पिछले भाग से आगे
पिछले लेखांशों में हमने अनेक पश्चिमी विचारकों के भारतीय ग्रंथो पर दिए गए विचारों का अवलोकन किया। उनके द्वारा सनातन बोध को आधुनिक सिद्धांतों से जोड़ने का प्रयास सराहनीय है परन्तु यह भी सच है कि भाषानुवाद की सीमायें और पश्चिमी सोच-प्रणाली में अंतर होने से बहुधा ऐसे विचार प्रमुख सिद्धांतों की परिभाषा तक ही सीमित प्रतीत होते हैं। पश्चिमी विद्वान सनातन ग्रंथों के अनुवाद पढ़ते हुए गहराई में न जाकर कर्म, निर्वाण, संसार, दुःख, योग जैसे कुछ प्रचलित शब्दों तक ही सीमित रह जाते हैं, साथ ही संस्कृत, पाली और प्राकृत के मूल शब्दों में परिभाषित सिद्धांतों की पश्चिमी जनमानस के लिए सम्यक व्याख्या भी लगभग असंभव है। जिन्हें हम संस्कार और जन श्रुतियों से स्वतः ही समझ लेते हैं, उन सिद्धांतों की अनेक बार हास्यास्पद सी लगने वाली व्याख्यायें पढ़ने को मिलती हैं परन्तु सुन्दरता इस बात में है कि ऐसा होते हुए भी आधुनिक मनोविज्ञान में प्राचीन विलक्षणता को उचित स्थान मिल पा रहा है !
प्रेम, सम्बन्ध, मोह, लगाव और दाम्पत्य जटिल विषय होने के साथ लोकप्रिय मनोविज्ञान (popular psychology) के विषय भी रहे हैं। इस बहुआयामी जटिल विषय को नियम में बाँधना सरल तो है नहीं, स्वाभाविक ही इस विषय पर एकमत वाले व्यापक सिद्धांतों का अकाल है। जॉन बोव्ल्बी और मैरी अन्स्वेर्थ के आसक्ति सिद्धांत (attachment theory) को इस दिशा में एक मौलिक शोध माना जाता है। आचार शास्त्र (ethology), सम्प्रेषण विज्ञान (cybernetics), विकासवाद, सूचना प्रसंस्करण (information processing) एवं मनोविज्ञान के सिद्धांतों से प्रेरित होकर उन्होंने यह सिद्धांत दिया। एक शिशु के माँ से लगाव-सम्बन्ध तथा वियोग की अवस्था में उनपर होने वाले मानसिक प्रभाव को समझने में इस सिद्धांत से अतिशय सहायता मिलती है।
आसक्ति सिद्धांत मूलतः यह बताता है कि शिशुओं के व्यवहार के दो मुख्य लक्ष्य होते हैं – सुरक्षा एवं पर्यवेक्षण (safety and exploration)। सुरक्षा तो उत्तरजीविता के सिद्धांत से स्वाभाविक ही है अर्थात जो शिशु जो सुरक्षित रहते हैं वही जीवित भी रहते हैं। पर्यवेक्षण अर्थात वे शिशु जो अधिक से अधिक खेलते-कूदते हैं और परिवेश की उत्सुकता से जाँच पड़ताल करते हैं वही व्यस्क जीवन में अधिक कुशल एवं बुद्धिमान निकलते हैं। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं क्यों कि सुरक्षित रहने वाला पर्यवेक्षी नहीं हो सकता परन्तु विकासवादी जीवविज्ञान के अनुसार यह प्रक्रिया इस प्रकार कार्य करती है कि जब तक शिशु अपने को सुरक्षित पाते हैं तब तक वे बहुत अधिक खेलते हैं एवं अन्वेषी होते हैं परन्तु जैसे ही वे कम सुरक्षित अनुभव करते हैं, वैसे ही अपनी माँ को ढूंढ़ते हैं। सुरक्षा नहीं मिलने पर वे रोने लगते हैं एवं स्पर्श, प्रेमभाव इत्यादि से जब तक उन्हें सुरक्षा की अनुभूति नहीं होती है तब तक वे पुनः खेलते नहीं अर्थात शिशु मस्तिष्क की प्रणाली कुछ ऐसी होती है कि ये परस्पर विरोधी बातें एक संतुलित अवस्था में रहती हैं। जब शिशुओं को लम्बी अवधी तक किसी कारणवश इस ममता से दूर रहना पड़ता है तो वे शिथिल तथा निराश हो जाते हैं। अधिकांशत: यह प्रभाव उनका आजीवन व्यक्तित्व ही बन जाता है। जॉन बोव्ल्बी ने पाया कि शिशुओं को जितनी अधिक सुरक्षा की भावना एवं स्नेह मिलते हैं, वे उतने स्वस्थ एवं स्वतंत्र होते हैं।
डेन्वर विश्वविद्यालय के सिंडी हजान और फिलिप शावर वयस्क प्रेम (romantic love) को इसी शिशु स्नेह-लगाव-वियोग के आसक्ति सिद्धांत की दृष्टि से समझने का प्रयास करते हैं।
