शाकम्भरी पूर्णिमा।
शून्य से आरम्भ कर आज ‘मघा’ के 24 अमा-पूर्णिमा अङ्क पूरे हुये, एक सोम चक्र पूर्ण हुआ। वर्ष भर पहले आज ही, पौष पूर्णिमा के दिन से ‘मघा’ का पाक्षिक प्रकाशन आरम्भ किया गया था, उस दिन से जिसके अगले दिन से माघ मास प्रारम्भ होता है। वैदिक एवं पौराणिक स्रोतों में माघ से संवत्सर होने के उल्लेख भी हैं।
दोनों विषुव तथा दोनों अयनांतों के निकट देवी के चार नवरात्र पर्व होते हैं। पर्व की सङ्गति पूर्णता से भी है तथा पोर से भी, एक निश्चित गठन। भोजपुरी में ईंख की गाँठ को पोर कहते हैं। वर्षगाँठ शब्द अर्थगहन है कि नहीं? आज ‘मघा’ की पहली वर्षगाँठ है।
चार नवरात्रों में अयनांत के निकट के दो नवरात्र गुप्त तांत्रिक साधनाओं के माने जाते हैं जबकि विषुवों के निकट के नवरात्र जन जन द्वारा मनाये जाते हैं। शीत अयनांत (1 पौष, भारत गणराज्य संवत) के निकट के नवरात्र की आज पौष पूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति होती है। यह नवरात्र उत्तर में चौहानों की पूज्या देवी शाकम्भरी तथा दक्षिण में कल्याणी के चालुक्यों की आराध्या वनशङ्करी को समर्पित है।
चौहानों की पुरातन राजधानी साम्भर शाकम्भरी का ही अपभ्रंश है। पश्चिम में पुणे, पूरब में कटक एवं उत्तरप्रदेश के जसमौर में देवी के प्रसिद्ध मंदिर हैं। देश के अन्य भागों में भी देवी शाकम्भरी के मंदिर हैं। मार्कण्डेय पुराण में देवी के इस अवतार का उल्लेख है:
काततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः। भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥91.45॥
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि। तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्।
दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति ॥91.46॥
दक्षिण के अय्यरों में यह दिन बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा इस दिन से ही उनके वर्ष पर्व आरम्भ होते हैं। इन सभी विवरणों से स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण भारत देश में शीत अयनांत की अवधि के निकट की पूर्णिमा से, तब जब कि सूर्य उत्तरायण होते हैं, नववर्ष मनाने की परम्परा रही जो आज भी परिवर्तित रूप में प्रचलित है तथा जो शीत अयनांत पर्व को परवर्ती मकर संक्रांति से जोड़ देने के बहुत पहले से है।
छत्तीसगढ़ में छेरता पर्व में आज भी पौष पूर्णिमा मनाई जाती है तथा उस दिन संक्रांति खिचड़ी की भाँति ही तिल, गुड़, भुना चिउड़ा, लाई इत्यादि का उत्सवी उपभोग होता है। उत्तरायण होते सूर्य वनस्पति, शाक, शस्य इत्यादि सबके लिये अभिवृद्धिकारक होते हैं, आगामी मधु ऋतु हेतु समस्त धरा की सज्जा के प्रस्तावक होते हैं, उत्सव तो होना ही है। भारत में समस्त दिशाओं में मनाया जाने वाला यह अल्पज्ञात पर्व राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के सांस्कृतिक आयोजनों का एक उदाहरण है।
