विष्णु दशावतार तथा बुद्ध – 1 2 से से आगे Brahmand Vayu Brahma परशुराम
हरिवंश एवं जिन तीन महापुराणों मार्कण्डेय, कूर्म एवं वामन को हम देख चुके हैं, उनमें लोक में परशुराम (यह नाम उन पुराणों में नहीं मिला है) संज्ञा से जाने जाने वाले एवं ऋषि जमदग्नि के पुत्र ‘राम जामदग्नेय/ जामदग्न्य भार्गव’ अनोखी स्थिति में हैं। अनुमान है कि उन्हें परशुराम नाम दाशरथि पुरुषोत्तम राम से भिन्नता सुनिश्चित करने के लिये दिया गया जोकि लोक में अधिक प्रसिद्ध थे। यह अनुमान यदि आगे तथ्य सिद्ध होता है तो अवतार संकल्पना की एक गुत्थी सुलझाने में सहायता मिलेगी।
सर्वक्षत्रांतक भार्गव राम, राक्षस संहारी राघव राम, क्षत्रिय ज्ञाति नाश के सूत्रधार वासुदेव कृष्ण एवं अहिंसा के प्रचारी बुद्ध – इन सबका ‘परवर्ती-अंतिम’ अवतार माला में किसी न किसी रूप में उपस्थित रहना उथल पुथल से भरे भारतीय इतिहास एवं विविध प्रवृत्तियों के अध्ययन हेतु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। वर्तमान में जाति आधारित समूहचेतना की मीमांसा हेतु भी इनका अपना महत्त्व है।
हरिवंश में भार्गव राम द्वारा धरा को त्रि:सप्त अर्थात 21 बार करोड़ों क्षत्रियों का संहार कर उसे नि:क्षत्रिय करने के पश्चात पाप विनाश हेतु अश्वमेध करना बताया गया है:
कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमंदरभूषणा । त्रि:सप्तकृत्व: पृथिवी तेन नि:क्षत्रिया कृता ॥
कृत्वा नि:क्षत्रियां चैव भार्गव: सुमहातपा: । सर्वपापविनाशाय वाजिमेधेन चेष्टवान् ॥
[गीताप्रेस संस्करण, 41.115-116, शोधित पाठ 31.104-105]
आगे मांस, मेधा एवं शोणित पूरित दुर्गंध युक्त कुण्डों में पिता का श्राद्ध हो या विधवा हुई रजस्वला स्त्रियों का कश्यप से निवेदन हो, विकृत लेखन ही है जिस पर प्रसंगानुसार विचार करेंगे।मार्कण्डेय एवं वामन पुराण में राम जामदग्नेय का उल्लेख नहीं मिला। कूर्म पुराण में राम जामदग्नेय के हिंसक रूप की हरिवंश से आगे की स्थिति मिलती है जिसमें एक अश्मक राजा नकुल द्वारा उनके भय से वन में जा कर ‘नारीकवच’ अर्थात स्त्रियों को रक्षक नियुक्त करने का उल्लेख है जिससे कि वह बच जाय एवं उसे संतान हो सके (1, 20.14-15)।
अश्मकस्योत्कलायां तु नकुलो नाम पार्थिवः। स हि रामभयाद्राजा वनं प्राप सुदुः खितः ॥
विभ्रत्स नारीकवचं तस्माच्छतरथोऽभवत् । तस्माद्बिलिबिलिः श्रीमान्वृद्धशर्माचतत्सुतः ॥इसी पुराण में जामदग्नेय राम को जनार्दन बताते हुये उनके द्वारा धनुर्वेद के श्रेष्ठ ज्ञाता सहस्रबाहु की मृत्यु का उल्लेख है:
सहस्त्रबाहुर्द्युतिमान् धनुर्वेदविदां वरः । तस्य रामोऽभवन्मृत्युर्जामदग्न्यो जनार्दनः ॥1, 21.18॥
अब उन तीन पुराणों की चर्चा करते हैं जिनमें विष्णु दशावतार का उल्लेख तो है किंतु बुद्ध का नहीं। क्रम होगा – ब्रह्माण्ड, वायु एवं ब्रह्म।
‘ब्रह्म’ को ‘आदि’ भी कहा जाता है यद्यपि इस नाम का एक अन्य उपपुराण भी है। महापुराणों की जितनी भी सूचियाँ उपलब्ध हैं, उनमें ब्रह्म प्रथम स्थान पर है। परंतु परम्परा अनुसार इसे यहाँ पहले न रख, अन्त में रखने का कारण इसकी सामग्री का असंदिग्ध रूप से नवीन होना है।
प्रतीत होता है कि ब्रह्म नाम से कभी सबसे प्राचीन एक पुराण रहा होगा जो ब्रह्मा की आराधना के साथ ही लुप्त हो गया होगा तथा कालांतर में इस नाम से एक अन्य पुराण विकसित हो गया होगा। इसकी साक्षी विविध सामग्री तथा भाषिक वैविध्य भी है।
इस पुराण में उड़ीसा के पुरुषोत्तम (जगन्नाथ), एकाम्र (लिङ्गराज? शिव), विरजा (जाजपुर गिरिजा) एवं कोणार्क (कोणादित्य) की चर्चा तो है ही, एक बहुत बड़ा भाग गोदावरी (गौतमी) माहात्म्य के साथ साथ बनास (बाणनाश) नदी को भी समर्पित है। इस पुराण के अंश अनेक पुराणों में बिखरे हुये हैं तथा यह प्रधानत: कृष्ण आराधना (जगन्नाथ) को समर्पित है। स्कंद पुराण की नेपाली प्रति की भाँति इसका कोई इतर प्राचीन पाठ मिल जाये तो इसकी प्राचीनता स्थापित हो, वर्तमान रूप में इसे मध्यकाल का ही माना जाना चाहिये।
ब्रह्माण्ड एवं वायु पुराणों में बहुत सी सामग्री उभयनिष्ठ है, श्लोक तक एक हैं, जिस कारण कुछ विद्वान दोनों को कभी एक रहा भी बताते हैं। समय समय पर हुये परिवर्द्धनों एवं परिवर्तनों के होते हुये भी इनमें प्राचीनता बची हुयी है। ब्रह्माण्ड पुराण जहाँ महापुराणों की समस्त सूचियों में उपस्थित है (यद्यपि हम पहले के लेख में देख चुके हैं कि कूर्म में स्थिति या तो 19 वीं है या संदिग्ध है), वहीं वायु पुराण का उल्लेख पद्म, भागवत, विष्णु एवं मार्कण्डेय की महापुराण सूचियों में नहीं है जिनमें कि तीन स्पष्टत: वैष्णव धारा के हैं।
ब्रह्माण्ड पुराण :
दिक्काल की सीमाओं का किञ्चित भी सम्मान न करते हुये वर्णन तो सभी पुराणों में मिल ही जाते हैं किंतु इस पुराण के अब उपलब्ध पाठ में अनेक नावों में पाँव रख साधने के प्रयास में स्थिति विद्रूपता का स्पर्श तो करती ही है, साम्प्रदायिक आग्रह से प्रेरित स्थापनाओं के कारण हास्यास्पद भी हो गयी है। ब्रह्माण्ड पुराण से आरम्भ करने का कारण उसका अनोखापन है जिसे दो भागों में देखेंगे, एक जिसमें कि प्राचीन एवं संक्रमण काल की सामग्री है एवं दूसरा वह जिसमें पुरातन एवं नवीनता का विद्रूप घालमेल है।
[क]
इस पुराण का आरम्भ लोक निर्माण कैसे हुआ, इस जिज्ञासा से है। लोक शब्द प्रयोग ब्रह्माण्ड अर्थ में संकेतित है।
भवान् विशेषकुशलो व्यासं साक्षात्तु दृष्टवान् । तस्मात्त्वं संभवं कृत्स्नं लोकस्येमं विदर्शय ॥ 1,1.33॥
कुरुक्षेत्र में सूत लो(रो)महर्षण इस पुराण को सुनाते हैं जिसे कभी नैमिषारण्य में मातरिश्वा ने मुनियों को सुनाया था। मातरिश्वा से पहले इस पुराण की परम्परा ब्रह्मा > वसिष्ठ > पराशर > जातुकर्ण्य > द्वैपायन > जैमिनी, सुमंतु, वैशम्पायन, पैलव एवं लोमहर्षण। अंतिम के पाँच में से 4 को वैदिक संहिता का भाग करने के पश्चात सौंपने का इतिहास है ही, ब्रह्माण्ड पुराण से भी जुड़े होने से चकित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह पुराण स्वयं को वेद सम, वेदसंमितम् (1.1.8), श्रुतिसंमतम् (1.1.13) बताता है।
वृष्णिवंशी यादवों एवं कृष्ण की कथा सुनाने के पश्चात यह पुराण सात्वतों की एक प्राचीन मान्यता का उल्लेख करता है जिसमें देवस्वरूप मनुष्यों के क्रम में पञ्चवीर गिनाये गये हैं –
मनुष्यप्रकृतीन्देवान्कीर्त्यमानान्निबोधत । संकर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नः सांब एव च ॥ 2,72.1 ॥
अनिरुद्धश्च पञ्चैते वंशवीराः प्रकीर्त्तिताः ।
भृगुपत्नी का वध करने के कारण भृगु द्वारा विष्णु को दिया गया शाप दशावतार की भूमिका में है :
सूत उवाच
अहं वः कीर्त्तयिष्यामि प्रादुर्भावं महात्मनः ॥ 2,72.62 ॥
यथा बभूव भगवान्मानुषेषु महातपाः । भृगुस्त्रीवधदोषेण भृगुशापेन मानुषे ॥ 2,72.63 ॥
जायते च युगान्तेषु देवकार्यार्थसिद्धये । तस्य दिव्यां तनुं विष्णोर्गदतो मे निबोधत ॥ 2,72.64 ॥
…
यस्मात्ते जानता धर्ममवध्या स्त्री निषूदिता । तस्मात्त्वं सप्तकृत्वो वै मनुष्येषु प्रपद्यसे ॥ 2,72.142 ॥
…
भार्गवों ने परशुराम की कथा के माध्यम से कैसे दशावतार के वर्तमान रूप को स्थापित किया, आगे देखेंगे।
दशावतार के पूर्व बारह देवासुर संग्रामों की चर्चा इस पुराण में है जिनमें नायक रहे तीन – वराह, नृसिंह, एवं वामन, दशावतार में स्थान पाते हैं।
प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः । तृतीयः स तु वाराहश्चतुर्थोऽमृतमन्थनः ॥ 2,72.73 ॥
यह अंश विवरण में अपनी स्थिति से क्षेपक लगता है किंतु देवेंद्र से उपेंद्र की दिशा में गमन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
भृगुपुत्र शुक्र ने नीललोहित भव (शिव) से तप द्वारा प्रजेश (प्रजापति), धनेश एवं अवध्य होने का वरदान पाया।
प्रजेशत्वं धनेशत्वमवध्यत्वं च वै ददौ ॥ 2,72.161 ॥
स्पष्टत: यह लब्धि क्षात्र एवं वैश्य क्षेत्रों से सम्बंधित है जिसने आगे दैत्यों एवं भार्गवों को श्रेष्ठता प्रदान की।
कथाक्रम में आगे दशावतारों की प्रथम सूची इस प्रकार है। जिनके नाम से पृथ्वी पृथ्वी कहलायी, वेन के ऐसे पुत्र राजा पृथु के उल्लेख पश्चात पहले तीन दिव्यावतार बताये गये हैं – वराह, नृसिंह एवं वामन।
धर्मान्नारायणस्तस्मात्संभूतश्चाक्षुषेऽन्तरे । यज्ञं प्रवर्त्तयामास वैन्यो वैवस्वतेऽन्तरे ॥ 2,73.72 ॥ [पृथु]
प्रादुर्भावे तु वैन्यस्य ब्रह्मैवासीत्पुरोहितः । चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेषु सुरेष्वथ ॥ 2,73.73 ॥
संभुतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे । द्वितीयो नरसिंहोऽभूद्रौद्रः सुतपुरस्सरः ॥ 2,73.74 ॥
यजमानं तु दैत्येन्द्रमदित्याः कुलनन्दनः ।
…
वामनं तं च विज्ञाय ततोऽदान्मुदितः स्वयम् ॥ 2,73.77 ॥
…
मानुषेषु महाबाहुः प्रादुरास जनार्द्दनः । एतास्तिस्रः समृतास्तस्य दिव्याः संभूतयः शुभाः ॥ 2,73.87 ॥
आगे सात मनुष्य अवतारों का उल्लेख है:
मानुष्यः सप्त यास्तस्य साग्रगास्ता निबोधत । त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह ॥ 2,73.88 ॥
नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेयपुः सरः । पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां संबभूव ह ॥ 2,73.89 ॥
मान्धाता चक्रवर्त्तित्वे तस्योतथ्यः पुरस्सरः । एकोनविंशयां त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकृद्विभुः ॥ 2,73.90 ॥
जामदग्न्यस्तदा षष्ठे विश्वामित्रपुरस्सरः । चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा ॥ 2,73.91 ॥
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः । अष्टमो द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पराशरात् ॥ 2,73.92 ॥
वेदव्यासस्ततो जज्ञे जातूकर्ण्यपुरस्सरः । तथैव नवमे विष्णुरदित्याः कश्यपात्मजः ॥ 2,73.93 ॥
देवक्यां वसुदेवात्तु जातो गार्ग्यपुरस्सरः । अप्रमेयो नियोगश्च यतकामवरो वशी ॥ 2,73.94 ॥
…
अस्मिन्नेव युगे क्षीणे संध्याशिष्टे भविष्यति । कल्किर्विष्णुयशा नाम पाराशर्यः प्रतापवान् ॥ 2,73.104 ॥
दशमो भाव्यसंभूतो याज्ञवल्क्यपुरस्सरः । अनुकर्षन्स वै सेनां हस्त्यश्वरथसंकुलाम् ॥ 2,73.105 ॥
इस वर्णन में यह रेखाङ्कित करने योग्य है कि मत्स्य एवं कूर्म अवतार नहीं हैं जबकि दत्तात्रेय, मांधाता एवं वेदव्यास ऐसे नाम हैं जो अब प्रचलित दशावतार सूची से लुप्त हैं।
ललितोपाख्यानं भाग में हयग्रीव को भी विष्णु का प्रादुर्भाव बताया गया है जो अगस्त्य को ललिता उपाख्यान सुनाते हैं। भौगोलिक नामों से स्पष्टत: यह दक्षिण भारत से सम्बंधित है, अगस्त्य तो हैं हीं:
चिरकालेन तपसा तोषितोऽभूज्जनार्दनः ॥ 3,5.8 ॥
हयग्रीवां तनुं कृत्वा साक्षाच्चिन्मात्रविग्रहाम् । शङ्खचक्राक्षवलयपुस्तकोज्ज्वलबाहुकाम् ॥ 3,5.9 ॥
पूरयित्रीं जगत्कृत्स्नं प्रभया देहजातया । प्रादुर्बभूव पुरतो मुनेरमिततेजसा ॥ 3,5.10 ॥
[ख]
काल क्रम से देखें तो ब्रह्माण्ड पुराण के परवर्ती भाग में ही विद्रूप एवं विकृतियाँ स्पष्ट होती हैं। वेदों से भी पहले ब्रह्मा द्वारा पुराणों का सुना जाना, तत्पश्चात उनके मुख से वेदों को नि:सृत बता इसमें पुराणों को वेदों से पुराना होना बताया गया है:
वक्ष्यामि तान्पुरस्तात्तु विस्तरेण यथाक्रमम् । प्रथमं सर्वशास्त्राणां पुराणं ब्रह्मणा श्रुतम् ॥ 1,1.40 ॥
अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । अङ्गानि धर्मशास्त्रं च व्रतानि नियमास्तथा ॥ 1,1.41 ॥
लगभग चालीस अध्यायों में पसरे वसिष्ठ द्वारा राजा सगर को सुनाये गया विस्तृत राम जामदग्नेय प्रसङ्ग एवं उतना ही विस्तृत ललितोपाख्यान – ये दो ही इस पुराण को वायु पुराण से भिन्न अस्तित्त्व प्रदान करते हैं अन्यथा इसके श्लोक शब्दश: लगभग वायु पुराण के ही हैं। पञ्चलक्षण देखें तो इसे पुराण कहलाने हेतु इन दो प्रसङ्गों की अनिवार्यता नहीं है तथा यह वायु पुराण का ही एक ऐसा संस्करण सिद्ध होता है जिसमें स्वतंत्र अस्तित्त्व वाली दो कृत्तियाँ, जिनमें से एक स्पष्टत: तंत्र मार्गी है, कालांतर में जोड़ दी गयीं। विद्वानों ने वह समय ग्यारहवीं शताब्दी का आरम्भ माना है।
सगर वसिष्ठ संवाद में राधा आराधकों द्वारा अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं को स्थापित करने के लिये अति प्राचीन राम जामदग्नेय कथाओं का आश्रय लिया गया है। उल्लेखनीय है कि ‘परशुराम’ नाम भी इसी प्रसङ्ग से मिलना आरम्भ होता है जिसे ‘परशुराम उवाच’ के माध्यम से जोड़ा गया है, मूल श्लोकों में ‘परशुराम’ संज्ञा कहीं नहीं है।
विविध कालखण्ड साधने, एक अवांछित मिथ को स्थापित करने तथा राधा कृष्ण की सर्वोच्चता स्थापित करने हेतु इस खण्ड का लेखक हास्यास्पद युक्तियाँ लगाता है। उसने स्थापित मान्यताओं से बचते बचाते हुये, उन्हें मान दुलार देते हुये, उनका अनुरञ्जन करते हुये यह काम बहुत चतुराई से किया है।
वैदिक धारा में भार्गव राम के नाम से ऋग्वेद में केवल एक सूक्त पिता जमदग्नि के साथ संयुक्त रूप से दर्शित मिलता है – भृगुकुल के आप्री मंत्र इसमें संग्रहीत हैं। अगस्त्य के नाम से केवल पहले मण्डल में कुछ सूक्त हैं जिनमें अनेक में वे संयुक्त द्रष्टा प्रतीत होते हैं। ऐसा क्यों है?
इन दो महानतम विभूतियों को उस श्रेणी में रखा जा सकता है जिन्हें नवग्व एवं दशग्व कहा गया – अनुमानत: वर्षा के दो या तीन महीने छोड़ ये लोग निरंतर उद्योग अभियानों में लगे रहते थे। भारतीय प्रायद्वीप का मालाबार केरल तक का सागर तट क्षेत्र, पश्चिमी घाट एवं कोंकण क्षेत्र भार्गव राम की तप सिद्धियों के साक्षी हैं तो पूर्व में उसका दक्षिणी सागर तट क्षेत्र एवं साथ का तमिल भू भाग अगस्त्य की।
राधा रानी से सम्बंधित सम्प्रदाय का पुराण लेखक अपनी बनाने के लिये भार्गव राम को चुनता है। कारण है – पश्चिमी क्षेत्र में उनकी व्याप्ति।
जिससे सागर ने अपना नाम पाया, उस प्रतापी सगर को वसिष्ठ कथा रूप में पूरा प्रकरण सुनाते हैं, उस प्रश्न के उत्तर में कि कैसे उनके पिता को हैहय कार्त्तवीर्य के वंशज तालजङ्घों ने वन में भटकने पर विवश कर दिया था।
बृहस्पति द्वारा श्राद्ध सम्बंधी बातों के अनन्तर इक्कीसवाँ अध्याय वसिष्ठ द्वारा आर्व एवं राम जामदग्नेय संवाद ले कर टपक पड़ता है जिसके पहले श्लोक से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रसङ्ग किसी अन्य स्थान से काट कर यहाँ जोड़ दिया गया है :
वसिष्ठ उवाच
इत्थं प्रवर्त्तमानस्य जमदग्नेर्महात्मनः । वर्षाणि कतिचिद्राजन्व्यतीयुरमितौजसः ॥
ऐतिहासिकता देखें तो वसिष्ठ व विश्वामित्र के नेतृत्त्व में हुये ऋग्वैदिक दाशराज्ञ संघर्ष की अनुकृति लगता है, अत्रि पुत्र, विष्णु अवतारी दत्तात्रेय के अनुगामी कार्त्तवीर्य अर्जुन एवं जमदग्नि पुत्र राम के अनुगामी जन का संग्राम।
दोनों वैष्णव धारायें हैं किंतु दशावतार की अंतिम सूची से दत्तात्रेय लुप्त हो जाते हैं, राम जामदग्नेय बने रहते हैं। जाने कितने वर्षों तक यह संघर्ष चलता है तथा अंतत: कुछ काल के लिये भार्गवों का वर्चस्व स्थापित होता है। अनेक परतों तथा प्राचीन/मध्य मिश्रित कालखण्ड में कभी नैमिषारण्य के लम्बे एवं विविध याग सत्र आयोजनों में आख्यान, इतिहास, पुराण, स्मृति आदि का भार्गवों ने पुनर्संस्करण किया या लुप्त हो चुके वाङ्मय को नये रूप दिये गये।
भार्गवों के वर्चस्व का ही आश्रय ले कर सूक्ष्म मानवीय भावों एवं कार्यव्यापारों का विभिन्न आराध्यों में परिपाक करते हुये परवर्ती राधाकृष्णानुयायी वैष्णव सम्प्रदाय का लेखक राधाकृष्ण की सर्वोच्चता बिना किसी अनावश्यक घोष, घोषणा के, स्थापित करता है।
आरम्भ में भार्गव राम का विशद चित्रण किया गया है जो पाठक को भृगुओं की वंशावली के साथ उनकी सक्रिय उपस्थिति से परिचित कराता है। बाल्यावस्था में भार्गव राम अपने पूर्वज ऋचीक से मिलने जाते हैं – बालोऽयं बलवान्भातिगांभीर्यात्प्रश्रयेण च। तत्पश्चात अपने पूर्वजों और्व, च्यवन के यहाँ से होते हुये भृगु के आश्रम में आते है जिसे कि एक आदर्श आश्रम के रूप में चित्रित किया गया है। इस आश्रम में मयूर, ऋष्य मृग एवं धान के एक प्रकार ‘नीवार’ के उल्लेख हैं जो कि इसकी भौगोलिक स्थिति स्थिर करने में उपयोगी हैं।
भृगु द्वारा भार्गव राम को हिमालय जा तप द्वारा शङ्कर को प्रसन्न कर शस्त्रास्त्र प्राप्त करने को कहा जाता है क्योंकि ऐसे बहुत से कार्य शेष हैं जिन्हें केवल शस्त्रास्त्रों द्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है –
अस्त्रग्राममशेषं त्वं वणु पुत्र यथेप्सितम् । त्वया हितार्थं देवानां करणीयं सुदुष्करम् ॥ 2,21.79 ॥
विद्यतेऽभ्यधिकं कर्म शस्त्रसाध्यमनेकशः ।
इस एक कथन से पुराणकार आगत के औचित्य की मानो नींव रखता है।
रूढ़ परम्परा में ही मृगव्याध रूपधारी शङ्कर भार्गव राम से साक्षात होते हैं। आगे चल कर बर्बर हिंसा में लिप्त दर्शाये गये भार्गव राम उस समय अहिंसा का गुणगान करते दर्शाये गये हैं – अहिंसा सर्वभूतानामिति धर्मः सनातनः । व्याध रूप धरे शङ्कर स्वयं को ब्रह्महत्यारा बताते हैं एवं राम को माँ का हत्यारा – कृत्वा मातृवधं घोरं सर्वलोकविगर्हितम् । वास्तविक रूप दर्शन पश्चात भी भार्गव राम को शस्त्रास्त्र नहीं मिलते, शिव उनमें शस्त्रास्त्र धारण के योग्य शक्ति न होने की बात बता सम्पूर्ण पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों का भ्रमण कर योग्य होने की अनुशंसा करते हैं – नास्त्राणां धारणे वत्स विद्यते शक्तिरद्य ते … परीत्य पृथिवीं सर्वां सर्वतीर्थेषु च क्रमात् । वैदिक राम की भ्रमणशील उद्योगी प्रवृत्ति से तुलना प्रसङ्ग रचना की प्रेरणा को स्पष्ट कर देती है।
इस बीच देवासुर सङ्ग्राम छिड़ जाता है तथा असुर संहार के लिये शङ्कर, भार्गव राम को बुलवा कर उन्हें शैवास्त्र एवं अपना परशु प्रदान करते हैं – आत्मीयं परशुं दत्वा सर्वशस्त्राभिभावकम्। लेखक भार्गव राम के विष्णु तेज अंश होने की सूचना यहाँ देता है – ततः स शुशुभे रामो विष्णुतेर्ञ्जोऽशसंभवः।
शैव अनुशंसा से विष्णु अंश भार्गव राम असुरों का संहार परशु से करते हैं एवंं शिव आराधना कर अपराजेय होने का वरदान प्राप्त करते हैं। यह भूमिका जोकि विष्णु द्वारा अन्य रूपों में दैत्यों के संहार के अनुकरण में है, आगे के क्षेपक के लिये आधार प्रदान करती है।
