Hypocrisy ढोंग सहस्राब्दियों से एक मानवी प्रवृत्ति रही है। ढोंग अर्थात् व्यक्ति जिस कार्य की आलोचना करे, वही कार्य स्वयं करे, अर्थात् जिसकी कथनी और करनी में अंतर हो। सूचना क्रांति के इस युग में जब व्यक्तियों के विचार और कार्य की समय रेखा अधिक सरलता से देखी जा सकती है, तब तो ऐसे ढोंगी व्यक्तियों का अभिज्ञान अधिक ही सहज है। यह प्रवत्ति नैतिक और सामाजिक रूप से तो निंदनीय है ही, एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन का भी विषय है।
क्या कारण है कि लोग दूसरों की जिस कार्य के लिए घोर निंदा करते हैं, उन्हें तुच्छ दिखाते हैं, स्वयं उसी में लिप्त रहते हैं? ढोंग (hypocrisy) को मनोविज्ञानी दो प्रमुख रूपों में परिभाषित करते हैं, पहला – जब हम किसी और के कुछ करने पर उसे अनुचित कहें और स्वयं वही कार्य करें। दूसरा – जब हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ (self-interest ) के लिए किसी की निंदा कर रहे हों परंतु दिखा ऐसे रहे हों जैसे कि हम ऐसा नैतिक आधार पर कर रहे हैं।
इस प्रवृत्ति की विकासवादी मनोविज्ञान एक सहज व्याख्या प्रस्तुत करता है कि ऐसा मनोवैज्ञानिक भ्रांतियों और पक्षपातों से होता है। प्रिन्सटन विश्वविद्यालय प्रेस से छपी चर्चित पुस्तक Why Everyone (Else) Is a Hypocrite इसकी सैद्धांतिक व्याख्या करती है। वही सिद्धांत जिनका अवलोकन हमने पूर्व के लेखांशों में किया।
इस पुस्तक के अनुसार मस्तिष्क की संरचना विकासवाद ने इस प्रकार से की जिससे कुछ कार्य जीवन के लिए सहज एवं स्वाभाविक हों परन्तु कालांतर में युग परिवर्तन से मस्तिष्क के अनेक विभाग इस क्रम में विरोधाभासी भी हो गए जिससे ऐसी अनेक भ्रांतियों तथा पक्षपाती प्रवृत्तियों की उत्पत्ति हुई जिनके कारण हम अपने मस्तिष्क के पूर्ण रूप से नियंत्रक नहीं रहे। उनकी समुचित समझ के लिए आत्मावलोकन आवश्यक है। ढोंग से जुड़ी भ्रांतियों में प्रमुख है – आत्म तुष्टि पक्षपात (Self-serving bias) तथा वह भ्रांति जिससे व्यक्ति को लगता है कि वह अधिक सामर्थ्यवान और गुणवान है। अति आत्मविश्वास, मायाजन्य उत्कृष्टता भाव (Illusory superiority), तथा मौलिक सम्बन्ध दोष (Fundamental attribution error) जैसी मनोवैज्ञानिक भ्रांतियाँ ढोंगी प्रवृत्ति को जन्म देने में सहायक होती हैं।
स्वयं की मनोवैज्ञानिक भ्रांतियों की समझ न होने तथा आत्मवलोकन की अनुपस्थिति से व्यक्ति इस प्रकार की भ्रांतियों में लिप्त हो ढोंग करता रहता है। यही नहीं, बहुधा अन्य को सफल होता देख ईर्ष्या से भी व्यक्ति उसके कार्यों की आलोचना करने लगता है भले अवसर मिलने पर वह स्वयं वही कार्य करे। विकासवाद के अनुसार इसकी व्याख्या इस प्रकार होती है — जैसे यदि किसी सहवासी जोड़े में से एक किसी अन्य व्यक्ति के साथ सम्बन्ध बना ले और दूसरा यदि चुप चाप रहे या यह समझ ले कि अन्य व्यक्ति अधिक सामर्थ्यवान या गुणी था तो उसके स्वयं की संतानोत्पत्ति की सम्भावना अल्प हो जाएगी! जो कि विकासवाद के लक्ष्य के प्रतिकूल होगा। ऐसी अवस्था में उसका ढोंगी होना विकासवाद के लिए उपयुक्त है।
आधुनिक परिवेश में प्रतिद्वंद्वी व्यवसाय (professional rivalry) में ऐसा देखने को मिल जाता है जहाँ लोग दूसरों को अनैतिक दिखाने के लिए तर्क तो देते हैं परन्तु स्वयं उससे भी अधिक अनैतिक कार्यों में संलिप्त पाए जाते हैं। ढोंग और आत्म तुष्टि (Self-serving) एक दूसरे के साथ चलते हैं। यदि हमारे मत के विपक्ष का कोई व्यक्ति अनैतिक कार्य करता दिखे तो हम उसके लिए कठोर से कठोर दण्ड की बातें करते हैं परंतु वही यदि कोई हमारे मत या पक्ष का व्यक्ति हो तो हम उसे एक और अवसर देने की बात करते हैं। या उस कार्य की चर्चा करने के स्थान पर उससे अधिक आवश्यक विषय होने की बात करने लगते हैं।
