गुरुपत्नी राजपत्नी मित्रपत्नी तथैव च ।
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैताः मातरः स्मृताः ॥
(गुरु, राजा, मित्र, पत्नी की मातायें एवं अपनी माता, इन पाँच को माता माना जाता है।)
सुदर्शन एवं दिव्यरूपधारी चन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को लुभा लिया। वह आश्रम तज अपने प्रेमी के घर आ गई। बड़ी पञ्चायतों एवं देवासुर सङ्ग्राम के पश्चात चंद्र ने उसे लौटाया तो वह गर्भवती पाई गई। पूछने पर उसने बताया कि भावी संतान के पिता बृहस्पति नहीं, चंद्र हैं। उसके गर्भ से बुध का जन्म हुआ। बुध से ही आगे चन्द्रवंश चला।
(इस कथा को अभिधात्मक सत्य मानने वाले आगे न पढ़ें क्योंकि उनका मन नहीं रमेगा, व्यर्थ के प्रश्न उठेंगे। )
बृहस्पति का वर्ष पृथ्वी के लगभग बारह वर्षों के तुल्य होता है अर्थात वह किसी नक्षत्र पर लगभग 27/12 = सवा दो वर्ष रहते हैं। चंद्र के दैनिक नक्षत्र परिवर्तन की दृष्टि से या सूर्य के किसी नक्षत्र पर मात्र सवा दो महीने रहने की दृष्टि से यह लम्बी अवधि है।
कथा किसी ऐसे नाक्षत्रिक कूट की है जब बृहस्पति किसी नक्षत्र तारा के साथ पतिभाव में थे तथा अपनी दैनिक गति में चंद्र वहाँ पहुँचा। यह वह समय था जब सामान्यतया सूर्य से बहुत निकट होने के कारण आँखों से ओझल बुध का अभिज्ञान पूर्ण हुआ था। उस समय ही धरा पर सूर्यवंशियों अर्थात पूर्णत: सूर्यकेंद्रित वर्ष ज्योतिष अनुसार चलने वाले राजाओं के साथ साथ सूर्य एवं चंद्रसमन्वित वर्ष ज्योतिष मानने वाले चंद्रवंशियों का भी अभ्युदय हुआ। विमर्शों के लम्बे एवं अनेक सत्र चले होंगे, मतभेद आदि भी हुये होंगे।
तारा कौन हो सकती है? अनुमान लगायें?
पुष्य नक्षत्र के देवता गुरु बृहस्पति हैं तथा स्वामी शनि। बृहस्पति देवों की प्रज्ञा को दर्शाते हैं तो शनि स्थिरता का। राजन्यों में पुष्य की प्रतिष्ठा थी तथा महत्त्वपूर्ण अभियान पुष्य नक्षत्र देख कर किये जाते थे। रामायण एवं महाभारत में भी इसके संदर्भ हैं।
एक अन्य नक्षत्र ज्येष्ठा ध्यान में आता है जिसक देवता देवराज इन्द्र हैं तथा स्वामी बुध। मूल एवं ज्येष्ठा, इन दो नामों से परोक्ष रूप से किसी बहुत ही पुरातन काल में नक्षत्रमाला के आरम्भ के संकेत मिलते हैं। ‘तारा’ का अभिज्ञान स्वतन्त्र अध्ययन की माँग करता है किन्तु मेरा अनुमान पुष्य या ज्येष्ठा में से किसी के होने का है।
कहा गया है कि चंद्र ने लालन पालन हेतु बुध को रोहिणी एवं कृत्तिका को सौंप दिया।
महाभारत युद्ध के समय वसंतविषुव रोहिणी पर था।
यदि आप नक्षत्रों के प्रारम्भ परिवर्तन को देखेंगे तो पायेंगे कि ‘प्रागैतिहासिक’ आरम्भ नक्षत्रों मूल एवं ज्येष्ठा के पश्चात पहला वैदिक प्रमाण इस उक्ति में मिलता है कि वत्सर आरम्भ श्वान नक्षत्र से है। आरम्भ नक्षत्र का अगला परोक्ष उल्लेख मिलता है मृगशिरा में। यह भी सम्भव है कि तब श्वान एवं मृग तक एक बड़ा नक्षत्रक्षेत्र माना जाता रहा हो।
मृगशिरा के पश्चात स्पष्ट प्रमाण रोहिणी छोड़ कृत्तिका के मिलने लगते हैं। उससे आगे भरणी तज आज कल अश्विनी से आरम्भ है। बीच बीच के छोड़े नक्षत्र सङ्क्रमण काल को दर्शाते हैं। वेदविभाजन एवं पुराण ‘पुनर्रचना’ वाला महाभारत काल सङ्क्रमण काल तो था ही।
