Chronic pain , जीर्ण वेदना अर्थात दीर्घकाल तक रहने वाली पीड़ा। इससे पीड़ित व्यक्ति की दिनचर्या के साथ साथ मानसिक स्वास्थ्य तक प्रभावित हो जाता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यह समस्या व्यक्ति के तन्त्रिका तन्त्र से जुड़ी होती है। समान संज्ञाधारी होते हुए भी जीर्ण पीड़ा सामान्य पीड़ा से बहुत भिन्न होती है। क्षणिक पीड़ा या जब हमें चोट लगती है तब होने वाली पीड़ा भी तंत्रिका तंत्र से ही जुडी होती है। पीड़ा की अनुभूति तब होती है जब तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क को चोट का सन्देश भेजता है। ठीक विद्युत् प्रवाह की तरह ये सन्देश जब तंत्रिका तंत्र से होते हुए मस्तिष्क तक पहुंचते हैं तो मस्तिष्क उन विद्युत तरंगों को संसाधित करता है जिसका परिणाम होता है – पीड़ा। सामान्य अवस्था में चोट इत्यादि के स्वस्थ हो जाने पर ये सन्देश शमित हो जाते हैं। इसी प्रकार चोट लगने पर भी यदि तंत्रिका तंत्र से सन्देश मस्तिष्क तक नहीं गए तो हमें पीड़ा की अनुभूति नहीं होती है। परन्तु यदि चोट ठीक हो जाने के पश्चात भी तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क में यह प्रक्रिया चलती रहे तो वह जीर्ण पीड़ा का रूप ले लेती है। इसके अनेक कारण एवं परिणाम हैं। कारण कोई भी हो, आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि यदि किसी व्यक्ति को निरंतर पीड़ा हो रही तो उस व्यक्ति को किन परिस्थितियों से जूझना पड़ सकता है। दिनचर्या से लेकर अनिद्रा और मानसिक शांति तक प्रभावित हो जाना स्वाभाविक ही है।
वेदना प्रबंधन (pain management) पीड़ित व्यक्ति की अवस्था के अनुसार सरल या जटिल होता है। पीड़ा के कारण और परिस्थिति के अनुसार अनेक औषधियाँ तथा चिकित्सा पद्धतियाँ उपलब्ध हैं परन्तु कुछ अवस्थाओं में तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क के इस प्रक्रम का उपचार अत्यंत कठिन होता है। ऐसे व्यक्ति पर औषधियों का प्रभाव नहीं होता है। वेदना प्रबंधन के विशेषज्ञ और चिकित्सक जैव-मनोवैज्ञानिकी (biopsychosocial) की सामूहिक पद्धति को जीर्ण पीड़ा के उपचार में प्रभावी पाते हैं। जिसमें मनोवैज्ञानिक चिकित्सा तथा परामर्श महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, साथ ही पीड़ित व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक सोच, जीवन दर्शन तथा वेदना को लेकर उसकी समझ भी इसमें अत्यंत प्रभावी सिद्ध होते हैं।
(चित्र आभार : http://healthandcounselling.com/wp-content/uploads/2017/05/mentalhealtth.jpg)
जीर्ण वेदना के मस्तिष्क से जुड़े होने के कारण उपचार की अनौपचारिक पद्धतियाँ भी प्रसिद्ध हैं, जिनमें प्राणायाम, विश्राम आदि योग के विभिन्न रूप प्रचलित हैं। उनसे पहले व्यग्रता एवं तनाव में न्यूनता आती है तथा अनिद्रा का उपचार होते हुए अंतत पीड़ा भी शमित होने लगती है। इनके अतिरिक्त सनातन सिद्धान्त ‘परिग्रह (acceptance)’ को वेदना चिकित्सा शास्त्र में उपयुक्त स्थान मिला हुआ है।
ड्रेक्सेल विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान संस्थान के मन:चिकित्सा विभाग की प्रोफ़ेसर सारा व्हिटमैन पीड़ा और कष्ट की विशेषज्ञ चिकित्सक हैं। The Journal of Pain में वर्ष २००७ में छपे शोध Pain and Suffering as Viewed by the Hindu Religion में वह सनातन सिद्धांतों से पीड़ा के उपचार की बात करती हैं। इस शोधपत्र में वह वेदना चिकित्सकों द्वारा सनातन सिद्धांतों को समझने की आवश्यकता का समर्थन करते हुए कहती हैं— By becoming more familiar with Hindu views of pain and suffering, pain medicine practitioners can offer potentially helpful concepts to all patients and support Hindus’ spirituality as it relates to pain and suffering। सनातन दर्शन के सिद्धांतों को वह चिकित्सकों, परामर्शदाताओं और पीड़ितों सभी के लिए उपयोगी पाती हैं।
