समस्याओं पर विचार करते हुये बहुधा हम अपनी जड़ता के साथ अपनी बनाई सीमाओं में ही घूमते रह जाते हैं यथा कोई चूहा पेटी में बन्द कर दिया गया हो। हमारे अपने आग्रह होते हैं, तात्कालिक एवं दीर्घकालिक भावनायें होती हैं, शिक्षा एवं ममत्त्व का भी प्रभाव रहता है तथा संस्कार तो होते ही हैं। बहुधा समस्या का समाधान पेटी से बाहर निकल कर ही मिल पाता है। प्रबन्धन में out of the box चिंतन मनन भी आवश्यक होते हैं।
जब जटिल स्थिति आ जाये तो, पुरानी एवं अति उलझी हुई समस्या हो तो एक-एक कर समस्त विकल्पों पर निर्मम हो कर विचार करने से प्रकाश की किरण कहीं किसी कोने में दिख जाती है। विचार कर्म के बीज होते हैं, बीज वपन करते रहना चाहिये। वर्तमान परिस्थिति में यह लेख न तो किसी विशेषज्ञ का है, न ही कोई बहुत ही नवोन्मेषी बात कर रहा है। यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा वैचारिक विश्लेषण है जिसने बहुत कुछ ऐसा देखा सुना हुआ है जो अत्यल्प को ही सुलभ हो पाता है। इस लेख को उसी प्रकार देखा जाना चाहिये कि विचार करने को बाध्य करना है, उन असुविधाजनक प्रश्नों के समक्ष खड़े होना है जिनसे हम जाने अनजाने मुँह छिपा ले जाते हैं।
इकबाल और जिन्ना का ‘मानस पुत्र’ पाकिस्तान १९४७ में भौगोलिक रूप में अस्तित्त्व में आया परन्तु इस समस्या के बीज मेरे अनुसार १९०५-०६ में बङ्ग विभाजन के समय ही पड़ गए थे। वस्तुतः पाकिस्तान नामक समस्या का जन्म एक समाधान के रूप में हुआ था। नहीं, मैं जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं बात कर रहा हूँ पूँजीवाद और साम्यवाद के मध्य हुए ‘प्रसार के टकराव’ की। नेहरू का समाजवादी झुकाव और तब के ‘सोवियत रूस’ की अफगानिस्तान तक पहुँच ने तत्कालीन विश्वशक्तियों, अमेरिका और ब्रिटेन, में अफगानिस्तान और भारत के मध्य एक ‘अन्तस्थ राष्ट्रक Buffer State’ की आवश्यकता की सोच को जन्म दिया। पाकिस्तान नामक इस समाधान का, जिसका जन्म एक प्रकार से साम्यवाद के प्रसार नामक समस्या के लिए हुआ था, एक समस्या के रुप में परिवर्तन का आरम्भ अपने जन्म के साथ ही हो गया था; जब जिन्ना के ‘मोथ ईटेन पाकिस्तान moth eaten Pakistan’ ने काश्मीर को हड़पने के लिए १९४७-४८ में कबाइलियों के साथ अपने सैनिकों को भी भेजा।
