कचाटोर का संस्कृत ‘शराटिका’ नाम शर/ सरोवर में अट् अर्थात भ्रमण के कारण पड़ा है। बक जाति के इस पक्षी का उल्लेख अमरकोश में मिलता है। इसके अन्य नाम दात्यूह, कालकण्ठक, ध्वाङ्क्ष एवं धूङ्क्षणा हैं। कचाटोर संज्ञा की व्युत्पत्ति इस प्रकार है – कचाटु:>कचाटुर>कचाटोर। कच केश या सिर के किसी चिह्न को कहते हैं। श्वेत वर्ण के इस पक्षी का आधे गले सहित काला शिरोभाग ऐसा प्रतीत होता है मानों आग से झौंसाया सिर लिये भटक रहा हो, कचाटु: की व्युत्पत्ति इसी से है – कचेन शुष्कव्रणेन सह अटति। ध्वाङ्क्ष एवं धूङ्क्षणा नामों के मूल में मिलन ऋतु में इसका धूम घोषी स्वर है – ध्वाङ्क्ष घोर वाशिते।
भारतीय नाम : श्वेत बुज्जा (श्वेतविद्धक), श्वेत बाझ, मुण्डा, कचाटोर, रण नो धोलो कागड़ो (कच्छ के रण का धवल काग, गुजराती), शराटिका (संस्कृत)
अन्य नाम : White Ibis, Black-Headed Ibis, Oriental White Ibis, Indian White Ibis, Black-Necked Ibis
वैज्ञानिक नाम : Threskiornis melanocephalus
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Pelecaniformes
Family: Threskiornithidae
Genus: Threskiornis
Species: Melanocephalous
Category: Wader
जनसङ्ख्या : ह्रासमान
Population: Decreasing
संरक्षण स्थिति : सङ्कट-निकट
Conservation Status: NT (Near Threatened)
वन्य जीव संरक्षण अनुसूची : ४
Wildlife Schedule: IV
नीड़ काल : जून से अगस्त तक (उत्तर भारत), नवम्बर से फरवरी तक (दक्षिण भारत)
Nesting Period: June to August(North India), November to February(South India)
आकार : लगभग ३० इंच
Size: 30 in
प्रव्रजन स्थिति : स्थानीय प्रवासी
Migratory Status: Local Migratory
दृश्यता : आसामान्य (अत्यल्प दृष्टिगोचर होने वाला)
Visibility: Very Less
लैङ्गिक द्विरूपता : समरूप
Sexes: Alike
भोजन : कीड़े-मकोड़े, छोटे केंकड़े, झींगे, मेढक, घोंघे आदि इनके मुख्य भोजन हैं। यदा-कदा जलीय सर्प भी इनके आहार बन जाते हैं।
Diet: Invertebrates, Crab, Snails, Frogs, Tadpoles, Adults And Larvae Of Insects, Worms, Fish, Crustaceans.
अभिज्ञान एवं रङ्ग-रूप : यह श्वेत रंग का प्राय: ३० इंच बड़ा पक्षी है जिसे लम्बी काली, टेंढ़ी और नीचे की ओर झुकी हुई चोंच के कारण दूर से ही जाना जा सकता है। इसके सिर, गला, और चोंच पूरे काले और पर रहित होते हैं; पूरा शरीर भासमान श्वेत, डैने की हड्डी को ढकने वाली त्वचा बिना परों की और रंग तीक्ष्ण रक्तवर्णी एवं टाँगें कान्त्तिमान काली होती हैं।
निवास : यह हमारे देश में पहाड़ों को छोड़कर लगभग हर ऐसे स्थान पर अल्प या प्रचुर देखा जाता है जो पानी और जलाढ्य भूमि के निकट होते हैं। इसको झुण्ड या १-२ के जोड़ों में भी झील, सरोवर और जलाढ्य भूमि पर भोजन संधान करते देखा जा सकता है। जलीय घासों के बीच इसे लम्बी टेढ़ी चोंच से झींगा, केकड़े, घोंघे आदि क्षिप्रतापूर्वक पाते देखा जा सकता है। रात में इनका झुण्ड किसी ऊँचे पेड़ पर रहता है।
वितरण : यह यहाँ का बारहमासी पक्षी है जो भोजन की संधान में किञ्चित स्थान परिवर्तन भी करता है। सम्पूर्ण भारत (पर्वतीय क्षेत्र के अतिरिक्त), पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार में पाया जाता है।
प्रजनन काल तथा नीड़ निर्माण : इस पक्षी का प्रजनन काल उत्तर भारत में जून से अगस्त तक और दक्षिण भारत में नवम्बर से फ़रवरी तक होता है। युगनद्ध होने के पश्चात ये नीड़ निर्माण में लग जाते हैं। पानी के पास के पेड़ों पर इनके अनेक जोड़े एक साथ नीड़ बनाते हैं। ये तनु टहनियों से एक भद्दा सा नीड़ बनाते हैं। इनके नीड़ अन्य महाबकों या बगुलों के साथ देखे जाते हैं। मादा २-४ तक अण्डे देती है जो पहले हरिताभ श्वेत होता है किंतु कालांतर में गाढ़ा भूरा हो जाता है। अण्डों पर प्राय: पीतारक्त रंग की चित्तियाँ भी होती हैं। अण्डों का आकार २.५ इंच *१.७ इंच होता है।
