चिदम्बरम के नटराज मंदिर Nataraja temple Chidambaram की अपनी अद्भुत यात्रा में प्रिन्स शर्मा, ब्रह्माण्डीय गति के प्रतीक परम शिव के मंदिर का वास्तु वैभव एवं अन्य अनुभवों को साझा करते हुये।
तमिलनाडु के कड्डलूर जिले में स्थित यह छोटा सा नगर चिदम्बरम है जहाँ आनन्द ताण्डव के कर्त्ता भगवान नटराज का मंदिर है। यहीं पर प्रसिद्ध अन्नामलै विश्वविद्यालय भी है।
चिदम्बरम के मार्गों पर टहलते हुए सहसा यह विचार आया कि क्यों न श्री भगवान शिव नटराज मंदिर की ओर चला जाय! वैसे सप्ताह में एकाध बार वहाँ जाना हो जाता है। तब वहीं के दीक्षितर मित्र शिव राजराजेश्वर दीक्षितर को कॉल किया एवं अपने आने का सन्देश दिया। वे बहुत प्रसन्न हुये और पूछे कि कहाँ हो आप? मैंने उत्तर दिया कि पूर्वी गोपुरम के पास हूँ। तब उन्होंने कहा कि वहीं रुकिये, मैं आता हूँ!
ध्यातव्य है कि मंदिर का प्रबंधन और प्रशासन पारंपरिक रूप से चिदंबरम दीक्षितर द्वारा देखा जाता है – यह वैदिक ब्राह्मणों का एक वर्ग है जो, पौराणिक कथाओं के अनुसार, संत पतंजलि द्वारा कैलाश पर्वत से मुख्य रूप से दैनिक संस्कारों के संपादन और चिदंबरम मंदिर की देखरेख के लिए यहाँ लाये गए थे। ऐसा माना जाता है कि दीक्षितर समुदाय के लोगों की संख्या 3000 (वास्तव में 2999, भगवान सहित जोड़ने पर 3000) थी और उन्हें तिल्लई मूवायरम कहा जाता था। अब उनकी संख्या 360 है।
पोंगल के पूर्वोत्सव के कारण दूर से आये श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या थी। वहींं गोपुरम के निकट भूमि पर बैठकर लोगों को देख रहा था। कुछ समय पश्चात एक दूसरे दीक्षितर अपने मेंटर-प्रोफेसर श्री कलाधरण को कॉल किया जो सामान्यत: सात बजे के उपरांत ही मंदिर आते हैं। उन्होंने मुझे गर्भगृह के समक्ष जाने का निर्देश दिया। मैंने पूछा कि इतने समय तक करूँगा क्या? वे हँसते हुए बोले कि ‘यज्जाग्रतो दुरमुदैती……… शिव संकल्पमस्तु’ का पाठ करो। शिवसंकल्प करके भगवान विष्णु के समक्ष घूम गया। (दोनों गर्भगृह एकदूसरे के निकट ही हैं!) बहुत ही अद्भुत स्थान भई! सामने शेषशायी गोविन्दराज और दायें श्री नटराज! शैव-वैष्णव आस्था का ऐसा अद्भुत संगम मुझे और कहीं नहीं मिला है।
“शान्ताकारम् भुजगशयनं …..” श्लोक से श्रीगोविन्दराज को नमन कर रहा था तबतक राजराजेश्वर जी आये। चरण छूकर प्रदक्षिणा करते और उनसे बातें करते हुए पुनः गर्भगृह की ओर गया। वहाँ उन्हीं के सौजन्य से भगवन् नटराज को निकट से देखने-पूजने का सौभाग्य मिल सका है। यहाँ स्फटिक और मरकत के अद्भुत शिवलिंग हैं।
राजराजेश्वर जी चिदम्बरम नटराज के पौराणिक महत्व के बारे में बताते हैं। चिदंबरम की कथा भगवान शिव की थिल्लई वनम में घूमने के पौराणिक प्रकरण के साथ प्रारंभ होती है, (वनम का अर्थ है जंगल और थिल्लई वृक्ष – वानस्पतिक नाम एक्सोकोरिया अगलोचा (Exocoeria agallocha), वायुशिफ वृक्षों की एक प्रजाति – जो वर्तमान में चिदंबरम के निकट पिचावरम के आर्द्र प्रदेश में पायी जाती है। मंदिर की प्रतिमाओं में उन थिलाई वृक्षों का चित्रण है जो दूसरी शताब्दी के काल के हैं)।
