्शन में अद्भुत रूप से समरूप है। सत्यता के मूल रूप (reality) एवं आत्मा-परमात्मा के स्वरूप एवं इससे जुड़े प्रश्नोत्तर से उपनिषद भरे पड़े हैं। इस प्रकार का दर्शन निर्विवाद रूप से विश्व में सर्वप्रथम उपनिषदों में ही मिलता हैं। आज के लेखांश में हम केवल एक यूनानी दर्शन परिकल्पना की चर्चा करेंगे जो अद्भुत रूप से कठोपनिषद में प्राय: उसी प्रकार से मिलती है एवं जिसके वर्णन में पश्चिमी दर्शन की पुस्तकों में भी कठोपनिषद का संदर्भ आ ही जाता है।
३७० ईस्वी पूर्व में प्लेटो द्वारा रचित फाएडरस, जिसे प्लेटो ने सुकरात और फाएडरस नामक पात्र के बीच संवाद के रूप में लिखा, पुस्तक में आत्मा की परिकल्पना एक रथ एवं सारथी के रूप में की गयी। सुकरात आत्मा का वर्णन करते हुए बिम्ब के रूप में कहता है कि आत्मा शरीर में उसी प्रकार रहती है जैसे सारथी रथ में। वैसे तो यह बिम्ब भारतीय दर्शन में अनेक जगहों पर मिलता है परंतु कठोपनिषद में यमराज द्वारा नाचिकेता संवाद रूप में दी गयी ब्रह्मविद्या से लगभग इसी रूप में इसकी अद्भुत रूप से समानता है।
भारतीय दर्शन में रुचि रखने वाले यूनान के डॉ वैसिलिस वित्सक्षिस ने प्लेटो और उपनिषदों में समानता का अध्ययन किया। Plato and the Upanishads में दोनों स्रोतों को समांतर रखते हुए उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार न केवल सिद्धांतों में बल्कि दोनों की संरचना, कविता, बिम्ब, तर्कों एवं प्रश्नोत्तरों में भी अद्भुत समानता है। उपनिषद की कई अवधारणाओं के प्रतिरूप प्लेटो के लेखन में भी मिलते है – आत्मा, ईश्वर, श्रेयकर जीवन, अभीष्ट, विद्या, अविद्या इत्यादि।
इसी प्रकार जर्मनी के दार्शनिक प्रो डीयूसेन ने उपनिषदों में पारमेनिडस, प्लेटो और कैंट की प्रमुख अवधारणों को ढूँढ निकाला। कई पश्चिमी विद्वानों ने पारमेनिडस, प्लेटो, पाईथागोरस के दर्शनों की उपनिषदों से अद्भुत समानता होने की पुष्टि की है। न्याय, मुक्ति, प्लेटो के गुफा का दृष्टांत से अद्वैत की तुलना हो या प्लेटो के मनोवैज्ञानिक विभाजन reason, spirit and appetite के सांख्य के त्रिगुण की विशेषावस्था के रूप में अध्ययन।
आत्मा की परिकल्पना में तो शब्दश: ही एकरूपता है। प्लेटो के अनुसार आत्मा एक जोड़े पंख लगे अश्वों से जुते रथ एवं सारथी की भाँति है। ईश्वर रूप के अश्व और सारथी दोनों वैभवपूर्ण एवं उत्तम हैं परंतु अन्य प्राणियों में ये मिश्रित हैं। मनुष्यों में एक अश्व तो वैभवपूर्ण एवं उत्तम हैं परंतु अन्य विपरीत चरित्र का है इस कारण से यह यात्रा अत्यंत कठिन है। इन अश्वों में से दक्षिणपंथी अश्व श्वेत एवं उत्तम है परंतु वामपंथी काला तथा कुटिल है जिसे केवल कोड़े से पीटकर ही नियंत्रित किया जा सकता है। आत्मा जड़ व्यक्ति को लेकर मानों स्वर्ग की परिक्रमा करती रहती है और जब वह पूर्णरूपेण एवं पंखयुक्त हो जाती है तभी वहाँ पहुँच पाती है। पर वह आत्मा जिसके पंख खो चुके हैं, वह एक सीमा तक ही चल पाती है और भौतिक शरीर के रूप में ही रहती है। सारथी अश्वों से विचलित होता है परंतु साथ ही उसे वास्तविकता का आभास भी नाममात्र का ही होता है। आत्मा की स्थिति सारथी तथा अश्वों के सम्मिलित रूप से निर्धारित होती है – जैसे अश्वों के पर हैं या नहीं, श्वेत अश्व अधिक बलशाली है या कृष्ण। इनकी अवस्था और नियंत्रण से मनुष्य अपनी अवस्था में परिवर्तन कर सकता है। कृष्णयजुर्वेद के कठोपनिषद में सारथी आत्मा है तो रथ एवं अश्व इंद्रियाँ एवं मन।
