समय शिल्पी है! ऐसा शिल्पी, जिसके बनाये स्मारक कभी भग्न नहीं होते! जिसके हाथ न थमते हैं, न थकते हैं! इतिहास के कंगूरों पर इसी समय-शिल्पी की लिखी पंक्तियाँ अंकित हैं। अद्भुत है वह समय-विश्वकर्मा, वह काल-अभियंता, जो निरंतर रचता है और जिसकी रचाव-यात्रा कभी विराम नहीं लेती।
इस समय-विश्वकर्मा की सृजन-शक्ति है वह उषा, जो प्रतिदिन प्रातः एक नया सूर्य तक्षित करती है और उसे उज्ज्वलता के दमकते परिधानों के साथ हमें इस विश्वास सहित सौंप देती है कि हम भी उसी की भांति उजले बन कर एक उजाला रचेंगे!
हर तराशा हुआ सूर्य एक दिन गढ़ता है और ऐसे तीन सौ पैंसठ दिन वर्ष या सम्वत्सर नाम का एक अभिराम शिल्प रचते हैं।
उषा विराम नहीं लेती! वह यह शिल्प गढ़ कर इतिहास के नगर को सौंप देती है। किंतु इससे उसके हाथ रिक्त नहीं होते! एक नया नन्हाँ सूर्य तराशने हेतु उसके हाथों में होता है। नववर्ष उषा के नव-संकल्प का, और व्यतीत वर्ष उसके कृतसंकल्प की परिणति का परिचायक होता है।
इतिहास के नगर में समय के अनगिन शिल्प स्थापित हैं। वे दशक बने, सदी बने और युग भी बने। किंतु क्या ये शिल्प उषा की अभिलाषा के अनुरूप उजले हैं?
नहीं हैं! क्योंकि इतिहास के नगर में अंधकार की सत्ता उजास की तुलना में अधिक समर्थ, अधिक व्यापक, अधिक प्रभावी है! और यह उस निश्छल उषा के साथ छल है जो बड़ी आशा के साथ हमें उजास का उत्तराधिकार सौंपती है। किंतु इतिहास प्रतिभू है कि हम अपने कर्मों से उसे कलुषित करते हैं!
हमारे पुरखों ने इस उजास की गणना इस लिये की, कि इतिहास पर कलुष का अंधेरा न छा सके! हम पल को भी निहार सकें और दिन को भी! हम वर्ष को भी देख सकें और युग को भी! और इसी हेतु उन्होंने समय की, काल की गणना की! उन्होंने परमाणु की अवधारणा की जो काल की सबसे छोटी इकाई है। वायु पुराण में काल की विवेचना में जो विवरण दिया गया है उसके अनुसार दो परमाणु से एक अणु, तीन अणु से एक त्रसरेणु, तीन त्रसरेणु से एक त्रुटि, सौ त्रुटियों से एक वेध, तीन वेध से एक लव, तीन लव से एक निमेष, तीन निमेष से एक काष्ठा, पंद्रह काष्ठा से एक लघु, पंद्रह लघु से एक नाड़ी, दो नाड़ी से एक मुहूर्त, तीन मुहूर्त से एक प्रहर, आठ प्रहरसे एक अहोरात्र (दिन-रात) बनते हैं। अहोरात्र से मास, मास से वर्ष, वर्ष से युग और शतियाँ।
काल अखण्ड है, अविभाज्य है। हमारे पूर्वजों ने अखण्ड के खण्ड इस लिये किये ताकि आलोक को, उजास को निहारने में विस्तार का अवरोध बाधक न बन सके!
वर्ष आगामी हो या व्यतीत, वह भोला एवं निश्छल होता है। उसके अपने कोई आग्रह नहीं होते! वह तो गीली मृत्तिका की भांति हमारे समक्ष खड़ा होता है। यह हम पर निर्भर है कि हम उससे सुंदर मूर्तियाँ गढ़ें या बहा दें! इतिहास के नगर में स्मारक बन कर प्रतिष्ठित होना प्रत्येक वर्ष की आकांक्षा होती है। यह हम पर निर्भर है कि हम उसकी आकांक्षा पूरी कर पाते हैं अथवा नहीं। यह आँकलन आवश्यक है कि कौन सा वर्ष उपलब्धियों की उजास से भरपूर रचा गया और किस वर्ष के भाग में अमा का अंधकार आया!
वैसे उजास की पुस्तिका के अधिकांश पृष्ठ कोरे हैं!
इतिहास के असंदिग्ध प्रमाणों के आधार पर यह स्वीकार करने में कोई दो मत नहीं हैं कि विश्व की समस्त जातियों में सभ्यता की दृष्टि से आर्यों का प्रथम स्थान रहा है। अपनी उन्नत सभ्यता तथा ज्ञान के बल पर आर्यों ने सम्पूर्ण विश्व पर शासन किया। अपने पराक्रम द्वारा उन्होंने चेतन जगत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया तो अपने विज्ञान के बल पर उन्होंने अचेतन सृष्टि पर अधिकार किया। मानव-मात्र की सुख-शांति हेतु उन्होंने प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का भेदन कर डाला, उन मन्त्रों के ‘द्रष्टा’ हुये जिनके आवरण में उनकी उपलब्धियों के सिद्धांत वेदों की संहिताओं में संकलित हैं। चूँकि उनके विचार मौलिक थे, उन्होंने अपने संकलन विश्व के समक्ष ईश्वरीय देन के रूप में प्रस्तुत किये। ऋग्वेदादि भाष्य में दयानन्द सरस्वती ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हुये लिखा है कि वेदों में वर्णित अनुसंधान आज से एक अरब छियानबे करोड़ आठ लाख वर्षों से भी कुछ पूर्व हुये थे, यद्यपि पाश्चात्य विद्वान इस अवधि को नहीं मानते, और वे मानेंगे भी नहीं क्योंकि उन्हें यह सहन ही नहीं हो सकता कि इस विश्व में उनसे पूर्व, उनसे अधिक सभ्य तथा श्रेष्ठ भी कोई था।
किन्तु यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। समस्या यह है कि आज का भारतीय भी इतना पश्चिम-मुखापेक्षी हो गया है कि उसे भी अपने अतीत-गौरव पर विश्वास नहीं है। आज के भारतीय को पश्चिम की सभ्यता, संस्कृति, सिद्धांत सदा श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं। दूसरी समस्या यह है कि जिन्हें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सिद्धांतों पर आस्था भी है, वे भी अपनी श्रेष्ठता हेतु ऐसी मूढ़ तर्कणा में जा उलझते हैं कि हाथी को देखने के लिये सूक्ष्मदर्शी तक प्रयोग कर लेते हैं तथा तब मूल उद्देश्य से हट कर सारा विमर्श किसी अन्य बिंदु पर केंद्रित हो जाता है।
ऐसा ही एक विषय है ‘मेटोनिक-चक्र का सिद्धांत तथा आर्ष भारतीय ज्योतिष में इस सिद्धांत का पूर्व अस्तित्व‘। विगत पचास वर्षों में यह विषय भारतीय खगोल-विदों एवं ज्योतिषियों को भरपूर उद्वेलित कर चुका है तथा इस पर मूर्धन्यों के परस्पर खण्डन-मण्डन के तर्क आते रहे हैं तथा भविष्य में भी इसके रुकने की सम्भावना अल्प ही प्रतीत होती है। कारण यह है कि यह विमर्श अपने मूल उद्दिष्ट विषय से विचलित हो चुका है। आज विमर्श इस विषय पर नहीं हो रहा कि आर्ष भारतीय ज्योतिष में उन्नीस वर्षों के किसी चक्र की अवधारणा थी या नहीं, और मेटोनिक चक्र का सिद्धांत जिस विषय का प्रतिपादन करता है, आर्ष भारतीय ज्योतिष में उस सिद्धांत का पूर्व अस्तित्व था अथवा नहीं, वरन अब विमर्श इस हेतु हो रहा है कि क्या भारतीय ज्योतिष में कभी युग १९ वर्ष का माना जाता था अथवा नहीं? और यह निश्चित ही एक मूर्खतापूर्ण भटकाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
सर्वप्रथम तो यह जान लें कि यह मेटोनिक चक्र है क्या?