बाघ से बचाये जाने पर अकृतव्रण के रूप में भार्गव राम को एक ब्राह्मण मित्र मिलता है जो समूचे क्षत्रसंहार प्रकरण में साथ बना रहता है। आत्रेय अनुयायी अर्जुन एवं भार्गवों के बीच के संघर्ष में अकृतव्रण एक महत्त्वपूर्ण सङ्केत है।
हैहयराज कार्त्तवीर्य का प्रवेश इस प्रकरण के पश्चात होता है जोकि मृगया हेतु वन में आ कर जमदग्नि ऋषि के ससैन्य अतिथि होते हैं एवं जिनका सत्कार ऋषि द्वारा किया जाता है। आश्रम में मंत्र के साथ तंत्र अनुष्ठान का भी उल्लेख है – वन्मन्त्रतन्त्रोक्तक्रियासु विततासु च। राजा अपने साथ के सैन्य का कारण बताते हुये अनुमति माँगते हैं कि आतिथ्य औपचारिकता में न पड़ें, आश्रम की गतिविधियाँ बाधित होंगी – तपस्विनां भवेत्पीडा नियमक्षयकारिका।
ऋषि रुकने का अनुरोध करते हुये दोग्ध्री (गाय) को बुला कर आतिथ्य हेतु उपादान प्रस्तुत करने को कहते हैं। यह प्रकरण कभी राजा रहे विश्वामित्र एवं वसिष्ठ के बीच गाय को ले कर हुये संघर्ष की अनुकृति है। विशिष्ट पौराणिक वर्णनों की भाँति यहाँ भी गाय राजा की सुविधा के लिये ऐसा नगर सृजित कर देती है जिसका वर्णन गुप्तकालीन नगर राज्य सा है। यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी उपलब्ध कराई गई हैं जिनका कामोद्दीपक वर्णन भी है। इस क्षेपक अंश में छंद भी अनुष्टुुप नहीं हैं :
विचित्रवेषाभरणप्रसूनगन्धांशुकालङ्कृतविग्रहाभिः ।
सहावभावाभिरुदारचेष्टाश्रीकान्तिसौन्दर्यगुणान्विताभिः ॥ 2,27.2 ॥
मन्दस्फुरद्दन्तमरीचिजाल विद्योतिताननसरोजजितेन्दुभाभिः ।
प्रत्यग्रयौवनभरासवल्गुगीर्भिः स प्रेममन्थरकटाक्षनिरीक्षणाभिः ॥ 2,27.3 ॥
प्रीतिप्रसन्नहृदयाभिरतिप्रभाभिः शृङ्गारकल्पतरुपुष्पविभूषिताभिः ।
देवाङ्गनातुलितसौभगसौकुमार्यरूपाभिलाषमधुराकृतिरञ्जिताभिः ॥2,27.4॥
उत्तप्तहेमकलशोपमचारुपीनवक्षोरुहद्वयभरानतमध्यमाभिः ।
श्रोणीभराक्रमणखेदपरिश्रितास्मृगारक्तपावकरसारुणिताङ्घ्रिभूभिः ॥2,27.5॥
क्षात्री वैभव की तुलना में ब्राह्मी को श्रेष्ठतर दर्शाने के चक्कर में रचयिता तप, दम आदि मूल स्थापनाओं का उल्लंघन कर गया है। इसकी प्रेरणा भी आख्यान ही हैं :
ब्राह्मीं तपःश्रिय मुदारगणमचिन्त्यां लोकेषु दुर्लभतरां स्पृहणीयशोभाम् …
दुर्लभेयं क्षात्री मनोहरतरा महिता हि संपत् ।
ऋषि से विदा ले कर राजा गाय द्वारा सृजित वैभव सम्पदा पर विचार कर ही रहे होते हैं कि ‘चंद्रगुप्त’ नाम का एक मंत्री अपनी बात रखता है – चन्द्रगुप्तोऽब्रवीन्मन्त्री कृताञ्जलि पुटस्तदा ॥2,28.31॥
यह नाम स्पष्टत: प्रसङ्ग में वर्णित काल से आधुनिक है। यह मंत्री ही समस्त अनर्थों का कारण बनता है।
चंद्रगुप्त राजा को वैसी समर्थ गाय प्राप्त करने के लिये उकसाता है, राजा निषेध करते हैं – ब्रह्मस्वं नापहर्तव्यम। पुरोहित गर्ग भी राजा को किसी भी दुस्साहस के विरुद्ध चेतावनी देते हैं। वह मंत्री को लोहे की बनी नाव जैसा सागर में डुबोने वाला बताते हैं – आत्मना सह दुर्बुद्धिर्लोहनौरिव मज्जयेत् ॥
मंत्री इस पर पुरोहित को अपनी ब्राह्मण जाति का ही हित सोचने वाला बताता है – ब्राह्मणोऽयं स्वजातीयहितमेव समीक्षते । वह कहता है कि ब्राह्मण को भोजन एवं दान के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं सूझता – विना वै भोजनादाने कार्यं विप्रो न विन्दति ।
ग्यारहवीं शताब्दी में जबकि यह प्रसङ्ग लिखा गया, मंत्री पद पर अब्राह्मण भी नियुक्त होने लगे थे। चंद्रगुप्त नाम में चित्रगुप्त की ध्वनि है ही, चंदेलों के राज्य में तो कायस्थ मंत्रियों का होना इतिहाससिद्ध है।
मंत्री का उलाहना ब्राह्मण प्रभाव में उस महत्त्वपूर्ण क्षय को इङ्गित करता है जिसकी प्रतिक्रिया में यह प्रसङ्ग रचा गया।
चंद्रगुप्त राजा के अनमनेपन पर यह कह कर प्रभाव डाल देता है कि स्वर्ण एवं अन्य गायों को दे वह रत्नस्वरूपा गाय ली जा सकती है क्योंकि रत्न का अधिकारी तो राजा होता है।
राजा उसे ही जमदग्नि के यहाँ जा कर गाय ले आने को कहते हैं किंतु विप्र जमदग्नि को उनका अभिप्सित दे कर विशेष रूप से प्रसन्न करने के पश्चात ही –
गत्वा त्वमेव तं विप्रं प्रसाद्य च विशेषतः । दत्त्वा चाभीप्सितं तस्मै तां गामानय मन्त्रिक ॥ 2,28.62 ॥
मंत्री आश्रम में जिस समय पहुँचता है, उस समय भार्गव राम वहाँ नहीं होते हैं। ऋषि जमदग्नि को मंत्री अनेक विकल्प देता है, दस हजार गायें, आधा राज्य इत्यादि किंतु वह टस से मस नहीं होते – मैं क्रय विक्रय में लिप्त नहीं हूँ, हविर्धानी गाय को नहीं दूँगा –
क्रयविक्रययोर्नाहं कर्त्ता जातु कथञ्चन । हविर्धानीं च वै तस्मान्नोत्सहे दातुमञ्जसा ॥ 2,28.70 ॥
जीवित रहते नहीं, इंद्र एवं बृहस्पति आ जायें तो भी नहीं –
जीवन्नाहं तु दास्यामि वासवस्यापि दुर्मते । गुरुणा याचितं किं ते वचसा नृपतेः पुनः ॥ 2,28.72 ॥
बात बढ़ती है, मारपीट में ऋषि अङ्गभङ्ग एवं हड्डियाँ टूटने के कारण धरती पर गिर कर अचेत हो जाते हैं:
स हन्यमानः सुभृशं चूर्णिताङ्गास्थिवन्धनः । निपपात महातेजा धरण्यां गतचेतनः ॥ 2,29.14 ॥
गाय गगन को चली जाती है – गगनं प्रत्यपद्यत।
मंत्री गाय के बछड़े को ले कर राजा के पास आ कर समस्त प्रकरण सुनाता है। राजा ब्राह्मण पुरोहित की बात न मान मंत्री के बात में आने से हुये अनर्थ का शोक मनाते अपनी पुरी लौट जाते हैं :
उद्विग्नचेताः सुभृशं चिन्तयामास नैकधा …
अहो मे सुनृसंसस्य लोकयोरुभयोरपि । ब्रह्मस्वहरणे वाञ्छा तद्धत्या चातिगर्हिता ॥ 2,30.2 ॥
अहो नाश्रौषमस्याहं ब्राह्मणस्य विजानतः । वचनं तर्हि तां जह्यां विमूढात्मा गतत्रपः ॥ 2,30.3 ॥
पति जमदग्नि को मृत समझ देवी रेणुका विलाप करती हैं। इससे आगे पुराणकार अपनी कुण्ठा में बहुत ही सावधानी से विद्वेष जनित उस हिंसा का अपराधी भार्गव राम को बनाता है जोकि किसी भी प्रकार से सनातन मूल्यों के अनुकूल नहीं। ऐसा करते हुये उसे ज्ञात है कि वह एक विभूति के ऊपर बर्बरता का आरोपण कर रहा है किंतु इससे न्यून में उसका उद्देश्य भी तो नहीं सधता ! वह बच बच कर चलता है।
रेणुका ने 21 बार अपना उदर (वक्ष) विलाप करते हुये पीटा, इस कारण भार्गव राम 21 बार धरा को क्षत्रियविहीन करने का बचकाना एवं बर्बर प्रण लेते दर्शाये गये हैं।
दुःखशोकपरीता हि रेणुका त्वरुदन्मुहः । त्रिःसप्तकृत्वो हस्ताभ्यामुदरं समताडयत् ॥ 2,30.28 ॥
…
उवाचापनयन्दुःखाद्भर्तृशोकपरायणाम् । त्रिःसप्तकृत्वो यदिदं त्वया वक्षः समाहतम् ॥ 2,30.30 ॥
तावतसंख्यमहं तस्मात्क्षत्त्रजारमशेषतः । हनिष्ये भुवि सर्वत्र सत्यमेतद्ब्रविमि ते ॥ 2,30.31 ॥
सम्पूर्ण भारत में फैले तीन सप्तनदियों के क्षेत्र में भृगुओं द्वारा वर्चस्व प्रसार को जिसके कि अंत:प्रमाण विभिन्न जनपदों तथा क्षेत्रों यथा कोसल, मिथिलादि के उल्लेखों में हैं, पुराणकार एक ऐसा रंग देता है जो लोकरञ्जन की सूत परम्परा से आ रहा है। लोक को ऐसे अनूठे प्रकरण भाते हैं, जिनके उदाहरण सीता की अग्निपरीक्षा, निष्कासन जैसे गढ़े हुये प्रसङ्ग हैं।
आत्माहुति को उद्यत रेणुका को दिव्य वाणी द्वारा रोके जाने पश्चात यादृच्छ ही भृगु (आगे के विवरणों से शुक्र एवं भृगु में अतिव्याप्ति सी प्रतीत होती है) पधारते हैं एवं मृतसञ्जीवनी विद्या द्वारा जमदग्नि को चैतन्य कर देते हैं।
पिता के पुन: संज्ञा प्राप्त कर लेने के पश्चात भी कार्त्तवीर्य का एवं 21 बार क्षात्र संहार करने के औचित्य को पुराणकार भृगु के मुख से कहलवाता है कि कार्त्तवीर्य को पुराकाल में वसिष्ठ (कथा सुनाने वाले से भिन्न) का शाप है कि तुम्हारा नाश एक ब्राह्मण के विरुद्ध किये अपराध के कारण होगा। उनका वचन अन्यथा कैसे हो सकता है? द्विजापराधतो मूढ वीर्यं ते विनशिष्यते, तत्कथं वचनं तस्य भविष्यत्यन्यथा मुनेः ?
जाते जाते भृगु कार्त्तवीर्य को वृद्धोपसेवी, हरि के अंश दत्तात्रेय से बोध प्राप्त एवं विष्णु का साक्षात भक्त महात्मा बताते हुये उनके वध से पातक होने की चेतावनी देते हैं –
स तु राजा महाभागो वृद्धानां पर्युपासिता । दत्तात्रेयाद्धरेरंशाल्लब्धबोधो महामतिः ॥ 2,30.75 ॥
साक्षाद्भक्तो महात्मा च तद्वधे पातकं भवेत् ।
अत्रि एवं भृगु, दो वैष्णवी धाराओं, के बीच भृगवंश का वर्चस्व दर्शाते समय यह सावधानी दर्शनीय है, साथ ही यह भी कि 21 बार क्षत्रिय विनाश के व्यर्थ के हठ पर भृगु मौन रह जाते हैं।
जमदग्नि अपने पुत्र को साधु एवं ब्राह्मण के गुण समझाते हुये क्षमा का पक्ष लेते हैं, साथ ही यह भी कहते हैं कि राजा का वध बहुत बड़ा पाप है, क्षमा करो, तप करो – नरनाथवधे तात पातकं सुमहद्भवेत् । तस्मान्निवारये त्वाद्य क्षमां कुरु तपश्चर॥
भार्गव राम के न मानने पर जमदग्नि उन्हें ब्रह्मा के पास भेज देते हैं कि तुम उनका कहा मानोगे, इसमें संशय नहीं।
अपने सम्पूर्ण राजसी वैभव में बैठे ब्रह्मा उनसे कहते हैं कि यह जगत भगवान की आज्ञा से मैंने रची, तुम उसका नाश करना चाहते हो? एक राजा के अपराध के कारण तुम संसार के समस्त भूपों का 21 बार संहार पिता के मना करने पर भी करना चाह रहे हो?
