Ultra-sociality reciprocity अतिसामाजिकता पारस्परिकता –
सनातन बोध पिछले भाग से आगे
आधुनिक मनोविज्ञान के अनेकानेक सिद्धांत किस प्रकार सनातन बोध से जुड़े हुए हैं, हम इस शृंखला में देखते आ रहे हैं। स्वालंबन (self help) पर लिखी गयी लगभग समस्त पुस्तकें भी इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित होती हैं। पश्चिमी देशों में सुख पर किये गए सारे अध्ययन अंततः तथागत के उपदेश एवं योग-ध्यान (meditation) की दिशा को अभिमुख हो जाते है। तथागत इस कारण भी कि पश्चिमी भाषाओं में सनातन दर्शन में से तथागत पर ही सर्वाधिक साहित्य उपलब्ध है।
जोनाथन हैद्ट सुखी रहने के लिए मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की क्षमता पर लिखते हैं कि आधुनिक लोकप्रिय मनोविज्ञान (popular or pop-psychology) की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा इन दो कथनों में समाहित है :
पहला, बुद्ध का यह कथन – हमारा वर्तमान हमारे भूतकाल के विचारों से निर्मित होता है। हमारे वर्तमान के विचार हमारे भविष्य का निर्माण करते हैं। हमारा जीवन एक मानसिक सृष्टि है।
दूसरा, मार्कस औरेलियस का कथन – The whole universe is change and life itself is but what you deem it.
हमारे ग्रन्थ-सुभाषित भी बार-बार सुविचार और सत्संग के महात्म्य का वर्णन करते हैं, जिसकी चर्चा भी हम पिछले लेखांशों में अन्य सन्दर्भों में कर चुके हैं यथा दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते इत्यादि। साधारण शब्दों में कहें तो ‘जो जैसा सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं’ ये कहावत तो हम सबने ही सुनी है अर्थात पुनः वही सनातन बोध कि जीवन में होने वाली घटनाओं का हमारे ऊपर प्रभाव उस रूप में पड़ता है जिस रूप में हम उनका विवेचन करते हैं। यदि हम उन घटनाओं के विवेचन को सुविचार से नियंत्रित कर पायें तो हम अपने जीवन और सुख-दुःख को भी नियंत्रित कर पायेंगे। जीवन और संसार में होने वाली घटनाओं से मन में उठने वाले विचारों पर नियंत्रण कर हम यह भी नियंत्रित कर सकते हैं कि उनका हम पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है।
इसके लिए वे तीन उत्कृष्ट उपाय भी सुझाते हैं – ध्यान (meditation), संज्ञानात्मक उपचार (cognitive therapy) एवं अवसादरोधी औषधि-रसायन (Prozac), स्वाभाविक है कि ये उत्कृष्टता के क्रम में हैं तथा अवसादरोधी औषधि-रसायन तो विवादित भी हैं। अवसाद से घिरा व्यक्ति एक प्रतिपुष्टि प्रणाली (feedback loop) में फँस जाता है जिससे विकृत विचार नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं एवं उन भावनाओं से विचार आगे अधिक विकृत होते जाते हैं। ध्यान-योग से तो हम परिचित हैं ही पर संज्ञानात्मक उपचार के प्रणेता मनोवैज्ञानिक प्रो. आरोन बेक की विधियों को पढ़ें तो वे ध्यान की विधियों से परे प्रतीत नहीं होतीं। इनमें मूलतः प्रतिपुष्टि प्रणाली से बाहर निकलने के लिए मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को बदलने के लिए व्यक्ति को प्रशिक्षित किया जाता है। इन उपायों में मुख्य हैं – मन में आने वाले विचारों को लिखना, विकृत विचारों को पहचानना एवं वैकल्पिक सोच का अन्वेषण जिससे व्यक्ति अवसादग्रस्त सोच की फाँस से धीरे धीरे निकल जाता है। ये विधि संज्ञानात्मक उपचार (cognitive therapy) कहे जाते हुए भी सहायता प्राप्त ध्यान (assisted meditation) ही प्रतीत होती हैं। इनके लिए आवश्यक है मस्तिष्क और विचारों को पहचानना, ये समझना कि विचारों में परिवर्तन इतना कठिन क्यों हैं एवं किस प्रकार करना है? जोनाथन हैद्ट के ही शब्दों में – Buddha got it exactly right!
