सनातन दर्शन में उपवास एवं व्रत की अत्यधिक महत्ता बतायी गयी है। तपस्या और व्रत के रुप में ही नहीं कठिन संकल्प के रूप में भी। मुख्यतया पुराणों में तो यह मानव कल्याण का सुगम मार्ग ही प्रतीत होता है। सुख प्राप्ति, दुःख की निवृत्ति, धर्म का साधन, पुण्य प्राप्ति के उपायों में सुगम एवं श्रेष्ठ मार्ग के रूप में उपवास एवं व्रतों का वर्णन है। अनेक व्रत तो उपवास का पर्याय ही समझे जाते हैं। उपवास को सनातन ग्रंथों में एक प्रकार की प्रत्यक्ष शक्ति के रूप में दर्शाया गया है जिससे स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ सिद्धि और समृद्धि प्राप्त करने के दृष्टांत मिलते हैं।
अभ्यास से अनेक दिनों तक अनाहार रहने के अविश्वसनीय संदर्भ भी हैं। पुराणों में अनेक प्रकार की उपवास विधियों का भी वर्णन है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में पार्वतीजी के कठोर उपवास का सुंदर वर्णन किया है :
नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥
महाभारत के शांति पर्व में भीष्म इसे श्रेष्ठ तप बताते हैं तो अनुशासन पर्व में पवासैस्तथा तुल्यं तपःकर्म न विद्यते कहा गया है। वामन पुराण में बारह दिनों के उपवास की उत्तरोत्तर विशेष विधि बतायी गयी है :
त्र्यहमुष्णं पिबेदाप: त्र्यहमुष्णं पय: पिबेत्।
त्र्यहमुष्णं पियेत्सर्पिर्वायुभक्षो दिनत्रयम्॥
एला द्वादश तोयस्य पलाष्टौ पयस: सुरा:॥
षट्पलं सर्पिष: प्रोत्तं दिवसे दिवसे पिबेत्॥
विभिन्न ग्रंथों में निराहार के साथ साथ क्रोध, विषयादि के त्याग के भी प्रसंग आते हैं। आयुर्वेद के अनुसार भी — लंघनम् सर्वोत्तम औषधं। अर्थात शरीर के बाधारहित, विकाररहित होने और मन के भी एकाग्र और नियंत्रित होने के अनेकानेक प्रसंग वर्तमान हैं। पुराणों में अनेकों व्रत के लिए आचरण एवं समय भी निर्धारित किए गए हैं। गीता के अनुसार उपवास एक साधन मात्र है जिसे करते समय प्राणी विषयों से दूर रहता है — विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
वराहोपनिषद में भी उपवास का अर्थ परमात्मा के समीप जाना बताया गया है, मात्र अनाहार नहीं।
उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मयोः।
उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम्॥
सनातन परम्परा के ही बुद्ध तथा जैन धर्मों में भी इसी प्रकार की उपवास परम्परा देखने को मिलती हैं। स्वाभाविक रूप से उपवास, निराहार व्रत, तपस्या जैसी बातें सुनते ही हमें पुरातन एवं मूर्खतापूर्ण प्रतीत होती हैं और प्रश्न उठता है कि क्या उपवास या अनाहार से कोई प्रत्यक्ष लाभ भी होता है?
प्रश्न यह है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एवं मनोविज्ञान के इस विषय में क्या निष्कर्ष हैं? सुखद आश्चर्य है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित अध्ययनों के निष्कर्ष उसी प्रकार अविश्वसनीय एवं आश्चर्यजनक प्रतीत होते हैं जैसे सनातन दर्शनों के ये तथ्य।
इन अध्ययनों में प्रमुख है दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया विश्विद्यालय में जीव विज्ञान के प्रोफ़ेसर तथा दीर्घायु संस्थान (Longevity Institute) के प्रो. वाल्टर लोंगो का। पिछले दशक में अपने अध्ययनों के आधार पर प्रकाशित शोध पत्रों और पुस्तकों से उन्होंने पश्चिमी जनमानस की सोच में उपवास को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन किए। इसके साथ ही बीबीसी की इस विषय पर बने वृत्तचित्र Horizon: Eat, Fast and Live Longer ने इसे अत्यंत लोकप्रिय बना दिया।
चिकित्सा शास्त्र में वैज्ञानिक अध्ययनों में यह अभी भी एक उभरता हुआ विषय है परंतु यह स्थापित हो चुका है कि उपवास के अद्भुत लाभ हैं, अविश्वसनीय लाभ! बंदरों और चूहों पर किए गए प्रयोगों से १९३० में ही इस बात की अनुभूति हो गयी थी कि कम कैलोरी के सीमित मात्रा में अधिक पोषक तत्व वाले आहार उन्हें दीर्घायु बनाते है। IGF-1 हार्मोन के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि उपवास से चूहों की आयु ४०% तक बढ़ जाती है अर्थात सामान्य व्यक्ति १२० वर्ष की आयु तक जीवित रह सकता है।
इनका परिणाम यह है कि पश्चिमी देशों में हर दूसरे व्यक्ति के मुख से सविराम उपवास (Intermittent fasting) की बात सुनायी पड़ती है। मोटापा घटाने के लिए प्रयोग की गयी इस पद्धति के अद्भुत एवं आश्चर्यजनक परिणाम होते हैं, वैसे यह अभी भी वर्तमान शोध का विषय है और प्रायः हर महीने इससे जुड़े शोध प्रकाशित हो रहे हैं। प्रकाशित वैज्ञनिक शोध पत्रों में मोटापा नियंत्रण के अतिरिक्त उपवास से हृदयवाहिनी ( cardiovascular), पाचन सम्बंधी (metabolic), मधुमेह, कोलेस्टेरोल, रक्तचाप इत्यादि रोगों से स्वास्थ्य में सुधार के निष्कर्ष हैं। कठिनाई मात्र इतनी है कि चूहे और बंदरों को तो बिना भोजन नियंत्रित रखा जा सकता है मनुष्य के लिए यह अत्यंत कठिन है — तपस्या सदृश!