दक्षिण में ही आज का दिन तिरुअदिरइ (तमिळ) या आरुद्र दरिसनम् (केरल) के रूप में मनाया जाता है। रुद्र का नाम रूदन से पड़ा। आर्द्रता जलसिक्तता से सम्बंधित है, रोने में भी आँखों से नीर टपकता है। दक्षिणी परम्परा आर्द्रा नक्षत्र को रुद्र से सम्बंधित मानती है तथा आज से दो दिन पहले त्रयोदशी (शुक्ल पक्ष तेरस) के दिन से मुख्य पर्व आरम्भ होता है।
व्रत, उपवास, नृत्य इत्यादि आयोजन रुद्र रूप नटराज के ब्रह्माण्डीय नृत्य की स्मृति में होते हैं जिनका आज पूर्णिमा के दिन उपसंहार होता है। शङ्कर की शङ्करी शाकम्भरी का विभिन्न शाक, वनस्पतियों, तरकारी इत्यादि से शृंगार किया जाता है।
नटराज के नाक्षत्रिक रूपक को समझना हो तो पौष शुक्ल तेरस की साँझ को प्राची दिशा में चंद्र को देखिये। नटराज का रूप साक्षात हो जायेगा।
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इन 24 अंङ्कों की यात्रा रोचक रही, संतुष्टिदायक भी। पहले अङ्क में ही मकरसंक्रांति की उत्तरायण से दूरी पर विशद विचार किया गया था। पाठकों का भरपूर स्नेह मिला तथा लेखकों ने भी, जब भी माँगा गया, अपनी प्रविष्टियों से अनुगृहीत किया। ‘मघा’ प्रबंधन सबके प्रति आभारी है।
कुछ नाम ऐसे हैं जिनके सहयोग के अभाव में यह यात्रा सम्भवत: नहीं हो पाती। आजाद सिंह एवं अभिषेक ओझा नियमित, बिना किसी टोकारी के लेख प्रेषित करते रहे। इन दो के लेख सबसे अधिक लोकप्रिय भी रहे तथा पत्रिका के नामवर होने के कारण भी बने। अलङ्कार शर्मा द्वारा प्रस्तुत संस्कृत लेखों ने पत्रिका को अनूठी गरिमा प्रदान की। ‘मघा’ पत्रिका काबुल में गर्देज के गणेश की पुरातन प्रतिमा की वास्तविक स्थिति पता लगाने वाले अभियान की भी साक्षी हुई। साहसी खोजी को विशेष धन्यवाद।
योगेंद्र सिंह शेखावत ने वेब साइट का प्रबंधन अद्भुत समर्पण के साथ किया। कलेवर सौंदर्य तथा प्रभाव उनकी ही देन हैं। इस अङ्क के साथ कलेवर को नया रूप देने की दिशा वे अग्रसर हुये हैं। आप की प्रतिक्रिया एवं सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।
पत्रिका जिन घोषित उद्देश्यों के साथ चली थी, उनमें अल्प सफलता ही मिली। तकनीकी, विज्ञान, सामरिक विषय, वैश्विक नय इत्यादि विषयों पर बहुत कम लेख दिये जा सके। आगामी वर्ष में ऐसे विषयों पर लेख संख्या बढ़ाने की दिशा में प्रयास रहेगा।
प्रथम वर्षगाँठ पर सभी पाठकों का अभिनंदन।
सुझावों की प्रतीक्षा में –
‘मघा प्रबंधन’
य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ।
ते ह॒ नाकं॑ महि॒मान॑: सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः ॥
मघा पर उपलब्ध सामग्रियाँ पठनीय तथा संग्रहणीय हैं! पहली वर्षगाँठ की शुभकामनाएँ!! गन्ने की गाँठ को पोर कहते हैं, इससे स्मरण हुआ कि हाथ की उँगलियों पर जो गाँठ होती है, उन्हें भी हम पोर कहते हैं!
पुनः शुभकामनाएँ!!
मघा के एक सोमचक्र पूर्ण होने की वर्धापनिका।
बंगलोर के दक्षिणी भाग में एक जगह है बनशंकरी (ಬನಶಂಕರಿ)… यहाँ पर देवी शाकम्भरी का बृहद मंदिर है । गर्भगृह, मंडप और दीप सतम्भ से सुशोजित यह मंदिर बनशंकरी चौराहे के नजदीक है । मंगलवार और शनिवार को यहाँ बहुत भीड़ होती है । इनके बारे में पहली बार 2002 में अपनी बंगलोर यात्रा के बारे में जाना । आपके इस आलेख से और भी विस्तृत जानकारी मिली । धन्यवाद