प्रायिकता के सिद्धान्त में एक प्रमेय है ‘बेज का प्रमेय’। यह प्रमेय किसी घटना के घटित होने की सम्भावना का आकलन उस घटना से सम्बंधित परिस्थितियों के पूर्व अभिज्ञान के आधार पर करता है। इस सिद्धांत का प्रयोग उद्योग, विपणन, औषधि परीक्षण, जन कल्याण से जुड़ी योजनाओं के प्रतिरूप बनाने आदि में व्यापक स्तर पर होता है। कहते हैं कि ज्यामिति में जो स्थान बौधायन पाइथागोरस के प्रमेय का है, वही प्रायिकता में बेज के प्रमेय का है।
रोचक बात यह है कि बेज ने जब यह प्रमेय सिद्ध किया तो उन्हें लगा इसका कोई अधिक महत्व नहीं है। उन्होंने इसे प्रकाशित करने नहीं भेजा तथा किनारे रख दिया। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके परिवार ने उनके एक गणितज्ञ मित्र को जाँचने को कहा कि हो न हो, कुछ महत्वपूर्ण रह गया हो वहाँ। उनके उस मित्र ने इसे पाया, इसका महत्व समझा और अपने दिवंगत मित्र के नाम से प्रकाशित कराया। व्यावहारिक जीवन के संदर्भ में इस प्रमेय का अर्थ एक उदाहरण से समझते हैं।
आगे बढ़ने से पूर्व यह अवश्य ध्यान रखें कि हम सम्भावनाओं के गणित की बात कर रहे हैं, निश्चित या दृढ़स्थिति की नहीं कि ऐसा ही होगा। सिक्के की उछाल से समझें कि हम कहते हैं चित्र एवं पीछे के अंक के आने की सम्भावना आधी आधी होती है, गणितीय रूप में कहेंगे कि प्रायिकता हुई १/२ = ०.५ , किंतु ऐसा भी सम्भव है कि दस बार उछालने पर आठ बार चित्र आये एवं मात्र दो बार अंक आये, ऐसे में वास्तविकता ०.५ एवं ०.५ के स्थान पर ०.८ एवं ०.२ हो गई। इसे यह नहीं कहेंगे कि त्रुटि हो गई, इसे प्रायिकता से विचलित एक परिणाम मात्र कहेंगे।
प्रायिकता का सिद्धांत आँकड़ों के बहुत बड़े संग्रह में किसी घटित की सबसे अधिक सम्भाव्यता को जानने का प्रयास करता है जिसके आधार पर निर्णय लिये जा सकते हैं। इस प्रकार के अभ्यास के सबसे बड़े लाभों में हैं, समय रूपी संसाधन का सबसे उपयुक्त प्रयोग एवं धैर्य अर्थात विश्वास की एक ‘मात्रा’ के साथ प्रतीक्षा। आजकल चिकित्सकों एवं रोगियों के सम्बन्धों को ले कर चर्चा छिड़ी हुई है। देखते हैं कि बेज का प्रमेय इस परिस्थिति में क्या संकेत देता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी परिस्थितियों की एक महत्त्वपूर्ण कारक ‘धैर्य की अनुपस्थिति’ है?
पहले बेज के प्रमेय को संक्षेप में जानते हैं। इसे गणितीय संकेतों में इस प्रकार लिखा जाता है :
P(A|B)= P(A⋂B)/P(B);
P(B|A)=P(B∩A)/P(A)
⇒
P(B∩A) = P(A∩B) = P(A|B)*P(B) = P(B|A)*P(A)
⇒
P(A|B)=P(B|A)*P(A)/P(B)
संकेतों पर ध्यान न देते हुये ऐसे समझें कि A एवं B निश्चित प्रायिकता वाले परिणामों के दो समुच्चय हैं। A के स्वतंत्र रूप से घटित होने की प्रायिकता P(A) है तथा B की P(B)। चिह्न P(A|B) संसक्त या निर्भर प्रायिकता को दर्शाता है जो घटना B के सत्य होने पर उसके प्रभाव से A के घटित होने की प्रायिकता है। इसी प्रकार P(B|A) को A के सत्य होने पर उसके प्रभाव से B के घटित होने की प्रायिकता समझें। सूत्र यह दर्शाता है कि इनमें से यदि तीन सम्भावनायें ज्ञात हों तो चौथी का मान निकाला जा सकता है।
मान लें कि आप के किसी परिचित को कैंसर रोगग्रस्त पाया गया, उसने चिकित्सा कराई किंतु ठीक न हो पाया एवं उसकी मृत्यु हो गई किंतु यहाँ इसकी भी संभावना अधिक है कि उसे कैंसर था ही नहीं, केमोथेरपी से वह बपुरा अनावश्यक तड़पता रहा। उसे उस निदान के दुःख ने आधा मार दिया, केमोथेरपी ने आधा। जिस प्रकार के तंत्र में कैंसर का उपचार होता है, उसमें विविध परिणामों के निश्चित समुच्चय प्रायिकताओं के परस्पर सम्बंधों के कारण वास्तव में ‘कैंसरग्रस्त’ व्यक्ति के ‘पाये’ जाने की संभावना अत्यल्प है। इसका अर्थ यह नहीं है कि चिकित्सक छल द्वारा धनार्जन में लगे हैं। अपवादों को किनारे कर, जैसा कि सिक्के वाले ०.८ एवं ०.२ में बताया, यह जानें कि चिकित्सक भी ‘निश्चित प्रायिकता वाले परिणामों’ के विविध समुच्चयों के तंत्र में काम कर रहे होते हैं, जितने अधिक समुच्चय, उतनी ही अधिक सम्भावनायें जो त्रुटिपूर्ण निदान से ले कर किसी औषधि की त्रुटिपूर्ण मात्रा या बहुत बार स्वच्छता जैसे सामान्य कारणों तक पसरी होती हैं। इसकी सम्भावना सर्वाधिक है कि चिकित्सक निर्दोष थे।
