मूल हिब्रू भाषा से उपजे शब्द ‘शैतान’ (Satan, Devil) तथा उसकी परिकल्पना को अब्राहमी मतों में केंद्रीय स्थान प्राप्त है। सरल शब्दों में, इन मतों में संसार में होने वाली नकारात्मक घटनाओं का कारण शैतान माना गया है क्योंकि ईश्वर यदि सर्वशक्तिमान एवं दयालु है तो वह संसार में होने वाली विपदाओं एवं दुःखों का कारण कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का दार्शनिक उत्तर नहीं दे पाने के कारण इन मतों में एक परम दुष्ट सत्ता अर्थात शैतान की परिकल्पना है। वैसे यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो शैतान की उपस्थिति ही कैसे सम्भव है? इसका भी सटीक, तार्किक एवं दार्शनिक उत्तर नहीं है परंतु शैतान की परिकल्पना अब्राहमी मतों की एक प्रमुख मान्यता है।
सनातन धर्म तथा सनातन परम्परा से उपजे अन्य धर्मों में भी ऐसे किसी परम दुष्ट सत्ता की परिकल्पना या वर्णन पूरी तरह अनुपस्थित है। यही नहीं, ऐसी किसी एक विशुद्ध दुष्टता (pure evil) की मान्यता के लिए शब्द भी भारतीय भाषाओं में नहीं। हिब्रू मूल से उपजे अरबी शब्द शैतान के समानार्थक कोई शब्द भारतीय वाङ्मय में नहीं है। शैतान का अर्थ या उसकी तुलना राक्षस, असुर, दैत्य, दानव इत्यादि पौराणिक प्रजातियों से करना मूर्खता ही है।
एक परम दुष्ट सत्ता की परिकल्पना के विपरीत इन प्रजातियों में भी तप, विद्वता, दान, शील, न्यायप्रिय इत्यादि सद्गुणों के साथ-साथ उन्हें भी एक ही ब्रह्म से उपजा बताया गया है। देव, दैत्य, दानव, असुर सबकी उत्पत्ति की कथाएँ एक ब्रह्मा से ही प्रारम्भ होती हैं । बलि एवं प्रह्लाद जैसे अनेक उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि किसी भी प्रजाति या प्राणी के विशुद्ध रूप से दुष्ट होने तक की बात ही सनातन धर्म में नहीं है, उसकी सत्ता या आधिपत्य होने का तो प्रश्न ही नहीं। देव, दैत्य, दानव, राक्षस इत्यादि का वर्गीकरण जीवन कर्म, जीवनचर्या तथा भौगोलिक आधार पर निर्धारित था। यही नहीं, दान तथा बल में असुर तथा राक्षस तो बहुधा देवों से श्रेष्ठ भी प्रतीत होते हैं, यथा देवों के पास अमृत था तो दैत्यगुरु के पास संजीवनी विद्या।
कर्म का सिद्धांत सनातन धर्म के मूल दर्शनों में से एक है। कर्म के सिद्धांत, कार्य-कारण-भाव तथा प्रकृति की त्रिगुणात्मकता जैसे दर्शनों के कारण सनातन धर्म में शैतान की परिकल्पना की आवश्यकता भी नहीं। इसी प्रकार अन्य धार्मिक मतों यथा जैन, बौद्ध, सिख इत्यादि में भी ऐसी कोई परिकल्पना नहीं है। संसार का अच्छे-बुरे, श्याम-श्वेत में वर्गीकरण ना होकर यहाँ एक बृहत् अवधारणा है – शैतान के परिकल्पना की आवश्यकता भला क्यों होगी? यदि कोई व्यक्ति राक्षस, दानव, असुर इत्यादि की तुलना शैतान से करता है तो यह उसके अधूरे ज्ञान को ही प्रदर्शित करता है।
सनातन दर्शन में गुरु के सान्निध्य में जटिल से जटिल अज्ञानी एवं पापी के महाज्ञानी हो जाने के अनेक संदर्भ हैं। वाल्मीकि एवं अंगुलीमाल जैसों के उदाहरण वाली संस्कृति में किसी व्यक्ति के दुष्ट होने या घटना के दुस्सह दारुण होने पर भला क्यों किसी परम दुष्ट सत्ता की परिकल्पना की आवश्यकता रहेगी? सनातन दर्शन एवं अद्वैत में घटना या व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, उसका कारण भी है और निवारण भी! devil, pure evil तथा शैतान जैसे शब्दों का सनातन धार्मिक परम्पराओं में कोई स्थान नहीं है। मनुष्य के विभिन्न होते हुए भी सह-अस्तित्व की कल्पना इन धर्मों का मूल है। यही नहीं सनातन ज्ञानी का अर्थ ही है संसार को इन बातों के परे देखने की दृष्टि होना।
ऐसी अनेक धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएँ व्यक्ति की मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालती हैं। स्वाभाविक ही है कि इन मान्यताओं को आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से देखने पर रोचक परिणाम मिलते हैं। व्यक्ति की मान्यताएँ उसके व्यक्तित्त्व तथा सोचने की प्रणाली को किस प्रकार से प्रभावित करती हैं, यह लम्बी अवधि से शोध का विषय रहा है। इस संदर्भ में एक प्रमुख अध्ययन है उन व्यक्तियों का अध्ययन जो विशुद्ध दुष्टता (pure evil) में विश्वास रखते हैं।