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कर्तुमिच्छसि मेदिनीम् । एकस्य राज्ञो दोषेण पितुः परिभवेन च ॥ 2,31.31 ॥
चारो वर्ण एवं सनातनी सृष्टि हरि से ही उत्पन्न हो उनमें ही लीन हो जाती है, तुम शिव के पास जाओ, बिना उनकी सहमति के तुम्हें लक्ष्यप्राप्ति नहीं होनी।
यहाँ पुराणकार पहली बार श्रीकृष्ण की महिमा का प्रवेश कराता है। ब्रह्मा कहते हैं कि हर रूपी गुरु से श्रीकृष्णमंत्र का कवच प्राप्त करो, (कार्त्तवीर्य का) वैष्णव तेज सिवाय शिवशक्ति के दुर्ल्लङ्घय है। त्रैलोक्यविजय नाम का कवच परम अद्भुत है, उनसे प्राप्त करो, प्रसन्न हुये तो पाशुपत भी दे देंगे!
श्रीकृष्णमन्त्रं कवचं गृह्ण वत्स गुरोर्हरात् । दुर्ल्लङ्घ्यं वैष्णवं तेजः शिवशक्तिर्विजेष्यति ॥ 2,31.37 ॥
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् । यथाकथं च विज्ञाप्य शङ्करं लभदुर्लभम् ॥ 2,31.38 ॥
प्रसन्नः स गुणैस्तुभ्यं कृपालुर्दीनवत्सलः । दिव्यपाशुपतं चापि दास्यत्येव न संशयः ॥ 2,31.39 ॥
यह प्रसङ्ग जिस समय लिखा गया, उस समय तक ब्रह्मा आराध्य के रूप में क्षीण हो चुके होंगे किंतु तब भी उनके अनुयायी बचे रहे होंगे। नया मत स्थापित करने के उद्योग में लगा पुराणकार भार्गव राम से जघन्य कर्म करवाने की संस्तुति हेतु नीचे से ऊपर तक सबको लपेटता है।
उस समय भी विष्णु, शिव एवं देवी की उपासना प्रबल रही होगी। पुराणकार शिवलोक को ब्रह्मलोक से एक लाख योजन ऊँचा बताता है जिसके दाहिने वैकुण्ठ (विष्णु का) एवं बायें गौरी (देवी) का लोक है:
लक्षयोजनमूर्द्ध्वं च ब्रह्मलोका द्विलक्षणम् … वैकुण्ठो दक्षिणे यस्माद्गौरीलोकश्च वामतः ।
यदधो ध्रुवलोकश्च सर्वलोकपरस्तु सः ॥ 2,32.3 ॥
राम का उद्देश्य जान भगवान हर मुख नीचा कर सोचने लगती हैं जबकि देवी दुर्गा हँस पड़ती हैं – हे वैरसाधक भार्गव! बिना शस्त्र के ही सहस्रार्जुन की हत्या करना चाहते हो, जिसकी भ्रूभङ्गलीला मात्र से रावण की स्थिति बिगड़ गयी थी, जिसे भूतकाल में हरि का कवच मिल चुका है? हन्तुमिच्छसि निःशस्त्रः सहस्रार्जुनमीश्वरम् । भ्रूभङ्गलीलया येन रावणोऽपि निराकृतः। तस्मै प्रदत्तं दत्तेन श्रीहरेः कवचं पुरा।
सहस्रार्जुन के पास तो विष्णु की अजेय शक्ति भी है!
देवी की अनुमति प्राप्त कर शिव राम को कवच, दिव्य मंत्र एवं शस्त्रास्त्र प्रदान करते हैं। इनके प्रसाद से कार्त्तवीर्य को तो मार ही पाओगे, 21 बार धरा को निर्भूप भी कर पाओगे।
लीलया यत्प्रसादेन कार्त्तवीर्यं हनिष्यसि । त्रिः सप्तकृत्वो निर्भूपां महीं चापि करिष्यसि ॥ 2,32.55 ॥
पुराणकार इस प्रकार भार्गव राम के भावी जघन्य कर्म की संस्तुति शिव एवं दुर्गा, दोनों से करवा देता है। ऐसा करते हुये वह भूल सा जाता है कि शिव से सभी दैवी शस्त्रास्त्र तो देवासुर संग्राम हेतु राम पहले ही प्राप्त कर चुके हैं जिनमें परशु भी है, दुबारा क्यों?
पेंच आगे है। राजा सगर के पूछने पर वसिष्ठ शिव द्वारा भार्गव राम को दिये जो दिव्य मंत्र एवं त्रैलोक्यविजय कवच बताते हैं, उनमें राधा एवं गोपीजनवल्लभ कृष्ण ही हैं, अन्य कोई नहीं!
मंत्र है – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।
गोपीजनपदस्यात वल्लभाय समुच्चरेत् । स्वाहान्तोऽयं महामन्त्रो दशार्णो भुक्तिमुक्तिदः ॥ 2,33.3 ॥
कवच में कृष्ण के विभिन्न नामों से अङ्गन्यास सुरक्षादि हैं। कुछ उदाहरण –
श्रीकृष्णाय नमः , गोविन्दाय स्वाहा, राधिकेशाय स्वाहा, रासारंभप्रियायेति स्वाहा, वृन्दाप्रियाय स्वाहा।
राम पुष्कर झील में 100 वर्ष तक त्रैलोक्यविजय कवच का अभ्यास करते हुये कृष्ण की आराधना करते हैं:
सततं ध्यानसंयुक्तो रामो मतिमतां वरः । आराधयामास विभुं कृष्णं कल्मषनाशनम् ॥ 2,34.9 ॥
पुराणकार यहाँ एक मृग एवं मृगी को ला छोड़ता है। मृग मृगी से पहले की कथा दुहराते हुये सूचित करता है कि 100 वर्ष तक जप तप करने पर भी अभी इन्हें मंत्र सिद्ध नहीं हुआ है – मन्त्र साधयतो भद्रे न च तत्सिद्धिरेति हि।
इसका कारण इनकी भक्ति का मध्य श्रेणी का होना है, ये गोपिकाधीश की सेवा तो करते हैं किंतु इस कारण ही सिद्धि नहीं आती : मध्यभक्तिरयं रामो नित्यं यमपरायणः, सेवते गोपिकाधीशं तेन सिद्धिं न चागतः ।
गोपीकृष्ण भक्ति मार्ग का भार्गव राम के माध्यम से उन्मेष दर्शनीय है। भार्गव राम कृष्ण के ऐसे भक्त बताये जाते हैं जिनसे मंत्र तो भक्ति पर्याप्तता के अभाव में सिद्ध नहीं होता किंतु जिनके दर्शनमात्र से मृग को भी ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह उन्हें उपाय बताने में सक्षम हो जाता है ! अतोऽस्य दर्शनाज्जातं ज्ञानं।
असंगत बात को आगे बढ़ाते हुये पुराणकार मृग के माध्यम से भार्गव राम को सिद्धि हेतु अगस्त्य के पास जाने का उपाय बताता है, कृष्णप्रेमामृतस्तोत्र सीखना होगा तब ही सिद्धि होगी।
कृष्णप्रेमामृतस्तोत्राज्ज्ञास्यतेऽस्य महामतिः । ततः संसिद्ध कवचौ राजनं हैहयाधिपम् ॥ 2,34.53 ॥
ऐसा है वह ‘प्रेम अमृत से भरा स्तोत्र’ कि भार्गव राम पुत्रों, अमात्य, सुहृद, सेना, वाहन इत्यादि के साथ कार्त्तवीर्य अर्जुन का नाश करने में समर्थ होंगे ही, अवनी को 21 बार राजाओं से विहीन भी कर देंगे!
हत्वा सपुत्रामात्यं च ससुहृद्बलवाहनम् । त्रिः सप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यत्यवनीं प्रिय ॥ 2,34.54 ॥
ध्यान देने योग्य है कि सिवाय मंत्री एवं कुछ सीमा तक हैहयराज के अन्य कोई दोषी नहीं किंतु राधा कृष्ण स्थापना के साथ साथ कुण्ठा को भी तो सहारा देना है, कृष्ण एवं उनका स्तोत्र भी नप गये!
मृग के पूर्वजन्म की कथा बताते हुये पुराणकार जैसे स्वयं अपना पता ठिकाना ही लिख देता है –
पुरा द्रविडदेशे तु नानाऋद्धिसमाकुले ॥ 2,35.10 ॥
ब्राह्मणानां कुले वाहं जातः कौशिकगोत्रिणाम् । पिता मे शिवदत्तोऽभून्नाम्ना शास्त्रविशारदः ॥ 2,35.11 ॥
…
चतुर्थोऽहं प्रिये जातो सूरिरित्यभिविश्रुतः । अस्तु।
अकृतव्रण के साथ भार्गव राम ऋषि अगस्त्य के पास पुष्कर पहुँचते हैं। उनके यहाँ धरती द्वारा शेषनाग को व्रज, नंद आदि से युक्त कृष्ण कथा का संकेत मिलता है तथा अनंत शेष द्वारा स्वरचित श्रीकृष्ण के 108 नामों का स्तोत्र सुनाया जाता है।
अनन्त के समक्ष बैठे ऋषियों में वाल्मीकि भी हैं। भूदेवी रूप धारण कर कथा सुन रही हैं –
ऋभुर्हंसोऽरुणिश्चैव वाल्मीकिः शक्तिरासुरिः … उपविष्टः कथात्तत्र शृण्वानो वैष्णवीर्मुदा ।
येयं भूमिर्महाभाग भूतधात्री स्वरूपिणी ॥ 2,36.8 ॥
…
इति तेऽभिहितं राम स्तोत्रं प्रेमामृताभिधम् । कृष्णस्य राधाकान्तस्य सिद्धिदम् ॥ 2,36.56 ॥
…
कृष्णप्रेमामृत सुनने के पश्चात मृग एवं मृगी के लिये स्वर्ग से विमान आ जाता है। अगस्त्य भार्गव राम को विष्णुपर्वत पर जा कर एक महीने कृष्णप्रेमामृत का अभ्यास करने को कहते हैं जिसके पश्चात वे अपने उद्देश्य में सफल होंगे।
भार्गव राम अकृतव्रण के साथ वहाँ जा कर जप करना आरम्भ करते हैं। कृष्ण उन्हें दर्शन देते हैं। मंत्र, कवच एवं स्तोत्र की वैष्णव तंत्र त्रयी फलीभूत होती है।
पुराणकार कृष्ण की सर्वोच्चता स्थापित कर उनके मुख से भी कार्त्तवीर्य एवं क्षत्रियों के संहार की संस्तुति करवा देता है!
कृष्ण उवाच
हन्त राम महाभाग सिद्धं ते कार्यमुत्तमम् । कवचस्य स्तवस्यापि प्रभावादवधारय ॥ 2,37.26 ॥
हत्वा तं कार्त्तवीर्यं हि राजानं दृप्तमानसम्। साधयित्वा पितुर्वैरं कुरु निःक्षत्रियां महीम् ॥ 2,37.27 ॥
मम चक्रावतारो हि कार्त्तवीर्यो धरातले ।
विष्णु अवतार दत्तात्रेय के भक्त का दूसरे विष्णु अवतार भार्गव राम द्वारा संहार का समाहार इस प्रकार होता है कि कार्त्तवीर्य तो मेरे चक्र का अवतार है, उसी में विलीन हो जायेगा !
दत्तात्रेय तो निपट गये किंतु एक बहुत बड़ी समस्या शेष रह गयी। देवासुर संग्राम में भागीदार भार्गव राम, रावण के समकालीन भार्गव राम तो राधावल्लभ कृष्ण के भक्त बना दिये गये, एक अन्य विष्णु अवतारी दशरथपुत्र राम कहाँ रह गये?
अद्भुत कल्पनाशक्ति के स्वामी तिकड़मी पुराणकार को इसमें कोई समस्या नहीं होती। मन्वंतर, युग आदि की चक्रीय कालपद्धति उसके लिये मार्ग बन कर आती है। पंद्रहवें त्रेता, अट्ठाइसवें द्वापर जैसे वर्णनों वाले पुराण क्रम में वह सूचना देता है कि यह दाशरथी राम से पहले के द्वापर के कृष्ण हैं!
