Let go बीती ताहि बिसार दे । अतीत को लेकर पश्चाताप शोक (regret) या ग्लानि एक अत्यंत ही सामान्य भावनात्मक प्रक्रिया है। अतीत की घटनाओं के बारे में सोचते हुए हम सभी के मस्तिष्क में बहुधा ‘ऐसा हुआ होता तो’ या ‘हमने ऐसा किया होता तो’ जैसे विकल्प स्वाभाविक रूप से उपजते रहते हैं। परन्तु ऐसी मानसिक अवस्था पश्च दृष्टि (hindsight) भ्रांति से मस्तिष्क में अनेक अवास्तविक भ्रांतियाँ उत्पन्न करती हैं जिससे पश्चाताप शोक (regret) की उत्पत्ति होती है।
इस सर्व साधारण सी अवस्था का मनोवैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन किया है। अध्ययनों का निष्कर्ष यह है कि अतीत में चुने गए विकल्पों और बातों से व्यथित होना या काल्पनिक विकल्पों के बारे में शोक करना मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। विशेषकर दीर्घावस्था में मानसिक स्वास्थ्य को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारकों में एक यह भी होता है कि हम ऐसे स्वप्निल विचारों में कितना खोए रहते हैं।
मई २०१२ की ‘साइन्स‘ पत्रिका में हैम्बर्ग चिकित्सा केंद्र के तंत्रिका विभाग के शोधकर्ताओं का शोध Don’t Look Back in Anger! Responsiveness to Missed Chances in Successful and Non-successful Aging प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन के अनुसार दीर्घावस्था में मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अतीत के गँवाए गए अवसरों को मन से निकाल दे – letting go of regrets about missed opportunities and disengagement from regret reflects a critical resilience factor for emotional health in older age.
इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग अतीत की बातों को मन से निकाल देते हैं, उनकी तुलना में पश्चाताप शोक एवं ग्लानि (regret) करने वाले व्यक्ति अधिक मानसिक अवसाद में होते हैं। शोधकर्ताओं ने दो विभिन्न प्रयोगों में इस बात की पुष्टि की। एक अध्ययन में उन्होंने विभिन्न व्यक्तियों के मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों के आधार पर उनके पश्चाताप शोक (regret) का निर्धारण किया तथा यह पाया कि स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति अतीत एवं पश्चाताप शोक के बारे में उस प्रकार से नहीं सोचते जैसे मानसिक रोग से पीड़ित मस्तिष्क। इसी अध्ययन में यह भी पाया गया कि यदि गँवाया हुआ अवसर सापेक्षतया बड़ा हो तो स्वस्थ मस्तिष्क उसे उतने ही सक्रिय रूप से मन से निकालने का प्रयास करता है।
अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने व्यक्तियों के त्वचा प्रवाहकत्त्व (skin conductance ) तथा हृदय गति का अवलोकन किया। ये दोनों ही भावनाओं के साथ परिवर्तित होते हैं। इन मापकों द्वारा भी यह निर्धारित हुआ कि अल्प पश्चाताप शोक करने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ होते हैं। इस अध्ययन के संदर्भ में ‘साइण्टिफ़िक अमेरिकन‘ में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार दीर्घावस्था में मानसिक रोगियों की संख्या में हो रही वृद्धि को देखते हुये वृद्धों के लिए इस अध्ययन का महत्व अत्यधिक है क्योंकि युवावस्था में सम्भवतः गँवाए अवसरों को ठीक करने के कुछ अवसर पुनः मिल जाएँ परंतु वृद्धों के लिए ऐसे अवसर मिलने के लिए समय अल्पतर होता जाता है जो मानसिक रोग में वृद्धि का कारण बनता है।
शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन के आधार पर ऐसी संज्ञानात्मक मनोचिकित्सा (cognitive-behavioral therapy) की अनुशंसा की जिससे व्यक्ति को अतीत की बातों से मुक्त किया जा सके।
यहाँ यह समझना भी रोचक है कि मस्तिष्क में अतीत की घटनाओं की स्मृति बहुधा विकृत ही होती है, विशेष रूप से भावनाओं से ओत प्रोत घटनाओं की। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक रोजर ब्राउन तथा जेम्स कूलिक ने १९७७ में उन्हें स्फुरदीप स्मृतियाँ (flashbulb memories) कहा। ऐसे अनेक अध्ययन हैं जिनमें यह स्थापित हुआ है कि तीव्र भावनात्मक स्मृतियाँ समय के साथ द्रुत त्वरित गति से विकृत होती जाती हैं। परंतु हमें ऐसा अतिविश्वास होता है कि प्रत्येक बात हमें यथारूप स्मरण है किंतु उसकी आँकड़ों से पुष्टि नहीं होती। अर्थात विडम्बना यह है कि एक साथ ही हमें पूर्ण विश्वास भी होता है कि हमें अतीत के संवाद एवं घटनाएँ अक्षरश: स्मरण हैं तथा साथ में हमें जो स्मृति रहती है, वह उनके विकृत रूपों की होती है।
‘साइण्टिफ़िक अमेरिकन‘ में स्मृति (memory) पर प्रकाशित एक आलेख के अनुसार Memories forged under strong emotions distort considerably eventhough, paradoxically, they seem so vivid that we hold a misguided confidence in their fidelity. भावनाओं के प्रवाह में हमारी स्मृति स्थायी होती जाती है परन्तु साथ ही वह हमारी वर्तमान की भावनाओं के प्रभाव से नया रूप भी लेती जाती है। अमेरिका में ९/११ आतंकी घटना से जुड़ी स्मृतियों का अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिक विलियम हर्स्ट कहते हैं – we tend to reconstruct our emotional past in a way that’s consistent with the way we currently are emotionally reacting.