मेटोनिक चक्र पाँचवीं सदी ईसा पूर्व एथेंस के यूनानी खगोल वैज्ञानिक मेटोन के खगोलीय अध्ययन का निष्कर्ष है जिसे विश्व उनके नाम पर मेटोनिक चक्र अथवा एननेडकाटेरिस (Enneadecaeteris, एक ग्रीक शब्द ἐννεακαιδεκαετηρίς जिसका अर्थ “१९ वर्ष का चक्र” होता है) के नाम से जानता है। श्रीमान मेंटोन का यह सिद्धांत चन्द्र आधारित चन्द्र-मास तथा सूर्य आधारित सौर-मास के समन्वयन से सम्बन्ध रखता है। अत्यधिक सामान्य तथा स्थूल प्रकार के गणित पर आधारित यह सिद्धांत सामान्यतः इस प्रकार परिभाषित एवं व्याख्यायित किया जा सकता है :
एननेडकाटेरिस या मेटोनिक चक्र उन्नीस वर्षों का एक चक्र है तथा उन्नीस वर्षों की यह अवधि सौर मास तथा चंद्र मास के दिनों की संख्या का गणितागत निकटतम लघुत्तम समापवर्त्य (निकटतम, परिशुद्ध नहीं!) है।
यह तो स्पष्ट ही है कि सौर मास आधारित वर्ष तथा चंद्र मास आधारित वर्ष के दिनों की संख्या में अंतर होता है और चंद्र मास पर आधारित वर्ष, सौर मास आधारित वर्ष की तुलना में लगभग ग्यारह दिन अल्पजीवी होता है। श्रीमान् मेटोन ने अपने खगोलीय प्रेक्षणों तथा गणितीय संक्रियाओं द्वारा यह पाया कि सौर मास आधारित वर्ष के माह तथा चंद्र मास आधारित वर्ष के माह को यदि आवर्ती रूप से संकलित करते रहें तो उन्नीस सौर वर्षों पश्चात् एक ऐसी स्थिति आती है जब २३५ चांद्र-मास के दिनों की संख्या १९ सौर वर्षों के दिनों के लगभग(!) बराबर, ६९४० दिनों की होती है तथा दोनों के मानों में मात्र कुछ घंटों का अंतर रह जाता है जो नगण्य है।
कोई भी सम्वेदनशील काल-वेत्ता यह चाहेगा कि इस अंतर का समायोजन हो। तो श्रीमान् मेटोन ने इन २३५ चंद्र-मासों तथा ६९४० दिनों के मध्य समन्वय हेतु ६९४० दिनों को १९ भागों में विभाजित किया और उसे एक वर्ष माना। इस प्रकार एक वर्ष में दिनों की संख्या ३६५५⁄१९ आयी, जिसे ३६५ + १⁄४ + १⁄७६ के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है तथा यह बारह चंद्र-मास या एक चांद्र-वर्ष के दिनों से लगभग ग्यारह दिन अधिक है। उन्नीस वर्षों में यह वार्षिक ११ दिनों का अंतर संकलित हो कर २०९ दिनों का हो जाता है जो लगभग सात चांद्र-मास के दिनों २१० से मात्र १ कम है। अतः उन्होंने यह व्यवस्था दी कि उन्नीस वर्षों के एक चक्र में सात बार एक सौर वर्ष तेरह चंद्रमासों के बराबर होना चाहिये। समावर्ती दृष्टिकोण से १९ वर्षों को ७ से विभाजित करने पर संख्या आयी २.७१४३, अतः इसे पूर्णांक में परिवर्तित करते हुये उन्होने इस समायोजन हेतु प्रत्येक तीसरे वर्ष को चुना।
अनुमानतः ईसा से लगभग ३३२ वर्षों पूर्व जब श्रीमान् मेटोन ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया तब उससे पूर्व न केवल बेबीलोनिया के विद्वान ही इस सिद्धांत को जानते थे अपितु आर्ष भारतीय ज्योतिषी तो इसे ऋग्वैदिक काल से ही जानते, मानते एवं प्रयोग करते थे। चन्द्र आधारित चन्द्र-मास तथा सूर्य आधारित सौर-मास के समन्वयन से सम्बन्ध रखता श्रीमान मेंटोन का सिद्धांत आर्ष भारतीय ज्योतिष में प्रारम्भ से ही विद्यमान है जिसके कारण ही भारतीय ज्योतिष अधिमास एवं क्षयमास की संकल्पना को अपनी काल-गणना पद्धति में प्रारम्भ से ही अपनाता रहा है।
अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति आदि नामों से अधिमास/क्षयमास का वर्णन प्राचीन संस्कृत साहित्य में बहुलता से प्राप्त होता है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है। ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि ‘देवों ने सोमलता को तेरहवें मास में क्रय किया। जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है’। ऋग्वेद में भी ‘अंहस्’ के रूप में इसका उल्लेख है। अथर्ववेद में ‘मलिम्लुच’ शब्द आया है, जिसकी व्युत्पत्ति है – मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः अर्थात् ‘मलिन होने के कारण यह बढ़ जाता है’। अंहस्पति क्षय मास को कहते हैं। कठसंहिता, वाजसनेयी संहिता , अग्नि पुराण आदि में इसके वर्णन प्राप्त होते हैं।
साथ ही इस सम्बन्ध में आर्ष भारतीय विधि अधिक तर्कसंगत एवं सटीक है क्योंकि यह सूर्य की विविध राशियों में संक्रान्ति, चंद्रमा के नक्षत्र-मण्डल में भ्रमण, चन्द्र-मास एवं सौर-मास के दिनों में अंतर आदि अनेक पक्षों का स्वाभाविक समन्वय एवं समंजन है, हर तीसरे वर्ष एक तीस दिनों की अवधि का बलात् अंतर्वेधन (Forceful penetration) नहीं जैसा कि श्रीमान मेंटोन का सिद्धांत है। श्रीमान मेंटोन का मेटोनिक चक्र अथवा एननेडकाटेरिस सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि यह समन्वय ‘होना चाहिये’ किन्तु ‘क्यों होना चाहिये और कैसे’ यह भारतीय विद्वानों ने पूर्व में ही बता दिया था।
आइये, देखें कि श्रीमान् मेटोन के उस महान सिद्धांत, जिसकी स्पर्धा में आज के विद्वान दाँतों से लौह-शृंखलायें काटे जा रहे हैं, का उपयोग अकिञ्चन भारतीय ज्योतिष किस प्रकार करता रहा है। भारतीय ज्योतिष निश्चित ही इस सिद्धांत का प्रवर्तक रहा है तथा इसकी प्रक्रिया मात्र अधिक परिशुद्ध ही नहीं अपितु वैज्ञानिक भी है, किन्तु वह बहुत जटिल नहीं है। निश्चित ही इसके लिये हमें थोड़ा सा गणित के क्षेत्र में उतरना होगा, यह प्रयास रहेगा कि भाषा सरलतम रहे।
सूर्य सिद्धांत की उक्ति है :
ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यंच गौरवम। सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मासानि वै नव॥
ब्राह्मवर्ष, दिव्यवर्ष, पितृवर्ष, प्रजापत्यवर्ष, गौरववर्ष, सौरवर्ष, सावनवर्ष, चान्द्रवर्ष तथा नाक्षत्रवर्ष ये नौ प्रकार के वर्ष, तथा उन पर आधारित नौ ही प्रकार के मास भी माने गये हैं किंतु ‘चतुर्भिर्व्यवहारोऽत्र‘ इस सूर्य सिद्धांत वचन के आधार पर चांद्र, सौर, सावन और नाक्षत्र मास तथा वर्ष का ही व्यवहार होता है। अब कुछ पारिभाषिक शब्दावलियों को समझ लेने की आवश्यकता है :
• जिस अवधि में सूर्य एक राशि का भोग कर लेता है वही अवधि-मान एक सौर मास तुल्य होता है, अर्थात एक राशि में सूर्य की संक्रांति के पश्चात दूसरी राशि में संक्रमण के पूर्व सूर्य-संचरण का समय एक सौर मास कहलाता है। अर्थात् रवि के मेषादि १२ राशियों में भ्रमण काल में इन राशियों में रवि की एक राशि में संक्रांति से लेकर दूसरी राशि में संक्रांति तक की अवधि को ही सौर मास कहते हैं। बारह राशियों की इस संक्रांति के कारण ही एक वर्ष में १२ सौर मास होते हैं जिनके नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभ, नभस्य, इष, ऊर्ज, सह, सहस्य, तप तथा तपस्य हैं।
मेषादि सौरमासांस्ते भवति रविसंक्रमात्। मधुश्च माधवश्चैव शुक्र शुचिरथो नभः॥
नभस्यश्चेष उर्जश्च सहश्चाथ सहस्यकः। तपस्तपस्यः क्रमतः सौरमासाः प्रकीर्तिता॥• दो अमावस्याओं के मध्य का काल, अर्थात शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या की समाप्ति काल तक चांद्र मास होता है, अर्थात ३० तिथियों के भोग काल को चांद्र मास कहते हैं एवं, एक नक्षत्र में चंद्रमा के योग की आवृति से जब चंद्रमा समस्त २७ नक्षत्रों का भोग कर लेता है, तो उस अवधि को चांद्र मास कहते हैं।
• सूर्योदय से सूर्योदय पूर्व तक के समय को सावन दिन कहते हैं। इस प्रकार ३० सूर्योदयों का एक सावन मास होता है।
चैत्रादिसंज्ञाश्चांद्राणां मासानां संप्रकीर्तिताः। श्रौतस्मार्तक्रियाः सर्वाः कुर्याश्चांद्रमसर्तषु॥
चांद्रस्तु द्विविधो मासो दर्शातः पौर्णीमतिम्। देवार्थे पौर्णमास्यंतो दर्शातः पितृकर्मणि॥