पश्चिमी वैश्विक दृष्टिकोण के अनुसार मध्य एशिया का सन्धि स्थल, जो कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान का क्षेत्र माना जाता है, सामरिकता में बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह एक प्रमुख कारण रहा है कि आज भी पश्चिमी जगत, चीन की षड्यन्त्रपूर्ण योजनाओं तथा भारत के शान्तिपूर्ण उत्थान के आच्छिद्य, पाकिस्तान को महत्त्व देता रहा है या पाकिस्तान को महत्त्व देना उसकी विवशता बन गई है। पाकिस्तान को कूटनीतिक विश्व में ‘दक्षिण एशिया की सुन्दर वेश्या The Beautiful Whore of South Asia’ के रुप में जाना और माना जाता है। और ऐसा मानने के पीछे कारणों की कोई न्यूनता नहीं है।
मेरी विवेचना के अनुसार पाकिस्तानी जनमानस की मजहबी वृत्ति और पाकिस्तानी कुलीन और शासक वर्ग में भारत को लेकर उनमें भरी हीन भावना, ये दो कारण हैं जिन्हों ने उसे कूटनीतिक वेश्या बनने के लिए विवश किया। यह उनकी हीन भावना ही है जिसने उन्हें दो प्रत्यक्ष और दो अप्रत्यक्ष युद्ध भारत के साथ लड़ने को प्रेरित किया। यह उनकी हीन भावना ही है जिसने उन्हें भारत के साथ हजार वर्षों तक युद्ध करने का मनोबल दिया। यह उनकी हीन भावना ही है जिसने उन्हें उग्रवाद, आतंकवाद और Bleed india by a thousand cuts की रणनीति अपनाने पर विवश किया। पाकिस्तान नामक समाधान का, भारत और बृहत्तर विश्व के लिए, एक समस्या के रुप में परिवर्तन जनरल जिया उल हक़ के शासन काल तक पूर्ण हो गया था।
अस्सी के दशक से प्रारम्भ हुई इस समस्यारूपी देश की रक्तिम क्रीड़ा निर्बाध गति से पहले भारतीय पञ्जाब और अनन्तर भारतीय काश्मीर घाटी में अभी तक चल रही है। लगभग चार दशकों से चल रहे इस रक्तपात का अन्त कभी होगा भी कि नहीं? और होगा तो कैसे होगा?? आइये, मिलकर विचारते हैं तथा साथ ही साथ कुछ तथ्यों को भी पटल पर रखते हैं।
तथ्यात्मक स्थिति
१. विभाजन के पूर्व ब्रिटिश भारत की जनसंख्या १९४० मेंं ३८ करोड़ के आसपास थी जिसमें १० करोड़ (२६.३२%) के आसपास मुस्लिम तथा २१ करोड़ के लगभग हिन्दू थे।
२. विभाजन के पश्चात् १९५१ की जनगणना के अनुसार भारत में ९.५% मुस्लिम जनसंख्या थी जो आज बढकर आधिकारिक रुप से लगभग १६% और अनधिकारिक रुप से लगभग २०% के आसपास पहूँच चुकी है। वहींं पाकिस्तान और बांग्लादेश की हिन्दू जनसंख्या घटकर क्रमश: १% और ७% तक आ चुकी है। भारतीय उपमहाद्वीप में चीन नामक एक तीसरी बाह्य शक्ति का भी प्रवेश चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा / पाकिस्तान-चीन इक़तिसादी राहदारी (CPEC) तथा अन्य कई पारस्परिक विकास योजनाओं के रुप में हो चुका है, यह तथ्य भी हमें ध्यान में रखना चाहिए।
समाधान क्या हो सकते हैं?