कृष्ण कहते हैं कि मैं आगे रामावतार लूँगा तब हे भार्गव, मैं तुम्हारा तेजहरण करूँगा। तब तक तुम धरती पर, चरिष्यति यथा कालं कर्त्ता हर्त्ता स्वयं प्रभुः!
चतुर्विशे युगे वत्स त्रेतायां रघुवंशजः । रामो नाम भविष्यामि चतुर्व्यूहः सनातनः ॥ 2,37.30 ॥
कौसल्यानन्दजनको राज्ञो दशरथादहम् । तदा कौशिकयज्ञं तु साधयित्वा सलक्ष्मणः ॥ 2,37.31 ॥
गमिष्यामि महाभाग जनकस्य पुर महत् । तत्रेशचापं निर्भज्य परिणीय विदेहजाम् ॥ 2,37.32 ॥
तदा यास्यन्नयोध्यां ते हरिष्ये तेज उन्मदम् ।
…
दत्तात्रेय एवं दाशरथि श्रीराम को अवकाश दे श्रीकृष्ण की स्थापना तो हो गयी, साथ ही जातीय श्रेष्ठता का आग्रह बनाये रखने हेतु राम जामदग्नेय को भी दुराग्रही रूप में निखार दिया। राधा रानी कहाँ रह गईं? आगे आगे देखिये।
अकृतव्रण के साथ माहिष्मती (नर्मदा तट का महेश्वर) पहुँच कर राम जामदग्नेय ने कार्त्तवीर्य को युद्ध हेतु संदेश दिया। मत्स्य, बृहद्बल, सोमदत्त, विदर्भ, मिथिला, नैषध, मगध, कान्यकुब्ज, सौराष्ट्र, अवंति, सूर्यवंशी सुचंद्र – ये सभी कार्त्तवीर्य अर्जुन के पक्ष में लड़ने आये। सुचंद्र को भद्रकाली का संरक्षण था। उसे मारने में असफल होने पर भार्गव राम ने देवी की स्तुति की। देवी के आशीर्वाद से सुचंद्र मारा गया।
सहस्रार्जुन पर भार्गव राम के प्रहार निष्फल ही हुये। एक बार उनके प्रहार से भार्गव राम धराशायी हो गये तो स्वयं शङ्कर जी ने सञ्जीवनी विद्या द्वारा उन्हें पुन: चैतन्य किया। अंतत: पाशुपत अस्त्र के प्रयोग से सहस्रार्जुन का वध हुआ।
सहस्रार्जुन के पुत्रों द्वारा पिता के वध के पश्चात घेर लिये गये भार्गव राम की तुलना पुराणकार रास नृत्य में गोपियों से घिरे कृष्ण से करता है!
नृत्यन्निवाचौ विरराज रामः शतं पुनस्ते परितो भ्रमन्तः । रेजुश्च गोपी गणमध्यसंस्थः कृष्णो यथा ताः परितो भ्रमन्त्यः ॥ 2,41.8 ॥
कुछ को छोड़ वे सभी मारे गये।
इस संहार के पश्चात अकृतव्रण के साथ भार्गव राम ने शिव, उमा, स्कंद एवं विनायक से मिलने हेतु कैलास की यात्रा की।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन चार की उपासना परम्परा बहुत प्राचीन है। राधा रानी की श्रेष्ठता दर्शाने हेतु पुराणकार ने जो युक्तियाँ लगाई हैं, रोचक हैं।
विनायक ने भार्गव राम को शिव से मिलने से रोका क्योंकि उमा एवं शिव शयन में थे। भार्गव राम ने शयनकक्ष में ही प्रवेश कर कांबोज, पह्लव, शक, कान्यकुब्ज, कोशलेश सहित अनेक राजाओं के मारे जाने की सूचना देने की आतुरता दिखाई तो गणाधिपति विनायक ने स्त्री पुरुष सुरत के समय विघ्न न डालने, गुरुजनों को कामक्रीड़ा के समय न देखने तथा दूसरे पुरुष की पत्नी, माँ, बहन या पुत्री के गोपन अङ्ग न देखने के सामान्य अनुशासनों की बात की। भार्गव राम ने विनायक को बालक बताते हुये निश्चय दुहराया। बात बढ़ती गयी, संघर्ष में विनायक द्वारा मर्द्दित होने पर क्षुब्ध हो कर राम ने अपना परशु चला दिया जिसकी अमोघता का सम्मान करते हुये विनायक ने उसे बायें दाँत पर लिया। दाँत कट कर धरती पर गिर पड़ा। कोलाहल मच गया, देवसेनापति स्कंद भी अन्यों के साथ आर्त्तनाद करने लगे। कोलाहल सुन कर पार्वती बाहर आ गयीं।
स्कंद एवं विनायक दोनों अति प्राचीन देवता रहे हैं। यह प्रकरण लिखे जाने के समय तक स्पष्ट है कि स्कंद आराधना की धारा क्षीण हो चली थी, इस कारण उन्हें आर्त्तनाद करा कर ही पुराणकार ने निपटा दिया। गणेश विनायक की आराधना धारा बनी हुई थी, भार्गव राम की महिमा सुनिश्चित करने के साथ साथ गणेश को भी मान देने की चतुराई स्पष्ट है।
पार्वती शिव शंभू से इस प्रकरण पर रुष्ट हुईं कि देखिये, आप के शिष्य ने यह दक्षिणा दी है! आप रहिये यहाँ, मैं अपने दोनों पुत्रों के साथ अपने पिता के घर चली – पुत्राभ्यां सहिता यास्ये पितुः स्वस्य निकेतनम् !
रूठने पर विवाहिता स्त्री द्वारा लोक प्रचलित धमकी का प्रयोग दर्शा पुराणकार ने पार्वती को भी व्यवस्थित कर लिया, बचे शिव।
शिव को कुछ न सूझा तो उन्होंने मन ही मन गोलोकनाथ, भगवान केशव से स्थिति सँभालने के लिये पहुँचने की प्रार्थना की क्योंकि वे ‘गोपीश’ नाननुनयकोविद हैं। कृष्ण सत्वर उपस्थित हुये – राधा रानी एवं श्रीदामा के साथ।
जिनकी प्रतिष्ठा सर्वोपरि करनी है, उनका प्रवेश पूरी नाटकीयता के साथ पुराणकार ने एक स्थिति का सृजन कर कराया है जो कि सराहनीय है।
पुत्रों के साथ पार्वती ने राधा कृष्ण का चरण वंदन किया। कृष्ण ने पार्वती से भार्गव राम को क्षमा कर देने की संस्तुति की। कृष्ण ने गजानन माहात्म्य भी सुनाया (गजानन विनायक की महिमा के प्रति पुराणकार सावधान है)।
चकित पार्वती ने तब भी कुछ नहीं कहा तो राधा रानी ने अपनी कृपा द्वारा स्थिति सँभाल ली। उन्होंने विष्णु, शिव, पार्वती एवं स्वयं का परस्पर एकत्त्व बताया, यह भी कि भार्गव राम वैष्णव से शैव हो गये हैं, गणेश स्वयं शिव है जोकि विष्णु रूप लिये हैं, कोई भेद नहीं है इत्यादि।
प्रकृतिः पुरुषश्चोभावन्योन्याश्रयविग्रहौ । द्विधा भिन्नौ प्रकाशेते प्रपञ्चेऽस्मिन् यथा तथा ॥ 2,42.47 ॥
त्वं चाहमावयोर्देवि भेदो नैवास्ति कश्चन । विष्णुस्त्वमहमेवास्मि शिवो द्विगुणतां गतः ॥ 2,42.48 ॥
शिवस्य हृदये विष्णुर्भवत्या रूपमास्थितः । मम रूपं समास्थाय विष्णोश्च हृदये शिवः ॥ 2,42.49 ॥
एष रामो महाभागे वैष्णवः शैवतां गतः । गणेशोऽयं शिवः साक्षाद्वैष्णवत्वं समास्थितः ॥ 2,42.50 ॥
सम्पूर्ण प्रकरण का पटाक्षेप राधा रानी की महिमा स्थापना से हुआ जिन्होंने गणेश को गोद में ले कर उनके कपोल सहला दिये। इतने से ही गणेश का क्षत पूर्णत: ठीक हो गया।
एवामुक्त्वा तु सा राधा क्रोडे कृत्वा गजाननम् ॥ 2,42.51 ॥
मूर्ध्न्युपाघ्राय पस्पर्श स्वहस्तेन कपोलके । स्पृष्टमात्रे कपोले तु क्षतं पूर्त्तिमुदागतम् ॥ 2,42.52 ॥
पार्वती ने हर्षित हो भार्गव राम को अपनी गोद में बिठा लिया। गोद बिठाई जारी रही, कृष्ण ने स्कंद को गोद में बिठाया तथा शिव शम्भू ने श्रीदामा को।
भार्गव राम ने कृष्ण की राधामय स्तुति की, कृष्ण ने उन्हें सर्वोच्चता का आशीर्वाद दिया, विनायक से मेल मिलाप करवाया। राधा रानी ने पार्वती के दोनों पुत्रों को वरदान दिये। भार्गव राम ने पार्वती से शिव एवं कृष्ण भक्ति के आशीर्वाद प्राप्त किये। अंत में शिव ने सब वरदानों का उपसंहार किया :
अद्यप्रभृति लोकेऽस्मिन् भवतो बलवत्तरः । न कोऽपि भवताद्वत्स तेजस्वी च भवत्परः ॥ 2,43.28 ॥
लौटते भार्गव राम को देख कर प्राण बचाने के लिये मारे भय के क्षत्रिय स्थान देख देख लुकाने लगे :
निलिल्युः क्षत्त्रियाः सर्वे यत्र तत्र निरीक्ष्य तम् । व्रजन्तं भार्गवं मार्गे प्राणरक्षणतत्पराः ॥2,44.2॥
इस प्रकार वात्सल्य, एकत्त्व एवं प्रेमिल भक्ति के मिश्रण के साथ पहले से स्थापित विष्णु, शिव, शक्ति, स्कंद एवं विनायक की आराधना पद्धतियों में समन्वय करते हुये पुराणकार ने राधा कृष्ण को शिव के आँगन में प्रतिष्ठित किया है। साम्प्रदायिक आग्रह पूर्ति के पश्चात प्रेमिल भक्ति से आगे पुराणकार ने उस वीभत्स हिंसा का चित्रण किया है जो भार्गव राम पर प्रश्नचिह्न खड़े करती है।
भार्गव राम की यह विजय चिरकालिक नहीं रही या यह कहें कि पुराणकार को अपने संकीर्ण जातिगत अभिमान के चलते इतिहास को और विकृत करना था।
ऋषि जमदग्नि ने भार्गव राम को प्रायश्चित एवं हत्या दोष शांति हेतु 12 वर्ष तप करने को कहा। भार्गव राम महेंद्र पर्वत पर तप हेतु चले गये।
व्यर्थ प्रतिशोध का जो क्रम भार्गव राम ने आरम्भ किया था, उसकी परिणति आगे कार्त्तवीर्य के पुत्रों द्वारा ऋषि जमदग्नि के वध से हुई, कटा हुआ सिर भी साथ ले गये। दु:ख में देवी रेणुका का भी निधन हो गया। तपस्या से लौटने पश्चात भार्गव राम ने यह समाचार जाना तथा प्रतिक्रिया में भीषण प्रतिज्ञा की :
दृढीचकार हृदये सर्वक्षत्रवधोद्यतः ॥ 2,46.8 ॥
क्षत्रवंश्यानशेषेण हत्वा तद्देहलोहितैः। करिष्ये तर्पणं पित्रोरिति निश्चित्य भार्गवः ॥ 2,46.9 ॥
सभी क्षत्रियों का नाश कर उनके रक्त से पितरों का तर्पण करूँगा। अकृतव्रण के साथ माहिष्मती पहुँच राम ने उन सबका संहार तो किया ही, नगरी को भी आग लगा भस्मीभूत कर दिया।
तत्पश्चात सम्पूर्ण पृथ्वी से ढूँढ़ ढूँढ़ कर सभी क्षत्रियों का संहार कर महेंद्र पर्वत पर चले गये –
विनिघ्नन् क्षत्रियान्सर्वान् संशाम्य पृथिवीतले । महेन्द्राद्रिं ययौ रामस्तपसे धतमानसः ॥ 2,46.29 ॥
32 वर्षों पश्चात क्षत्रिय पुन: धरा पर हो गये तो तप छोड़ राम लौटे एवं सबका संहार कर चलते बने।