अर्थात् एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक, या फिर एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक चांद्र मास होता है। एक वर्ष में १२ चांद्र मास होते हैं जिनके नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन हैं। चंद्रमा किसी भी मास की पूर्णिमा को तत्सम्बंधी चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ या उत्तराषाढ़, श्रवण, पूर्वोत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृतिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, तथा पूर्वोत्तरफाल्गुनी नक्षत्रों में स्थित होता है जिसके आधार पर इन मासों का नामकरण हुआ है। चांद्र मास २९ दिवस, ३१ घटिका और ५० पल ७ विपल २६.४ प्रति विपलों का होता है जो ३० तिथियों के तुल्य होता है। इस परिमाण से एक चांद्र वर्ष में ३०×१२=३६० तिथियां होती हैं।• एक सौर वर्ष ३६५ दिन, १५ घटिका और २३ पलों का होता है, अर्थात् पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा में इतनी अवधि लगती है।
• एक चांद्र वर्ष में कुल ३७१ तिथियां होती हैं। चांद्र वर्ष और सौर वर्ष में हर वर्ष ११ तिथियों का अंतर होता है। यह अंतर जब ३० तिथियों तक पहुंच जाये तब एक अधिक चांद्र मास होता है, अर्थात उस वर्ष में १३ चांद्र मास होते हैं।
असंक्रांतिरमांतो यो मासश्चेत्सो अधिमासकः। मलमासाहृयो श्रेयः प्रायश्च आदिसप्तसु॥
द्वांत्रिंशगतैर्मासै दिनैः षोडशभिस्तथा। घटिकानां चतुष्कोण पतत्याधिकमासकः॥• चांद्र मास और सौर मास दोनों का मेल बिठाने के लिए जिस किसी अमांत मास (शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक) में रवि संक्रांति नहीं होती अर्थात् सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण नहीं करता उस मास को ही अधिक मास या मल मास कहा जाता है। चैत्र से आश्विन तक जो ७ मास होते हैं, उन्हीं में से कोई अधिक मास होता है। कदाचित कभी फाल्गुन भी अधिक मास हो सकता है किंतु पौष या माघ कभी अधिक मास नहीं हो सकते।
• ३२ माह १६ दिवस की अवधि के उपरांत अर्थात प्रत्येक तीसरे वर्ष अधिक मास आया करता है।
• एक बार आया हुआ अधिक मास १९ वर्षों के पश्चात पुन: आता है अर्थात् १९ वर्षों पश्चात् उसी मास में पुनः अधिक मास की पुनरावृत्ति हुआ करती है।
अब किस वर्ष में यह अधिक मास या मल मास आयेगा इस हेतु भी एक सरल सूत्र है –
शालिवाहन शक संख्या को १२ से गुणा कर गुणनफल को १९ से भाग दें। जो संख्या शेष बचे वह यदि ९ या ९ से न्यून हो, तो उस साल मल मास पड़ता है। इसी प्रकार से कौन सा मास मल मास होगा, यह पता लगाने के लिए यह देखना चाहिए कि शेष बची हुई संख्या ५ या ५ से अधिक है या नहीं। यदि हो, तो उस संख्या में से एक घटा दिया जाता है और जो संख्या बचती है उसे चैत्र से गिन कर अधिक मास का पता लगाया जाता है। यह नियम स्थूल है। सूक्ष्म गणित करने के पश्चात ही पूर्णरूप से सही निर्णय लिया जा सकता है।
किन्तु किसी अमांत मास में संक्रांति न हो की स्थिति से प्रतिकूल कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि किसी अमांत मास में सूर्य की दो संक्रांतियाँ भी हो जाती हैं! भारतीय मनीषियों ने उस मास को क्षय मास माना।
द्विसंक्रांतिः क्षयाख्यःस्यात् कदाचित् कार्तिकत्रये। युग्माख्ये स तु तत्राब्दे ह्यधिमासद्वयं भवेत॥
जिस किसी अमांत मास में २ रवि संक्रांतियां होती हैं उस मास को क्षय मास कहते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष और पौष में से ही कोई क्षय मास हो सकता है क्योंकि इन तीनों मासों में रवि के चतुर्दिक पृथ्वी की गति तीव्र होती है (केपलर का नियम)। वृश्चिक, धनु और मकर राशियों को पार करने में तो रवि को चांद्र मास से भी अल्प अवधि लगती है। ऐसी स्थिति में एक चांद्र मास में २ रवि संक्रांतियाँ हो सकती हैं अत: वहाँ क्षय मास होता है। क्षय मास से पहले और पश्चात में एक-एक मल मास होता है। क्षय मास १४१ वर्षों के अंतराल पर आता है किंतु कभी-कभी १९ साल के पश्चात भी आ सकता है। पूर्णिमा के चांद्र नक्षत्र के आधार पर संबंधित चांद्र मास का नामकरण होता है जैसे जिस मास की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र आता है, उसका नाम चैत्र पड़ जाता है। इसी प्रकार विशाखा से वैशाख तथा ज्येष्ठा से जेठ आदि।
सूर्य जिस समय किसी राशि में प्रवेश करता है, उस समय जिस अमांत चांद्र मास में संक्रांति होती है, उसी चांद्र मास के आधार पर संबंधित संक्रांतिजन्य सौर मास का नामकरण होता है। अतः मेष संक्रांतिजन्य सौर मास का नाम वैशाख हुआ। इसी प्रकार वृष का ज्येष्ठ, मिथुन का आषाढ़, कर्क का श्रावण, सिंह का भाद्रपद, कन्या का आश्विन, तुला का कार्तिक, वृश्चिक का मार्गशीर्ष, धनु का पौष, मकर का माघ, कुंभ का फाल्गुन और मीन का चैत्र हुआ। ज्योतिष में नाक्षत्र सौर वर्ष का प्रारंभ मेष की संक्रांति से तथा क्रांति पातिक सौर वर्ष का वासंत क्रांतिपात (२१ मार्च) से होता है।
इसी प्रकार चांद्र वर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। सूर्य की अथवा स्पष्ट कहें तो पृथ्वी की गति की विचित्रता के कारण ऐसा संभव हो जाता है। सूर्य कभी एक राशि पार करने में २९ दिनों से थोड़ा अधिक समय लेता है और कभी यह सीमा ३१ दिनों से भी अधिक होती है। धनु के आधे भाग पर रहते समय सूर्य की गति तीव्रतम अर्थात ६१ कला १० विकला प्रति दिन रहती है। धीरे-धीरे घटते हुये यही गति मिथुन के मध्य में ५७ कला १२ विकला तक रह जाती है।
अधिकतम गति से सूर्य एक राशि को २९.२२ दिनों में ही पार कर लेता है जबकि चंद्रमास का मध्यमान २९.५३ दिन है। वास्तव में ग्रह तीव्रतम गति के समय अपनी कक्षा में पृथ्वी के निकटतम बिंदु (मंदनीच) पर होता है और न्यूनतम गति के समय पृथ्वी से अपनी कक्षा के दूरतम बिंदु (मंदोच्च) पर होता है। सूर्य की बारह संक्रांतियां प्रायः २९.२५ दिन से लेकर ३१.५ दिन में होती हैं जबकि चांद्र मास २९.५३ माध्य सावन दिन का होता है। अधिक व क्षय मासों की गणना सदैव स्पष्ट अर्थात सही मानों से की जाती है। अतः अधिक मास तो क्रमशः ३२.५ चांद्र मासों के पश्चात आता रहता है, लेकिन क्षय मास कभी-कभी ही आता है। सूर्य की गति के वृश्चिक, धनु व मकर राशियों में क्रमशः तीव्रतर से तीव्रतम होने के कारण क्षय मास जब भी होगा इनसे संबंधित मासों में अर्थात कार्तिक, मार्गशीर्ष या पौष में ही होगा।
वास्तविक अधिक मास का निश्चय मूलतः दिनों या सूर्य के अंशों को ही गिनकर किया जाता है। कुछ ग्रंथों में एक सरल विधि दी गई है, जिसके आधार पर पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि कौन से वर्ष में, किस मास में अधिक मास पड़ने की संभावना है। इसके लिए माघी अमावस्या व सायन दिनाङ्क देखा जाता है और यदि माघी अमावस्या १४ से २४ दिनाङ्कों के मध्य पड़ती है, तो अगले वर्ष में अधिकमास होता है।
किस मास को अधिक मास माना जायेगा, इसका भी निर्धारण मनीषियों ने किया है। जब कभी किसी भी मास में कृष्ण पक्ष की पञ्चमी को सूर्य राशि परिवर्तन करता है, उसके अगले वर्ष में जिस मास में सूर्य कृष्ण पक्ष की पञ्चमी को राशि परिवर्तित करे, उसके पहले का मास अधिक मास होगा। उदाहरणस्वरूप दिनांक १५ जून २०१७ ग्रे. को सूर्योदय से पूर्व, विक्रमी सम्वत २०७४ आषाढ़ पञ्चमी को प्रातः ५ बज कर १२ मिनट ३० सेकेंड पर सूर्य मिथुन राशि में प्रविष्ट हुआ। अतः सन् २०१८ ग्रे., विक्रमी सम्वत् २०७५ में आषाढ़ से पूर्व का मास ज्येष्ठ मास अधिक मास रहा।
अब उस परिस्थिति का अवलोकन करें, जिसके कारण अधिमास होता है। सौर मासों में कुछ मास चांद्र मास से बड़े और कुछ चांद्र मास से छोटे भी होते हैं क्योंकि सौर मास पृथ्वी की सूर्य के परिक्रमण के कारण है जो समान अवधि में सूर्य के सापेक्ष समान कोण नहीं अंतरित करती जबकि चांद्र मास चंद्र्मा के पृथ्वी की परिक्रमा के कारण है जिसकी अवधि नियत है।