सनातन दर्शन में दुःख (suffering) को स्वीकार करने, उसे जीवन का अंग मानने तथा वेदना को पूर्व जन्मों एवं पूर्व कर्मों से जोड़ने के मनोभाव से स्वतः स्वीकृति होने के मनोभाव को महत्त्वपूर्ण मानते हुए वह कहती हैं कि सनातन दर्शन के अनुसार देह के पीड़ा में होते हुए भी यह धारणा प्रबल होती है कि आत्मा को कोई कष्ट नहीं हो रहा। गीता का उद्धरण देते हुए वह कहती हैं कि— As the Self is not affected, there need be no concern over temporary suffering. Patients may gain comfort by viewing the pain as only a temporary condition and one that does not affect their inner Self.
गीता के द्वितीय अध्याय के इन श्लोकों को वह अपने अध्ययन में उद्धृत करती हैं—
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
साथ ही सनातन परंपरा में पीड़ा को भी भगवान का दिया हुआ मानकर आत्मसात करने का मनोभाव भी है और कई सन्दर्भों में तो वेदना को आध्यात्मिक उन्नति में सहायक तक माने जाने के विचार हैं। आसक्ति और अनासक्ति की चर्चा के साथ वह गीता के दूसरे अध्याय के अन्य दो श्लोक भी उद्धृत करती हैं—
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
यहाँ वह पीड़ितों को इन बातों के मिथ्या अर्थ में नहीं पड़ने को भी कहती हैं—
Patients in pain are not to be passive and give up and can continue to attempt to lessen suffering. The ultimate goal would be to become neutral in the face of whatever outcome occurs, to not desperately strive for pain relief. Most important, however, would be to refocus away from pain to dharma.
साथ ही वह इसी शोध पत्र में वेदना चिकित्सा विशेषज्ञों को भी फल की चिंता न करते हुए कर्म (चिकित्सा और परामर्श) करने का सुझाव देती हैं। परिग्रह (acceptance) और अनासक्ति (detachment) को हिन्दू धर्म का केन्द्रीय विचार मानते हुए जीर्ण वेदना के लिए चिकित्सा शास्त्र के शोधों से निकले निष्कर्ष में भी वही अर्थ सिद्ध करती हैं— In medicine, acceptance of chronic pain means living as fully as possible with pain, and not struggling to change pain. Studies of acceptance and pain show a positive correlation between degrees of acceptance and functioning.
उतनी ही रोचक उनकी चेतावनी भी है कि यद्यपि स्पष्ट रूप से इन सिद्धातों का वर्णन है फिर भी पश्चिमी चेतना के चिकित्सा वर्ग हेतु इन सिद्धांतों को समझना कठिन है, जैसे स्वीकृति को सरलता से अवसाद या निराशा समझ लिया जा सकता है, ठीक इसी प्रकार ऐसे सुझावों वाले चिकित्सक या परामर्शदाता को ‘ध्यान नहीं रखने वाले’ के रूप में देखा जा सकता है।
अधिक क्या कहा जाय। इस सरल से शोधपत्र में अद्भुत रूप से यह देखने को मिलता है कि कैसे सनातन दर्शन और बोध की मनोवैज्ञानिकता से उपजी जीवन शैली के लिए संसार के कष्टों को सहना अपेक्षाकृत सरल है। वही पीड़ा वही रुग्णता, परन्तु परिणाम पूर्णतया भिन्न!
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