अपने शोध में उन्होंने पाया कि वयस्कों मे प्रेम-वियोग (साथी से अलगाव, सम्बन्ध-विच्छेद/ब्रेकअप या मृत्यु) की अवस्था में वही स्थिति होती है जो शिशुओं की असुरक्षा वाली स्थिति में – व्यग्रता, घबराहट, आलस्य, ग्लानि और विषाद (depression) उसके पश्चात भावात्मक अनासक्ति (emotional detachment) से निवृत्ति का क्रम। मनोवैज्ञानिक और मानसिक रूप से भी वही प्रणाली सक्रिय हो जाती है। ये समानतायें यहीं तक नहीं हैं। प्रेम और सम्बन्ध-विच्छेद (romantic love and breakup) दोनों ही अवस्थाओं में वही अंत:स्राव एवं मस्तिष्क के वही भाग सक्रिय होते हैं जो शिशुओं और माताओं के सम्बन्ध में होते हैं। प्रेम में पड़े युगल एक दूसरे के साथ निश्चिन्त होकर असीमित समय व्यतीत करते हैं। उन्हें किसी बात का तनाव नहीं प्रतीत होता। इस अवस्था में वे कुछ भी करने को तत्पर होते हैं। मनोविज्ञान के अनुसार यह एक व्यसन (addiction) की भाँति होता है। अंत:स्राव के प्रवाह से मस्तिष्क उसी प्रकार प्रभावित होता है जैसे माताओं में लालन-पालन और देखभाल करने की भावना, माताओं में शिशुओं के समीप होने पर तनाव की भावना का क्षीण हो जाना इत्यादि। यह प्रभाव युगलों को संतुष्ट और प्रसन्न करने वाला होता है। वयस्क स्त्रियों में शिशुओं के जन्म और पुरुष और स्त्री दोनों में ही बच्चों के लालन पालन के अतिरिक्त सर्वाधिक मात्रा में इस प्रकार की अवस्था (अंत:स्राव प्रवाह) वयस्क प्रेम एवं सम्भोग के समय ही होता है। यदि इन बिन्दुओं को जोड़ें तो एक रोचक बात निकल कर साक्षात होती है कि माँ-शिशु के ममता (लगाव), देख-भाल (caregiving) और वयस्क समागम (mating) की अवस्थाओं के सम्मिश्रण से मस्तिष्क के जो विभाग सक्रिय होते हैं और जो अवस्था उत्पन्न होती है, मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से वही romantic love है।
जब यह बात स्थापित हो जाती है तब इससे व्याख्या निकलती है, आधुनिक प्रेम जनित स्थिति की !
एलेन बेर्स्चिएद और एलैन वाल्स्टर प्रेम एवं सम्बंधों का अध्ययन करते रहे हैं। उपर्युक्त वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर वे प्रेम संबंधों को दो रूपों में विभाजित करते हैं – आवेशी (Passionate) और साहचर्य (companionate)। इन दोनों का वर्णन जान लेने पर यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि आवेशी वह है जिसे ग्रंथो में कामुक या तामसी कहा गया है एवं साहचर्य अर्थात गृहस्थ और दाम्पत्य।
प्रेम में व्यक्ति के पड़ने (falling in love) को मनोवैज्ञानिक आवेशी प्रेम कहते हैं। आधुनिक प्रेम ढूँढ़ने वालों को यह विश्वास होता है कि सच्चे प्रेम का स्वरूप आवेशी होता है। उन्हें लगता है कि यही अवस्था चिरकालिक होती है, यही सच्चा प्रेम होता है। पश्चिमी प्रेम की अवधारणा यही है कि यदि आप को किसी से सच्चा प्रेम हो तो उसके साथ रहना चाहिये, उससे विवाह करना चाहिये एवं यदि प्रेम घट गया हो तो उसे छोड़ पुनः प्रेम ढूँढ़े क्यों कि वह सच्चा प्रेम नहीं था। चूँकि सच्चा प्रेम होता है और यदि आपको सच्चा साथी मिला तो चिरकाल के लिए सच्चा प्रेम भी मिल जायेगा। परन्तु उपर्युक्त वर्णित वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर मनोवैज्ञानिक इसमें एक समस्या पाते हैं – क्योंकि उनके अनुसार ‘शाश्वत आवेशी प्रेम’ असंभव है। एलेन बेर्स्चिएद और एलैन वाल्स्टर आवेशी प्रेम के लिए कहते हैं – “wildly emotional state in which tender and sexual feelings, elation and pain, anxiety and relief, altruism and jealousy coexist in a confusion of feelings.” इसे ही लोग सच्चा प्रेम समझते हैं और यहाँ रोचक यह है कि शाश्वत होना इस प्रेम की नियति है ही नहीं !