अब यम-नचिकेता संवाद के कुछ श्लोकों का अवलोकन करें तो:
आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च॥
हे नचिकेता ! शरीर को रथ एवं आत्मा को रथ का स्वामी (रथी) जानो; ‘बुद्धि’ को सारथी एवं मन को केवल घोड़ों की रास (वल्गा) जानो।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान्। आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥
मनीषीगण इन्द्रियों को अश्व तथा इन्द्रियगोचर विषयों को उनके विचरण के मार्ग कहते हैं। तथा ‘वह’ जो ‘आत्मा’, मन तथा इन्द्रियों से युक्त है, वह भोक्ता है।
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः॥
जो सदा अविवेकी बुद्धिवाला और अनियंत्रित मनवाला होता है, उसकी इन्द्रियाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों की भाँति वश में नहीं रहती हैं।
यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा। तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः॥
जो सदा विवेकशील बुद्धिवाला और नियंत्रित मनवाला होता है उसकी इन्द्रियाँ सारथी के अच्छे घोड़ों की भाँति वश में रहतीं हैं।
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः। न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति॥
वस्तुतः वह जो अज्ञानी होता है, अचेतनमना तथा सदा अशुचिमय होता है, वह उस (परम) पद को प्राप्त नहीं करता, वह संसार-चक्र में ही भटकता रहता है।
यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते॥
परन्तु जो ज्ञानवान् होता है, सचेतनमना तथा सदा शुचिमान् होता है, वह उस (परम) पद को प्राप्त करता है जहाँ से वह पुनः जन्म नहीं लेता।
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः। सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्॥
जो मनुष्य मन को लगाम की तरह प्रयोग करता है तथा विज्ञान (गहन ज्ञान) को सारथी बनाता है, वह अपने मार्ग के अन्त को, विष्णु के परम-पद को प्राप्त करता है।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः॥
इन्द्रियों से उच्चतर हैं उनके विषय, उन इन्द्रिय-विषयों से उच्चतर है ‘मन’, ‘मन’ से उच्चतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) उच्चतर है ‘महान् आत्मा’।
क्या यह स्पष्ट नहीं है कि प्लेटो का वर्णन इस दर्शन की विशेष अवस्था मात्र है? यहाँ बुद्धि, तर्क, मनस, इंद्रियाँ, विज्ञान!, नियंत्रित इंद्रियों के साथ विभेदकारी बुद्धि का महत्त्व और आत्म का चरम स्वरूप पुरुष का वर्णन है। प्लेटो के वर्णन में न तो इंद्रियों का उल्लेख आता है न ही इतने सापेक्षिक स्तरों का विस्तृत विश्लेषण। दर्शन के इतिहास में इस प्रकार के समरूपता का उदाहरण सम्भवतः अन्यत्र न हो। इतनी समरूपता के होते स्वाभाविक है कि कई विद्वानों ने इस बात पर विचार किया है कि क्या सिकंदर के भारतीय उत्तर पश्चिमी सीमा पर आने के पहले ईसा पूर्व चौथी-पाँचवी सदी में भी प्राचीन भारत और यूनान में सम्पर्क था? इन विषयों पर विचार एवं शोध स्वयं ही एक अलग विषय है।
