सनातन ग्रंथो में श्रेष्ठ कुल में जन्मे व्यक्ति के अच्छे गुणों से सम्पन्न होने की बात बहुधा मिलती है। इसके समांतर श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर भी गुणी न होने वाले व्यक्ति के उदाहरण भी मिलते हैं, यथा –
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना ।
दह्यते हि वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं तथा ॥
यहाँ अवगुणी व्यक्ति के संदर्भ में कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि से तप्त एक वृक्ष ही सम्पूर्ण वन को जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न अवगुणी पुत्र अपने कर्मों द्वारा सम्पूर्ण कुल का नाश कर देता है। स्पष्ट है कि सनातन दर्शन में उच्च कुल या वंश का अर्थ है उदात्तगुणों से युक्त तथा मूल्य व्यवस्था से सम्पन्न कुल। सनातन ग्रंथों का यदि उचित अध्ययन किया जाय तो विरोधाभास का मिलना विरल ही है। इसी परम्परा के वाहक तिरुवल्लुवर ने भी श्रेष्ठ कुल में जन्मे व्यक्ति के गुणों से सम्पन्न होने की बात की है। कुछ लोग इसे जातिवाद से जोड़कर देखते हैं जो पूर्णतया अनुचित है। तिरुवल्लुवर के श्रेष्ठ कुल में जन्म से गुणी होने का कोई अर्थ कैसे निकाला जा सकता है जब साथ ही उन्होंने यह भी कहा है –
பிறப்பு ஒக்கும் எல்லா உயிர்க்கும்।
சிறப்பு ஒவ்வா செய்தொழில் வேற்றுமை யான்॥
अर्थात जन्म से सभी व्यक्ति समान होते हैं, भेद कर्मों तथा कर्तव्यों के निर्वहन से उत्पन्न होता है। उच्च कुल (या समाज) में जन्म से क्या व्यक्ति में विभिन्न गुण आते हैं?
इस विषय पर मनोविज्ञान तथा आधुनिक शोधों का अवलोकन करने से पूर्व यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि आधुनिक मनोविज्ञान में भी ऐसे अनेक प्रश्नों का अध्ययन असहज है। विज्ञान अर्थात पूर्ण रूप से तार्किक परंतु वहाँ भी अनेक विवादित विषयों के अध्ययन से वैज्ञानिक दूर ही रहते हैं, विशेषतया उन प्रश्नों का अध्ययन जिनके उत्तर राजनीतिक तथा स्वयं को सामाजिक नैतिकता की दृष्टि में असहज करने वाले हो सकते हैं। मनोविज्ञान में भी इस नयसत्यता (political correctness) की पुष्टि देखने को मिलती है। नाथन कोफँस Foundations of Science पत्रिका में छपे एक आलेख ‘Science Is Not Always ‘Self-Correcting’ में इसी बात की चर्चा करते हैं। इसके एक सटीक उदाहरण पूर्व में हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंट रहे लॉरेन्स समर्स हैं, जिन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। कारण उनका एक सुझाव था जिसमें उन्होंने कहा था कि पुरुष और स्त्रियों की बौद्धिक क्षमताओं में अंतर होता है। ऐसी घटनाओं से स्वाभाविक ही है कि वैज्ञानिक ऐसे प्रश्नों पर शोध करने से भी डरते हैं यथा – क्या पुरुष और स्त्री के मस्तिष्क में अंतर होता है?