थिलाई के जंगलों में साधुओं या ‘ऋषियों’ का एक समूह रहता था जो मायाजाल की शक्ति में विश्वास रखता था और यह मानता था कि संस्कारों और ‘मन्त्रों’ या जादुई शब्दों के द्वारा देवता को अपने वश किया जा सकता है। कथा के अनुसार भगवान जंगल में एक अलौकिक सुन्दरता व आभा के साथ भ्रमण करते हैं, वह इस समय एक ‘पित्चातंदर’ के रूप में होते हैं, अर्थात एक साधारण भिक्षु जो भिक्षा मांगता है। उनके पीछे पीछे उनकी आकर्षक आकृति और सहचरी भी चलती हैं जो मोहिनी रूप में भगवान विष्णु हैं। ऋषिगण और उनकी पत्नियां मोहक भिक्षुक और उसकी पत्नी की सुन्दरता व आभा पर मोहित हो जाती हैं।
अपनी पत्नियों को इस प्रकार मोहित देखकर, ऋषिगण क्रोधित हो जाते हैं और जादुई संस्कारों के आह्वान द्वारा अनेकों ‘सर्पों’ (संस्कृत: नाग) को पैदा कर देते हैं। भिक्षुक के रूप में भ्रमण करने वाले भगवान सर्पों को उठा लेते हैं और उन्हें आभूषण के रूप में अपने गले, आभारहित शिखा और कमर पर धारण कर लेते हैं। और भी अधिक क्रोधित हो जाने पर ऋषिगण आह्वान कर के एक भयानक बाघ को पैदा कर देते हैं, जिसकी खाल निकालकर भगवान चादर के रूप में अपनी कमर पर बांध लेते हैं।
पूरी तरह से हतोत्साहित हो जाने पर ऋषिगण अपनी सभी आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र कर एक शक्तिशाली राक्षस मुयालकन का आह्वान करते हैं – जो पूर्ण अज्ञानता और अभिमान का प्रतीक होता है। भगवान एक सज्जनतापूर्ण मुस्कान के साथ उस राक्षस की पीठ पर चढ़ उसे हिल पाने में असमर्थ कर देते हैं तथा उसकी पीठ पर आनंद ताण्डव (शाश्वत आनंद का नृत्य) करते हुए अपने वास्तविक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसा देखकर ऋषिगण यह अनुभव करते हैं कि यह देवता सत्य हैं तथा जादू व संस्कारों से परे हैं एवं समर्पण कर देते हैं।
अब कुछ बातें मंदिर के बारे में
मंदिर के निर्माण के बारे में यह उल्लेख है कि संत पुलिकालमुनिवर ने राजा सिम्मवर्मन के माध्यम से मंदिर के अनेकों कार्यों को निर्देशित किया। पल्लव राजाओं में, सिम्मवर्मन नाम के तीन राजा थे (275-300 ईसवी, 436-460 ईसवी, 550-560 ईसवी)। चूँकि मंदिर कवि-संत थिरुनावुक्करासर (जिनका काल लगभग 6ठी शताब्दी में अनुमानित है) के समय में पहले से ही प्रसिद्ध था, इसलिए इस बात की अधिक सम्भावना है कि सिम्मवर्मन 430-458 के काल में था, अर्थात सिम्मवर्मन द्वितीय। कोट्त्रा वंकुदी में ताम्र पत्रों पर की गई पट्टायम (घोषणायें) इस बात को सिद्ध करते हैं। हालाँकि, थंदनथोट्टा पट्टायम और पल्लव काल के अन्य पट्टायम इस ओर संकेत करते हैं कि सिम्मवर्मन का चिदंबरम मंदिर से सम्बन्ध था। अतः यह माना जाता है कि सिम्मवर्मन पल्लव राजवंश के राजकुमार थे जिन्होंने राजसी अधिकारों का त्याग कर दिया था और आकर चिदंबरम में रहने लगे थे। इसके प्रमाण हैं कि पुलिकाल मुनिवर और सिम्मवर्मन समकालीन थे, इसलिए यह माना जाता है कि मंदिर इसी काल में निर्मित हुआ था। वर्तमान मंदिर के निर्माण के बारे में कहते हैं कि दसवीं शताब्दी में चिदंबरम के चोल राजाओं की राजधानी रहने के कारण वर्तमान मंदिर का निर्माण उन्हीं के द्वारा किया गया है।