जो सौर मास चांद्र मास से बड़े होते हैं, उनमें कभी-कभी दो अमावस्यांत पड़ जाते हैं। एक सौर मास के आरंभ के साथ-साथ या उनके कुछ ही काल पीछे, और दूसरा उस सौर मास की समाप्ति के पूर्व, अर्थात पहले अमावस्यांत तक पहली संक्रांति नहीं होती है। इस दशा में एक और चांद्र मास जोड़ा जाता है, जो अधिमास कहलाता है तथा उसका भी नाम पहली अमावस्या वाले चांद्र मास के समान ही रखा जाता है। तात्पर्य यह है कि एक ही नाम के २ चांद्र मास होते हैं।
किस वर्ष में अधिमास होगा, यह जानने के लिए मकरंद ग्रंथ में निम्न विधियाँ दी गई हैं :
शाक षडरसभूपकैर्विरहितो नंदेंदु भिर्भाजितः शेषेऽग्नौ च मधुः शिवे तदपरो ज्येष्ठेऽम्बरे चाष्टके आषाढ़ो नृपतेर्नभश्च शरकै विश्वे नभस्यस्तया बाहू चाश्निसंज्ञको मुनिवरै प्रोक्तोऽधिमासः क्रमात्।
षडरसभूपकै = षड रस भूपकै अर्थात् १६६६ (अङ्कानाम वामतो गतिः ६,६,१६ अर्थात १६६६), नंदेंदु अर्थात् १९, अग्नौ अर्थात् ३, शिवे अर्थात् ११, अम्बरे अर्थात् १०, अष्ट के अर्थात् ८, नृपते अर्थात् १६, शरके अर्थात् ५, विश्वे अर्थात् १३, बाहु अर्थात् २। (तीन अग्नि, पाँच कामदेव के बाण, ग्यारह रुद्र या शिव इत्यादि संख्यावाची विशेषणों का प्रयोग हुआ है।)
इस सूत्र का अर्थ है कि शक-सम्वत् की संख्या से १६६६ घटा कर १९ का भाग देने पर यदि ३ शेष बचे तो चैत्र, ११ शेष बचे तो वैशाख, १० शेष बचे तो ज्येष्ठ, ८ शेष हो तो आषाढ़, १६ शेष हो तो श्रावण, १३ या ५ शेष हो तो भाद्रपद और २ शेष बचे तो आश्विन मास अधिक मास होता है।
एक विधि यह भी बताई गई है :
अष्टाश्विनंदैर्वियुत च शाकेनवेंदुभिभाजितशोषभङ्कम्। खं रुद्र अष्टा विषु विश्व युग्म चैत्रादि सप्त सदाधिमासः॥
[शोषभङ्कम(९), खं(०), रुद्र(११), अष्टा (८), विषु (५), विश्व (१३), युग्म(२) ]
अर्थात् शक संख्या में ९२८ घटा कर शेष में १९ का भाग देने पर यदि शेष ९ हो तो चैत्र, ० हो तो वैशाख, ११ हो तो ज्येष्ठ, ८ हो तो आषाढ़, ५ हो तो श्रावण, १३ हो तो भाद्रपद, २ हो तो आश्विन, ये ७ मल मास होते हैं।
एक मत यह भी है :
शशिमुनिविधुवह्निर्मिश्रिता शककाले, द्विगुणमनुविहानानदंचंद्रैः विभक्तः।
यदि भवति शेषः सध्रुवोऽङकों विलोक्य गण कमुनिभिरुक्तं।
चात्र चैत्रादिमासः यदा षोडशके शेषे समासं च द्वितीयकम्।
आषाढ़ मासकं कार्य ब्रह्मसिद्धांतभाषितम्॥
[शशिमुनिविधुवह्निर्मिश्रिता शककाले = शशि (१), मुनि (७), विधु (१), वह्नि (३) अङकानाम् वामतो गतिः (३१७१) को शक संख्या में जोड़ कर, द्विगुणमनु विहाना (१४३२) घटा कर…… आदि]
शक संख्या में ३१७१ जोड़कर फिर १४३२ घटाकर, १९ का भाग देने पर यदि शेष संख्या अधिमास की हो, तो उसे देखकर अधिक मास का आदेश करना चाहिए। यहां ब्रह्म सिद्धांत के मत से १६ शेष हो तो आषाढ़ का ग्रहण करना चाहिए।
एक अन्य विधि यह भी है :
मेघोभूहीनशकोड्कऽचंद्ररैःशेषोऽधिमासा मधुतश्च यप्त।
रामो, महेशौ, वसु, खं, नृपोडर्थो, विश्वे, भुजः, कात्रिकपंऽनष्टा॥
[ड्कऽचंद्ररैः, (१९), रामो (३) महेशौ, (११) वसु, (८) खं, (०) नृपोड, (१६) र्थो, (५) विश्वे, (१३) भुजः (२)]
शक संख्या में १५१७ (मेघोभू) को घटाकर १९ से भाग देने पर ३ शेष में चैत्र, ११ में वैशाख, ८ में ज्येष्ठ, १० में आषाढ़, १६ में सावन, १३ या ५ में भद्रपद, २ में आश्विन अधिमास होते हैं। कार्तिक से फाल्गुन तक के ५ मास अधिक मास नहीं होते हैं।
गणना की एक विधि यह भी है :
अभीष्ट विक्रम संवत् में २४ जोड़ें तथा १६० का भाग दें।
यदि ३०, ४९, ६८, ८७, १०६, १२५ शेष बचे तो चैत्र,
११, ७६, ९५, ११४, १३३, १५२, शेष बचने पर वैशाख,
०, ८, १९, २७, ३८, ४६, ५७, ६५, ८४, १०३, १२२, १४१, १४९ शेष रहने पर ज्येष्ठ,
१६, ३५, ५४, ७३, ९२, १११, १३०, १५७ शेष रहने पर आषाढ़,
५, २४, ४६, ६२, ७०, ८१, ८२, ८९, १००, १०८, ११९, १२७, १३८, १४६, शेष बचने पर श्रावण,
१३, ३२, ५१ शेष बचने पर भाद्रपद,
२, २१, ४०, ५९, ७८, ९७, १६६, १३५, १४३, १४५ शेष बचने पर आश्विन का अधिमास जानना चाहिए।
इन अंकों से अन्यथा शेष बचने पर अधिक मास नहीं होता।
उदाहरण स्वरूप आगामी विक्रम सम्वत् २०७६ को उक्त सिद्धांत पर जाँचें, तो २०७६ + २४ = २१००/१६० = १३ लब्धि तथा २० शेष बचा। ऊपर निर्दिष्ट संख्याओं में २० शेष रहने की स्थिति का कोई उल्लेख नहीं है अतः आगामी सम्वत २०७६ में अधिक मास नहीं होगा।
क्षय मास सिद्धांतानुसार जिस चांद्र मास में सूर्य की दो संक्रांतियां पड़ जाएं, उसे क्षय मास कहते हैं। क्षय मास वाले वर्ष में दो अधिक मासों का आना अवश्यंभावी है। जैसे कुछ सौर मास चांद्र मासों से बड़े होते हैं, वैसे ही कुछ सौर मास चांद्र मासों से छोटे भी होते हैं। ऐसी दशा में कभी-कभी एक ही चंद्र मास में सूर्य की दो संक्रांतियाँ हो जाती हैं, प्रथम चांद्र मास के प्रारम्भ में तथा द्वितीय उसके अंत में।
इसका कारण भी वही, सूर्य के परितः पृथ्वी की गति का तीव्र या मंद होना ही है। सूर्य का मंदोच्च सिद्धांत दर्शाता है कि कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष, इन ३ मासों में ही दो सूर्य संक्रांतियों के पड़ने की संभावना बनती है। अतः यही ३ मास क्षय मास हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रथम क्षय मास या द्वितीय क्षय मास १९ अथवा १४१ वर्षों के अंतराल पर संभव होता है। जिस वर्ष क्षय मास हो उस वर्ष दो अधिमास अवश्य होते हैं – एक क्षय मास से पूर्व, तथा दूसरा क्षय मास के पश्चात्। क्षय मास के पूर्व आने वाला अधिमास ही संसर्प तथा क्षय मास के पश्चात या सामान्य रूप से बिना क्षय मास के भी पड़ने वाला अधिमास अहंस्पति कहलाता है।
क्षय मास तथा अधिमास में करणीय-अकरणीय का विवेचन इस आलेख का विषय नहीं है।
[आर्ष भारतीय गणना में जो द्वादश चांद्र मासों का एक चांद्र वर्ष होता है वही हिजरी का स्वीकृत वर्ष है। मुस्लिम वर्ष का आधार चांद्र मास ही है। चंद्र दर्शन से माह आरंभ होता है। चूंकि यह सौर वर्ष से ११ दिन कम होता है, किंतु हिजरी संवत या मुस्लिम वर्ष में अधिक मास नहीं होता। चांद्र तिथि के छोटे-बडे होने के कारण हिजरी सम्वत के मास भी कभी २९ तो कभी ३० दिन के होते हैं। अधिक मास के न होने के कारण उनका प्रत्येक त्योहार प्रति सौर वर्ष ११ दिन पहले ही आ जाते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि लगभग साढे बत्तीस महीनों में उनके सभी पर्व एक महीने पूर्व पड़ने लगते हैं और लगभग साढे बत्तीस वर्षों में वे सभी ऋतुओं में घूम आते हैं। किंतु हमारे शास्त्रकारों ने अपने चांद्र पर्व दिनों को उक्त ऋतु व्यतिक्रम से बचाने के लिए अधिमास की युक्ति सोच निकाली है। इसमें पर्वों की ऋतु विषयक रक्षा हो जाती है।]
अब एक विशेष प्रश्न जिसके लिये विद्वानों ने अपने बौद्धिक सामर्थ्य की अति तक जा कर तर्क-वितर्क एवं खण्डन-मण्डन किये हैं कि क्या मेटोनिक चक्र की अवधि एक युग है? इस हेतु महर्षि लगध तथा उनके ऋग्ज्योतिष एवं यजुःज्योतिष के सूत्रों की पर्याप्त शल्य-क्रिया भी की जा चुकी है। इस विषय के संदर्भ में समस्त विमर्शकर्ता लब्धप्रतिष्ठित विद्वान हैं अतः उनके निष्कर्षों पर संदेह कर सकना इन पंक्तियों के लेखक जैसे अज्ञ हेतु शक्य भी नहीं है क्योंकि व्यक्तिगत अभिरुचि के कारण किसी विषय का स्वाध्याय एवं पूर्णकालिक अध्ययन-अनुसंधान-शोध में अंतर होता है किंतु इतना कह सकने का साहस अवश्य कर सकता हूँ कि सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में १९ वर्ष के युग की अवधारणा का कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अब कोई वैदिक ऋषियों के छन्दों का अपने मन के अर्थ लगाता है तो लगाता रहे!