और साहचर्य? “the affection we feel for those with whom our lives are deeply intertwined.” जो प्रेम धीरे धीरे वर्षों में पनपता है, जिसमें देखभाल और ममता पनपती हैं, एक दूसरे पर निर्भरता, प्रेम जो साहचर्य से अंकुरित होकर उत्तरोत्तर, धीरे धीरे विकसित होता है, सुख-दुःख के साथी। आवेशी प्रेम अर्थात एक मादक व्यासङ्ग या व्यसन । जोनाथन हैद्ट लिखते हैं – If the metaphor for passionate love is fire, the metaphor for companionate love is vines growing, intertwining, and gradually binding two people together. So, if passionate love is a drug—literally a drug—it has to wear off eventually.
और यहाँ एक अत्यंत रोचक बात यह भी है कि आवेशी प्रेम साहचर्य प्रेम में परिवर्तित नहीं होता। ये दोनों नितांत ही भिन्न प्रक्रियायें हैं, इनके होने की अवधि एवं प्रक्रिया सूत्र एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं। आवेशी प्रेम में पड़े युगल विवाह की सोचते हैं तथा कर भी लेते हैं, जिसे मनोवैज्ञानिक एक विपर्यास मानते हैं क्योंकि यह बहुधा असफल होता है। मदान्धता घटती है, उन्माद की तीव्रता धुँधली पड़ जाती है एवं यही वह समय होता है जब सम्बन्ध-विच्छेद होता है। आवेशी प्रेम में पड़े युगलों के लिए यह अच्छी बात ही होती है परन्तु बहुधा वे यह समझ नहीं पाते। पुनः, सामाजिक मनोविज्ञानी जोनाथन हैद्ट इस बात पर लिखते हैं,“True love exists, I believe, but it is not—cannot be—passion that lasts forever. True love, the love that undergirds strong marriages, is simply strong companionate love, with some added passion, between two people who are firmly committed to each other.”
अर्थात सच्चे प्रेम के नाम पर संसार से लड़ने वाले प्रेमियों को बहुधा यह पता ही नहीं होता कि वे जिस बात के लिए लड़ रहे हैं,वह सच्चा प्रेम है ही नहीं ! जो उन्हें हुआ होता है, वह मद-व्यसन सच्चा प्रेम नहीं होता। इस भ्रम जाल में वे उलझन में पड़े व्यथित मिल जाते हैं एवं जो कभी इस प्रकार के प्रेम में पड़े ही नहीं, वे अद्भुत रूप से एक दूसरे के लिए समर्पित दाम्पत्य जीवन जी लेते हैं। यह बात अनेक लोगों की समझ से परे होती है कि बिना प्रेम कोई विवाह कैसे कर सकता है परन्तु यदि कोई अध्ययन करे तो यह पुरातन कह दी जाने वाली विचारधारा तो सार ही प्रतीत होती है इन आधुनिक सिद्धांतों का!
