परिवर्तन संसार का नियम है। समय चक्र अनंत काल से प्रति क्षण परिवर्तनशील है। परन्तु मानव मस्तिष्क इस प्रकार विकसित हुआ कि अनेक अवस्थाओं में व्यक्ति परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाते। यथा: वर्तमान समय में चुनावों में किसी दल विशेष के स्पष्ट बहुमत से विजयी होने पर भी एक वर्ग को यह कभी स्वीकार नहीं हो पाता कि प्रक्रिया निष्पक्ष थी। उसी प्रकार प्रत्यक्ष ही लोकहित की नीतियों को भी एक वर्ग अस्वीकार कर देता है। बहुधा ये व्यक्ति स्वयं को बुद्धिमान भी मानते हैं तथा अपना पक्ष सत्य सिद्ध करने हेतु नित नए तर्क आविष्कृत करते हैं। आधुनिक सञ्चार युग में यह नित-प्रतिदिन ही देखने को मिलता रहता है।
यहाँ रोचक तथ्य यह भी है कि एक बार स्थापित हो गयी मान्यताएँ समय के साथ अचल ही होती जाती हैं। तथ्यों से उनमें परिवर्तन भी सहज नहीं होता। इस सन्दर्भ में स्टैंफ़र्ड विश्वविद्यालय में एक रोचक अध्ययन हुआ था जिसमें प्रतिभागियों को दो अग्निकर्मियों (fire fighter) के सङ्कट की अवस्था में होने पर उनके व्यवहार के बारे में अपना मत देना था। इसके लिए प्रतिभागियों को अग्निकर्मियों के मनगढ़न्त विवरण दिए गए थे। प्रतिभागियों के अपने मत निश्चित कर लेने के उपरान्त जब उन्हें ये बताया गया कि बताए गए तथ्य मनगढ़न्त थे तब भी किसी ने अपना मत नहीं बदला।
इस लेखमाला में अन्यत्र हम पुष्टिकरण पक्षपात (confirmation bias) की चर्चा कर चुके हैं। अर्थात् वैसी मान्यताएँ एवं तथ्य जो हमारे पूर्वाग्रह की पुष्टि करते हैं वो तो सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं परन्तु जो तथ्य हमारे पूर्वाग्रहों का विरोध करते हैं उनके सत्य होते हुए भी हम उस पर ध्यान नहीं देते। स्टैंफ़र्ड विश्वविद्यालय में ही हुए एक अन्य अध्ययन में मृत्यु दण्ड से सम्बन्धित एक चर्चा में दो मनगढ़न्त अध्ययनों को आधार बनाया गया। विशिष्ट अध्ययन सदृश इन मनगढ़न्त अध्ययनों में मिथ्या आँकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए थे। एक मृत्यु दण्ड को समर्थन देने वाला अध्ययन था तो दूसरा विरोध करने वाला। अध्ययन में ये पाया गया कि जो प्रतिभागी मृत्य दण्ड के समर्थक थे उन्हें समर्थन करने वाला अध्ययन सत्य एवं उत्कृष्ट लगा, दूसरा अध्ययन तुच्छ एवं आधारहीन। इसी प्रकार दूसरे वर्ग के व्यक्तियों को भी लगा। यही नहीं इसके बाद दोनों प्रकार के व्यक्तियों का विश्वास अपनी मान्यता पर पहले से भी अधिक दृढ़ हो गया। अपनी पुस्तक ‘इनिग्मा ऑफ रीजन’ में मनोवैज्ञानिक प्रो. मर्सियर एवं स्पर्बर इसे निजपक्ष पक्षपात (myside bias) की संज्ञा देते हैं। स्पष्ट है मिथ्या समाचार (fake news) हो या पक्षपात पूर्वक की जाने वाली पत्रकारिता दोनों में यह पक्षपात स्पष्ट रूप से कार्य करता है। जहां तथ्यों से भी व्यक्ति का दृष्टिकोण अप्रभावित ही रह जाता है।
कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो पीटर दिट्टो इसकी व्याख्या भिन्न रूप में इस प्रकार से करते हैं:
“Motivated reasoning is a pervasive tendency of human cognition, people are capable of being thoughtful and rational, but our wishes, hopes, fears and motivations often tip the scales to make us more likely to accept something as true if it supports what we want to believe.”