अब हम विचार करते हैं कि पुलवामा में ४४ भारतीय बलों की नृशंस हत्या के उपरान्त भारत के पास क्या-क्या विकल्प हैं, अपने विचारों को बिना लगाम दिये हुये अथवा Out of the box जाकर।
समाधान १. पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध
रणनीति : भारत पाकिस्तान के ऊपर एक साथ सभी मोर्चों पर आक्रमण करें।
घटनाक्रम : भारत और पाकिस्तान दोनों ही प्रचुर सैन्य क्षमता सम्पन्न देश हैं। भारत की सैन्य क्षमता पाकिस्तान से लगभग दो गुनी है पर इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाय कि भारत पाकिस्तान को सरलता से पराजित कर देगा। पारम्परिक युद्ध में भारत की बढ़त देख पाकिस्तान नाभिकीय अस्त्रों की शरण में जायेगा पर उससे पूर्व ही चीन पाकिस्तान के समर्थन में युद्धभूमि में उतर आयेगा – ग्वादर, बलोचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर PoK में अपने निवेश की सुरक्षा के नाम पर। चीन के मैदान में उतरते ही युद्ध के समीकरण परिवर्तित होनेे आरम्भ जायेंगे। इसके दो परिणाम होंगे।
परिणाम १ – अमेरिका, रूस, जापान समेत विश्व की अन्य शक्तियाँ भारत के समर्थन में युद्ध में सम्मिलित हो जायेंगी और यह युद्ध एक विश्वयुद्ध में परिवर्तित हो जायेगा। यह सम्पूर्ण मानवता के लिये विनाशकारी होगा।
परिणाम २ – युद्ध अनिर्णय की स्थिति में समाप्त होगा। चीन के युद्ध में उतरने पर विश्व की अन्य शक्तियों का दबाव युद्ध में सम्मिलित सभी पक्षों पर युद्ध समाप्त करने हेतु बढ़ने लगेगा। यह दबाव भारत पर अधिक होगा क्योंकि भारत इस युद्ध में आक्रमणकारी की भूमिका में रहेगा। युद्ध अनिर्णय की स्थिति में समाप्त होगा तथा वैश्विक परिदृश्य में भारत की प्रतिष्ठा को १९६२ में चीन के साथ हुये युद्ध में पराजय से भी गहरा धक्का लगेगा। चीन और पाकिस्तान की युति का ग्रहण भारत रूपी चन्द्र पर लम्बे समय तक रहेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था बीस नहीं तो न्यूनतम दस वर्ष पीछे चली जायेगी। दीर्घकालिक परिणाम यह होगा कि चीन के संरक्षण के कारण पाकिस्तान अपनी आतङ्की गतिविधियों पर विराम नहीं लगायेगा और यह स्थिति एक और गतिरोध को जन्म देगी।
समाधान २. पाकिस्तान पर नाभिकीय आक्रमण रणनीति: भारत पाकिस्तान पर परमाणु आक्रमण कर उसे इस तरह पङ्गु कर दे कि पाकिस्तान बस एक भौगोलिक नाम और इतिहास बनकर रह जाये।
घटनाक्रम : त्रिआयामी (जल, थल और नभ) परमाणु क्षमता से सम्पन्न भारत पाकिस्तान पर परमाणु बमों की की वर्षा कर देता है। पाकिस्तान के प्रमुख शहर यथा लाहौर, कराची, इस्लामाबाद, रावलपिंडी, हैदराबाद पर परमाणु बम छोड़े जाते हैं। इन नगरों के ध्वंसावशेष ही बचते हैं। अपार जन धन हानि होती है और यदि एक पल के लिये हम यह मान लें कि पाकिस्तानी नेत्तृत्व पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ तो प्रत्याक्रमण की स्थिति में दिल्ली, मुम्बई और चेन्नई का भी विध्वंस हो जाता है।
परिणाम: दीर्घकालिक परिणामों की सोचें तो भारत आनेवाले २५-३० वर्षों तक दुबारा ‘उठ खड़ा’ नहीं हो पायेगा। आनेवाली सन्ततियाँ तक विकलांग उत्पन्न होंगी। यह सत्य है कि भारत केवल घायल होगा पर जो चोट लगेगी वह इतनी भयंकर होगी कि उसकी कल्पना भी दुस्सह है। कूटनीतिक विश्व में ‘प्रथम प्रयोग नहीं’ के सिद्धान्त से विचलन के कारण भारत की प्रतिष्ठा धूल धूसरित हो जायेगी।
