ब्राज़ील के प्रोफ़ेसर पाउलो हायऐशी ने शंकराचार्य विरचित तत्वबोध और मास्लो के सिद्धांत में समानता देखी और दोनों को एक संदर्भ में अध्ययन करने का सुझाव दिया। जर्मन भारतविद जॉर्ज फ्युरसटीन के योग पर लिखी पुस्तकों से प्रभावित हायऐशी लिखते हैं कि पश्चिमी अध्ययनों से भिन्न प्रतीत होते वैदिक ज्ञान में आधुनिक सिद्धांतों से अनेकों समानताएँ हैं।
आधुनिक युग में बढ़ती मानवीय सम्बन्धों की जटिलता के साथ मानव की प्रवृति, उसकी आवश्यकताओं और प्रेरणा को समझना भी जटिल होता गया है। मनोविज्ञान की प्रायः प्रत्येक पुस्तक में मानव की आवश्यकता और प्रेरणा को समझने के लिए मास्लो के प्रसिद्ध आवश्यकता पदानुक्रम सिद्धान्त (Maslow hierarchy of needs) का वर्णन मिलता है।
मास्लो ने अपनी पुस्तक ‘द थ्योरी ऑफ मोटिवेशन The Theory of Motivation‘ में मानव की पाँच निम्न मूलभूत आवश्यकताओं को बताया :
1. शारीरिक, 2. सुरक्षा, 3. सामाजिक-सम्बन्ध एवं स्नेह, 4. सम्मान/प्रतिष्ठा, और 5. बौद्धिक — आत्म वास्त्विकरण एवं आत्म सिद्धि।
इनमें से प्रथम तीन प्रधान आवश्यकताएँ निम्न स्तर की है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। अंतिम दो उच्च स्तरीय आवश्यकताएँ गौण है जिनके अभाव में व्यक्ति जीवित रह सकता है। ये आवश्यकताएँ ही मनुष्य को अभिप्रेरित भी करती है। अर्थात क्रमिक रुप से निम्न मूलभूत आवश्यकताओं के पूरा होने पर ही उच्चस्तरीय आवश्यकताएँ जन्म लेतीं हैं। इस क्रम का एक अर्थ यह भी है कि शारीरिक आवश्यकताएँ सर्वाधिक प्रबल होती हैं – मूलभूत एवं अनिवार्य।
वहीं आत्मसिद्धि अनिवार्यता के अनुसार सबसे निर्बल। अर्थात प्रबल निम्न आवश्यकताएँ व्यक्ति के मन पर एकाधिकार किए रहती हैं। मास्लो का यह पदानुक्रम सिद्धांत वैज्ञानिक दृष्टि से पूरी तरह स्वीकार्य नहीं होते हुए तथा नए परिष्कृत सिद्धांतों के आने के अनन्तर भी मानवीय आवश्यकताओं और प्रेरणाओं की सरल व्याख्या प्रस्तुत करने के कारण मनोविज्ञान के मूलभूत तथा लोकप्रिय सिद्धांतों में से एक है तथा यह मनोवैज्ञानिक अध्ययन, समाजशास्त्रीय अनुसंधान, प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, संगठनात्मक सिद्धांत (organizational theory) आदि में बहुत महत्व रखता है।
मास्लो के अनुसार निम्न स्तर के आवश्यकता की पूर्ति होने के उपरांत उसके प्रति आकर्षण भी ह्रासमान हो जाता है तथा उच्च स्तर की आवश्यकता, जिसकी अभी न्यूनता होती है, के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। कालांतर के अध्ययनों में आवश्यकताओं के रैखिक (linear) तथा स्वतंत्र नहीं होकर आवश्यकताओं और अभिप्रेरण के बहुल तथा एक साथ ही प्रभावी होने का मत भी दिया गया। वाभा और ब्रिड्वेल ने १९७६ में प्रकाशित अपने अध्ययन में कहा कि मानवीय आवश्यकताएँ पदानुक्रम की भाँति नहीं वरन एक बहुस्तरीय संरचना की भाँति होती हैं। जिसमें एक व्यक्ति अपनी अवस्था और परिवेश के अनुरूप एक साथ अनेक स्तरों में रहता है।
इन स्तरों की परिभाषा, विशेष रूप से उच्च स्तरीय स्तरों की, आधुनिक मनोविज्ञान में पूर्णतया स्पष्ट नहीं होती तथा समय एवं परिवेश के अनुरूप इन आवश्यकताओं की परिभाषाएँ परिवर्तित भी हुई हैं। यथा सम्बन्ध एवं स्नेह व्यक्ति के सम्बन्धों पर निर्भर होते हैं, परंतु इतना सरल प्रतीत होते हुए भी यह अत्यंत जटिल स्तर है। मास्लो ने स्वयं लिखा :
“हम प्रेम की आवश्यकता को पूर्ण रूप से कभी नहीं समझ पाएँगे भले भूख की आवश्यकता को हम कितना ही क्यों ना समझ लें !”