अद्भुत है कि अभी तक हमने कहीं भी यह नहीं कहा कि क्या उचित है क्या अनुचित। ग्रंथों में तो आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन है जिनमें आवेशी प्रेम का भी स्थान है पर यदि वैदिक एवं पौराणिक कथाओं में वर्णित आवेशी प्रेम का अवलोकन करें तो पुरुरवा-उर्वशी, विश्वामित्र-मेनका … परिणति? – दुर्भाग्य एवं शोकान्त ! एलेन बेर्स्चिएद और एलैन वाल्स्टर के आवेशी प्रेम की व्याख्या एवं इन कहानियों में नितांत एक सी ही बात मिलती है। कथाओं में किसी के प्रेम में पड़ कर सुध-बुध खो देने, शाप तथा स्मृति लोप तक हो जाने की यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या की जाय तो आवेशी प्रेम का पूरा शोधपत्र स्पष्ट हो जाता है।
और साहचर्य ? आह ! इन अध्ययनों से समझ में आता है कि क्यों हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, क्यों गृहस्थ की इतनी महिमा है। पौराणिक कथाओं को देखें तो एक कथा स्मृति में आती है – शुकदेव जी की। आवेशी एवं कामुक संसार की विभेदकारी दृष्टि हो जाने के पश्चात आजीवन ब्रह्मचारी रहने का निर्णय लेने पर व्यासजी का उनको जीवनमुक्त-ब्रह्मज्ञानी-विदेह जनक के पास भेजना और उनका उन्हें उपदेश देना, मानों जनक शुकदेवजी को आवेशी एवं साहचर्य प्रेम का अंतर ही स्पष्ट कर रहे हों – बंधन देह और घर में नहीं, अहंता एवं ममता में है।
दूसरा महादेव भोलेनाथ के परिवार का वर्णन। उनका अर्द्धनारीश्वर स्वरुप हो या संसार की सारी विषमताओं और विरोधाभासों के होते हुए भी विलक्षण सामञ्जस्य – साहचर्य प्रेम का इससे विलक्षण उदाहरण भला कहाँ संभव है ! कहाँ शिव और कहाँ गौरा ! मयूर और सर्प हो या नंदी और सिंह… परन्तु तब भी आदर्श साहचर्य। इस अनंत तक चले जाने वाले वर्णन को यहीं रोक अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि विवाह एवं गृहस्थ की सनातनी अवधारणा में संबध-विच्छेद के लिए कोई औपचारिक शब्द तक नहीं ! यदि चिर सुख की बात हो तो सनातनी बोध से अच्छे विचार भला कहाँ मिलेंगे। हिन्दू विवाह मन्त्रोच्चार के साथ प्रतिज्ञा होती है, एक धार्मिक संस्कार जो आवेशी प्रेम से परे कर्तव्यों, निष्ठा एवं उत्तरदायित्व पर आधारित है। उत्तरोत्तर सेवा-शुश्रूषा, पालन-पोषण, ज्ञान, प्रेम, त्याग, सहिष्णुता के पथ पर अग्रसर – इसकी परिभाषा है।
यहाँ यह भी देखना रोचक है कि इस सन्दर्भ में काम की कहीं भी निंदा नहीं की गयी है। काम को पुरुषार्थ-चतुष्टय में तृतीय पुरुषार्थ के साथ देव भी माना गया है, असुर नहीं। महाभारत शांतिपर्व में कहा गया है :
गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते। यत्र पक्वकषायो हि दान्तः सर्वत्र सिध्यति॥ (12.240.6)
और मनोविज्ञान के सिद्धांतों से सज्जित जोनाथन हैद्ट की परिभाषा वाले सच्चे प्रेम को समझना हो तो भला पति पत्नी के इस मन्त्र से सुन्दर रूप में क्या कोई सिद्धांत कह पायेगा !
अमोऽहमस्मि सा त्वं सामाहमस्म्यृक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् । ताविह सं भवाव प्रजामा जनयावहै ॥
(अथर्ववेद,शौ.शा., 14, 2.71)
मैं प्राण हूँ, तू शक्ति है। मैं साम हूँ, तू ऋक् है। मैं द्यौ हूँ, तू पृथ्वी है। हम दोनों पारस्परिक स्नेह से संयुत हो श्रेष्ठ संतति को जन्म दें।
अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम् । अन्तः कृष्णुष्व मां हृदि मन इन् नौ सहासति ॥
(अथर्ववेद,शौ.शा., 7, 36.1)
हम दोनों की आँखों में मधु सदृश स्नेह हो, जिनके अग्रभाग उत्तम अञ्जन से युक्त हों। अपने अन्तर में तुम मुझे स्थान दो, हम दोनों के मन सदैव मिले रहें।
ऋग्वेद का यह विवाह मन्त्र देखें –
समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ । सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥ (10.85.47)
हम प्रसन्नता पूर्वक गृहस्थाश्रम में साथ रहने के लिए एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं। हमारे हृदय उस प्रकार मिल जायें जैसे अलग अलग जल मिलते हैं। जैसे प्राणवायु सबको प्रिय है वैसे हम दोनों एक-दूसरे को प्रिय हों; जैसे परमात्मा सारे जगत में व्याप्त है वैसे ही हम एक-दूसरे को धारण करें; जैसे वक्ता को श्रोताओं से प्रीति होती है वैसे हम एक-दूसरे के दृढ़ प्रेम को धारण करें।
सप्तपदी के सात वचनों में भी चिर सखा होने की प्रार्थना एवं प्रतिज्ञा हैं ही।
यह एक ऐसा विषय है जिसपर विभेदकारी बुद्धि बहुधा मोह से भ्रमित ही होती है। कितने भी स्पष्ट रूप से समझा दिया जाय, सत्य देखना लगभग असंभव होता है। परन्तु विलक्षण बात यह है कि यहाँ भी आधुनिक सिद्धांतों एवं प्राचीन मनीषियों के गहन चिंतन में कोई विरोधाभास नहीं है।
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