बुध को रोहिणी एवं कृत्तिका को सौंपा जाना भी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है। धरा एवं आकाश को मिला कर कहने की पौराणिक प्रवृत्ति के कारण ऐसी कूट कथायें प्रचलित हुईं।
शुक्र ग्रह एवं पृथ्वी के वर्षों में लगभग स्वर्णिम अनुपात का सम्बंध है।
कथित स्वर्णिम अनुपात होता है, φ = (√5+1)/2 ≈ 1.6180
π तो जानते ही हैं ≈ 3.1416
इन दोनों का लगभग सम्बन्ध है,
π ≈ 6/5×φ²
स्वर्णिम अनुपात की व्युत्पत्ति इससे है कि ऐसी संख्या जो अपने विलोम में एक जोड़ने पर पुन: अपना रूप प्राप्त कर ले :(1/φ)+1=φ
स्वर्णिम अनुपात में आकार आँखों को तुलनात्मक रूप से अधिक भाते हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल उसी अनुपात में होने पर ही आकार अच्छे लगें।
इस अनुपात को ले कर आधुनिक काल में बहुत टण्टा किया जाता रहा है, खींच तान, मिथ, असत्य, छल आदि सब। परन्तु इस अनुपात का प्रयोग कर वस्तुयें सुगढ़ तो बनाई ही जा सकती हैं यथा यदि घर बना रहे हों तो शयन कक्ष की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात 1.6 के निकट रखें।
जितने समय में पृथ्वी सूर्य की आठ परिक्रमायें करती है, उतने में शुक्र तेरह कर लेता है। पृथ्वी एवं सूर्य के मध्य केवल दो ग्रह हैं – बुध एवं शुक्र। बुध सूर्य के अति निकट होने के कारण प्रेक्षण दुर्लभ है जब कि प्रात: (भुरकुवा, भोर का तारा) एवं साँझ के ‘तारे’ के रूप में दैदीप्यमान सुंदर शुक्र सबका परिचित है।
पृथ्वी से देखने पर शुक्र एक ऐसा चक्र दर्शाता है जिससे रहस्यमय पञ्चकोण बनता है। इस पञ्चकोण की भुजायें भी एक दूसरे को स्वर्णिम अनुपात में बाँटती हैं।
शुक्र, स्वर्णिम अनुपात एवं इनके अनुसार ज्योतिषचक्र पर दृष्टि रखने दितिपुत्र दैत्य (कालांतर के असुर) थे। वास्तु एवं शिल्प आदि सुंदर रचनाओं में ये निष्णात होते थे। इनकी संततियाँ इसाइयत द्वारा लुप्त कर दी गयी पगान जनसंख्या में थीं।
इसके विपरीत अपेक्षतया स्थिर बृहस्पति हैं, देवगुरु। इनके अनुसार संवत्सर पर दृष्टि रखने वाले देव। बृहस्पति की सूर्यपरिक्रमा अवधि के बारह पृथ्वीवर्ष देव सभ्यता में बड़े महत्त्वपूर्ण रहे। बारह वर्ष तपस्या, बारह वर्ष पश्चात संन्यासी का अपने जन्मस्थान पर एक बार लौटना, बारह वर्ष के प्रयाण अभियान आदि आज भी जाने जाते हैं।
शनै: चर शनैश्चर सूर्य की परिक्रमा लगभग तीस पृथ्वी वर्ष में करता है। इन दोनों का ल.स. है साठ अर्थात यदि आज शनि एवं गुरु किसी नक्षत्र पर एक साथ हैं तो साठ वर्षों पश्चात पुन: उसी पर एक साथ होंगे या आज उनकी जो सापेक्ष स्थिति है, साठ वर्ष पश्चात यथावत होगी।
यह बड़ा चक्र गणना संशोधन एवं प्रेक्षण की दृष्टि से बड़ा उपयोगी है। इसमें सौर अधिवर्ष संशोधन के पंद्रह चक्र पूरे हो जाते हैं तथा चंद्र मेटॉनिक उन्नीस वर्षीय चक्र के तीन, यद्यपि दो से तीन वर्ष शेष रहते हैं किंतु उसे अन्य प्रकार से समायोजित किया जा सकता है।
कलियुग सोया है, द्वापर उठ बैठा, त्रेता खड़ा हुआ एवं कृत चल पड़ा!