समाधान ३. पाकिस्तान का विखंडन, १९७१ की पुनरावृत्ति
घटनाक्रम : यह एक दीर्घकालीन रणनीति है और न्यूनतम दस वर्षीय योजना है। इस रणनीति के अंतर्गत भारत की दृष्टि केवल लक्ष्य पर होगी – पाकिस्तान का विखंडन। साम-दाम-दण्ड-भेद, आवश्यकतानुसार सभी छल-छद्म अपनाने होंगे। सिंध प्रान्त में मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (MQM), बलोचिस्तान के कई बलोची पृथकतावादी धड़ों को अपने साथ लेकर चलना होगा। गिलगित-बाल्टिस्तान के शिया असन्तोष के उभार को और प्रेरणा देनी होगी। पाकिस्तान भी खालिस्तान तथा काश्मीर के पृथकतावादियों को प्रकट समर्थन देगा।
देश की गुप्तचर व्यवस्था को अति सुदृढ़ करना होगा। आंतरिक शत्रुओं पर अपनी दृष्टि सदैव रखनी होगी। आनेवाले वर्षों में पुलवामा जैसे दो-चार-दस आक्रमण सहने के लिये सन्नद्ध रहना होगा – लम्बी अवधि के लिये। चीन को भी उग्रवाद और आतंकवाद का स्वाद चखाना होगा – तिब्बत, उइघुर मुसलमान तथा निचली मंगोलिया के असंतोष को उत्प्रेरित करते हुए, और तब जो परिणाम निकलेगा वह कुछ ऐसा होगा।
परिणाम १ – सिंध का भारत में विलय (ऐतिहासिक आधार पर। जैसा कि सद्यः ही रूस ने क्रीमिया के साथ किया)
परिणाम २ – बलोचिस्तान को स्वतन्त्रता।
परिणाम ३ – फाटा FATA (Federally Administered Tribal Area) का अफगानिस्तान और बलोचिस्तान में बँटवारा।
परिणाम ४ – पाक आधिपत्य वाले कश्मीर(POK) और गिलगित-बाल्टिस्तान (GB) पर भारत का पुनः अधिकार।
पाकिस्तान के पास केवल पञ्जाब ही बचे। उसके पास समुद्र तक जाने के लिये कोई मार्ग न बचे। बचे खुचे पाकिस्तानी पंजाब के सामरिक महत्व के नगरों पर भी भारत अधिकार कर सकता है। आर्थिक रुप से ध्वस्त पाकिस्तान को भारत को एक ऐसे पत्तन में परिवर्तित कर देना होगा जो स्वयं तो डूबे ही, अपने साथ अपने मित्र देशों को भी डुबा दे।
अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारत को लंबे समय तक न केवल निवेशित रहना होगा वरन अपने अनेक सिद्धांतों और मूल्यों का भी परित्याग करना होगा। वे मूल्य, जो आज के ‘भारत की पहचान’ हैं।
विश्व में कहीं भी सरकारों के पास जितनी सूचनायें होती हैं, पब्लिक डोमेन में उसका ५-१०% ही आ पाता है और हम जनसामान्य के पास इस ५-१०% का भी २०-२५% ही पहुँच पाता है। मेरी विवेचना का आधार भी पब्लिक डोमेन में उपलब्ध की २०-२५% सूचनायें हैं। अब एक ज्वलंत पर विचारणीय प्रश्न – ‘युद्धम् देहि’ का उद्घोष सुनने और कहने में अच्छा लगता है पर…
क्या आपके पास दो से तीन वर्षों का खाद्यान्न भंडार है? – हाँ, है।
क्या आपके पास न्यूनतम ३० दिनों की युद्ध सामग्री है? – न, नहीं है।
क्या आपके पास युद्ध के लिये तीन महीने का और उसके पश्चात दो वर्षों के लिये ऊर्जा की व्यवस्था है? – न, नहीं है।
तो यह स्पष्ट है कि हम युद्ध के लिये तत्पर नहीं हैं। हम एक थोपा हुआ युद्ध लड़ रहे हैं किन्तु अंततः विजय हमारी ही होगी। यतो धर्मस्ततो जयः।
सांकेतिक चित्र: साभार pixabay (htps://pixabay.com)
अत्यंत सारगर्भित लेख। एक राष्ट्रीय यक्ष प्रश्न का दक्ष उत्तर