सम्पादकीय टिप्पणी :
इसका संस्कृत ‘शराटिका’ नाम शर/सरोवर में अट् अर्थात भ्रमण के कारण पड़ा है। बक जाति के इस पक्षी का उल्लेख अमरकोश में मिलता है। इसके अन्य नाम दात्यूह, कालकण्ठक, ध्वाङ्क्ष एवं धूङ्क्षणा हैं। कचाटोर संज्ञा की व्युत्पत्ति इस प्रकार है – कचाटु:>कचाटुर>कचाटोर। कच केश या सिर के किसी चिह्न को कहते हैं। श्वेत वर्ण के इस पक्षी का आधे गले सहित काला शिरोभाग ऐसा प्रतीत होता है मानों आग से झौंसाया सिर लिये भटक रहा हो, कचाटु: की व्युत्पत्ति इसी से है – कचेन शुष्कव्रणेन सह अटति। ध्वाङ्क्ष एवं धूङ्क्षणा नामों के मूल में मिलन ऋतु में इसका धूम घोषी स्वर है – ध्वाङ्क्ष घोर वाशिते । इस जाति को श्वेतकाक या श्वेतवायस भी कहा जाता है क्यों कि इसकी आकृति कौवे से मिलती जुलती है – ध्वाङ्क्ष: काके बके – हेमचंद्र, धूङ्क्षणा तु श्वेतकाल: स्यात् – वैजयंती।
कृषिकर्म में प्रयुक्त दाति (भोजपुरी में दराती) से इसकी चोंच के समानता के कारण इसका नाम दात्यूह है, दात्रेण दात्या वा भक्ष्यमूहति प्राप्नोति – कल्पद्रुम। एक दूसरी व्युत्पत्ति शिशु से वयस्क होने तक इसके सिर में होने वाले परिवर्तनों से है। पहले केशयुक्त सिर वयस्क होने पर केशविहीन आग से झौंसा सा हो जाता है, अमरकोश पर क्षीरस्वामी की टीका में लिखा है – द्वितीयं तृतीयं वा रूपं वहति दित्यवाट्, तस्यापत्यं दात्यूह:।
मनु ने इस पक्षी के मारने का कठोर निषेध किया है। इस पक्षी का उल्लेख वाजसनेयी एवं तैत्तिरीय संहिताओं में अश्वमेध यज्ञ के संदर्भ में मिलता है, धुङ्क्षाग्नेयी एवं अग्नये धूङ्क्ष्णा। अग्नि को वाजसनेयी संहिता में असितग्रीव अर्थात काली ग्रीवा वाला बताया गया है। अन्यत्र भी कहा है – कृष्णग्रीवा आग्नेया एवं तैत्तिरीय सं. में आया है – आग्नेयं कृष्णग्रीवमालभेत। इस पक्षी का गला काला होता है जब कि देह श्वेत। मंद पड़ी यज्ञशाला में श्वेताभ राख एवं उससे झाँकते झौंसाये लुकाठे से साम्य के कारण इसे अग्नि से जोड़ा गया है।
इसे बकोट भी कहा गया है तथा कह्व भी – क अर्थात जल एवं ह्व अर्थात आह्वान, जल के निकट आह्वान ध्वनि करने वाला। इसके अन्य नाम बकप्रकर (लोलिम्बराज), दुष्टबक, तापस एवं तीर्थसेवी हैं। अंतिम तीन नामों में से प्रथम छल द्वारा मछली पकड़ने के कारण एवं शेष दो एक तपस्वी की भाँति जल में ध्यानमग्न की भाँति प्रतीत होने के कारण पड़े। महाभारत के ग्यारहवें पर्व में राष्ट्र को लूटने वाले दस्युओं की तुलना इसकी इस वृत्ति से की गयी है – यस्य दस्युगणा राष्ट्रे ध्वाङ्क्षा मत्स्याञ्जलादिव !
यशस्तिलकचम्पू (३.१९१) में श्वेत वस्त्रों में सज्जित, सज्जन एवं परिष्कृत प्रतीत होते छली मन्त्रियों (खादीधारियों से साम्यता मनोरञ्जक है) की तुलना इस पक्षी के मछली पकड़ने के ढंग से की गयी है :
बहिरविकृतवेषैर्मन्दमन्द प्रचारै:,
निभृतनयनपातै: साधुताकारसारै: ।
निकृतनयनविनीतैश्चान्तरेतैरमात्यै:,
तिमय इव बकोटैर्वञ्चिता के न लोका: ॥
भोले भाले प्रतीत होते, किंतु वास्तव में छली धूर्त व्यक्तियों के लिये बकवृत्ति, बकसाधु एवं ध्वाङ्क्षव्रती प्रयोग मिलते हैं। छिछले पानी में आखेट के समय तपस्वी सम प्रशांत दिखते इस पक्षी से ऐसे व्यक्तियों की तुलना की गयी है :
स्तब्धग्रीवो मौनी पिहितार्धलोचन: शश्वत् ।
सजलो जनो य आस्ते स किल ध्वाङ्क्षव्रती प्रोक्त: ॥
(हेमचंद्र पर महेंद्रटीका, २.५५०)
स्रोत : Birds in Sanskrit Literature, K N Dave