ठगी या धूर्तता से मूर्ख बनाकर लूट लेने की कला उतनी ही प्राचीन है जितनी मानवता। प्रत्येक युग में इसके रूप एवं युक्तियाँ भले परिवर्तित होती रही हों, फँसने वाले व्यक्तियों की मनोदशा एवं उसके मनोवैज्ञानिक कारण वर्तमान युग में भी वही हैं। जाने कितने दृष्टान्त भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। लोभ, तृष्णा, अति — आत्मविश्वास इत्यादि के गहन विश्लेषण हमने पिछले लेखांशों में देखे ही हैं।
इसका एक सरल परन्तु उत्तम उदाहरण मिलता है हितोपदेश की व्याघ्र-पथिक कथा में। उस कथा में स्वर्ण कङ्गन लिया हुआ कीचड़ में फँसा वृद्ध व्याघ्र पथिक को अपनी छल योजना में फँसा कर मार डालता है। पथिक अनेक कारणों से अपने भाग्य में स्वर्ण कंगन आता हुआ देखता है। संशय होने पर व्याघ्र उन कारणों को पोषित करते हुए एक ज्ञानी सदृश व्याख्यान भी दे देता है। अंततः पथिक इस छल-योजना में फँस कर अपने प्राण गँवा देता है —
कङ्कणस्य तु लोभेन मग्नः पङ्के सुदुस्तरे । वृद्धव्याघ्रेण सम्प्राप्तः पथिकः स मृतो यथा ॥
इसी का एक रूप है अन्तर्जाल की ठगी या फ़िशिंग। फ़िशिंग अर्थात् अन्तर्जाल पर कुशलतापूर्वक निर्मित छलयोजना से किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्था को इस प्रकार साधित करना जिससे प्रभावित होकर वह अपनी गुप्त जानकारी, धन, प्रिय वस्तु इत्यादि गँवा बैठे। सुनने में ऐसा प्रतीत होता है मानो विरले कोई मूर्ख ही ऐसा करता होगा परंतु आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक युग में भी ठीक ऐसी ही योजनाएँ चलती हैं जिनमें फँसने वाले व्यक्तियों की संख्या प्रतिदिन लाखों में है।
एक अध्ययन के अनुसार ठगी के लक्ष्य से प्रतिदिन लगभग ३.४ अरब संदेश (ईमेल) भेजे जाते हैं। इनसे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के बारे में हम नित प्रतिदिन पढ़ते रहते हैं। इस प्रकार की छल योजना के संदेश कुशलता पूर्वक लिखे जाते हैं जिससे व्यक्ति की मानसिक अवस्था, अवचेतन तथा भ्रांतियों को सहजता से लक्षित किया जा सके।
स्वाभाविक ही है कि किस प्रकार के व्यक्ति इन छल-योजनाओं को सच मान बैठते हैं, इस पर मनोविज्ञानिक शोध हो।
अनेक पथिकों में किस प्रकार के पथिक व्याघ्र के प्रपञ्च तथा योजना को सच मान बैठते हैं? ठगी की युक्तियाँ भले परिवर्तित हो गयी हों परंतु इस मायाजाल को सच मान लेने के कारण तो सदातन मानव व्यवहार और मनोवैज्ञानिक ही हैं। जिस प्रकार के व्यक्ति पीतल को सोना समझ क्रय कर लेते हैं उसी प्रकार के व्यक्ति अन्तर्जाल पर भी छलयोजनाओं के आखेट होते हैं।
इन आधुनिक छल-योजनाओं पर अनेक अध्ययन हुए हैं। अन्तर्जाल की युक्तियाँ आधुनिक होने के कारण वर्तमान मनोवैज्ञानिक शोध का यह एक सक्रिय विषय भी है तथा निरंतर नवीन अध्ययन हो रहे हैं। इस प्रकार की छल योजनाओं का प्रबन्धन करने वाले कुशल ठग होते हैं जिन्हें सामान्य मनुष्य की मानसिक अवस्था का भली भाँति ज्ञान होता है।