हम जीवन में बहुत कुछ पढ़ते हैं किन्तु उसका वास्तविक जीवन में प्रयोग स्यात ही करते हैं। कैंसर के जीवन-मृत्यु वाले प्रश्नोत्तर पर बेज का सिद्धांत लगाते हैं।
कल्पना करें कि १% जनता को सच में कैंसर होता है। यह बहुत बड़ी संख्या होगी, वास्तविकता से परे, किंतु बहुत छोटी संख्या लेने पर गणना दशमलवों में जायेगी, अनावश्यक गुणा भाग। अब मानिये कि एक परीक्षण है जो रोग का बहुत ही सम्यक अभिज्ञान कराता है तथा आँकड़ों से यह ज्ञात है कि,
(क ) यदि रोगी को कैंसर है तो परीक्षण का परिशुद्धता अनुपात ९५% होता है,
(ख) यदि रोगी को कैंसर नहीं है यह अनुपात ९०% होता है।
आपके उक्त परिचित को इस परीक्षण द्वारा बताया गया कि उसे कैंसर है। आपको क्या लगता है, कितनी संभावना है कि उसे सच में रोग है? उसे केमोथेरपी करानी चाहिए और नहीं कराया तो वह कैंसर से मर जाएगा ? उत्तर सोच लिये? लिख कर रख लीजिये। हम यही कहेंगे कि उसे कैंसर था ही नहीं, वह थेरपी से मारा गया!
दिया गया है कि :
* १% जनसंख्या को ही कैंसर होता है, शेष ९९% को नहीं,
* यदि रोगी को कैंसर है तो परीक्षण ९५% परिशुद्ध परिणाम देता है,
* यदि नहीं है तो परीक्षण की परिशुद्धता ९०% है।
यदि कुल १०००० व्यक्ति यह परीक्षण कराते हैं तो इनमे १% = १०० ही पीड़ित होंगे, शेष ९९% = ९९०० स्वस्थ।
समूह (क) – वे १०० लोग जिन्हे कैंसर सच में था। इस समूह में ९५% परीक्षण परिणाम ठीक होते हैं अर्थात ९५ को बताया जाएगा कि उन्हें कैंसर है और वे चिकित्सा कराने लगेंगे किंतु ५ को बताया जाएगा कि वे स्वस्थ हैं और वे चिकित्सा नहीं करायेंगे तथा उसके अभाव में मारे जायेंगे।
समूह (ख ) – वे ९९०० व्यक्ति जिन्हे कैंसर नहीं था। इस समूह में ९०% का परिणाम बतायेगा कि तुम स्वस्थ हो। ९९०० का ९०% = ८९१० को परीक्षण द्वारा ठीक उत्तर मिलेगा, वे अपने घर चले जायेंगे किंतु उनमें से १०% अर्थात ९९० को कहा जायेगा कि परीक्षण के अनुसार दु:खद समाचार है, तुम्हें कैंसर है। चिकित्सा करानी होगी। उन स्वस्थ ९९० को एक तो यह धक्का लगेगा कि मुझे कैंसर है तथा वे केमोथेरपी को चले जायेंगे जो कि उनके स्वस्थ ऊतकों को ही मारेगी।
कुल कितने लोगों को कैंसर बताया गया? समूह (क) के ९५ एवं समूह (ख) के ९९०, कुल १०८५ को। इनमें कितनों को वास्तव में यह रोग था? मात्र एवं मात्र ९५ को! अर्थात जब निदान हुआ तब इसकी संभावना कि वे सच में रोगग्रस्त थे, केवल ९५/१०८५ = ८.५ %, अत्यल्प।
सोचिये कि जिसे विद्यालय में गणित का एक प्रश्न मात्र समझ आगे बढ़ गये, वास्तविक जीवन में उसका अनुप्रयोग कितना महत्त्वपूर्ण था? शिक्षा का अनुप्रयोग न करना पढ़े लिखों की एक बड़ी समस्या है। उन्हें यह करना चाहिये तथा जिन्हें ज्ञान नहीं है, उन्हें बताना भी चाहिये जिससे कि भावनाओं के ज्वार में आवश्यक धैर्य भी न बह जाये। जहाँ जीवन मृत्यु का खेल है, जहाँ चिकित्सक ढेर सारे तनावों एवं दबावों के साथ मनुष्य बने हुये ही एक मनुष्य को ‘ठीक’ कर रहा होता है, किसी ‘यंत्र’ को नहीं, सामान्य जन द्वारा भी शिक्षा का अनुप्रयोग अत्यावश्यक है।
(ध्यान दें कि गणितीय उदाहरण के माध्यम से एक मानवीय समस्या के ओझल पक्ष पर ध्यान आकर्षित करने का यह प्रयास मात्र हैं जिसमें सरलीकरण का आश्रय लिया गया है, यह अकादमिक शोधपत्र नहीं है। किन्तु, परन्तु, तर्क,वितर्क तो बहुत किये जा सकते हैं किन्तु तब सचाई का एक पक्ष आँखों से ओझल ही रहेगा।)