सनातन बोध पिछले भाग से आगे
आलस्य और दीर्घसूत्रता (टालमटोल) की प्रवृत्ति एक ऐसी समस्या है जिससे हम सभी न केवल परिचित हैं बल्कि प्रभावित भी। इसी से जुडी होती है आत्म नियंत्रण की बात। हम बहुधा अपने आवश्यक कार्यों भी को टालते जाते हैं, जैसे विद्यार्थी हर नए पाठ्यक्रम वर्ष को अत्यंत उत्साह से प्रारम्भ करते हैं परन्तु कुछ दिनों के पश्चात पुनः स्थिति वही हो जाती है! स्वस्थ रहने के लिए हम व्यायाम एवं अपने आहार को संतुलित करने को कल पर टालते रहते हैं। विद्यार्थी जीवन का उदाहरण बारंबार इसलिए भी दिया जाता है कि उसमें प्रयास और परिणाम जीवन की अन्य बातों की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से दिखते हैं।
वर्ष २००२ में छपे शोधपत्र Procrastination, Deadlines, and Performance: Self-Control में प्रो. डैन अरिएली और क्लॉस वेर्तेंब्रोच ने दीर्घसूत्रता और आत्म नियंत्रण से जुड़ी बातों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया। वे दीर्घसूत्रता को भावनाओं से जोड़ते हुए कहते हैं कि अपने लक्ष्यों का ज्ञान होते हुए भी अल्पकाल के क्षणिक सुख के लिए दीर्घकालिक लक्ष्यों को भूल जाना ही टालमटोल (Procrastination) का कारण है। जब हम अपने निर्धारित कार्यों और उनकी समय सीमा के बारे में सोचते हैं तब हम शांत मानसिक अवस्था से होते हैं लेकिन जब भावनाएं (emotions) किसी अन्य कार्य या वस्तु को देखकर विचलित होती हैं तो हम पुनः-पुनः विचलित हो अल्पकालिक सुखों के पीछे चले जाते हैं। ऐसा करने के पश्चात होते रहने वाले विलम्ब के लिए मन बहाने और कहानियाँ गढ़ लेता है। ऐसे हर बिलम्ब के साथ यही क्रम चलता रहता है। इसका हल – आत्म नियंत्रण !
इस शोध में जिन भावनाओं (emotions) की बात की गयी है उसका भाषिक अनुवाद ‘प्रमाद’ जान पड़ता है – इंद्रियों तथा अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाएं। आलस्य एवं प्रमाद पर तो सनातन ग्रंथों में अनेकानेक बातें कही गयी हैं। सुभाषित इनसे भरे पड़े हैं। ‘कल करे सो आज कर’ की बात सन्दर्भ से असम्पृक्त भी लगे तो –
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्। अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतः सुखम्॥
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो नावसीदति॥
तथा –
षड्दोषा पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता॥
जैसे अनेक सुभाषित यही बात तो कहते आये हैं!
विस्तार के लिए शोधपत्र की अन्य बातों का अवलोकन करते हैं – प्रयोग के रूप में प्रोफेसरों ने एक पाठ्यक्रम-वर्ष अवधि में अलग अलग तीन कक्षाओं के छात्रों को अभ्यास पत्र जमा करने के लिए अलग अलग नियम निर्धारित किये। पहली कक्षा में छात्रों को तीन अभ्यास पत्रों को जमा करने के लिए स्वयं ही तीन तिथियाँ चुनने का अधिकार दिया गया पर उन्हें ये भी बताया गया कि यदि उन्होंने स्वयं की चुनी हुई तिथियों के पश्चात अभ्यास पत्र जमा किये तो विलम्ब के लिए उनके अंक काटे जायेंगे। दूसरी कक्षा में छात्रों को पाठ्यक्रम की पूरी अवधि में कभी भी अभ्यास पत्र जमा करने का अधिकार दिया गया अर्थात पूरे पाठ्यक्रम की अवधि में कभी भी जमा करने के साथ उनके पास एक साथ तीनों अभ्यास पत्र वर्ष के अंत में भी जमा करने का विकल्प था। विलम्ब के लिए किसी दंड का कोई प्रावधान नहीं। तीसरी कक्षा में तिथियाँ प्रोफेसरों ने स्वयं निर्धारित कर दी। उन पूर्वनिर्धारित तिथियों तक अभ्यास पत्र जमा करने के अतिरिक्त छात्रों को कोई अन्य विकल्प नहीं दिया गया। आश्चर्य नहीं कि तीसरे वर्ग के छात्रों का प्रदर्शन सर्वोत्तम रहा एवं सम्पूर्ण स्वतंत्रता वाले वर्ग का प्रदर्शन सबसे बुरा। निष्कर्ष सरल था – आत्म नियंत्रण। प्रो. अरिएली इस निष्कर्ष के लिए कहते हैं कि हमें अपने आलस्य और दीर्घसूत्री होने की बात बहुधा पता होती है और यदि हमें अवसर प्रदान किया जाए तो हम अपने आपको सुधार भी पाते हैं (पहले वर्ग के छात्र); परन्तु तीसरे वर्ग के छात्रों के सर्वोत्तम प्रदर्शन पर वह लिखते हैं :
‘But why were the grades in the self-imposed deadlines condition not as good as the grades in the dictatorial (externally imposed) deadlines condition? My feeling is this: not everyone understands their tendency to procrastinate, and even those who do recognize their tendency to procrastinate may not understand their problem completely. Yes, people may set deadlines for themselves, but not necessarily the deadlines that are best for getting the best performance.’