सविराम उपवास और ५:२ उपवास इसी कठिनाई के लिए आविष्कृत हुए जिसमें व्यक्ति हर पाँच दिन के बाद दो दिन का उपवास करते हैं। सविराम उपवास में एक लम्बी अवधि (सामान्यतया १६ घंटे) के अंतराल के पश्चात कुछ समय के लिए ही सीमित भोजन करते हैं।
प्रो. लोंगो के अध्ययन में उपवास से चूहों में मधुमेह और ट्यूमर तक से छुटकारा मिलने के संकेत मिले हैं जिनके प्राथमिक अध्ययन मनुष्यों में भी सफल रहे हैं। साइन्स पत्रिका ने २०१७ में ७१ लोगों पर किए गए प्रयोगों के निष्कर्ष को प्रकाशित किया जिसमें रक्तचाप, मोटापा एवं मधुमेह रोगों में लाभ की पुष्टि हुई। दीर्घायु पर किए गए अनेक अध्ययन निर्विवाद रूप से उपवास के लाभ की पुष्टि करते हैं। प्रो. लोंगो अपने अध्ययन का सबसे मह्त्त्व्पूर्ण अंग मानते हैं — उपवास से ऊतकों का नवीनीकरण एवं पुनः पूर्ति होना।
इन शोधों के निष्कर्षों के प्रभाव और लोकप्रियता का अनुमान इस बात से लगता है कि देखते ही देखते पिछले पाँच वर्षों में उपवास की अनेकों विधियाँ प्रचलित हो गयी हैं !
विकासवादी वैज्ञानिक उपवास से होने वाले लाभ का रोचक कारण बताते हैं। उनके अनुसार प्रकृति ने हमारे शरीर को निर्मित ही इस प्रकार से किया कि वह अल्पाहार से भी अनेक सप्ताह या महीनों तक जीवित रह सके। मानव विकास में लम्बी अवधि तक उसके आखेटक-संग्रहकर्ता होने की अवस्था में ऐसा होना आवश्यक था अर्थात क्रमिक उपवास से मानव शरीर पुनः नियोजित एवं नव निर्मित होता रहता है।
उपवास से कैंसर में होने वाले लाभ पर अध्ययन मानवों पर चल रहे हैं। साथ ही इससे भी सम्बन्धित कि लाभ के अतिरिक्त क्या उपवास से रोगों को होने से रोका भी जा सकता है। जॉन हॉप्किन्स चिकित्सा विश्वविद्यालय में तंत्रिका विज्ञान (neuroscience ) के प्रो. मार्क मैटसन के अध्ययनों के अनुसार उपवास से स्मृति से जुड़े रोगों यथा अल्ज़ाइमर तथा पर्किंसन में लाभ होता है, साथ ही व्यक्ति की मनोवस्था भी प्रसन्न रहती है। इसकी व्याख्या वो इस प्रकार करते हैं :
“Fasting is a challenge to your brain, and we think that your brain reacts by activating adaptive stress responses that help it cope with disease. From an evolutionary perspective, it makes sense your brain should be functioning well when you haven’t been able to obtain food for a while.”
और सबसे रोचक तथ्य, स्वास्थ्य लाभ के परे ! वर्ष २०१३ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार उपवास से मस्तिष्क की संरचना में संज्ञानात्मक रूप में परिवर्तन होता है। इस अध्ययन में यह स्थापित हुआ कि मस्तिष्क में लम्बी अवधि के उपवास से नए तन्तु (न्यूरॉन) निर्मित होते हैं और मस्तिष्क में संचार-तंत्रिका के नए साधनों का विकास होता है जिससे तंत्रिका कोशिकाओं का विकास और उनमें संचार श्रेष्ठतम होता है। स्वाभाविक है कि इससे एकाग्र सोच में वृद्धि होती है।
विकासवाद से इसकी भी व्याख्या इस प्रकार है कि कुछ दिनों तक भोजन प्राप्ति नहीं होने पर मस्तिष्क अधिक केंद्रित होकर कार्य करता है क्योंकि तब उत्तरजीविता के लिए अधिक केंद्रित होकर सोचने की आवश्यकता होती है अतः मस्तिष्क न केवल केंद्रित होता है अपितु नए न्यूरॉन भी जन्म लेते हैं — ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा !
ऊपर बताये गये का एक सरल निष्कर्ष यह है कि अल्पाहार हो तो काकचेष्टा एवं वकोध्यानम् स्वतः सधने लगेंगे। सनातन वैचारिकी में विद्यार्थी के गिनाये गये लक्षण एक दूसरे से गुम्फित हैं। जैसे जैसे आधुनिक शोध आते जायेंगे, अनुभव एवं प्रेक्षण आधारित सनातन प्रज्ञा के निष्कर्ष सूत्र पुष्ट होते जायेंगे। मानवता एक प्रकार से स्वयं के पुनर्नुसन्धान में लगी है एवं भारत उसके मार्ग में सहस्रदीप जलाये हुये है।