प्रत्येक ४ वर्ष पर अधिवर्ष वैदिक वाङ्मय में भी है। 365 दिन तथा एक बटे चार और अर्थात 6 घण्टे।
कलि आरम्भ सूर्यास्त से – साँझ से 6 घण्टे आगे आधी रात तक शयन।
वर्ष बीतने के पश्चात आगे 6 घण्टे और अधिक, द्वापर, अर्द्धरात्रि से प्रात:काल तक दूसरा पाद, उठ बैठा। दूसरे के पश्चात तीसरा वर्ष त्रेता, 6 घण्टे आगे बढ़ा, उठ खड़ा हुआ प्रातःकाल से मध्याह्न तक।
तीसरा वर्ष बीता चौथा आया, मध्याह्न पश्चात चलता रहा साँझ तक, चक्रपूर्ति कर ली गयी – कृतयुग।
विष्णु के त्रिविक्रम को समझें कि तीन चरण पश्चात बलि रूपी सिर से चक्र पूरा हुआ।
प्रत्येक 19 वर्ष पर सौर दिनांक एवं चन्द्र तिथि का सम्पात अपने को दुहराता है।
कलि-द्वापर-त्रेता-कृत; प्रत्येक 4 वर्ष पर सौर अधिवर्ष होता है।
19×4=76, 76 वर्षों पर दुहराव और सटीक होना चाहिये। इस चक्र के पूर्ण होने के अगले 19 वर्ष पश्चात 95 वर्षों का एक वैदिक चक्र पूरा होता है। कहाँ लिखा यह?
76 का एक गुण देखें। 76ⁿ ≈ φ, जहाँ n = 1/9
साठ वर्षों का आज भी प्रचलित बृहद संवत्सर चक्र इस प्रकार गुरु प्रेरित है, बारह पचे साठ! अनेक जटिल समांतर परम्पराओं के कारण साठ वर्षीय संवत्सर चक्र का आरम्भ भी अब जटिल हो चला है, दक्षिण एवं उत्तर में अंतर हैं तथा चक्र आरम्भ का भौतिक प्रेक्षण रूप से गुरु-शनि वास्तविक युति का उन आरम्भों से मेल नहीं लगता। क्यों न नये से पुनरारम्भ करें?
वैदिक वाङ्मय में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि एक साथ दो संवत्सर पद्धतियाँ चलती थीं। जन सामान्य हेतु सूर्य का उत्तरायण होना नववर्ष आरम्भ होता तथा ज्योतिर्विदों हेतु वसन्तविषुव का दिन।
आगामी 21 दिसम्बर 2020 ग्रे. को जब कि मूल नक्षत्र विराजमान सूर्य वार्षिक उत्तरायण यात्रा आरम्भ करेंगे, गुरु एवं शनि साठ वर्षों के पश्चात एक साथ उत्तराषाढ़ नक्षत्र पर होंगे तथा दोनों छायाग्रह क्रमश: मृगशिरा एवं ज्येष्ठा पर, क्यों न पञ्चाङ्ग संशोधन सहित नये संवत्सर चक्र की आधारशिला रखी जाय!