ध्यान देने योग्य है कि पुराणकार ने अत्याचारी या सदाचारी क्षत्रियों में कोई अंतर नहीं किया है, परशुराम चुन चुन कर बार बार समूल नाश करते हैं। पुरुषविहीन हो चुके क्षत्रिय वर्ण की स्त्रियों से ब्राह्मण बार बार संतानें उत्पन्न करते हैं तथा उन्हें भार्गव राम मारते रहते हैं। यह ‘इतिवृत्त’ ही आधुनिक समय में परशुराम को उन ब्राह्मणों का आदर्श पुरुष बनाता है जोकि जातिवादी हैं या प्रतिक्रियावादी राजनीतिक समूहवृत्ति में विश्वास रखते हैं। भार्गव राम का यह विकृत परशुराम रूप ही जाने कितनी अन्य विकृतियों का मूल है जिसमें इतर वर्ग की स्त्रियों के प्रति कुत्सित धारणा भी सम्मिलित है। कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि एक अन्य पुराण में इसी इतिवृत्त में पुराणकार ने परशुराम के कारण विधवा हुई क्षत्रिय स्त्रियों को कुलटा हुआ लिखा है। पूरब के जातिवादी भूमिहार एवं ब्राह्मणों का एक वर्ग ऐसा है जो सभी राजपूतों को अवैध संतति बताता है तथा प्रतिक्रिया में मिश्रित जाति का विशेषण पाता है। साम्प्रदायिक एवं जातिगत दुराग्रहों के चलते सहस्र वर्ष पूर्व का लिखा, आधुनिक काल में अनर्थ का आधार बना हुआ है। शब्दों की शक्ति का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
पुराणकार अपनी हिंस्र भावना में वहीं तक नहीं रुका। आरम्भ में ही भृगु द्वारा संकेत एवं माता के छाती पीटने के ब्याज में क्षत्रिय संहार को तो वह औचित्य प्रदान कर ही चुका है। उसके परशुराम ने 12000 मूर्धाभिषिक्त राजाओं को पकड़ा एवं कुरुक्षेत्र ले गये :
ततो मूर्द्धाभिषिक्तानां राज्ञाममिततेजसाम् । षट्सहस्रद्वयं रामो जीवग्राहं गृहीतवान् ॥ 2,47.1 ॥
भृगुवंशियों ने वहाँ पाँच सरोवर खोदे – सरसां पञ्चकं तत्र खानयित्वा भृगुद्वहः । परशुराम ने उन सभी की हत्या कर उन सरोवरों को उनके रक्त से भर दिया तथा पितरों का उससे तर्पण किया। पितरों द्वारा तृप्त हो रोके जाने पर क्षत्रिय संहार से विरत हुये।
परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ भी किया जिसमें एक सुंदरी कन्या को धरती के रूप में सजाया गया। राम जामदग्नेय के विष्णु अवतार की कथा एवं वैष्णवों के बीच ही नव्य साम्प्रदायिक स्थापना का हिंस्र अध्याय लिख कर इस प्रसङ्ग के अंत में पुराणकार विष्णु स्वरूप दत्तात्रेय के अनुयायी कार्त्तवीर्य अर्जुन की महिमा लिखना नहीं भूलता :
एवंप्रभावः स नृपः कार्त्तवीर्योऽभवद्भुवि । न तादृशः पुमात्कश्चिद्भावी भूताथवा श्रुतः ॥
सम्भव है कि कभी दत्तात्रेय-कार्त्तवीर्य आराधना से सम्बंधित कोई स्वतन्त्र पुराण या ग्रंथ रहा हो जिसे इस पुराणकार ने बहुत ही सावधानी पूर्वक विकृत कर वायु पुराण में जोड़ दिया। दत्तात्रेय की अघोर परम्परा भी रही है एवं अपनी गुजराती कृति ‘भगवान परशुराम’ में भार्गव कन्हैयालाल मुंशी ने डड्डनाथ अघोरी की कल्पना कर उनके साथ भार्गव राम का सहयोग दर्शाया है। अघोर, तंत्र एवं शाक्त मतों से सम्बंधित कुछ धाराओं में देवी रेणुका एवं भार्गव राम महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
इस अंश को पढ़ने पर विचार उमड़ते ही हैं कि कैसे पितर हैं जो मानव रुधिर से तृप्त होते हैं तथा निर्दोषों के रुधिर से भरा कैसा समंतपञ्चक तीर्थ है जहाँ सभी पापों का नाश हो जाता है?
जातिवादी घृणा से भरे अतिरेकी पुराणकार ने भार्गव राम के उज्ज्वल चरित्र को तो बर्बर बनाया ही, आगामी युगों युगों तक के लिये घृणा एवं वैमनस्य की नींव रख दी। आज छिटपुट जातिवादी हिंसक घटनाओं के चलते यदि समूची जाति ही ऐसे गल्पों के उदाहरण के साथ दोषी ठहरा दी जाती है तो दोषी कौन?
आख्यानों को निज स्वार्थ हेतु विकृत करने के स्पष्ट अनुकरण में यदि रावणानुयायी इस काल में भी गल्प गढ़ते हैं तथा अब्राहमी निज पंथ प्रसार को समांतर गल्पों द्वारा बहुसंख्यकों को आत्मग्लानि में धकेलते हैं तो अपराधी कौन?
वायु पुराण :
राजा असीमकृष्ण के यज्ञ सत्र में सूत द्वारा सुनाया गया यह पुराण मूलत: वायुदेवता द्वारा प्रभृत बताया जाता है। वायुपुराण प्राचीनतम पुराणों में से एक है। इसका महाभारत में उल्लेख मिलता है:
सर्वलोकस्य विदिता युगसंख्या च पाण्डव। एतत्ते सर्वमाख्यातमतीतानागतं मया ।
वायुप्रोक्तमनुस्मृत्य पुराणमृषिसंस्तुतम् ॥03-189.14॥
भाषिक स्तर पर भी आर्ष प्रयोगों की बहुतायत इसे ऐसे पुराणों की श्रेणी में रखती है जिनमें मूल से अपेक्षतया अल्प छेड़छाड़ हुई है। विडम्बना ही है कि ‘गया माहात्म्य’ क्षेपक जोड़ इसकी प्राचीनता भी संदिग्ध कर दी गयी है तदपि गुप्तकाल के अंत तक इसके मुख्य भाग की रचना हो जाने के अंत:प्रमाण हैं। अन्य पुराणों की भाँति इसके बारे में भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उपलब्ध पाठ यथावत है या वही है जिसका उल्लेख महाभारत करता है।
समन्वयी प्रयास की पौराणिक वृत्ति के नैरंतर्य में वायु पुराण का झुकाव शैव मत की दिशा में है। अवतार हेतु ‘समुद्भव’ शब्द का प्रयोग है तथा विष्णु जन्म के रूप में देवकी पुत्र वासुदेव का स्पष्ट उल्लेख है।
पुनश्च जन्म चाप्युक्तं चरितञ्च महात्मनः।
कंसस्यचापि दौरात्म्यमेकान्तेन समुद्भवः ॥1.1.135॥
वासुदेवस्य देवक्यां विष्णोर्ज्जन्म प्रजापतेः।
विष्णोरनन्तरञ्चापि प्रजासर्गोपवर्णनम् ॥136॥
…
इस पुराण में ब्रह्मा तथा नारायण एक से बताये गये हैं एवं महेश्वर उनसे पहले। त्रिगुण वर्णन में ब्रह्मा तथा विष्णु तो हैं किंतु तामस हेतु शङ्कर के स्थान पर अग्नि का उल्लेख है जोकि स्पष्टत: शिव शङ्कर की सर्वोच्चता दर्शाता है। त्रिदेवों की पारस्परिक निर्भरता एवं अटूट जोड़ भी रेखाङ्कित हैं :
रजो ब्रह्मा तमो ह्यग्निः सत्त्वं विष्णुरजायत। रजःप्रकाशको ब्रह्मा स्रष्ट्टृत्वेन व्यवस्थितः ॥1.5.14॥
तमःप्रकाशकोऽग्निस्तु कालत्वेन व्यवस्थितः। सत्त्वप्रकाशको विष्णुरौदासीन्ये व्यवस्थितः ॥1.5.15॥
एत एव त्रयो देवा एत एव त्रयोऽग्नयः। परस्पराश्रिता ह्येते परस्परमनुव्रताः ॥1.5.16॥
परस्परेण वर्त्तन्ते धारयन्ति परस्परम्। अन्योन्यमिथुनाह्येते ह्यन्योन्यमुपजीविनः।
क्षणं वियोगो न ह्येषान्न त्यजन्ति परस्परम् ॥1.5.17॥
ईश्वरो हि परो देवो विष्णुस्तु महतः परः । ब्रह्मा तु रजसोद्रिक्तः सर्गायेह प्रवर्त्तते।
परश्च पुरुषो ज्ञेयः प्रकृतिश्च परा स्मृता ॥1.5.18॥
…
पुरा सलिल के उल्लेख के साथ ही प्रथम अवतार वाराह का मही के उद्धारकर्ता के रूप में उल्लेख किया गया है :
ब्रह्मा तु सलिले तस्मिन् वायुर्भूत्वा तदाचरत्। निशायामिव खद्योतः प्रावृट्काले ततस्ततः ॥7॥
ततस्तु सलिले तस्मिन् विज्ञायान्तर्गतां महीम्। अनुमानादसंमूढो भूमेरुद्धरणं प्रति ॥8॥
…
सलिलेनाप्लुतां बूमिं दृष्ट्वा स तु समन्ततः। किन्रु रूपं महत् कृत्वा उद्धरेयमहं महीम् ॥
जलक्रीडासु रुचिरं वाराहं रूपमस्मरत् । अधृष्यं सर्व्वभूतानां वाङ्मयं धर्मसंज्ञितम् ॥1.6.11॥
इस पुराण के वर्ण्य विषय के कुछ प्रासङ्गिक चरण इस प्रकार हैं जिनमें स्पष्टत: शैव शाक्त मतों की प्रतिष्ठा परिलक्षित होती है। अर्द्धनारीश्वर एवं देवी रूप उल्लेखनीय हैं : मानसपुत्रों के पश्चात ब्रह्मा के सामने अर्द्धनारी रूप का आना, उन्हें कहना कि स्वयं को विभक्त करो, ब्रह्मा द्वारा स्वयं का विभाजन, पुरुष भाग से 11 की उत्पत्ति, उनसे सृष्टि का विस्तार करने को कहना – जगतोबहुलीभावमधिकृत्य, 11 का रोना, रुद्र नाम पड़ना। शंकरार्द्ध शरीरिणी देवी की उत्पत्ति – वाम भाग असित, दक्षिण कृष्ण। उन देवियों के देह विभाजन से अनेक देवियों की उत्पत्ति। भद्रकाली स्तव। मानस पुत्र आदि।
आगे अन्यत्र महेश्वर अण्ड से ब्रह्मा एवं उनसे समस्त चराचर जीव की उत्पत्ति बतायी गयी है।
योगी स्वरूप महेश्वर एवं विष्णु का यह सम्बंध रोचक है:
[अध्याय 20]
तस्मात् त्रिषवणं योगी उपासीत महेश्वरम् । दशविस्तारकं ब्रह्म तथा च ब्रह्म विस्तरम् ॥32॥
ओङ्कारं सर्वतः काले सर्वं विहितवान् प्रभुः । तेन तेन तु विष्णुत्वं नमस्कारं महायशाः ॥33॥
[अध्याय 21]
कथं च विष्णो रुद्रेण सार्द्धं प्रीतिरनुत्तमा। सर्वे विष्णुमया देवा सर्वे विष्णुमया गणाः ॥6॥
न च विष्णुसमा काचिद्गतिरन्या विधीयते। इत्येवं सततं देवा गायन्ते नात्र संशयः।
भवस्य सकथं नित्यं प्रणामं कुरुते हरिः ॥7॥
अयं यो वर्त्तते कल्पो वाराहः स तु कीर्त्त्यते। यस्मिन् स्वायम्भुवाद्याश्च मनवश्च चतुर्द्दश ॥21॥
॥ऋषय ऊचुः॥
कस्माद्वाराहकल्पोयं नामतः परिकीर्तितः। कस्माच्च कारणाद्देवो वराह इति कीर्त्त्यते ॥22॥
को वा वराहो भगवान् कस्य योनिः किमात्मकः। वराहः कथमुत्पन्न एतदिच्छाम वेदितुम् ॥23॥
॥वायुरुवाच॥
वराहस्तु यथोत्पन्नो यस्मिन्नर्थे च कल्पितः। वाराहश्च यथा कल्पः कल्पत्वं कल्पना च या ॥24॥
कल्पयोरन्तरं यच्च तस्य चास्य च कल्पितम्। तत्सर्वं सम्प्रवक्ष्यामि यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥25॥
द्वाविंशस्तु तथा कल्पो विज्ञेयो मेघवाहनः। यत्र विष्णुर्महाबाहुर्मेघो भूत्वा महेश्वरम्।
दिव्यं वर्षसहस्रन्तु अवहत् कृत्तिवाससम् ॥46॥
इस पुराण की कल्पकथायें शिव केंद्रित हैं, ब्रह्मा भी हैं किंतु विष्णु नहीं। महेश्वर ही विष्णु का प्रवेश कराते हैं:
साध्यो नारायणश्चैव विष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः । भविष्यतीह नाम्ना तु वाराहो नाम विश्रुतः ॥1.23.95॥
चतुर्वाहुश्चतुष्पादशचवतुर्नेत्रश्चतुर्मुखः। तदा संवत्सरो भूत्वा यज्ञरूपी भविष्यति।
षडङ्गश्च त्रिशीर्षश्च त्रिस्थाने त्रिशरीरवान् ॥96॥
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चैव चतुर्युगम्। एतस्य पादाश्चत्वारः अङ्गानि क्रतवस्तथा ॥97॥
भुजाशचव वेदाश्चत्वारो ऋतुः सन्धिमुखानि च। द्वे मुखे द्वे च अयने नेत्राश्च चतुरस्तथा ॥98॥
शिरांसि त्रीणि पर्वाणि फाल्गुन्याषाढकृत्तिकाः। दिव्यान्तरिक्षभौमानि त्रीणि स्थानानि यानि तु।