सम्पूर्ण स्वतंत्रता हो तो हम दीर्घसूत्री होते जाते है। यदि कोई हमें बोध कराता रहे या कोई अन्य विकल्प न हो तो हम अपने कार्य को अपेक्षाकृत अच्छे ढंग से करते हैं। हम न केवल समय सीमा में काम करते हैं अपितु हमारे कार्य की गुणवत्ता भी श्रेष्ठतर होती है। इसका एक रोचक निष्कर्ष यह भी है कि प्रकृति से तो सभी दीर्घसूत्री होते हैं परन्तु हममें से जो यह बात जान पाते हैं वे नियम/समय सारणी इत्यादि बना कर इसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। देखें तो हमें ऐसे नियम बनाने चाहिए जिनसे हमारे पास कार्य करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही न हो। नियम से रहना अर्थात संस्कार पूर्वक रहना ! तमोगुण (अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा इत्यादि) के लक्षणों से मुक्त होने के लिए आत्म नियंत्रण एवं नियम से जीवन यापन ही तो इस शोध का निष्कर्ष है, कुछ इस प्रकार –
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
एवं आत्म नियंत्रण को तो धर्म का लक्षण ही कहा गया है –
धॄति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
प्रो. एरिअली इस सिद्धांत का उदाहरण स्वास्थ्य, व्यायाम, अध्ययन, बचत इत्यादि कई संदर्भो में प्रस्तुत करते हैं। परन्तु निष्कर्ष इतना सा है कि हमें अल्पकालिक इच्छाओं पर आत्म नियंत्रण करना चाहिए एवं नियम बना कर, सीख कर उसपर चलना चाहिए या कठोरता से उन नियमों का पालन करना चाहते हुये भी यदि नहीं कर पाए तो इसके लिए आत्मदंड का प्रावधान भी ! विद्यार्थीं कुतो सुखः? – विद्यार्थियों का सन्दर्भ है तो इस शोधपत्र को विश्वविद्यालय में न्यूनतम उपस्थिति की अनिवार्यता के विरोध में प्रदर्शन एवं दीर्घ काल तक विश्वद्यालय में ही पड़े रहने के समाचारों से जोड़कर देखें तो? विद्यार्थियों के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए प्रशासन को क्या करना चाहिए?
अगले बोध की चर्चा के लिए प्रो. जोनाथन हैद्ट की पुस्तक का अवलोकन करते हैं। प्रो. हैद्ट सामाजिक मनोविज्ञान एवं नैतिकता के अध्ययन के लिए जाने जाते हैं। वैसे तो उनके कई शोध, दर्शन से प्रभावित होने के कारण प्रयोगों से पुष्ट या वैज्ञानिक नहीं कहे जा सकते परन्तु उनके कई अध्ययन रोचक होने के साथ साथ वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं अन्वेषन पर आधारित हैं। उनकी पुस्तक The Righteous Mind में वैसे तो सामाजिक मनोविज्ञान की दृष्टि से राजनीति एवं नैतिकता की बात है परन्तु पुस्तक में सिद्धांतों की रुपरेखा बनाते हुए पहले भाग में वह सहज ज्ञान (intuition) की बात करते हैं जिसमें उनका तर्क है कि व्यक्ति पहले अपने सहज ज्ञान से कार्य करता है एवं उसके पश्चात पुष्टि के लिए उसे तर्क-संगत बना लेता है। मनोविज्ञान के इस तथ्य ‘मानव मस्तिष्क विभिन्न भागों में विभाजित है जिनमें आपस में मतभिन्नता भी होती है एवं व्यक्ति का बहुधा इन विभिन्न भागों पर नियंत्रण भी नहीं होता है (वही प्रारूप जिसकी चर्चा हम पिछले लेखांशों में कर चुके हैं)’, से वह सिद्धांत देते हैं कि व्यक्ति के लिए तर्क बहुधा विजयी नहीं होता बल्कि सहज ज्ञान होता है। इसे समझाने के लिए वह रोमन कवि ओविड की पंक्तियाँ उदहारण के रूप में देते हैं –
I am dragged along by a strange new force.
Desire and reason are pulling in different directions..
see the right way and approve it,
but follow the wrong.
इसकी व्याख्या वह डैनिअल कहनेमैन के मस्तिष्क के दो प्रणाली वाले प्रारूप से करते हैं। इस पुस्तक और उसमें दिए अन्य सिद्धांतों की चर्चा किये बिना हम उस आधारभूत सत्य जिस पर कि लगभग पूरी पुस्तक ही आधारित है, का अवलोकन करते हैं। दुर्योधन के इस प्रसिद्ध कथन का अवलोकन करें तो !
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति:, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:।
अर्थात ऐसा नहीं कि धर्म तथा अधर्म क्या है यह मैं नही जानता। परन्तु ऐसा होते हुए भी धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं एवं अधर्म से मैं निवृत्त नहीं !
क्या यह वही बात नहीं? २०१२ में छपी इस पुस्तक का कथ्य भला कितना भिन्न है? नियंत्रण से अपने पर विजय पा धर्म पथ पर चलने की बात को इस सन्दर्भ में देखें तो सब कितना जुड़ा हुआ प्रतीत होता है !