भला कोई क्यों अपनी बहुमूल्य गोपनीय सूचना किसी अन्य देगा? या कोई कैसे इस भ्रमजाल में फँस जाता है? नवीन शोधों में उद्घाटित बातें नयी नहीं है तथा इसकी पुष्टि ही हुई है कि मूल कारण व्यक्ति की मानसिकता तथा उनकी अवचेतन में स्थित भ्रान्तियाँ है। लोभ, अति-आत्मविश्वास, उत्सुकता, भय इत्यादि कुछ स्वाभाविक कारण हैं। कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय के प्रो क्लीओटिल्डा गोंजलेज ने फ़िशिंग का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया। उनके अनुसार मिथ्या को परखने की अपनी योग्यता को लेकर व्यक्ति बहुधा अति-आत्मविश्वास में रहते हैं। ऐसी छल योजनाओं के सफल होने में व्यक्ति का अति-आत्म विश्वास एक प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त अत्यावश्यकता (urgency), अन्तरङ्गता(familiarity) जैसे कारण भी प्रमुख हैं। यथा, जिन व्यक्तियों को कार्यालयों में अविलम्ब कार्य करने के लिए कहा जाता है, उन व्यक्तियों को छल-योजना वाले संदेश देखकर भी अविलम्ब उत्तर देने की उत्सुकता होती है।
इस विषय पर नवीन शोधों में स्पष्ट रूप से वे मनोवैज्ञानिक भ्रांतियाँ (psychological biases) भी उभर कर आयी हैं, जिनका अवलोकन हमने लेखमाला के अन्य लेखांशों में किया है। हल भी स्पष्टतः यही है कि जो व्यक्ति स्वयं की मनोदशा एवं भेद्यता (vulnerabilities) से सचेत हो भला उसे कोई किसी छल जाल में क्या फँसा पाएगा!
फ़्लोरिडा विश्वविद्यालय में इस विषय की विशेषज्ञ डैनीएला ओलीवीएरा कहती हैं कि छल (Deception) उतना ही प्राचीन है जितने मानव तथा फ़िशिंग साइबर स्पेस का एक छल है। अर्थात् वही कारक और कारण जो किसी के ठगे जाने में पहले लगते थे, वे ही फ़िशिंग में भी काम करते हैं। अंतर केवल तकनीक का है। इसे वह इस प्रकार कहती हैं —
“The fields of psychology and neuroscience are much older than the fields of computer science and cybersecurity, One of the points of our work is that my community — cybersecurity — is overlooking what other fields have already found.”
अर्थात् समस्या नयी प्रतीत भले हो, हल सनातन ही है।
डैनीएला ओलीवीएरा इस विषय पर मनोवैज्ञानिक डैन्यल कहनेमैन के सिद्धांतों तथा व्यक्ति के सोचने में मस्तिष्क के दो भागों की प्रणाली की सहायता लेती हैं। उनकी सहायता से वह व्यक्ति के भ्रमित होने तथा अंततः छलित होने का सिद्धांत देती हैं। इन भ्रांतियों एवं सिद्धांतों का अवलोकन तथा उनके सनातन दर्शन के संदर्भों का अवलोकन हमने अन्य लेखांशों में किया है।
ठगी के संदेश भेजने वाले भावनात्मक रूप से इस प्रकार की युक्ति निकालते हैं जिससे व्यक्ति तर्क का प्रयोग न करे। यथा, इस प्रकार के संदेश भेजना जिससे व्यक्ति के लोभ या दम्भ की त्वरित पुष्टि हो। रोचक यह है कि यही व्यक्ति अन्तर्जाल पर उपलब्ध मिथ्या कुमंत्रणा (conspiracy) एवं मिथ्या समाचार को भी सहज ही सच मान लेते हैं। छल योजना का जाल बिछाने वाले इस प्रकार से व्यक्ति के मस्तिष्क को मोहित करते हैं जिससे वह तार्किक प्रणाली का उपयोग न कर मस्तिष्क के त्वरित प्रतिक्रिया वाली प्रणाली का ही प्रयोग करे।
मनोवैज्ञानिक इस प्रक्रिया में जिन कारणों को प्रमुखता देते है., उनमें प्रभुत्व (authority), प्रतिबद्धता (commitment), अभिलाषा (liking) इत्यादि भी प्रमुख हैं। यथा, किसी प्रभुत्व वाले व्यक्ति या संस्थान के नाम से संदेश आए तो व्यक्ति उसे अधिक गम्भीरता से लेकर त्वरित प्रतिक्रिया देते हैं। स्वाभाविक है इन व्यक्तियों को स्वयं पर अति-विश्वास भी होता है कि उनसे भला त्रुटि कैसे हो सकती है!