मानवीय आवश्यकताओं के उत्तरोत्तर स्तर व्याख्या या समझ की दृष्टि से पश्चिमी मनोविज्ञान के लिए कठिन होते जाते हैं।
वर्ष २०१६ में जर्नल ऑफ मैनज्मेंट, स्पिरिचूऐलिटी एंड रिलिजन Journal of Management, Spirituality and Religion में प्रकाशित एक अध्ययन में ब्राज़ील के प्रोफ़ेसर पाउलो हायऐशी ने शंकराचार्य विरचित तत्वबोध और मास्लो के सिद्धांत में समानता देखी और दोनों को एक संदर्भ में अध्ययन करने का सुझाव दिया। जर्मन भारतविद जॉर्ज फ्युरसटीन के योग पर लिखी पुस्तकों से प्रभावित वह लिखते हैं कि पश्चिमी अध्ययनों से भिन्न प्रतीत होते वैदिक ज्ञान में आधुनिक सिद्धांतों से अनेकों समानताएँ हैं।
अल्प अभ्यस्त जनमानस के लिए वैदिक ज्ञान के कूटानुवाद (decode) करने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए वह लिखते हैं कि वैदिक ज्ञान प्रमेय न केवल मनुष्य के कल्याण का कार्य करते हैं, वे मनुष्य और दूसरों से उसके अंतर्सम्बंधों को समझने का भी प्रयत्न करते हैं। तत्वबोध के अनुसार :
पंचकोशा: के? अन्नमय: प्राणमय: मनोमय: विज्ञानमय: आनंदमयश्चेती।
मानव का अस्तित्व पाँच भागों, पञ्चकोश, में बँटा है। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल सदृश होते हैं। इन विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूतियाँ होती हैंं। ये कोश एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं होते वरन एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैंं। वे एक दूसरे से प्रभावित होते हैं।
०१. अन्नमय — अन्न तथा भोजन से निर्मित – दैहिक या शारीरिक।
०२. प्राणमय कोश — प्राण/ऊर्जा से बना।
०३. मनोमय — मन से बना – निम्न मस्तिष्क।
०४. विज्ञानमय — अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना — उच्च मस्तिष्क।
०५. आनंदमय कोश — आनन्दानुभूति !
इन कोशों के मनोवैज्ञानिक आयाम, शारीरिक दशा और अनुभूति के प्रकार को अन्य सनातन ग्रंथों के संदर्भ में विस्तृत विचार किया जाय तो मास्लो का आवश्यकता का पदानुक्रम सिद्धान्त इस दर्शन का विशेषावस्था प्रतीत होता है! निम्न और उच्च स्तर की आवश्यकताओं को यदि विभाजित कर दिया जाय तो तत्वबोध की परिभाषा विस्तृत, गहन और बहुआयामी है जो मास्लो के सिद्धांत के परे जाती है। मनुष्य को अपनी क्षमता और संसाधनों के अनुरूप आनन्दानुभूति के लिए क्या करना चाहिए इसके लिए आर्थिक स्थिति और संसाधनों से स्वतंत्र सनातन दर्शन परिष्कृत सिद्धांत प्रस्तुत करता है।
तत्वदर्शी ऋषि प्रश्नों के इस प्रकार उत्तर देते हैं :
अन्नमय कः?
अन्न रसे नैव भूत्वा, अन्न रसे नैव वृद्धि प्राप्यान्न रूप पृथिव्यां यद्विलीयते तदन्नमयः कोशः स्थूल शरीरम।
प्राणमयाः कोश कः?
प्राणदि पञ्ज वायवो वागादीन्द्रिय पञ्जकं प्राणमयः कोशः।
मनोमयः कोशः कः?
मनश्च ज्ञानेन्द्रिय पञ्चकं मिलित्वा भवति स मनोमयः कोशः।
विज्ञानमयः कोशः कः?
बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रिय पंचकं मिलित्वा यो भवति स विज्ञानमयः कोशः।
आनन्दमयः कः?
एवमेव कारण शरीर भूताविद्यास्थ मलिन सत्वं प्रियादि वृत्ति सहितं सदानन्दमयः कोशः।
सनातन दर्शन के अनुसार प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक स्तरों के अनुरूप ही विकसित होता है।
मनुष्येतर उन प्राणियों में जिनमें शरीर के परे कोई इच्छा न हो उन्हें भी अन्नमय कहा गया है। मनुष्यों के लिए योग में इस स्तर के लिए आसन का प्रावधान है।
प्राणमय की क्षमता प्राण-ऊर्जा से जीवन-शक्ति के रूप में होती है – संकल्प, दृढ़ता, जिजीविषा, शारीरिक से उच्च स्थिति। जिसे परिष्कृत करने के लिए योग में प्राणायाम का प्रावधान है।
मनोमय अर्थात विचारशील – मनुष्य श्रेणी। कल्पना, विवेचना, विवेक तत्व। निम्न मस्तिष्क।
विज्ञानमय अर्थात ज्ञान – उच्च मस्तिष्क। आत्मभाव। विस्तृत भौतिक संसार के परे उससे भी विस्तृत संसार — ज्ञान, विद्या, बुद्धि, चित्त, उत्कृष्ट दृष्टिकोण का स्तर।
और अंतिम कोश आनन्दमय – आत्मज्ञान। तत्वदर्शन। आत्मानुभूति – सत्य, नित्य, आनंद। ईश्वर से एकाकार। माया से परे।
पंचकोशों का स्तर चेतना के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है, भौतिक विकासवाद से होता हुआ आत्मानुभूति तक। प्रकाशवान स्वरूप जीवात्मा से माया के आवरण उतारने की प्रक्रिया। मास्लो का प्रसिद्ध सिद्धांत मानवीय आवश्यकताओं और प्रेरणा का अच्छा सिद्धांत तो है पर न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रो. दत्ता आक्सफ़ोर्ड इंटेरनेशनल जर्नल ऑफ बिज़्नेस एंड एकनामिक्स Oxford International Journal of Business and Economics में प्रकाशित अपने अध्ययन में इसकी सटीक समीक्षा करते हुए लिखते हैं :
Maslow provides a very powerful picture of what self-actualization means. However, he does not go far enough. Just as humans do not live by bread alone, they cannot be totally consumed by a never-ending pursuit of excellence or perfection. They need to look beyond their individual self, and realize that they also owe something to the society and the natural environment in which they live. That means they need to move up from pursuing self-actualization to seeking transcendent needs.