वर्ष २००१ में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि नैतिकता का दिखावा कर रहे लोग उतने ही स्वार्थी निकले जितना नैतिकता के झंझट में नहीं रहने वाले। निष्पक्षता का चोला पहने पत्रकार इसके सटीक उदाहरण हैं। ढोंगी अंततः दूसरों की घृणा का पात्र बनते हैं, भले ही वे स्वयं उसे स्वीकार न करें।
वर्ष २०१७ में येल विश्वविद्यालय में इस विषय पर एक अध्ययन हुआ कि ढोंगियों को घृणा का पात्र क्यों बनना पड़ता है? शोध का निष्कर्ष तो स्वाभाविक ही है पर यह भी पाया गया कि उन्हें झूठ बोलने वालों से अधिक घृणा का पात्र बनना पड़ता है। कारण स्पष्ट हैं, जहाँ झूठ बोलने वाले एक अनैतिक कार्य करते हैं – झूठ बोलना, वहीं ढोंगी दो अनैतिक कार्य करते हैं – झूठ बोलने के साथ-साथ दूसरों की उसी कार्य के लिए आलोचना करना। यह भी पाया गया कि ढोंगी यदि अपने किए गए कार्यों को स्वीकार करें तो लोग उनसे अल्प घृणा करते हैं अर्थात् जो नैतिक उत्कृष्टता का चोंगा पहने ढोंग करता रहे उसे अधिक घृणा का सामना करना पड़ता है। लोगों झूठ बोलने वालों से उतनी घृणा नहीं करते जितनी इनसे।
इसका अर्थ यह हुआ कि दूसरों पर अंगुली उठाने के स्थान पर आत्म-अवलोकन और अपनी त्रुटि स्वीकार करना नैतिक कार्य है। इस मनोविज्ञानिक खोज का सार भी वही है अर्थात् नैतिक रूप से अपने को उत्कृष्ट समझना तभी सार्थक है जब व्यक्ति अपने स्व एवं मस्तिष्क के प्रति जागृत हो तथा अपने कर्मों का अवलोकन वस्तुनिष्ठ रूप से कर सके।
सनातन दर्शन में ऐसे कृत्य करने वालों को पाखण्डी, छद्मवेशी और धूर्त जैसी संज्ञायें दी गयी हैं तो बोध-कथाओं में बगुला भगत की सञ्ज्ञा। कथनी और करनी के अंतर को तो लोक बोली में भी स्थान प्राप्त है – कथनी थोथी जगत में, करनी उत्तम सार हो या – करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात। कुत्ते समान भूकत फिरे, सुनी सुनाई बात॥
यही नहीं, यदि उत्तम बात भी कोई कहे पर उसके कर्म अनुरूप नहीं हों तो उसे भी व्यर्थ ही माना गया है, ढोंग की तो बात ही क्या!
बहीव्मपि संहितां भाषमाण: न तत्करोति भवति नर: प्रामत्त: ।
गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति ॥
मन वचन और कर्म की एकरूपता सनातन दर्शन में इस प्रकार वर्णित है –
यथाचित्तम् तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
चित्ते वाचि क्रियायाम् च साधूनामेकरूपता ॥
(जो मन में है वही वाणी से प्रकट हो। जो बोला गया है उसी के अनुसार कार्य हो। सज्जनों के मन, वचन और कार्य में एकरूपता होती है।)
और ढोंग के लिए कहा गया है –
अनिष्कषाये काषायमीहार्थमिति विद्धि तम् ।
धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्त्यर्थमिति मे मतम् ॥
दूषित मन के साथ गेरुआ चोला पहनने को स्वार्थ का साधन समझना चाहिए, ऐसे (मिथ्या वेशभूषा वाले) व्यक्ति का धर्म के नाम पर झण्डा उठाकर चलना वस्तुतः जीविका चलाने का धंधा है, ऐसा मेरा मत है।
और अंत में –
अन्तःक्रूरा वाङ्मधुराः कूपाश्छन्नास्त्रिणैरिव ।
धर्मवैतं सिकाःक्षुद्रा मुष्णन्ति ध्वजिनो जगत् ॥
जो भीतर से क्रूर होते हैं किंतु मधुर वाणी बोलते हैं वे घासफूस से ढके कुँये के समान होते है। इसी प्रकार धर्म के नाम पर धोखा देने वाले क्षुद्र स्तर के लोग धर्म का झंडा लिए हुए संसार को लूटते हैं।