अति-आत्मविश्वास या मायावी विशिष्टता भ्रांति (illusory superiority) एवं तृष्णा (Greed) भी ऐसी ठगी के सफल होने के प्रमुख कारण हैं। यथा, यदि कोई वस्तु आधे मूल्य पर मिलने का संदेश हो तो लोभ के कारण हमें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सम्भव है यह ठगी की एक चाल हो। रुचि दिखाने पर ठग उसी प्रकार से सत्य लगने वाले उत्तर देने को उद्यत रहते हैं, जिस प्रकार व्याघ्र ने पथिक को बहुत से सुभाषित सुनाकर विश्वास दिलाया कि वह स्वर्ण-कङ्गन एक सुपात्र को दान करना चाहता है। लोभ से भ्रमित व्यक्ति को भला कहाँ सत्य दिखता है! भर्तृहरि लिखते हैं —
आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥
अर्थात् अज्ञानवश, परिणाम को नहीं जानते हुए, पतङ्ग दीपक की लौ में अपने को भस्म कर लेता है। उसी प्रकार, अज्ञानवश मछली भी काँटे पर फँसे मांस को मुख में ले अपने प्राण गँवा देती है। परन्तु मोह की महिमा कैसी है जो मनुष्य, जिसे भली भाँति समझ होती है, वह भी विपदाकारक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते।
लोभ से बुद्धि भ्रमित होने में भला क्या नया है —
लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् । तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥
अर्थात् लोभ से बुद्धि विचलित होती है, लोभ ही सरलता से न बुझनेवाली तृष्णा को जन्म देता है। तृष्णा से ग्रस्त व्यक्ति दोनों लोकों में दुःख का भागी बनता है।
स्वयं को बुद्धिमान मानने वाला व्यक्ति भी कैसे भ्रमित हो जाता है इस पर आश्चर्य हो तो इस सूक्ति का अवलोकन करें (जोकि रामायण पर आधारित तो है किन्तु लोकरञ्जन व शिक्षा हेतु गढ़ी गयी है। वास्तव में राम भली भाँति जान कर स्वर्णमृग के पीछे गये थे) —
असम्भवं हेममृगस्य जन्मः तथापि रामो लुलुभे मृगाय ।
प्रायः समापन्न विपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति ॥
अर्थात्, यद्यपि स्वर्णमृग का जन्म असम्भव है तथापि राम उस मृग हेतु लोभा गये। विपत्तिकाल में प्राय: बुद्धिसम्पन्न पुरुष की बुद्धि भी मलिन हो जाती है।
फ़िशिंग हो या कोई अन्य छल-योजना, विपत्ति ही तो है! इसमें पड़ कर लोभ के वशीभूत व्यक्ति राम की भाँति ही ठगे जाते हैं। रामचन्द्र जी तो लीला कर रहे थे परन्तु अति आत्मविश्वासी मनुष्य भ्रमित हो जाते हैं। छल-योजना मनुष्य को सम्मोहित करती है, उससे धी अर्थात् बुद्धि के मलिन होने को औचित्यस्मृति के विलोपन से जोड़ कर देखें तो भगवद्गीता का यह अंश अच्छा विश्लेषण प्रदान करता है — सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:, स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।