मंदिर में पाँच परिक्रमा पथ हैं जो पाँच आवरणों से समानता रखते हैं। नटराज स्वर्ण छत युक्त चित सभा नामक गर्भगृह से दर्शन देते हैं। एक दूसरे को परिवेष्टित कराती हुई पाँच दीवारें मानव अस्तित्व के कोष (आवरण) हैं। सबसे बाहरी दीवार अन्नमय कोष है, जो भौतिक शरीर का प्रतीक है। दूसरा प्राणमय कोष है, जो जैविक शक्ति या प्राण के आवरण का प्रतीक है। तीसरा मनोमय कोष है, जो विचारों, मन के आवरण का प्रतीक है। चौथा विज्ञानमय कोष है, जो बुद्धि के आवरण का प्रतीक है। सबसे भीतरी और पाँचवां आनंदमय कोष है, जो आनंद के आवरण का प्रतीक है। गर्भगृह जो परिक्रमा पथ में है और आनंदमय कोष आवरण का प्रतीक है, उसमें देवता विराजते हैं जो हमारे भीतर जीव रूप में विद्यमान हैं। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गर्भगृह एक प्रकाशरहित स्थान होता है, जैसे वह हमारे हृदय के अन्दर स्थित हो जो प्रत्येक दिशा पश्चात होता है।
छत 21,600 स्वर्ण टाइलों द्वारा बनायी गयी है। यह संख्या एक दिन में एक व्यक्ति द्वारा ली गयी श्वासों की संख्या को व्यक्त करती है। ये टाइलें लकड़ी की छत पर 72,000 कीलों की सहायता से लगायी गयी हैं जो नाड़ियों (अदृश्य नलिकायें जो शरीर के विभिन्न अंगों में ऊर्जा का संचार करती हैं) की संख्या को व्यक्त करती हैं। जिस प्रकार हृदय शरीर के वाम भाग में होता है उसी प्रकार चिदंबरम में गर्भगृह भी कुछ बायीं ओर स्थित है।
चित सभा की छत के शिखर पर हमें तांबे से निर्मित 9 कलश दिखायी पड़ते हैं जो 9 शक्तियों के प्रतीक हैं। छत पर 64 आड़ी काष्ठ निर्मित धरन हैं जो 64 कलाओं की प्रतीक हैं। अर्थ मंडप में 6 खम्भे हैं जो 6 शास्त्रों के प्रतीक हैं। अर्थ मंडप के पार्श्व वाले मंडप में 18 खम्भे हैं जो 18 पुराणों के प्रतीक हैं। कनक सभा से चित सभा में जाने के लिए पाँच सीढियां हैं जो पाँच अक्षरीय पंचाक्षर मन्त्र की प्रतीक हैं। चित सभा की छत चार खम्भों की सहायता से खड़ी है जो चार वेदों के प्रतीक हैं।
यह भगवान शिव को भरतनाट्यम नृत्य के देवता के रूप में प्रस्तुत करती है और यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहाँ शिव को प्राचीन लिंगम के स्थान पर मानवरूपी मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। मुख्य मंदिर के उत्तर दिशा में शिवगंगा सरोवर है। यह विशाल सरोवर मंदिर के तीसरे गलियारे में है जो देवी शिवगामी के धार्मिक स्थल के ठीक विपरीत है। उसके चारोंं ओर पक्की सीढियाँ है। चारों तटों पर विशाल गलियारे हैं जिनके ऊपरी भाग में प्रस्तर नंदी की मूर्तियाँ हैं।