वस्तुतः वेद तथा उनसे सम्बंधित संहितायें आर्य जाति की प्राचीन महत्वपूर्ण कृति के रूप में उत्कृष्टता के शिखर पर अकेले और बहुत ऊँचे खड़ी हैं और सत्य तो यह है कि वैदिक निर्वचन का लक्ष्य सायण, महीधर ही नहीं; उनसे भी १८०० वर्ष पूर्व उत्पन्न यास्काचार्य तक द्वारा वैदिक मंत्रों को दिया गया अर्थ जानना नहीं है वरन यह जानना है कि उन प्राचीन कवियों, ऋषियों, मनीषियों को स्वयं उन श्लोकों, मंत्रों या ऋचाओं का क्या अर्थ अभिप्रेत था।
हम महर्षि लगध तक पहुँचें उससे पूर्व काल मापन की आर्ष भारतीय प्रणाली का एक उदाहरण जिसका एक निदर्शन महाभारत में है, देख लेना असंगत नहीं होगा :
“अब मैं तुमसे काल का मान बताऊंगा, उसे सुनो। विद्वान लोग पंद्रह निमेष की एक ‘काष्ठा’ बताते हैं। तीस काष्ठा की एक ‘कला’ गिननी चाहिए । तीस कला का एक ‘मुहूर्त’ होता है । तीस मुहूर्त के एक ‘दिन-रात’ होते हैं। एक दिन में तीन-तीन मुहूर्त वाले पाँच काल होते है, उनका वर्णन सुनो – प्रातःकाल, सङ्गवकाल, मध्यकाल, अपराह्नकाल तथा पाँचवा सयाह्नकाल। इनमें पंद्रह मुहूर्त व्यतीत होते हैं। पंद्रह दिन रात का एक पक्ष होता है। दो पक्ष का एक मास कहा गया है। दो सौर मास की एक ऋतु होती है । तीन ऋतुओं का एक ‘अयन’ होता है तथा दो अयनों का एक वर्ष माना गया है ।
विज्ञ पुरुष मास के चार और वर्ष के पाँच भेद बतलाते हैं। सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं । सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है । सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है । यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है । कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है । चन्द्रमा की ह्रास-वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है । यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है । कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है । यह तिथि की ह्रास-वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है ।
जितने दिनों में चंद्रमा अश्विनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग २७ दिनों का होता है। सावन मास तीस दिनों का होता है । यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है । प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।
इसी प्रकार वर्ष के पाँच भेद होते हैं । पहला संवत्सर, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर तथा पाँचवा युग्वत्सर है। प्रत्येक संवत्सर में बारह सौर मास और बारह चन्द्र मास होते हैं । परन्तु सौरवर्ष ३६५ दिन का और चन्द्र वर्ष ३५५ दिन का होता है । जिससे दोनों में प्रतिवर्ष १० दिनों का अंतर पड़ता है । इस वैषम्य को दूर करने के लिए प्रति तीसरे वर्ष बारह के स्थान पर १३ चन्द्र मास होते हैं । ऐसे बढ़े हुए मास को अधिमास या मलमास कहते हैं। यही वर्ष गणना की निश्चित संख्या है। मनुष्यों के एक मास का पितरों का एक दिन और रात होता है। कृष्णपक्ष उनका दिन है और शुक्लपक्ष उनकी रात्रि।
सप्तर्षियों के एक वर्ष में ध्रुव का एक दिन माना गया है । मानव वर्ष के अनुसार सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का सतयुग माना गया है । मानव मान से ही बारह लाख छानवे हजार वर्षों का त्रेतायुग कहा गया है। आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का द्वापर होता है और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का कलियुग माना गया है।
इन चारों के योग से देवताओं का एक युग होता है। इकहत्तर युगों से कुछ अधिक काल तक मनु की आयु मानी गयी है। चौदह मनुओं का काल व्यतीत होने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है जो एक हजार चतुर्युगों का माना गया है, वही कल्प है। अब कल्पों के नाम श्रवण करो – भवोद्भव, तपोभव्य, ऋतु, वही, वराह, सावित्र, औसिक, गांधार, कुशिक, ऋषभ, खड्ग, गान्धारीय, मध्यम, वैराज, निषाद, मेघवाहन, पञ्चम, चित्रक, ज्ञान, आकृति, मीन, दंश, वृहक, श्वेत, लोहित, रक्त, पीतवासा, शिव, प्रभु तथा सर्वरूप – इन तीस कल्पों का ब्रह्मा जी का एक मास होता है । ऐसे बारह मासों का एक वर्ष होता है तथा ऐसे ही सौ वर्षों तक ब्रह्मा जी की आयु का पूर्वार्ध मानना चाहिए । पूर्वार्ध के सामान ही अपरार्ध भी है । इस प्रकार ब्रह्मा जी की आयु का मान बताया गया है।
बृहस्पति की गति के अनुसार प्रभव आदि साठ वर्षों में बारह युग होते हैं तथा प्रत्येक युग में पाँच–पाँच वत्सर होते हैं । बारह युगों के नाम हैं – प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति और क्षय । प्रत्येक युग के जो पाँच वत्सर हैं, उनमें से प्रथम का नाम संवत्सर है, दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और पाँचवा युगवत्सर है । इनके पृथक―पृथक देवता होते हैं, जैसे संवत्सर के देवता अग्नि माने गए हैं।”
अब महर्षि लगध को तो छोड़िये, ‘जो यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है’ की गर्वोक्ति वाले महाभारत में भी पञ्चवर्षीय युगमान के अतिरिक्त किसी अन्य युगमान का कोई उल्लेख नहीं है।
अद्यावधि उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथों में वेदाङ्ग ज्योतिष सबसे पुराना तथा आश्चर्यजनक रूप से व्यवस्थित एक मौलिक ग्रंथ है जिसका उपदेश महर्षि लगध ने सामान्य जनजीवन उपयोगी ज्योतिष गणनाओं को सुव्यवस्थित व तार्किक आधार देते हुए किया था। ऋग्वेद से सम्बंधित भाग को ऋग्ज्योतिष तथा यजुर्वेद से सम्बंधित भाग को यजुःज्योतिष कहा जाता रहा है । इन्हीं दोनों भागों की संयुक्त अभिज्ञा वेदांग ज्योतिष है। वेदों की भाँति ही यह उत्कृष्ट रचना भी हमें श्रुति परम्परा से ही प्राप्त हुई है।
वेदांग ज्योतिष भारतीय सिद्धांत ज्योतिष के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में विद्यमान है। यह एकमात्र प्राचीनतम सुव्यवस्थित व क्रमबद्ध कार्य है और किसी विषय का सुव्यस्थित व क्रमबद्ध अध्ययन ही उस विषय को महाविज्ञान बनाता है। निश्चित रुप से वेदांग ज्योतिष की पद्धति का अनुसरण भारतवर्ष में लगध के बहुत पश्चात तक होता रहा । इसकी पुष्टि महाभारत, कौटल्य के अर्थशास्त्र, गर्ग संहिता, पञ्चसिद्धांतिका और सूर्य प्रज्ञप्ति तथा चंद्र प्रज्ञप्ति से होती है। पांडवों के वनवास की अवधि के विषय में विराट के यहां युद्ध के समय जब विवाद उठ खड़ा हुआ तब भीष्म जिस भाँति गणना करते हुए उस अवधि का निश्चय करते हैं, वह वेदांग पद्धति ही थी।
भारतीय वेदांग ज्योतिष पद्धति कई शताब्दियों तक भारतवर्ष में अपने पूर्ण उत्कर्ष पर थी। यह पद्धति हजारों वर्षों तक चलन में रही। पितामह सिद्धांत में वेदांत पद्धति को अपने समय की प्रचलित पद्धति ही बताया है।
अवधि के आधार पर भारतीय ज्योतिषीय पञ्चांगों में तिथि के प्रकारों के विषय में बताया गया है कि तिथि पाँच प्रकार की होती हैं :
१. उदय व्यापिनी : सूर्योदय के समय विद्यमान तिथि उदय-व्यापिनी तिथि कहलाती है।
२. क्षीणा : दो सूर्योदयों के स्पर्श से रहित तिथि एक सूर्योदय के पश्चात् प्रारम्भ हो कर दूसरे सूर्योदय के पूर्व समाप्त हो जाने वाली तिथि की संज्ञा क्षीणा है।
३. वृद्धा : दो क्रमागत सूर्योदयों का स्पर्श करती तिथि वृद्धा तिथि है।
४. सखण्डा : मात्र एक सूर्योदय का स्पर्श करने वाली तिथि सखण्डा तिथि है।
५. शुद्धा : सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यमान रहने वाली तिथि शुद्धा तिथि कहलाती है।
अर्थात् सामान्यतः सूर्योदय के समय जो तिथि होती है वह तिथि उस दिन की तिथि कहलाती है और यदि कोई तिथि सूर्योदय के पूर्व प्रारंभ हो और अगले सूर्योदय के पश्चात भी विद्यमान रहे अर्थात कोई तिथि दो सूर्योदय देखे तो उसे तिथि-वृद्धि कहते हैं तथा यदि कोई तिथि सूर्योदय के पश्चात प्रारंभ हो और अगले सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाये अर्थात कोई तिथि कोई भी सूर्योदय न देखे उसे क्षय तिथि कहते हैं।