सम्भवः प्रलयश्चैव आश्रमौ द्वौ प्रकीर्त्तितौ ॥99॥
स यदा कालरूपाभो वराहत्वे व्यवस्थितः। भविष्यति यदा साध्यो विष्णुर्नारायणः प्रभुः ॥1.23.100॥
तदा त्वमपि देवेश चतुर्व्वक्रो भविष्यसि। ब्रह्मलोकनमस्कार्यो विष्णुर्नारायणः प्रभुः ॥101॥
एकार्णवे प्लवे चैव शयानं पुरुषं हरिम्। यदा द्रक्ष्यसि देवेशं ध्यानयुक्तं महामुनिम् ॥102॥
तदावां मम योगेन मोहितौ नष्टचेतसौ। अन्योन्यस्पर्द्धिनौ रात्रावविज्ञाय परस्परम् ॥103॥
एकैकस्योदरस्थांस्तु दृष्ट्वा लोकांश्चराचरान्। विस्मयं परमं गत्वा ध्यानाद्बुह्द्वा तु मानुषौ ॥104॥
ततस्त्वं पझसंभूतः पझनाभः सनातनः। पझाङ्कितस्तदा कल्पे ख्यातिं यास्यसि पुष्कलाम् ॥105॥
23 वें अध्याय में व्यास के साथ साथ शंकर के अवतारों की कथा है। 28 वें द्वापर में विष्णु अवतारी कृष्ण उपस्थित होते हैं :
अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्त्ते क्रमागते। पराशरसुतः श्रीमान् विष्णुर्लोकपितामहः ॥206॥
यदा भविष्यति व्यासो नाम्ना द्वैपायनः प्रभुः। तदा षष्ठेन चांशेन कृष्णः पुरुषसत्तमः।
वसुदेवाद्यदुश्रेष्ठो वासुदेवो भविष्यति ॥207॥
…
इत्येतद्वै मया प्रोक्तमवतारेषु लक्षणम्। मन्वादिकृष्णपर्यन्तमष्टाविंशयुगक्रमात्।
तत्र स्मृतिसमूहानां विभागो धर्मलक्षणम् ॥214॥
इसी अध्याय में देवी रूपों सरस्वती, महेश्वरी सावित्री आदि से चौपाये एवं दोपायों का सम्बंध बताया गया है। 24 वें अध्याय में विष्णु एवं ब्रह्मा नाटकीय संवाद द्वारा शिव की महिमा बखानते हैं। इसी में विष्णु द्वारा शिव की लम्बी स्तुति है जो शार्वस्तव नाम से जानी जाती है। आगे ब्रह्मा की देह से एकादश रुद्र की उत्पत्ति बतायी गयी है। 26 वें अध्याय में ओङ्कार विषयक स्थापनायें हैं, महादेव के कलि अवतारों की बात है। वेदों की प्रत्येक संहिता के प्रथम मंत्र दे उत्पत्ति विषयक चर्चा भी है। तीसवाँ अध्याय देवी के विविध रूपों पर भी केंद्रित होता है:
सा तु देवी सती पूर्वं ततः पश्चादुमाऽभवत्। सह व्रता भवस्यैषा न तया मुच्यते भवः।
यावदिच्छति संस्थातुं प्रभुर्मन्वन्तरेष्विह ॥71॥
मारीचं कश्यपं देवी यथाहितिरनुव्रता। साध्यं नारायणं श्रीस्तु मघवन्तं शची यथा ॥72॥
विष्णुं कीर्ती रुचिः सूर्यं वसिष्ठञ्चाप्यरून्धती। नैतास्तु विजहत्येतान् भर्तॄन् देव्यः कथंचन।
आवर्त्तमानकल्पेषु पुनर्जायन्ति तैः सह ॥73॥
बत्तीसवें अध्याय में राम जामदग्नेय द्वारा विधवा बना दी गयी क्षत्राणियों के कुलटा होने का उल्लेख है:
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रे निरवशोषिते। क्रियन्ते कुलटाः सर्वाः क्षत्रियैर्वसुधाधिपैः।
48वें अध्याय के द्वीप वर्णन में वाराह द्वीप का भी वर्णन हुआ है जिसके निवासी विष्णु अवतारी वाराह के उपासक हैं:
वाराहरूपिणे तत्र विष्णवे प्रभविष्णवे। अनन्यदेवतास्तस्मै नमस्कुर्वन्ति विप्रजाः ॥1.48.40॥
चौवनवें अध्याय में शिव नर नारायण रूप बताये गये हैं:
चिन्त्याय चैवाचिन्त्याय चिन्त्याचिन्त्याय वै नमः। भक्तानामार्तिनाशाय नरनारायणाय च ॥74॥
…
त्वमेव विष्णुश्चतुराननस्त्वं त्वमेव मृत्युर्वरदस्त्वमेव। त्वमेव सूर्यो रजनीकरश्च त्वमेव भूमिः सलिलं त्वमेव ॥98॥
रुद्र आराधना की कड़ी में ही 55 वाँ अध्याय शिवलिङ्ग को समर्पित है जिसे वामन रूप धारी विष्णु द्वारा कथित बताया गया है :
पूर्वं त्रैलोक्यविजये विष्णुना समुदाहृतम्। बलिं बद्ध्वा महौजास्तु त्रैलोक्याधि पतिः पुरा ॥3॥
बुद्ध का उल्लेख न करने पर भी इस पुराण के 57 वें अध्याय में याज्ञिक हिंसा का विरोध उल्लेखनीय है। 32 श्लोकों में पशु हिंसा का विरोध एवं उस पर विमर्श है। वैदिक ऋचाओं के हिंसात्मक अर्थ बताने पर राजा वसु ऋषियों द्वारा पतित कर दिया जाता है। इस उदाहरण के साथ यह कहा गया है कि धर्म की गति सूक्ष्म है, विद्वान होने पर भी धर्म पर निश्चयात्मक व्यवस्था नहीं देनी चाहिये। स्वायम्भु मनु के अतिरिक्त कोई ऋषि या कोई देवता धर्म सम्बंधी निर्णय नहीं दे सकता।
इसी कारण महर्षियों ने जीवहिंसा को धर्म का द्वार नहीं माना तथा सत्कर्मों के प्रभाव से ही सहस्रों ने स्वर्ग प्राप्त किया। याज्ञिक दानों की अनावश्यक प्रशंसा महर्षि गण नहीं करते एवं सामर्थ्य भर तुच्छ फल मूल, शाक इत्यादि का दान कर तपस्वी स्वर्गीय प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। यज्ञ से तप की श्रेष्ठता बतायी गयी है :
अध्वर्यवः प्रैषकाले व्युत्थिता ये महर्षयः। महर्षयस्तु तान् दृष्ट्वा दीनान् पशुगणान् स्थितान् ।
पप्रच्छुरिन्द्रं सम्भूय कोऽयं यज्ञविधिस्तव ॥97॥
अधर्मो बलवानेष हिंसाधर्मेप्सया तव। नेष्टः पशुवधस्त्वेष तव यज्ञे सुरोत्तम ॥98॥
अधर्मो धर्मगाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया। नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म उच्यते ॥99॥
आगमेन भवान् यज्ञं करोतु यदिहेच्छसि। विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्ममव्ययहेतुना।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ येषु हिंसा न विद्यते ॥1.57.100॥
त्रिवर्षपरमं कालमुषितैरप्ररोहिभिः। एष धर्मो महानिन्द्र स्वयम्भुविङितः पुरा ॥101॥
…
तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्मः शक्यस्तु केनचित्। देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम् ॥113॥
तस्मान्न हिंसाधर्मस्य द्वारमुक्तं महर्षिभिः। ऋषिकोटिसहस्राणि कर्मभिः स्वैर्दिवं ययुः ॥114॥
तस्मान्न दानं यज्ञं वा प्रशंसन्ति महर्षयः। तुच्छं मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः।
एवं दत्त्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः ॥115॥
यह प्रसङ्ग महाभारत में भी मिलता है।
अट्ठावनवें अध्याय में कलियुगांत के समय चमकते दाँतों वाले मुण्डितशिर काषायवस्त्र धारी शूद्रों द्वारा जितेंद्रिय होने एवं धर्म मार्ग पर चलने के निश्चयकथन का उल्लेख है जोकि स्पष्टत: बौद्धों को इङ्गित करता है :
शुक्लदन्ता जिताक्षाश्च मुण्डाः काषायवाससः। शूद्रा धर्मञ्चरिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ॥59॥
भृगुओं के वर्चस्व को चिह्नित करता एक प्रसङ्ग युगसंधि में उनके निधन पश्चात चंद्रमस गोत्र के राजा प्रमति का भी है जो विष्णु अंश है एवं धरा से सभी अवांछित तत्त्वों का संहार करता है :
एवं सन्ध्यांशके काले सम्प्राप्ते तु युगान्तिके। तेषां शास्ता ह्यसाधूनां भृगूणां निधनोत्थितः ॥75॥
गोत्रेण वै चन्द्रमसो नाम्ना प्रमितिरुच्यते। माधवस्य तु सोंशेन पूर्वं स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥76॥
(विद्वानों द्वारा प्रमति का वस्तुत: चन्देल परमर्दिदेव होना बताया गया है।)
साठवें अध्याय में विष्णु अंश द्वैपायन के व्यास बनाये जाने का उल्लेख है:
अस्मिन् युगे कृतो व्यासः पाराशर्यः परन्तपः। द्वैपायन इति ख्यातो विष्णोरंशः प्रकीर्तितः ॥11॥
पूर्वार्द्ध के अवतार सम्बंधित प्रसङ्गों के पश्चात इस पुराण का उत्तरार्द्ध देखते हैं।
उत्तरार्द्ध के 36 वें अध्याय में यज्ञादि के लुप्त होने पर भृगु के शाप के निमित्त विष्णु के बारम्बार अवतारों का उल्लेख है:
ततः प्रभृति शापेन भृगुनैमित्तिकेन च ॥68॥
जज्ञे पुनः पुनर्विष्णुर्यज्ञे च शिथिले प्रभुः । कर्त्तुं धर्म्मव्यवस्थानमधर्म्मस्य च नाशनम् ॥69॥
आगे दशावतारों का उल्लेख इस प्रकार है:
धर्म्मान्नारायणस्तस्मान् सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे । यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये (वैन्ये) वैवस्वतेऽन्तरे ॥71॥
प्रादुर्भावे तदान्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः । चतुर्थ्यान्तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ ॥72॥
सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे । द्वितीयो नरसिंङोऽभूद्रुद्रः सुरपुरस्सरः ॥73॥
…
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे । दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत् ॥74॥
…
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह । नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्कण्डेयपुरःसरः ॥88॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह । मान्धातुश्चक्रवर्त्तित्वे तस्थौ तथ्यपुरःसरः ॥89॥
एको नविंशे त्रेतायां सर्व्वक्षत्रान्तकोऽभवत् । जामदग्न्यस्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरःसरः ॥2.36.90॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा । सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः ॥91॥
अष्टमो द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पराशरात् । वेदव्यासस्ततो जज्ञे जातूकर्णपुरःसरः ॥92॥
तथैव नवमो विष्णुरदित्याः कश्यपात्मजः । देवक्यां वसुदेवात्तु ब्रह्नगार्ग्यपुरःसरः ॥93॥
{कृष्ण की विस्तार से चर्चा}
एते लोकहितार्थाय प्रादुर्भावा महात्मनः । अस्मिन्नेव युगे क्षीणे सन्ध्या श्लिष्टे भविष्यति ॥103॥
कल्किर्विष्णुयशा नाम पाराशर्यः प्रतापवान् । दशमो भाव्यसम्भूतो याज्ञवल्क्यपुरःसरः ॥104॥