चूँकि मंदिर का क्षेत्रफल बहुत बड़ा है (लगभग 40 एकड़ ) सो मुख्य गर्भगृह के बाहरी भागों में अन्य देवमन्दिर हैं। गर्भगृह वाले प्रांगण के निकट सृष्टि की जननी माँ शिवगामसुन्दरी का भव्य मंदिर है। माँ शिवगामसुन्दरी के मंदिर-प्रांगण में गर्भगृह के चारों ओर उत्कीर्ण भरतनाट्यम की विभिन्न भाव भंगिमाओं को दर्शाते शिल्पकला को देखिये! इसी बहाने दक्षिण की मूर्तिकला को समझते हैं, तंतु वाद्य, तालवाद्य, सुषिर में नादस्वरम आदि वाद्ययंत्रों से युक्त नाट्यमंडली को देखना अद्भुत अनुभव है! नटराज को नाट्यांजलि से उत्तम अन्य कोई पूजा पद्धति क्या रिझा सकती है।
प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर तीन दिवसीय नाट्याञ्जलि महोत्सव का आयोजन होता है जिसमें संसार के कोने-कोने से प्राच्यविद्या के जिज्ञासु आते हैं। जर्मनी के एक प्रोफेसर मिले थे, जो जेनेवा में स्थित CERN में स्थापित नटराज की विशाल मूर्ति के बारे में वहाँ के स्थानीय टीवी चैनल के पत्रकारों को बता रहे थे। देवता नटराज का ब्रह्मांडीय नृत्य भगवान शिव द्वारा अनवरत ब्रह्माण्ड की गति का प्रतीक है। शिवतत्त्व की ऊर्जा के अनुभव के बारे में शब्दों में बता पाने की सामर्थ्यं मुझ में नहीं।
दक्षिण के अन्य मंदिरों की तरह यहाँ भी पुरुषों को शर्ट/टी-शर्ट उतारकर प्रवेश का विधान है। वे ये भी बता रहे हैं कि यह केंद्र पञ्चमहाभूतों के शैवकेंद्र के अंतर्गत ‘आकाश’ तत्त्व का केंद्र है। पाँच में से तीन पंचभूतस्थल मंदिर, जो कि कालहस्ती, कांचीपुरम और चिदंबरम में हैं, सभी ठीक 79’43” के पूर्वीय देशांतर पर एक सीध में हैं – जो वास्तव में प्रौद्योगिकी, ज्योतिषीय और भौगोलिक दृष्टि से एक चमत्कार है। अन्य दो मंदिरों में से, तिरुवनाइक्कवल इस पवित्र अक्ष पर दक्षिण की ओर 3 अंश पर और उत्तरी छोर के पश्चिम से 1 अंश पर स्थित है, जबकि तिरुवन्नामलाई लगभग बीच में है (दक्षिण की और 1.5 अंश और पश्चिम की और 0.5 अंश)।
वैदिक सूक्तों के स्वरित, अनुदात्त एवं उदात्त आदि स्वरविषयों पर प्रचुर समय तक चर्चा कर लौटा हूँ। उनकी शिक्षा-दीक्षा कुम्भकोणम के वैदिक विद्यालय से हुई है।
यदि आप दक्षिण भारत के यात्रा पर जाते हैं तो चिदम्बरम अवश्य जायें। चेन्नई से बस से 6 घंटे लगेंगे, अथवा चेन्नई एग्मोर स्टेशन से 4 घंटे।
अविनाश भारद्वाज शर्मा की टिप्पणी:
चिदम्बरम मंदिर की सीढ़ियाँ ही चोळ नरेशों की राज्याभिषेक स्थान होती थीं। इसमें जो गोविंदराज स्वामी की मूर्ति हैं वह परवर्ती प्रतिकृति है। मूल गोविंदराज स्वामी की प्रतिमा वैष्णव शैव विवाद में चोळराज परांतक ने निकलवा कर समुद्र मे डुबो दी थी जिसका चलचित्रीकरण ‘दशावतारम’ चलचित्र में हुआ है। उस प्रतिमा को कालांतर में भगवान रामानुजाचार्य ने निकलवा कर तिरुपति मे स्थापित करवा दिया। वर्तमान में नीचे तिरूपति नगर के गोविंदराज स्वामी मंदिर में वही मूल प्रतिमा है। |
सम्पादकीय टिप्पणी:
कूर्म पुराण में शिव एवं विष्णु का क्रमश: मोहक पुरुष एवं स्त्री रूप धारण कर दारुवन मेंं भ्रमण करने एवं शिव के पौरुष पर मुनि स्त्रियों तथा विष्णु के स्त्री रूप पर मुनियों के मोहित होने का प्रकरण वर्णित है:
योऽनन्तः पुरुषो योनिर्लोकानामव्ययो हरिः । स्त्रीवेषं विष्णुरास्थाय सोऽनुगच्छति शूलिनम् ॥ २,३७.९ ॥ सम्पूर्णचन्द्रवदनं पीनोन्नतपयोधरम् । शुचिस्मितं सुप्रसन्नं रणन्नुपुरकद्वयम् ॥ २,३७.१० ॥ सुपीतवसनं दिव्यं श्यामलं चारुलोचनम् । उदारहंसचलनं विलासि सुमनोहरम् ॥ २,३७.११ ॥ एवं स भगवानीशो देवदारुवने हरः । चचार हरिणा भिक्षां मायया मोहयन् जगत् ॥ २,३७.१२ ॥ दृष्ट्वा चरन्तं विश्वेशं तत्र तत्र पिनाकिनम् । मायया मोहिता नार्यो देवदेवं समन्वयुः ॥ २,३७.१३ ॥ विस्त्रस्तवस्त्राभरणास्त्यक्त्वा लज्जां पतिव्रताः । सहैव तेन कामार्ता विलासिन्यश्चरन्तिहि ॥ २,३७.१४ ॥ ऋषीणां पुत्रका ये स्युर्युवानो जितमानसाः । अन्वगच्छन् हृषीकेशं सर्वे कामप्रपीडिताः ॥ २,३७.१५ ॥ गायन्ति नृत्यन्ति विलासबाह्या नारीगणा मायिनमेकमीशम् । दृष्ट्वा सपत्नीकमतीवकान्त मिच्छन्त्यथालिङ्गनमाचरन्ति ॥ २,३७.१६ ॥ पदे निपेतुः स्मितमाचरन्ति गायन्ति गीतानि मुनीशपुत्राः । आलोक्य पद्मापतिमादिदेवं भ्रूभङ्गमन्ये विचरन्ति तेन ॥ २,३७.१७ ॥ आसामथैषामपि वासुदेवो मायी मुरारिर्मनसि प्रविष्टः । करोति भोगान्मनसि प्रवृत्तिं मायानुभूयन्त इतिव सम्यक् ॥ २,३७.१८ ॥ |
विभाति विश्वामरभूतभर्ता स माधवः स्त्रीगणमध्यविष्टः । अशेषशक्त्यासनसंनिविष्टो यथैकशक्त्या सह देवदेवः ॥ २,३७.१९ ॥ करोति नृत्यं परमप्रभावं तदा विरूढः पुनरेव भूयः । ययौ समारुह्य हरिः स्वभावं तदीशवृत्तामृतमादिदेवः ॥ २,३७.२० ॥ दृष्ट्वा नारीकुलं रुद्रं पुत्राणामपि केशवम् । मोहयन्तं मुनिश्रेष्ठाः कोपं संदधिरे भृशम् ॥ २,३७.२१ ॥ अतीव परुषं वाक्यं प्रोचुर्देवं कपर्दिनम् । शेषुश्च शापैर्विविधैर्मायया तस्य मोहिताः ॥ २,३७.२२ ॥ तपांसि तेषां सर्वेषां प्रत्याहन्यन्त शङ्करे । यथादित्यप्रकाशेन तारका नभसि स्थिताः ॥ २,३७.२३ ॥ ते भग्नतपसो विप्राः समेत्य वृषभध्वजम् । को भवानिति देवेशं पृच्छन्ति स्म विमोहिताः ॥ २,३७.२४ ॥ सोऽब्रवीद्भगवानीशस्तपश्चर्तुमिहागतः । इदानीं भार्यया देशे भवद्भिरिह सुव्रताः ॥ २,३७.२५ ॥ तस्य ते वाक्यमाकर्ण्य भृग्वाद्या मुनिपुङ्गवाः । ऊचुर्गृहीत्वा वसनं त्यक्त्वा भार्यां तपश्चर ॥ २,३७.२६ ॥ अथोवाच विहस्येशः पिनाकी नीललोहितः । संप्रेक्ष्य जगतो योनिं पार्श्वस्थं च जनार्दनम् ॥ २,३७.२७ ॥ कथं भवद्भिरुदितं स्वभार्यापोषणोत्सुकैः । त्यक्तव्या मम भार्येति धर्मज्ञैः शान्तमानसैः ॥ २,३७.२८ ॥ |
अद्भुत अद्वितीय और अविश्वसनीय, वास्तव में इस लेख को पढ़ने से लगता है कि वाकई आपने अपनी ज्ञान इंद्रियों के द्वारा इस मंदिर के प्राचीन से लेकर आधुनिक तक अध्ययन किया हैँ!
धन्यवाद!
जिम्मी बिक्रम
अतिसुन्दर शर्मा जी ,भगवान चिदंबरम आपको नई ऊंचाइयों तक ले जाएं ।
Ati uttam