इसके अतिरिक्त भी परविद्धा तथा पूर्वविद्धा तिथियाँ भी होती हैं। जिस दिन कोई तिथि सूर्योदय के पश्चात कम से कम तीन मुहूर्त तक विद्यमान हो उस दिन वह तिथि परविद्धा कहलाती है किंतु मात्र तब, जब आगामी तिथि सूर्यास्त से तीन मुहूर्त पहले प्रारम्भ हो जाय तथा जिस दिन कोई तिथि सूर्यास्त से कम से कम तीन मुहूर्त पहले प्रारंभ हो रही हो किंतु उसी दिन सूर्योदय के पश्चात कम से कम तीन मुहूर्त तक अवश्य विद्यमान हो तो वह तिथि उस दिन पूर्वविद्धा कहलाती है।
आर्ष भारतीय काल मापन की प्रणाली कितनी सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक है यह शतपथ ब्राह्मणके आधार पर वैदिक कालमान की परिभाषाओं से ज्ञात हो जाता है (१२।३।२।५) :
द्वयोः त्रुट्योः एकः लवः (२ त्रुटि = १ लव)।
द्वयोः लवयोः एकः निमेषः (२ लव = 1 निमेष)।
पञ्चशानाम् निमेषाणाम् एकम् इदानि (१५ निमेष = १ इदानि या काष्ठा) ।
पञ्चदशानाम् इदानिनाम् एकम् एतर्हि (१५ इदानि = १ एतर्हि)।
पञ्चदशानाम् एतर्हिणाम् एकम क्षिप्रम् (१५ एतर्हि = १ क्षिप्र)।
पञ्चदशानाम् क्षिप्राणां एकः मुहूर्तः (१५ क्षिप्र =१ मुहूर्त)।
त्रिंशतः मुहूर्तानाम् एकः मानुषोऽहोरात्रः (३० मुहूर्त = १ मानुषी अहोरात्र)।
पञ्चदशानाम् अहोरात्राणाम् अर्धःमासः (१५ अहोरात्र = १ अर्धमास या पक्ष)।
त्रिंशतः अहोरात्राणाम् एकः मासः (३० अहोरात्र = १ मास)।
द्वादशानाम् मासानाम् एकः संवत्सरः (१२ मास = १ संवत्सर)।
पञ्चानाम् संवत्सराणाम् एकम् युगम् (५ संवत्सर = १ युग)।
द्वादशानाम् युगानाम् एकः युगसंघः भवति (१२ युग = १ युगसंघ)।
इन पाँच संवत्सरों के नाम क्रमशः संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर तथा युगवत्सर हैं जो क्रम से बारह बार मिल कर एक युगसंघ बनाते हैं। एक युगसंघ के बारह युगों के नाम क्रमशः प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति तथा क्षय हैं। अहोरात्र का मापन प्रारम्भ एक सूर्योदय से और अहोरात्र का समापन अपर सूर्योदय पर होता है।
सूर्योदयप्रमाणेन अहःप्रामाणिको भवेत्। अर्धरात्रप्रमाणेन प्रपश्यन्तीतरे जनाः ॥
विष्णु पुराण में दी गई एक अन्य वैकल्पिक पद्धति (समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तृतीय) निम्नवत है :
१० पलक झपकने का समय = १ काष्ठा
३५ काष्ठा= १ कला
२० कला= १ मुहूर्त
१० मुहूर्त= १ दिवस (२४ घंटे)
३० दिवस= १ मास
६ मास= १ अयन
२ अयन= १ वर्ष, = १ दिव्य दिवस
छोटी वैदिक समय इकाइयाँ निम्नवत हैं :
एक तृसरेणु = ६ ब्रह्माण्डीय (मापन के अयोग्य, गणनात्मक कार्यों हेतु प्रयोज्य)।
एक त्रुटि = ३ तृसरेणु।
एक वेध = १०० त्रुटि।
एक लावा = ३ वेध।
एक निमेष = ३ लावा, या पलक झपकना।
एक क्षण = ३ निमेष।
एक काष्ठा = ५ क्षण = ८ सैकिण्ड।
एक लघु = १५ काष्ठा, = २ मिनट।
१५ लघु = एक नाड़ी, जिसे एक दण्ड भी कहते हैं।
२ दण्ड = एक मुहूर्त।
६ मुहूर्त = एक याम, या एक चौथाई दिन या रात्रि।
४ याम या प्रहर = एक दिन (या एक रात्रि)।
वेदांग ज्योतिष में पञ्चवर्षात्मक युग माना जाता है। हर ६० वर्ष मे १२ युग व्यतीत हो जाते हैं।
शुक्लयजुर्वेदसंहिता के मन्त्रों २७/४५, ३०/१५, २२/२८, २७/४५, २२/३१ आदि में पञ्चसंवत्सरात्मक युगका वर्णन है। ब्रह्माण्डपुराण १/२४/१३९-१४३, लिंगपुराण १/६१/५०५४- और आगे, वायुपुराण १/५३/१११-११५, महाभारत अश्वमेधपर्व, कौटलीय अर्थशास्त्र, सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान आदि ग्रंथ वेदांग ज्योतिष के सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं।
महर्षि लगध प्रणीत उपलब्ध वेदांग ज्योतिष का प्रथम श्लोक ही पञ्चवर्षात्मक युग की अवधारणा के उद्घोष के साथ प्रारम्भ होता है –
पञ्चसम्वत्सरमयं युगाध्यक्षं प्रजापतिम्। दिनऋत्वयनमासाङ्ग प्रणम्य शिरसा शुचिः॥
ज्योतिषामयनं पुण्यं प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः। सम्मतं ब्राह्मणेंद्राणां यज्ञकालार्थ सिद्धये॥
[पाँच वर्षों वाले युग के प्रजापति को प्रणाम करते हुये, जिनके दिन, ऋतु, अयन तथा मास अङ्ग हैं, मैं शुद्धि (या पवित्र) नामक ज्योतिष (प्रकाश स्रोत) की पुण्य गति का वर्णन करूंगा, जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों हेतु यज्ञ के समय निर्धारण हेतु मान्य है। (महर्षि लगध का वेदाङ्ग ज्योतिष श्लोक १ एवं २)]
अब कोई “सम्वत्सरं अयं” को “सम्वत्सर मयं” के रूप में स्वीकार करे तो उसके लिये मोदकैस्ताडय* का अर्थ “मोदकैः ताडय – मोदकों (लड्डुओं) से मारो” होगा किंतु तात्पर्य तो “मा उदकैः ताडय – जल से न मारो” है!
महर्षि लगध के वेदांग ज्योतिष में एक युग के इन पाँचो सम्वत्सरों के दोनों अयनों के प्रारम्भ की तिथियाँ एवं नक्षत्र भी वर्णित हैं जो क्रमशः संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर तथा युगवत्सर का आधार बनते हैं। वेदांग ज्योतिष के श्लोक ९ तथा १० के अनुसार –
प्रथमं सप्तमं चाहुरचाहुरयनाद्यं त्र्योदशम्। चतुर्थं दशमं चैव द्वियुग्मं बहुलेऽप्यृतौ॥९॥
वसुस्त्वष्टा भवोऽजश्च मित्रस्सर्पोऽश्विनौ जलम्। अर्यमा कोऽयनाद्यास्स्युरर्ध पञ्चम भवस्त्वृतुः॥१०॥
[प्रथम, सप्तम, तेरहवीं, दसवीं तथा चौथी तिथियों से अयन प्रारम्भ होता है जिनमें अंतिम दो ऋतुमास के कृष्ण पक्ष की होती हैं।
वसु (या धनिष्ठा) त्वष्ट्र (चित्रा), भव (रुद्र या आर्द्रा) अज (एकपाद या पूर्वा भाद्रपद) मित्र (अनुराधा), सर्प (आश्लेषा) अश्विनी, जल (पूर्वाषाढ़ा), अर्यमा (उत्तरा फाल्गुनी) एवं का (रोहिणी) वे नक्षत्र हैं जिनसे पाँच सम्वत्सरों के दस अयन प्रारम्भ होते हैं। (महर्षि लगध का वेदाङ्ग ज्योतिष श्लोक ९ एवं १०)]
इन दोनों श्लोकों में पाँच सम्वत्सरों के दसो अयनों की तिथियाँ एवं नक्षत्र बताये गये हैं। दोनों श्लोकों के तारतम्य से पाँच वर्षों के युग में प्रथम वर्ष (सम्वत्सर) का प्रथम अयन (उत्तरायण) माघ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को धनिष्ठा नक्षत्र से तथा दूसरा अयन (दक्षिणायन) श्रावण शुक्ला सप्तमी को चित्रा नक्षत्र से प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार द्वितीय वर्ष (परिवत्सर) का प्रथम अयन (उत्तरायण) माघ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को आर्द्रा नक्षत्र से तथा दूसरा अयन (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र से प्रारम्भ होता है। तीसरे, इद्वत्सर का प्रथम अयन (उत्तरायण) माघ कृष्ण पक्ष दशमी को अनुराधा नक्षत्र से तथा दूसरा अयन (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को आश्लेषा नक्षत्र से प्रारम्भ होता है। चतुर्थ वर्ष अनुवत्सर का प्रथम अयन (उत्तरायण) माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी को अश्विनी नक्षत्र से तथा दूसरा अयन (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र से प्रारम्भ होता है तथा पञ्चम वर्ष युगवत्सर का प्रथम अयन (उत्तरायण) माघ कृष्ण पक्ष चतुर्थी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र से तथा दूसरा अयन (दक्षिणायन) श्रावण कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र से प्रारम्भ होता है।
पाँचो सम्वत्सरों के अयनों के प्रारम्भ की तिथि तथा नक्षत्र में एक निश्चित क्रम है। इस क्रम को समझने के लिये एक मास के दोनों पक्षों की तिथियों की विशेषक संज्ञा जान लेनी आवश्यक है। किसी भी पक्ष (शुक्ल या कृष्ण पक्ष) की प्रथम, छठी तथा ग्यारहवीं तिथि की संज्ञा “नंदा” है। दूसरी, सातवीं एवं बारहवीं तिथियाँ “भद्रा” कही जाती हैं। तीसरी, आठवीं एवं तेरहवीं तिथि “जया”, चौथी, नवीं एवं चतुर्दशी की तिथियाँ “रिक्ता” तथा पाँचवीं, दसवीं एवं पंद्रहवीं (अमावस्या या पूर्णिमा) “पूर्णा” संज्ञक हैं। इस प्रकार क्रम से प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा/अमावस्या तक की तिथियों की संज्ञा क्रमशः “नंदा”, “भद्रा”, “जया”, “रिक्ता” तथा “पूर्णा” है। प्रत्येक का तीन-तीन तिथियों का एक त्रिगुट है।
नंदा – ०१, ०६, ११ वीं तिथि.
भद्रा – ०२, ०७, १२ वीं तिथि.
जया – ०३, ०८, १३ वीं तिथि.
रिक्ता –०४, ०९, १४ वीं तिथि.
पूर्णा – ०५, १०, १५ वीं तिथि.