ऐसा केवल दुखद घटनाओं के साथ ही नहीं, परंतु सुखद घटनाओं के साथ भी होता है। विकासवादी मनोविज्ञान भी इस बात का समर्थन करता है, जिसके विशेषज्ञों के अनुसार मानव स्मृति का विकास अतीत के (विशेष रूप से भावनात्मक अनुभवों के) एक स्थायी, सत्य एवं निष्ठ अभिलेखन हेतु हुआ ही नहीं है! मानव स्मृति का विकास तो मनुष्य को भ्रमित कर उसे भविष्य के लिए सन्नद्ध करने को हुआ जिसके लिए मस्तिष्क स्मृतियों को पुनर्गठित करता रहता है और हम पुनर्गठित भ्रामक स्मृति को सत्य मानते रहें इसके लिए आवश्यक है कि हम उन्हें सत्य मानते रहें – पुनः वही भ्रम का मायाजाल।
Forgetting is Key to a Healthy Mind नामक आलेख में इंग्रिड विकेलग्रेन अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों के संदर्भ देते हुए इस बात की पुष्टि करती हैं –
The ability to let go of thoughts and remembrances supports a sound state of mind, a sharp intellect— and even superior memory. अर्थात विकृत स्मृतियों और उनसे उपजे काल्पनिक परिदृश्यों को सोच मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने के स्थान पर अतीत को भूल जाना ही उत्तम।
सनातन दर्शन और ध्यान में अतीत को भूल वर्तमान में जीने के अनेक संदर्भ हैं। किं बहुना? यह दर्शन तो आधुनिक पश्चिमी योग मंत्र ‘let go’ में ही दिखाई पड़ जाता है। ‘बीती ताहि बिसारि दे’ जैसी उक्तियों में भी यही बात है। अतीत को भूल वर्तमान में जीने का दर्शन तो निर्विवाद सनातन ही है। बुद्ध के दर्शन में भी इसका ही प्रतिरूप दिखाई पड़ता है। अनेक सनातन ग्रंथों में उपस्थित इस दर्शन का एक सरल रूप महान ध्यानयोगी तिलोपा ने प्रस्तुत किया। लगभग १५०० वर्ष पूर्व नेपाल के पशुपातिनाथ मंदिर में सिद्धि प्राप्त करने वाले तिलोपा के छः दर्शनों का अवलोकन करें – अभिज्ञान (अतीत के विचारों का पीछा न करें), आकलन (वर्तमान के विचारों का पीछा न करें), कल्पना (भविष्य में क्या घट सकता है इसकी कल्पना न करें), परीक्षण (अपने विचारों का विश्लेषण न करें), निर्माण (एक अनुभव को निर्मित करने की चेष्टा न करें), विचलन (इधर-उधर न भटकें, मात्र इसी क्षण में स्थित रहें)।
विस्तृत अर्थ में देखें तो सनातन मोक्ष और मुक्ति शब्दों की निष्पत्ति ही मुच् धातु से त्यागना, या स्वतन्त्र होना या छुटकारा पाना अर्थ में हुआ है – ‘बंधनम् मुच्यते मुक्ति‘।