स्त्री और पुरुष को प्रकृति ने विभिन्न कार्यों को सुचारु रूप से करने के लिए निर्मित किया, भिन्न क्षेत्रों में दक्ष! परंतु इन भिन्नताओं का अध्ययन करने में वैज्ञानिक असहज होते हैं। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि ऐसी विभिन्नता को दर्शाता आलेख प्रकाशित होने पर क्या होगा? वास्तव में ऐसे प्रश्नों के अध्ययन से तंत्रिका विज्ञान में विकास ही होगा। इसी प्रकार नेचर पत्रिका में वर्ष २०१६ में छपे एक आलेख में बुद्धिमत्ता (intelligence), प्रजाति (race), हिंसा (violence) तथा लैङ्गिकता (sexuality) से जुड़े प्रश्नों के अध्ययनों के विवादित होने से प्रभावित होने की बात की गयी। कुल, समाज, धर्म इत्यादि से व्यक्तित्व पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन भी इसी श्रेणी में आता है। ऐसा होते हुए भी ऐसे अनेक अध्ययन हैं जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि व्यक्ति पर उसके परिवेश, समाज, कुल, संस्कृति इत्यादि का अत्यधिक प्रभाव होता है।
इसरायल के मनोवैज्ञानिक जॉर्ज टैमरिन ने एक बहुचर्चित अध्ययन किया था जिसमें उन्होंने एक हज़ार से अधिक विद्यार्थियों को जोशुआ की पुस्तक के जेरिको नरसंहार की कथा सुनायी। निर्मम तथा अमानवीय होते हुए भी मात्र २६% विद्यार्थियों ने इसे स्वीकृति नहीं दी। स्वयं के मजहब की बात भला कैसे अनुचित व अत्याचारी प्रतीत हो! परंतु जब यही कथा उन्होंने व्यक्तियों और स्थानों के नाम परिवर्तित कर सुनायी तो मात्र ७% विद्यार्थियों ने इसे स्वीकृत व्यवहार बताया। ७५% ने इस कृत्य को पूर्णत: अमानवीय कहा। परिणाम – इस अध्ययन के पश्चात प्रो. जॉर्ज टैमरिन को उनके पद से हटा दिया गया था !
परंतु उक्त अध्ययन से भी यही स्पष्ट हुआ कि व्यक्ति पर संस्कारों एवं मूल्यों का आजीवन प्रभाव रहता है।
Journal of Cross Cultural Psychology में वर्ष २०१० में प्रकाशित अध्ययन में ६३ देशों से एकत्रित किए गये आँकड़ों द्वारा इस बात का अध्ययन किया गया कि विभिन्न संस्कृतियों में सम्वेदना किस प्रकार परिवर्तित होती है। इस सीमित अध्ययन से यह उत्तर तो मिलता ही है कि ऐसी संस्कृतियों के व्यक्तियों के व्यक्तित्व तथा गुण भी औसत रूप में उसी प्रकार के होते हैं जिनमें संसार, आत्म तथा मूल्यों को लेकर विपरीत या भिन्न मान्यताएँ हैं।
अध्ययनों में यह भी पाया गया कि व्यक्ति की पारम्परिक मान्यताओं से मात्र उसका व्यवहार ही नहीं, वरन उसका स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। वर्ष १९९४ में Journal of Social Issues में प्रकाशित एक अन्य शोधपत्र के अनुसार –
“Cognitive and behavioral change was seen to result from the need to maintain balance or congruence among the elements of the belief system and between beliefs and behaviors.”
और belief system का मूल ही है व्यक्ति का कुल, परिवेश तथा संस्कार।
जीव विज्ञान तथा आनुवंशिकी का संदर्भ देकर कुल, संस्कृति इत्यादि के प्रभाव को नकारने वाले ये भूल जाते हैं कि संस्कृति, धर्म, परिवेश तथा जाति (Ethnicity) का व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव होता है। संवेदनशील विषय होते हुए भी इससे जुड़े अनेको मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं, जीव विज्ञान तथा आनुवंशिकी के परे, क्योंकि हमारा जैव तंत्र ये निर्धारित नहीं करता कि हम कौन हैं। उसका निर्माण कुल, समाज, संस्कृति तथा धर्म इत्यादि से ही होता है जो जीव विज्ञान के तंत्रों से परे मानव जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। जीवन में हम जो भी सीखते हैं वह हमारे परिवेश से ही तो आयातित होता है।
तिरुवल्लुवर के उच्च कुल की कही गयी बात पर विवाद कोई मूर्ख ही कर सकता है क्योंकि उन्होंने ही लिखा है –
மேல் இருந்தும்/ மேல் அல்லார் மேல் அல்லர் ।
கீழ் இருந்தும் கீழ் அல்லார்/ கீழ் அல்லர் ॥
अर्थात जो उच्च पदों पर हैं वे उच्च कहाँ यदि वे अपने विचार तथा कर्मों में उच्च नहीं तथा जो निम्न पद पर हैं वे भी निम्न कहाँ यदि वे अपने विचार तथा कर्मों में निम्न नहीं।
पारिवारिक इत्यादि मूल्यों के व्यक्ति पर प्रभाव का स्पष्ट अर्थ है – अपने परिवेश तथा कुल को उच्च मूल्य व्यवस्था से सम्पन्न करना तथा उदात्तगुणों से युक्त करना जिसका व्यक्ति पर आजीवन स्पष्ट प्रभाव रहता है।
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