इस प्रकार हम पाते हैं कि वायु पुराण की दशावतार सूची का आरम्भ वाराह रूप से है, यद्यपि उन्हें हिरण्याक्ष के स्थान पर हिरण्यकशिपु का का वधकर्ता बताया गया है (पुराणों में ऐसे भेद या त्रुटियाँ मिलती हैं)। मत्स्य एवं कूर्म अवतार नहीं हैं। दत्तात्रेय, मांधाता एवं वेदव्यास दशावतार में सम्मिलित हैं, बुद्ध नहीं हैं।
ब्रह्म पुराण :
ब्रह्मपुराण के बारे में ऊपर, भूमिका में बताया जा चुका है। इसे भी नैमिषारण्य के बारह वर्ष लम्बे चले सत्र में लोमहर्षण ने उपस्थित जन को सुनाया था, ऐसा लिखा है। भिन्न भिन्न प्रतियाँ (125 से 246 अध्याय) उपलब्ध होने से अध्यायों के क्रम में विपर्यय है।
पूजा विधि के आवाहन मंत्र में मीन, वराह, नरसिंह एवं वामन अवतारों का उल्लेख है, मीन के स्थान पर भीम पाठ भी मिलता है जिसे वराह के भीमकाय रूप हेतु मान सकते हैं। मीन एवं वराह के बीच कूर्म के न होने से भीम पाठ उचित लगता है – मीनरूपो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः।
इस पुराण में सप्त ब्रह्मपुत्र के साथ गिनाये गये नदी नाम दर्शनीय हैं जो लगभग सम्पूर्ण भारत के भूगोल को समाहित कर लेते हैं:
गङ्गायां सर्वतीर्थेषु यामुनेषु च भो द्विजाः । सारस्वतेषु गोमत्यां ब्रह्मपुत्रेषु सप्तसु ॥ 64.10 ॥
गोदावरी भीमरथी तुङ्गभद्रा च नर्मदा । तापी पयोउष्णी कावेरी शिप्रा चर्मण्वती द्विजाः ॥ 64.11 ॥
वितस्ता चन्द्रभागा च शतद्रुर्बाहुदा तथा । ऋषिकुल्या कुमारी च विपाशा च दृषद्वती ॥ 64.12 ॥
शरयूर्नाकगङ्गा च गण्डकी च महानदी । कौशिकी करतोया च त्रिस्रोता मधुवाहिनी ॥ 64.13 ॥
महानदी वैतरणी याश्चान्या नानुकीर्तिताः ।
इस पुराण में बलि की कथा के साथ साथ दाशरथि राम एवं कृष्ण की भी रञ्जक कथायें विविध प्रकरणों के ब्याज से आई हैं।
इंद्र द्वारा की गयी एक स्तुति में दश अवतारों के नाम आते हैं जिसमें बुद्ध का उल्लेख मात्र है:
नमो मत्स्याय 1 कूर्माय 2 वराहाय 3 नमो नमः ।
नरसिंहाय 4 देवाय वामनाय 5 नमो नमः ॥ 122.68 ॥
नमोऽस्तु हयरूपाय 6 त्रिविक्रम नमोऽस्तु ते ।
नमोऽस्तु बुद्धरूपाय 7 रामरूपाय 8 कल्किने 9 ॥ 122.69 ॥
अनन्तायाच्युतायेश जामदग्न्याय 10 ते नमः ।
बुद्ध दाशरथि राम से पूर्व एवं जामदग्न्य राम सबसे अन्त में आये हैं।
व्यास द्वारा ऋषियों को सुनाये गये ये कुछ अवतार हैं:
यदा यदा च धर्मस्य ग्लानिः समुपजायते ॥ 180.26 ॥
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजत्यसौ । भूत्वा पुरा वराहेण तुण्डेनापो निरस्य च ॥ 180.27 ॥
एकया दंष्ट्रयोत्खाता नलिनीव वसुंधरा । कृत्वा नृसिंहरूपं च हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ 180.28 ॥
विप्रचित्तिमुखाश्चान्ये दानवा विनिपातिताः । वामनं रूपमास्थाय बलिं संयम्य मायया ॥ 180.29 ॥
त्रैलोक्यं क्रान्तवानेव विनिर्जित्य दितेः सुतान् । भृगोर्वंशे समुत्पन्नो जामदग्न्यः प्रतापवान् ॥ 180.30 ॥
जघान क्षत्रियान् रामः पितुर्वधमनुस्मरन् । तथात्रितनयो भूत्वा दत्तात्रेयः प्रतापवान् ॥ 180.31 ॥
योगमष्टाङ्गमाचख्यावलर्काय महात्मने । रामो दाशरथिर्भूत्वा स तु देवः प्रतापवान् ॥ 180.32 ॥
जघान रावणं संख्ये त्रैलोक्यस्य भयंकरम् । यदा चैकार्णवे सुप्तो देवदेवो जगत्पतिः ॥ 180.33 ॥
सहस्रयुगपर्यन्तं नागपर्यङ्कगो विभुः । योगनिद्रां समास्थाय स्वे महिम्नि व्यवस्थितः ॥ 180.34 ॥
अवतारो ह्यजस्येह माथुरः सांप्रतस्त्वयम् ॥ 180.39 ॥
इति सा सात्त्विकी मूर्तिरवतारं करोति च । प्रद्युम्नेति समाख्याता रक्षाकर्मण्यवस्थिता ॥ 180.40 ॥
इसमें भी मत्स्य, कूर्म एवं बुद्ध अवतार नहीं हैं।
आगे के अध्यायों में पुराणकार भगवद्गीता से प्रेरित प्रस्तावना के साथ कृष्णावतार का विस्तार से वर्णन करते हैं।
यदा यदा त्वधर्मस्य वृद्धिर्भवति भो द्विजाः । धर्मश्च ह्रासमभ्येति तदा देवो जनार्दनः ॥ 181.2 ॥
अवतारं करोत्यत्र द्विधा कृत्वात्मनस्तनुम् । साधूनां रक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ॥ 181.3 ॥
दुष्टानां निग्रहार्थाय अन्येषां च सुरद्विषाम् । प्रजानां रक्षणार्थाय जायतेऽसौ युगे युगे ॥ 181.4 ॥
213 वें अध्याय में महावराह अवतार के कथा के पश्चात ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्रभावित स्तुति मिलती है:
सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम् । सहस्रशिरसं देवं सहस्रकरमव्ययम् ॥ 213.12 ॥
सहस्रजिह्वं भास्वन्तं सहस्रमुकुटं प्रभुम् । सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम् ॥ 213.13 ॥
हवनं सवनं चैव होतारं हव्यमेव च । पात्राणि च पवित्राणि वेदिं दीक्षां समित्स्रुवम् ॥ 213.14 ॥
इसी अध्याय में पौष्कर अवतार से आरम्भ कर 9 अवतारों का वर्णन मिलता है:
पुरा कमलनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि । पुष्करे तत्र संभूता देवाः सर्षिगणास्तथा ॥ 213.30 ॥
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः । पुराणं कथ्यते यत्र देवश्रुतिसमाहितम् ॥ 213.31 ॥ [1]
वाराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भावो महात्मनः । यत्र विष्णुः सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः ॥ 213.32 ॥ [2]
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वाराह एष कथितो नारसिंहस्ततो द्विजाः । यत्र भूत्वा मृगेन्द्रेण हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ 213.43 ॥ [3]
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नृसिंह एष कथितो भूयोऽयं वामनः परः । यत्र वामनमास्थाय रूपं दैत्यविनाशनम् ॥ 213.80 ॥ [4]
बलेर्बलवतो यज्ञे बलिना विष्णुना पुरा । विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्याः क्षोभितास्ते महासुराः ॥ 213.81 ॥
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एष वो वामनो नाम प्रादुर्भावो महात्मनः । वेदविद्भिर्द्विजैरेतत्कथ्यते वैष्णवं यशः ॥ 213.105 ॥
भूयो भूतात्मनो विष्णोः प्रादुर्भावो महात्मनः । दत्तात्रेय इति ख्यातः क्षमया परया युतः ॥ 213.106 ॥ [5]
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एष वो वैष्णवः श्रीमान् प्रादुर्भावोऽद्भुतः शुभः । भूयश्च जामदग्न्योऽयं प्रादुर्भावो महात्मनः ॥ 213.113 ॥ [6]
यत्र बाहुसहस्रेण द्विषतां दुर्जयं रणे । रामोऽर्जुनमनीकस्थं जघान नृपतिं प्रभुः ॥ 213.114 ॥
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कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा । त्रिः सप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रिया कृता ॥ 213.117 ॥
कृत्वा निःक्षत्रियां चैनां भार्गवः सुमहायशाः । सर्वपापविनाशाय वाजिमेधेन चेष्टवान् ॥ 213.118 ॥
यस्मिन् यज्ञे महादाने दक्षिणां भृगुनन्दनः । मारीचाय ददौ प्रीतः कश्यपाय वसुंधराम् ॥ 213.119 ॥
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एष विष्णोः सुरेशस्य शाश्वतस्याव्ययस्य च । जामदग्न्य इति ख्यातः प्रादुर्भावो महात्मनः ॥ 213.123 ॥
चतुर्विंशे युगे वापि विश्वामित्रपुरःसरः । जज्ञे दशरथस्याथ पुत्रः पद्मायतेक्षणः ॥ 213.124 ॥ [7]
कृत्वात्मानं महाबाहुश्चतुर्धा प्रभुरीश्वरः । लोके राम इति ख्यातस्तेजसा भास्करोपमः ॥ 213.125 ॥
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अपरः केशवस्यायं प्रादुर्भावो महात्मनः । विख्यातो माथुरे कल्पे सर्वलोकहिताय वै ॥ 213.159 ॥ [8]
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एष लोकहितार्थाय प्रादुर्भावो महात्मनः । कल्की विष्णुयशा नाम शम्भलग्रामसंभवः ॥ 213.164 ॥
सर्वलोकहितार्थाय भूयो देवो महायशाः । एते चान्ये च बहवो दिव्या देवगणैर्वृताः ॥ 213.165 ॥ [9]
इंद्र की स्तुति में बुद्ध को मिलाने पर ही दस की संख्या पूरी होती है। वर्णन का प्रवाह देखें तो लगता है कि बुद्ध का नाम रहा होगा, कालांतर में निकाल दिया गया।
इस प्रकार ब्रह्माण्ड, वायु एवं ब्रह्म पुराणों से निम्न सङ्केत स्पष्ट होते हैं :
(1) तीनों में दशावतार तो है किंतु मत्स्य एवं कूर्म नहीं हैं तथा बुद्ध या तो लुप्त हैं या उन्हें हटा दिया गया है। नाम निर्धारण अभी भी संक्रमण की स्थिति में है।
(2) कृष्ण की महिमा सबमें बढ़ चढ़ कर है। ग्यारहवीं सदी के क्षेपक द्वारा ब्रह्माण्ड पुराण में राधा की महनीयता स्थापित करने के साथ साथ किसी जातिवादी पुराणकार ने राम जामदग्नेय को बर्बर परशुराम के रूप में चित्रित किया है जो प्रतिहिंसा के प्रभाव में निर्दोषों का वध करते दर्शाये गये हैं। मृत जनों की विधवाओं के प्रति घृणित मानसिकता भी अभिव्यक्त हुई है।
(3) तीनों पुराणों में राम जामदग्नेय को प्रतिहिंसक द्वेषी दर्शाया गया है जिसका विस्तृत विवरण ब्रह्माण्ड पुराण में अन्यत्र कहीं से ला कर जोड़ा गया है। इसकी पूरी सम्भावना है कि उस स्वतंत्र पाठ को विकृत करने के पश्चात जोड़ा गया।
(4) वैष्णवों में भीतर ही नयी स्थापनाओं हेतु संघर्ष के भी पर्याप्त चिह्न उपस्थित हैं।
(5) राधा कृष्ण को स्थापित करते हुये पुराणकार समकालीन शैव, शाक्त, स्कंद, पुरातन वैष्णव, गाणपत्य, पाञ्चरात्र आदि मतवादों से समन्वय करते चले हैं।
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