हम देख सकते हैं कि क्रमागत सम्वत्सरों के अयन के प्रारम्भ की तिथियाँ क्रमशः नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा, नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा के क्रम से हैं तथा सम्वत्सर प्रारम्भ की तिथियाँ एकांतर क्रम से अर्थात् नंदा, जया, पूर्णा, भद्रा तथा रिक्ता के क्रम में हैं। इतना ही नहीं, अयनों के प्रारम्भ की तिथियाँ इन तिथियों के त्रिगुट में नंदा की प्रथम (०१), भद्रा की द्वितीय (०७), जया की तृतीय (१३), रिक्ता की प्रथम (०४), पूर्णा की द्वितीय (१०) के क्रम में भी हैं।
०१,०७,१३,०४,१०,०१,०७,१३,४,१० वीं तिथि के क्रम में त्रिगुट के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तिथियोंसे ही क्रमशः सम्वत्सरों के अयन प्रारम्भ हो रहे हैं जबकि सम्वत्सरों के प्रारम्भ की तिथि इस त्रिगुट में एकांतर क्रम से तथा प्रत्यावर्ती ०१,१३,१०,०७,०४ वीं तिथि के क्रम में है।
सम्वत्सरों के अयनों के प्रारम्भिक नक्षत्र भी एक निश्चित क्रम में धनिष्ठा, चित्रा, आर्द्रा, पू० भाद्र०, अनुराधा, आश्लेषा, अश्विनी, पूर्वाषाढ़ा, उ० फाल्गुनी एवं रोहिणी नक्षत्र क्रम में क्रमशः उन्नीसवें नक्षत्र हैं तथा सम्वत्सर प्रारम्भ के नक्षत्र, धनिष्ठा, आर्द्रा, अनुराधा आदि नक्षत्र क्रम में क्रमशः ग्यारहवें नक्षत्र हैं। (पहली बार गिनने के पश्चात , आगे गिनते समय अंतिम नक्षत्र को गणना-बाह्य करना होगा।) यदि वेदांग ज्योतिष के श्लोक ९ तथा १० के अनुसार एक सारणी बनायें तो वह निम्न्वत होगी :
जैन ज्योतिष ग्रंथ सूर्य-प्रज्ञप्ति में इन पाँचो वत्सरों तथा अयनों के प्रारम्भ की तिथियाँ एवं नक्षत्र भिन्न प्राप्त होते हैं।
दीर्घतमस् वह प्रथम व्यक्ति था जिसने सम्वत्सर का महत्व समझा! ममता का पुत्र, उचथ्य का शिष्य, औचथ्य दीर्घतमस्! उचथ्य स्वयं अंगिरस का शिष्य था तथा दीर्घतमस् के शिष्य थे कक्षीवान एवं औशिज! ऋग्वेद प्रथम मंडल के सूक्त १४० से १६४ तक दीर्घतमस् से सम्बंधित हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १५८वें सूक्त की छ्ठीं ऋचा है –
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान दशमे युगे। अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथी॥
[ममता का पुत्र दीर्घतमा दश युग बीतने पर वृद्ध हो गया। जो अपने (पुण्य) कृत्यों का फल चाहते हैं उनके लिये वह ब्रह्मा है जो सारथी बनता है।]
इस उद्धरण में एक युग का मान युक्तियुक्त रूप से पाँच वर्षों से अधिक का नहीं हो सकता! उन्नीस वर्ष का युग हो तो दस युग १९० वर्ष का हुआ! ऋग्वेद में ही षोल्हा युक्ता पञ्च्पञ्चा वहंति (३/५५/१८) छह ऋतुओं में बंटे पाँच वर्षों का उल्लेख है।
जिन मनीषियों ने तृसरेणु (त्रसरेणु) जैसे सूक्ष्म मान से लेकर कल्प जैसे विस्तृत मान की मात्र परिकल्पना ही नहीं की, वरनउनके आधार पर भूत-भविष्य-वर्तमान की पूरी व्यवस्था ही निर्देशित कर दी वे अपने सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय में एक दो पंक्ति का श्लोक तक नहीं लिख सके कि एक युग का मान चंद्रमास तथा सौरमास के समञ्जन के क्रम में प्राप्त १९ वर्षों के चक्र पर निर्भर करेगा अतः एक युग का मान १९ वर्ष का होगा? यह क्षुद्रकार्य तो इन पंक्तियों का लेखक ही कर देने में समर्थ है जिसकी क्षमता उन महर्षियों के समक्ष घरेलू नाली के कीड़े से अधिक नहीं! किंतु नहीं! ‘१९ वर्ष का एक युग‘ की परिकल्पना भ्रामक होती क्योंकि यह प्रेक्षण से प्राप्त एक संख्या मात्र है, काल-मापन की कोई छोटी या बड़ी इकाई बन सकने की पात्रता इस संख्या में नहीं है। यह संख्या एक स्थिरांक हो सकती है और वही यह है भी! उन्नीस वर्षों का एक चक्र है अवश्य, किंतु वह चक्र एक युग का मान न था, न है, न होने ही योग्य है।
दर्शन के क्षेत्र में दार्शनिकों ने जिसे पूर्वपक्ष कहा, उसके साथ उन्होंने सर्वाधिक न्याय किया। पूर्वपक्ष की स्थापना में स्वयं को अपने मत के पूर्वराग से मुक्त रखना होता है। वेदांत, न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों से हमें इस उदार परम्परा की प्रेरणा प्राप्त होती है कि हम अपनी ओर से कुछ जोड़ें, इससे पूर्व, जहाँ तक वह बात जिस रूप में, जिस बल के साथ कही जा चुकी है, स्थापित की जा चुकी है उसी रूप में उसे अपना कर तब अपनी बात कहने का प्रयास करें! यही सत्य की अनुसंधित्सा का मार्ग है।
कुछ विशिष्ट लोगों का मत है कि भारतीय संस्कृति अपने मूल में ‘शिव’ की खोज, या समरसता, समानुपात, संतुलन, समन्वय आदि में सौंदर्य की खोज से कहीं अधिक, सत्य की खोज का उपादान है। सत्य को जब-जब अन्वेषकों ने अवरुद्ध देखा, तब-तब उन्होनें इसके लिये प्रयत्न किया कि वह ढक्कन खुले, सत्य को गति मिले, ऋत को क्रतु का सहारा मिले और सत्य धारा का अनुगामी नहीं बल्कि अग्रगामी बने! इसी कारण भारतीय सत्य की अवधारणा चिर नवीन होने के साथ ही चिर-सनातन भी है! वैसे ही, जैसे काशी का गंगाजल गंगोत्री के जल से अलग है, किंतु अविलग भी!
किंतु देखा यह जाता है कि अपनी बात को नये ढंग से कहने के प्रयास में लोग उस सत्य के प्रति अकृतज्ञ हो जाते हैं जिसने उन्हें कोई नयी बात कहने का संकेत तथा साहस दिया। यही अकृतज्ञता उन्हें छिन्नसूत्र बना देती है, अविनयशील बना देती है और सम्भवतः इसी लिये उन्हें स्वयं की रची नवीनताओं का बन्दी भी बना देती है। वे अपनी नवीनता से वैसे ही घिरे होते हैं जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही बुने रेशम के जाल से!
नई सृष्टि का अभिमान उन्हें जीवन्मृत बना देता है और इसका कारण है विशद दृष्टि का अभाव तथा मानसिक चित्रपट की संकीर्णता जिस पर सत्य समग्र रूप में उतर ही नहीं पाता! सत्य उतरता तो है, किंतु अंश-सत्य बन कर! और सत्य का अधिकांश उस चित्रपट से बाहर विकीर्ण हो जाता है, जैसे टूटे कांच के टुकड़े में एक शुभ्र-ज्योति रंगीन हो कर प्रति-संक्रांत होती है।
यह आलेख एक निबंध है, कोई शोधपत्र नहीं। भले ही इस निबंध में लालित्य मात्र चार आने हो और विवेचन बारह आने, भले ही यह निबंध लालित्य-प्रधान न होकर विवेचन-प्रधान हो, किंतु है यह ललित-निबंध ही। अतः इसका दायित्व विषय की ओर संकेत कर के समाप्त हो जाता है। इस आलेख से विषय के सर्वाङ्ग विवेचन की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
वैसे यह बारह आना और चार आना भी जो मुहावरा है, सोद्देश्य प्रयुक्त है। आर्य शैली या तो दस के गुणक की है या आठ, सोलह, बत्तीस की! अष्टाङ्ग योग, अष्टाङ्ग धूप, षोडष शृंगार किये षोडषी, बत्तीस लक्षणों से युक्त नारी, चंद्रमा की सोलह कलायें उसकी मनोभाव-जन्य संकल्पनायें हैं तो अमावस्यारूपिणी काली तथा पूर्णिमारूपिणी त्रिपुरसुंदरी उसकी धर्म-साधना के अवदान हैं! कोड़ी भी, जो बीस की परिचायक संख्या है वह अपने मौलिक रूप में दस का द्विगुण नहीं बल्कि षोडष का सवाया है। पुरोहित की सपादमुद्रा (सवा रुपया) दक्षिणा भी इसी चिंतन का अवदान है। यह उन्नीस की संख्या न तो हमारी दाशमिक प्रणाली से समर्थित है न अष्टक प्रणाली से!
विचार जुगनू भी है, दीपशिखा भी और सूर्य भी! विचार प्रकाश का वह हर ऐसा श्रोत है जो अंधकार से लड़ने को तत्पर हो! विचार वह लहर है जिसके पास नदी की सिकता पर अपनी पहचान रच सकने की संकल्प-शक्ति है। विचार वह छेनी है जिसमें किसी यक्षी, किसी शालभंजिका, किसी अम्बिका को आकार दे सकने की सामर्थ्य है। विचार वह तूलिका है जो ऐसे रूप रच सकती है जो हर एक को अपना सा लगे!