कठोपनिषद में यम और नाचिकेता के बीच गहन दार्शनिक परिचर्चा है। रथ के रूपक का प्रयोग ही असाधारण रूप से समरूप नहीं है, विद्वानों ने प्लेटो की भाषा एवं संरचना के उपनिषद के समरूप होने पर भी विचार किया है। Philosophy of East and West में प्रकाशित आलेख Two Chariots: The Justification of the Best Life in the Katha Upanishad and Plato’s Phaedrus में एलिज़ाबेथ शिल्ट इस रूपकीय तुलना का वर्णन करती हैं। उपनिषदों में इस रूपक के अतिरिक्त रूपक के विभिन्न आयामों और उनके अन्योन्यक्रिया का भी गहन वर्णन है, यथा बुद्धिमान कैसे अश्वों को नियंत्रित कर सकते हैं और अंततः क्या प्राप्त होता है? यहाँ प्लेटो का रूपक और सिद्धांत अनुकृत उपप्रमेय सा प्रतीत होता है- एक अश्व आज्ञाकारी तथा दूसरा व्यावहारिक दोषों को दर्शाता हुआ। एलिज़ाबेथ शिल्ट के अनुसार आगे के वार्तालाप में भी सुकरात व्यक्ति के गुणों, वासना और आकांक्षाओं का जो वर्णन करता है, वह भी उपनिषद के दर्शन के सीमित रूप मात्र हैं।
एलिज़ाबेथ शिल्ट लिखती हैं, “…it involves not only the unlimited growth of the appetites, but also the effortless and guaranteed satisfaction of these desire” साथ ही उपनिषद को पढ़ते हुए नचिकेता और यम के मानसिक स्तर के एकावस्था में तथा परिपक्व होने की अनुभूति होती है परंतु फाएडरस को पढ़ते हुए लगता है कि उसके विभिन्न चरित्र विभिन्न मानसिक स्तर पर हैं तथा सिद्धांतों की समझ पर सहमत नहीं हैं। कठोपनिषद आत्मा की समझ के लिए वासना के परित्याग और इंद्रियों के नियंत्रण पर स्पष्ट है एवं आत्म की अनुभूति के साथ ब्रह्म की अनुभूति की भी बात करता हैं।
प्लेटो के वर्णन में एक और अंतर देखने को मिलता है जो कालांतर में पश्चिमी दर्शन का स्वरूप बन पड़ा जान पड़ता है। उसके अनुसार मनुष्य अपनी क्षमता से अश्वों की ऊर्जा को सदुपयोग कर रथ-आत्मा के समूह को भौतिक जीवन के उन्नत रूपों (forms) की ओर ले जा सकता है। कठोपनिषद का लक्ष्य उन्नत रूप तथा भौतिक सुख के स्थान पर आत्म-अन्वेषण, बुद्धि और परम लक्ष्य की दिशा में है। यह किसी भी भौतिक लक्ष्य से परे का दर्शन है। एलिज़ाबेथ शिल्ट के अनुसार – in case, the works explores a means of responding to the challenge of a life spent in pursuit of the satisfaction of bodily desires in favor of the life spent in pursuit of wisdom.
इस दर्शन का महाभारत के अनुगीता और गीता में विस्तार है जिनके तुलनात्मक अध्ययन भी किए गए हैं, यथा – The Self-Chariots of Liberation: Plato’s Phaedrus, The Upanishads and the Mahabharata in Search of Eternal Being नामक अध्ययन। इस दर्शन के अलावा इससे जनित नैतिक मूल्यों का भी तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत भी रोचक है। स्पष्ट है यूनानी दार्शनिकों ने सनातन दर्शन के अनेक सिद्धांतों को अपना कर उन्हें पश्चिमी जनमानस के लिए पुनर्संस्कृत किया।