कैनसस स्टेट विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉनल्ड सॉसीअर तथा रसेल वेब्स्टर ने वर्ष २०१५ में Personality and Individual Differences में प्रकाशित अपने शोध में यह दर्शाया कि विशुद्ध दुष्टता (pure evil) में विश्वास करने वाले व्यक्तियों की मनोदशा मृत्युदण्ड को लेकर उनके विचारों को प्रभावित करती है। इस अध्ययन में पाया गया कि वैसे व्यक्ति जो pure evil में विश्वास करते हैं, वे मृत्युदण्ड तथा आजीवन कारावास के प्रबल समर्थक भी होते हैं। लेखकों के अनुसार इसका कारण शैतानीकरण (demonization) है अर्थात pure evil में विश्वास करने वाले व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को सहज ही दुष्ट तथा अमानवी रूप में देखने लगते हैं। स्वाभाविक है कि हिंसा तथा आक्रामकता की प्रवृत्ति ऐसे व्यक्तियों को अति प्रतिशोधी भी बनाती है।
जुलाई, २०१३ में Personality and Social Psychology Bulletin में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन Angels and Demons Are Among Us: Assessing Individual Differences in Belief in Pure Evil and Belief in Pure Good में शोधकर्ताओं ने पाँच विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह स्थापित किया कि pure evil में दृढ़ विश्वास करने वाले व्यक्ति हिंसा के अधिक समर्थक तथा अंतरसामुदायिक एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों को लेकर स्वभावत: आक्रामक (aggressive) होते हैं।
अपने अध्ययन पर दिए गए एक साक्षात्कार में लेखकों ने इसे इस रूप में रखा :
“First, our research showed that people who more strongly believe in pure evil supported the use of the death penalty, wanted harsher sentences for more a variety of crimes, and more greatly opposed criminal rehabilitation. Such individuals also preferred more aggressive approaches to foreign policy over more peaceful routes. Most telling, I think, is that people who more strongly believed in pure evil see the world as a more dangerous place and strongly feel that pre-emptive violence is more justifiable (in fact, of all the different political variables we looked at, the only predictor of pre-emptive aggression was belief in pure evil) …Conversely, it appears that people who more strongly believe in pure good overall take a more empathic, peaceful, and nuanced approach to handling intergroup or international problems. First, we found that people who more strongly believed in pure good opposed the death penalty more and strongly endorse criminal rehabilitation programs. Such individuals also preferred more peaceful routes over more aggressive approaches to handling foreign problems. Most telling, people who more strongly believed in pure good reported feeling greater perspective taking and empathy for others’ plights, see the world as a less competitive place, and strongly supported diplomacy and humanitarian efforts by the US. Such individuals also more greatly supported social programs benefiting those most unfortunate and who cannot help themselves.”
यह अभी भी एक शोध का विषय है, पर अध्ययन से निकलने वाले निष्कर्षों की दिशा स्पष्ट है। इन अध्ययनों से यह भी स्पष्ट है कि धार्मिक मान्यताएँ किस प्रकार व्यक्तित्त्व को प्रभावित करती हैं। अंधकार की एक सत्ता होने के स्थान पर अंधकार से प्रकाश की ओर चलने की परिकल्पना को इस दृष्टि में पढ़ें तो वह और सुंदर लगने लगती है :
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतङ्गमय ॥
संसार में सह-अस्तित्व के लिए यह भी तो कहा गया है :
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥
सनातन दर्शन में ऋण और धन, वस्तुतः एक ही प्राण शक्ति के दो रुप हैं, दो गतियाँ हैं, दो स्थितियाँ हैं। कर्म-कारण-भाव से ज्ञान दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के लिए इन युग्मों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है। इस भेदाभास के भ्रम अर्थात सृष्टि से निर्मूल होना ही तो ज्ञान प्राप्ति है !
महाभारत के इस श्लोक का भी अवलोकन करें :
नात्यन्तं गुणवत्किंचिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्। उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु च॥
अर्थात कोई भी कार्य हर दृष्टि से अच्छा नहीं होता तथा कोई भी कार्य हर दृष्टि से बुरा नहीं, हर कार्य में अच्छे और बुरे दोनों उपस्थित होते हैं, पुनः अनेकांतवाद !
Image courtesy : https://pixabay.com