एक ऐसा दर्पण, जिसमें प्रतिविम्ब उलटे नहीं, बल्कि सीधे दिखाई देते हैं! विचार प्रातःकाल दूब की पुनगियों पर टिके ओस के कण हैं, धरती पर बिछे हरसिंगार हैं, और टप-टप टपक कर धरती को महकाते वे मधूक-पुष्प हैं जो मात्र धरा के सौरभ-शृंगार बने रहना चाहते हैं और जिन्हें आकाश की ऊंचाइयों की कोई लालसा नहीं।
विचार, किसी कली के खिल उठने की वह सूक्ष्म घटना है जो एक भोर में अचानक पँखुरी-पँखुरी हो जाती है या फिर गहरे अंधेरे के बीच लाल होते क्षितिज के गर्भ से अचानक फूट पड़ने वाली किरण की सिंदूरी आभा, या होंठ से लगी वंशी के रंध्र से स्वर उगाने को लगाई गई पहली कोमल फूंक, अथवा यशोधरा को सोता छोड़ कर शय्या से बिना ध्वनि किये भूमि पर पाँव रखने का पदचाप, जिसकी परिणति एक फूल है, एक उषा है, कोई वंशी की तान है, कोई बुद्ध है, किंतु वह फूल कोई वस्तु नहीं, वह उषा कोई दृश्य नहीं, वह वंशी की तान कोई ध्वनि नहीं और वह बुद्ध भी कोई व्यक्ति नहीं! किन्तु विचारों की दिशा सत्योन्मुख हो तभी विचारों की सार्थकता है!
सम्पादकीय टिप्पणी :
मघा के इस अङ्क में गणित ज्योतिष सम्बन्धी दो आलेख हैं, एक यह एवं दूसरा सुभाष काक के लेख Babylonian and Indian Astronomy: Early Connections के धारावाहिक अनुवाद की पहली कड़ी। ‘गहरे पानी पैठ’ प्रवृत्ति वाले पाठकों को दोनों पढ़ने चाहिये।
अंग्रेजों द्वारा संस्कृत एवं यूरोपीय भाषाओं की शब्द साम्यता का पता लगाने एवं ब्राह्मी लिपि को पढ़े जाने से ले कर आज तक भारतवासियों पर आक्षेप लगते रहे हैं जिनमें मुख्य हैं उनका आर्य आक्रान्ता होना तथा समस्त विद्याओं का पश्चिम से उधार लिया होना। भारतीय विद्वानों में भी दो बड़े दल हैं, एक वह है जो साम्राज्यवादी श्रेष्ठता एवं वामपन्थी प्रचार के समर्थन में भारत की परम्परा को हीन बताने एवं उसके समर्थन में सामग्री गढ़ने से कभी नहीं चूकता तो दूसरा लघु वर्ग वह है जो प्रतिरोध तो करता ही है, साथ में शोध प्रस्तुत कर कुप्रचार को काटता भी है। यह अकादमिक लड़ाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही है।
आश्चर्य ही है जिस क्षेत्र को आर्यावर्त एवं ब्रह्मावर्त कहलाने का सौभाग्य मिला, जो क्षेत्र मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं जाने कितने विद्वानों की कर्मभूमि रहा, जिस क्षेत्र में वे कृष्णाजिन मृग घूमते थे जिनकी उपस्थिति के आधार पर एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक विन्ध्य के उत्तर निवास को आर्यों हेतु अनिवार्य बताया गया, जिस क्षेत्र से निकले मत ने सम्पूर्ण पूर्वी विश्व पर सांस्कृतिक विजय पाई; उस मुख्यतया हिन्दी क्षेत्र के आधुनिक अध्येता उक्त लड़ाई में प्राय: दिखते ही नहीं ! पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी भारत से भी सक्रिय प्रतिरोध है किन्तु उत्तर भारत से विस्थापित एवं पश्चिमी देशों में बसे काश्मीर मूल के अध्येताओं को छोड़ दें तो शून्य ही दिखता है।
गणित ज्योतिष पर आधारित ये एवं आगामी लेख भी गम्भीर हिन्दी पाठकों को लघु झाँकी दर्शाने के प्रयास हैं, होंगे।
वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया में पश्चिमी भारत से P V Holay ने जनवरी 1987 ग्रे. में यह स्थापना दी कि वेदाङ्ग ज्योतिष में वह चक्र पहले से ही है जिसे 19 वर्षीय मेटॉनिक चक्र कहा जाता है। आगे वह अपने मत की पुष्टि हेतु पुस्तकें एवं लेख प्रकाशित करते रहे। 2004 ग्रे. में K Chandra Hari ने उनके वाद को आगे बढ़ाया तथा उसी वर्ष K D Abhyankar ने उसके खण्डन का वि-वाद प्रस्तुत किया। संवाद चल रहे हैं।
भारतीय ज्योतिष के स्वतन्त्र अध्येता एवं विद्वान लेखक त्रिलोचन नाथ तिवारी को इस विषय में अपना विश्लेषण प्रस्तुत करने हेतु ये तीन आलेख दिये गये :
- The distinctive features of Rik-Jyotisha, P V Holay, Bull. Astr. Soc. India (1998) 26, pp 51-59;
- P.V. Holay’s Interpretation of the Ṛk-Jyotiṣa Verses on 19-Year Yuga, K Chandra Hari, Indian Journal of History of Science, 39.2 (2004), pp 157-175;
- Historical Notes: 5-Year Yuga in the Vedāgaṅga Jyotiṣa, K. D. Abhyankar, Indian Journal of History of Science, 39.2 (2004), pp 227-230.
अपनी विशिष्ट शैली में उन्होंने विश्लेषण प्रस्तुत किया है जिसमें परम्परा के स्वर स्पष्टत: भाषित हैं कि ऐसा कोई उन्नीस वर्षीय चक्र भारतीय वाङ्मय में नहीं लिखा मिलता। यह लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि विश्लेषण के ब्याज से उन्होंने जाने कितने पारिभाषिक शब्दों को बहुत ही सरल एवं स्पष्ट ढंग से बताया है। उन्होंने सम्पूर्ण स्थापना के इस पक्ष को बहुत ही सधे ढंग से पकड़ा है कि वाद उन्नीस वर्षीय चक्र के वेदाङ्ग ज्योतिष में ‘अन्तर्निहित’ के विश्लेषण से विचलित हो इस पर केन्द्रित हो गया है कि ‘वेदाङ्ग ज्योतिष में उन्नीस वर्षीय चक्र है’। अकादमिक या किसी भी लड़ाई में ऐसी स्थापनायें की जाती रही हैं – आर्य आक्रमण एवं भारतीय जन का समस्त ज्ञान विज्ञान उधार का होना ऐसी ही स्थापनायें हैं। आगे बढ़ कर झण्डा गाड़ कर सबको विचार विमर्श हेतु विवश कर देने की उस रीति का प्रत्युत्तर उन्हीं की भाषा में एवं ढंग से देना P V Holay की उपलब्धि है। चन्द्रहरि ने उस स्थापना में अंतर्निहित तत्त्व का सुंदर विश्लेषण एवं समर्थन प्रस्तुत किया। अभी बहुत कुछ शेष है क्योंकि Holay ने प्राचीन पाण्डुलिपियों एवं उद्धरणों में प्राप्त प्रामाणिक सामग्री के आधार पर अपनी बात रखी एवं दर्शाया कि भङ्ग स्थिति में प्राप्त ऋक् वेदाङ्ग ज्योतिष के पाठ को यजुर्वेदी पाठ से सहमति का रूप प्रदान करने हेतु किस प्रकार उसमें चौदह संशोधन कर डाले गये ! उन्हें हटा देने पर ऋक् ज्योतिष एक ऐसी प्रहेलिका बन जाता है जिसे उन्नीस वर्षीय चक्र के बिना समझाया नहीं जा सकता। एक उदाहरण देना उचित होगा।
ऋक् ज्योतिष का बत्तीसवाँ श्लोक एक हजार वर्ष पूर्व रची गयी बृहत्संहिता की टीका में ऐसा उद्धृत है :
माघशुक्लप्रवृत्तस्य पौषकृष्णसमापिन: । युगस्य पञ्चमस्येह कालज्ञानं निबोधत ॥
जब कि अब उसका पाठ ऐसा कर दिया गया है या मिलता है :
माघ शुक्ल प्रवृत्तस्तु पौष कृष्ण समापिना । युगस्य पञ्चवर्षाणि कालज्ञानं प्रचक्षते ॥
दोनों श्लोकों के अर्थ में मात्र एक अर्द्धाली का अंतर बड़ा अर्थभेद प्रस्तुत कर देता है।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ऋक् ज्योतिष में यह किया गया कि इस लेख में भी उद्धृत श्लोक का आरम्भ यजु: ज्योतिष के प्रभाव में ‘प्रथमं’ कर दिया गया जब कि वास्तविक पाठ ‘द्विगुणं’ था ! केवल Holay नहीं माने तथा उनके द्वारा किया गया अर्थ ऋक् पाठ के अनुकूल बैठता है। उल्लेखनीय है कि Indian National Science Academy से लगध मुनि के वेदाङ्ग ज्योतिष के दोनों रूपों, ऋक् एवं यजु:, के Critical Edition (चिकित्सित पाठ) अनेक उपलब्ध प्राचीन पाण्डुलिपियों के आधार पर 1984-5 ग्रे. में प्रकाशित हुये। उनका विश्लेषण अभी शेष है। पूरा होने तक सुभाष काक की लेखमाला के समस्त अंश प्रकाशित हो जायेंगे तथा पाठक आगामी विश्लेषण को अच्छे से समझ सकेंगे, ऐसी आशा है।
अन्त में Holay के लेख का अन्तिम अंश :
We further add that RVJ is not an educational text, its main object is to provide rules for making a luni-solar calendar consistent with the actual positions of the Sun and Moon in the sky, which could be achieved even without stating the theory behind such rules. We hope this will help the readers in proper understanding of Rik-Jyotisha.
यहाँ इस उद्धरण का कुछ अंश मात्र ध्यानाकर्षण हेतु तिर्यक अक्षरों में कर दिया गया है। इससे पता चलता है कि आगे बढ़ कर स्थापना करते हुये Holay अपने विचार में बहुत स्पष्ट हैं तथा उनके वाद के अन्य ऐसे आयाम भी हैं जो ‘जैसा विरोधियों को समझ में आये उस रूप में’ भारत का पक्ष रखने से जुड़े हैं। आगामी लेखों हेतु साथ बने रहें।