साथ ही जब निष्कर्ष व्यक्ति के पूर्वाग्रहों की पुष्टि करते हैं तब व्यक्ति को प्रक्रिया उत्कृष्ट प्रतीत होती है। जैसे चुनाव में अपना दल जीते तो चुनाव प्रक्रिया उत्कृष्ट एवं पारदर्शी अन्यथा भ्रष्ट। वर्ष २०१० में एक अध्ययन में यह भी सामने आया कि व्यक्ति वर्षों से चली आ रही वस्तुओं को परिवर्तन से अधिक विश्वसनीय मानते हैं भले ही नवीन वस्तुएँ उत्कृष्ट हो। अर्थात् परिवर्तन स्वीकार्य नहीं।
साधारण सा लगने वाला यह पक्षपात वास्तव में इतना प्रबल होता है कि टीका जैसी जीवनरक्षक वस्तु पर भी व्यक्ति मिथ्या सूचना प्रसारित कर देते हैं। वो भी प्रबल दृढ़ता से। ‘Denying to the Grave: Why We Ignore the Facts That Will Save Us‘ में मनोवैज्ञानिक जैक गोर्मन इन बातों की विस्तृत चर्चा करते हैं। परन्तु पुस्तक के अंत में वह भी यहीं रुक जाते हैं कि इन सिद्धांतों के ज्ञात होते हुए भी इन समस्याओं का हल आज भी एक चुनौती ही है।
पक्षपातों की पहचान, उनके उचित संज्ञान तथा उनके हलों पर सनातन बोध की उत्कृष्टता की चर्चा हमने पूर्व के लेखांशो में की है। यदि परिवर्तन की ओर दृष्टि करें तो भी सनातन दर्शन में इससे सम्बन्धित उत्कृष्ट विचार देखने को मिलते है। बौद्ध दर्शन के क्षणिक विज्ञान वाद में तो परिवर्तनशीलता की अद्भुत व्याख्या मिलती है। जिसमें ब्रह्माण्ड और आत्म के भी क्षणिक, निरन्तर परिवर्तनशील तथा नश्वर होने का दर्शन है। जिसे बृहत् रूप में अद्वैत स्पष्ट करता है। स्वामी विवेकानंद प्रकृति के परिवर्तन के लिए कहते हैं — ‘परम सत्ता के अतिरिक्त सृष्टि में सब कुछ परिवर्तनशील है। परिवर्तन का नियमित चक्र है। एक परम सत्ता के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नहीं। परिवर्तन हर रूप में अंतर्निहित है।’ इसे वो बृहत् रूप में अद्वैत के मूल दर्शन तक ले जाते हैं।
परिवर्तन और दूसरों के मत को समझने हेतु पक्षपात के संज्ञान तथा इनसे अविचलित रहने के सन्दर्भ में गीता के द्वितीय अध्याय के इस श्लोक का भी अवलोकन करें —
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
हे कुन्तीपुत्र ! इन्द्रिय और विषयों के संयोग से उत्पन्न शीत-उष्ण और सुख-दुख इत्यादि अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत! उनको तुम सहन करो। इसकी व्याख्या में स्वामी चिन्मयानंद लिखते हैं — जब इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होता है तभी किसी प्रकार का अनुभव भी सम्भव है। जो यह समझ लेता है कि जगत् की सभी वस्तुयें नित्य परिवर्तनशील हैं। उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। वह इन वस्तुओं के कारण स्वयं को कभी विचलित नहीं होने देगा। जगत की कोई भी वस्तु एक क्षण के लिये भी विकृत हुये बिना नहीं रह सकती। यहाँ परिवर्तन ही एक अपरिवर्तनशील नियम है। इस नियम को समझ कर आदि और अन्त से युक्त वस्तुओं के होने या नहीं होने से बुद्धिमान पुरुष को शोक का कोई कारण नहीं रह जाता।
और स्थितप्रज्ञता की उत्कृष्टता तो सनातन दर्शन में वर्णित है ही। संज्ञानात्मक पक्षपात अनेकों हैं, नए तकनीकों से उनकी जटिलता भी बढ़ी है, उनके हल कठिन हैं, आधुनिक मनोविज्ञान पक्षपातों की पहचान में तो सफल है पर इनके हल या तो नहीं है या एकमात्र हल सनातन बोध से उपजे हलों से मेल खाते हैं।