विकासवादी मनोविज्ञान में एक नया एवं रोचक सिद्धांत अतिसामाजिकता (ultra-sociality) का है अर्थात विकास प्रक्रिया में जिन जीवों ने एक दूसरे का सहयोग किया, जो सामाजिक थे, वे सबसे सफल जीव रहे। इस विषय में नृविज्ञानी (anthropologist) एवं विकासवादी मनोवैज्ञानिक (evolutionary psychologist) रोबिन डनबर की एक महत्वपूर्ण परिकल्पना सामाजिक मस्तिष्क (social brain) की है जिसमें उन्होंने दिखाया कि कशेरुकी (Vertebrate) प्राणिसाम्राज्य के हर वर्ग में प्राणियों के मस्तिष्क के लोगरिथम का आकार उनके सामाजिक विस्तार के लोगरिथम के समानुपाती होता है अर्थात जिस जीव की जितनी अधिक सामाजिकता, उसका उतना बड़ा मस्तिष्क। इसे ‘सहयोग का विकासवाद’ भी कहते हैं।
कुछ कीटों और चीटियों में अद्भुत सामाजिकता (eusociality) पायी जाती है जिसमें एक वर्ग व्यवस्था के अंतर्गत वे अपने समाज के लिए निर्धारित कार्य करते हैं। मानवों में इस स्तर की सामाजिकता तो नहीं पर मानव सामाजिकता जटिल होते हुए भी स्तनपायियों में एक अद्वितीय स्थान रखती है। विकासवादी मनोविज्ञानी इसे इस प्रकार भी देखते हैं कि समान गुणसूत्र वाले एक दूसरे के प्रति मोह भाव रखते हैं। समान गुणसूत्र वालों की रक्षा एवं पोषण करना गुणसूत्रों में ही अंतर्निहित होता है। जैसे मनुष्य के बच्चों एवं भाइयों में पचास प्रतिशत गुणसूत्र समान होते हैं, भतीजे-भतीजियों से एक चौथाई तथा चचेरे भाइयों बहनों से १/८। इस प्रकार जीवविज्ञान की दृष्टि से देखें तो कुछ जीवों में अति सामाजिकता का अर्थ यह भी है कि वे सभी एक दूसरे के भाई बहन सदृश ही हैं ! यहाँ रोचक यह है कि स्वार्थी गुणसूत्र की परिकल्पना से परे इस सिद्धांत को विकासवाद के सिद्धांत में सुधार या परिवर्तन के रूप में भी देखा जाता है जो कि मूलतः ‘व्यक्तिगत’ जीवमात्र के उत्तरजीविता का सिद्धांत था। जीव संसार के अतिरिक्त यदि इतिहास का अवलोकन करें तो वे समाज जिनमें व्यक्ति एक दूसरे के अधिक सहयोगी रहे वे अधिक सफल रहे। जहाँ योग्यतम की उत्तरजीविता व्यक्तिगत के स्थान पर सामाजिक स्तर पर रही। यहाँ सहयोग के सिद्धांत पर दर्शन एवं विज्ञान मिलते प्रतीत होते हैं। असम्बद्ध गुणसूत्रों वाले मनुष्यों का भी सहयोग करना विकासवाद के विरुद्ध होने के कारण विज्ञान और सामाजिक सिद्धांतों, दोनों के लिए अभी भी पहेली ही है पर सनातन दर्शन के लिए यह पहेली नहीं, यह बोध तो पुरातन है !
इसी से जुड़ा सामाजिक मनोविज्ञान का एक अन्य सिद्धांत पारस्परिकता (reciprocity) का है अर्थात ‘जैसे को तैसा’ का सिद्धांत। सहयोग के लिए सहयोग एवं विरोध के लिए विरोध, मानवी प्रवृत्ति – शठे शाठ्यम समाचरेत। १९७१ में डेनिस रेगन ने एक प्रयोग में दिखाया कि पारस्परिकता हमारी रुचि-अरुचि से भी अधिक प्रभावी होती है। उन्होंने एक प्रयोग में यह सिद्ध किया कि यदि किसी से सहायता माँगने के पहले हम उस व्यक्ति को किसी प्रकार का समर्थन या उपहार दे देते हैं तो हमसे उदासीनता एवं दुराव रखने वाले भी हमारा कार्य कर देते हैं क्योंकि उन्हें आभारी होने की अनुभूति होती है एवं पारस्परिकता स्वतः ही मानवी स्वभाव है अर्थात यदि हम किसी से उपहार या समर्थन लेते हैं तो भी हमारे निर्णय निष्पक्ष नहीं रह पाते। इस स्वतः मानवी व्यवहार के अनेक सामाजिक तथा व्यक्तिगत प्रभाव हैं।
अति सामाजिकता और पारस्परिकता भले विज्ञान और मनोविज्ञान को पहेली लगे, ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की परिकल्पना ऐसे ही किसी बोध से तो उपजी होगी? यही नहीं सनातन दर्शन में तो समभाव अर्थात सम्पूर्ण जीवों से समभाव की बात बारम्बार की गयी है, मनुष्य मात्र की तो बात ही क्या है – ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः, निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।‘ हो या ‘शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता : समदर्शिन :’ या ‘साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।‘
यहाँ प्रतीत होता है कि अभी विज्ञान को वहाँ तक पहुँचना शेष है। जैन सूत्रकृताङ्ग में भी व्यक्ति को वैसा ही आत्मतुल्य व्यवहार करने की सीख दी गयी है जैसा वह स्वयं के प्रति चाहता है – ‘आय तुले पयासु’।
इसका एक महत्त्वपूर्ण विवेचन यह भी है कि सामाजिक मनोवैज्ञानिक अति सामाजिकता और पारस्परिकता को सुख का कारक मानते हैं। जोनाथन हैद्ट लिखते हैं :
‘We are ultrasocial creatures, and we can’t be happy without having friends and secure attachments to other people.‘
पारस्परिकता पर कन्फ्युसियस के इस संवाद “Is there any single word that could guide one’s entire life?” The master said,“Should it not be reciprocity? What you do not wish for yourself, do not do to others.”
को उद्धृत करते हुए वह लिखते हैं – Reciprocity is an all-purpose relationship tonic. Used properly, it strengthens, lengthens, and rejuvenates social ties.
(क्रमश:)