हमारा देश कहानियों का देश है। न जाने कितनी कहानियों में यह देश है और न जाने कितनी कहानियाँ इस देश में हैं। यहाँ कहानियों से बातें और बातों से कहानियाँ निकलती हैं। बड़े-बड़े साहित्यकारों से ले कर साधारण गँवई तक, सबके पास अपनी कहानियाँ हैं। इस देश में किसी के पास और कुछ हो, न हो, सबके पास एक कहानी अवश्य है। हमारा देश कहानियों में सोचता है, कहानियों में जीता है।
किन्तु कुछ कहानियाँ मात्र कहानियाँ नहीं होतीं! कुछ कहानियाँ शीर्षहीन कबंध भी होती हैं तो कुछ कबंधहीन बर्बरीक भी। कुछ कहानियाँ पहेलियाँ होती हैं तो कुछ उन पहेलियों के उत्तर। कुछ कहानियाँ तो बुभुक्षित वनराज का पञ्जा होती हैं, जिनके थाप की खरोंच पाठक को यावज्जीवन टीसती रहती है और कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जिनके पीछे अनेक कहानियाँ होती हैं और कहानियों के पीछे की वे कहानियाँ मंच पर कदाचित ही आती हैं, या आ ही नहीं पातीं।
दोष कहानियों का नहीं है। दोष कहानियों के पाठकों का भी नहीं है। दोष है, तो कहानियों को गढ़ने वाले का! दोष है, तो कहानीकार का! किन्तु कहानीकार के पास भी यह सब सोचने का समय नहीं होता। उसके पास अपना एक विचार होता है जिसे उसे कहानियों में ढालना होता है तथा इसके लिये उसके पास कुछ कल्पित या कुछ इतिहास से आहरित पात्र होते हैं जिनके अवलम्ब से वह कहानियाँ गढ़ता है और उसे अपनी कहानी में मात्र वह कहना होता है जो वह कहना चाहता है। अपने ‘श्वेत’ को उज्जवल और उज्जवलतर से बढ़ कर उज्जवलतम प्रदर्शित करने को वह ‘श्याम’ के मुख पर कालिमा की परतों पर परतें पोतने और पोतते ही जाने में किञ्चित भी संकोच नहीं करता क्योंकि उसकी ही कल्पना सत्य है और उसका ही सत्य अंतिम है।
लेखन एक गुरुतर दायित्व है क्योंकि लेखक को सामान्य-जन से अधिक प्रबुद्ध, अधिक प्रौढ़, अधिक सत्यनिष्ठ, अधिक निरपेक्ष, अधिक सचेतक, अधिक पथप्रदर्शक माना जाता है। आज तो ज्ञान-वारिधि में गोता लगाने का दुस्साहस करने वाले ही नहीं हैं, जिसे देखो वही किनारे से काँटा डाले अवसर-आधारित मीन-साधन करने में ही लाभ देख रहा है, किन्तु जब परिस्थितियाँ इतनी नकारात्मक नहीं थीं तब भी पूर्ववर्ती लेखन को प्रमाण के रूप में उद्धृत करने की परम्परा रही है। अतः बोले गये शब्दों का महत्व हो, न हो, लिखे शब्दों का अपना महत्व है, अपनी गरिमा है, और सजग लेखक इस तथ्य को जानता भी है तथा स्वीकार भी करता है।
किन्तु सारा दोष लेखक का ही नहीं होता! लेखक भी मनुष्य है और उसके अपने राग हैं, द्वेष हैं, धारणायें हैं, बुद्धि एवं मेधा की सीमा है, पक्षधरता है, और कोई भी मनुष्य इनसे विलग नहीं हो सकता चाहे वह ऋषि-तुल्य ही क्यों न हो! ऋषियों के भी अपने राग, द्वेष, धारणा, पक्षधरता आदि रहे हैं, अतः पाठक का भी दायित्व है कि वह लेखक की परिस्थितियों को, उसकी मानसिकता को, उसकी पक्षधरता को, कभी-कभी उसकी विवशता को, और कही जा रही कहानी के शब्दों के पीछे की अनकही कहानियों को भी समझने का और स्वविवेक से व्यक्त सत्य के पीछे के प्रच्छन्न सत्य तक, यदि ऐसा कोई सत्य है, पहुँचने का प्रयास करे। ऐसी ही एक कहानी है शुनःशेप आख्यान जो हरिश्चन्द्र आख्यान के नाम से भी जानी जाती है।
हरिश्चन्द्र आख्यान के रूप में दो समान्तर कथायें प्रचलित हैं। एक कथा में हरिश्चन्द्र के साथ अन्य मुख्य पात्रों में हैं विश्वामित्र, शुनःशेप तथा उसके लोभी पिता अजीगर्त तथा दूसरे में हैं हरिश्चन्द्र के साथ विश्वामित्र और वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट का डोम। दूसरी कथा अधिक प्रचलित है, बहुश्रुत है, बहुज्ञात है, किन्तु उस कथा के पात्र भले ऐतिहासिक हों, वह कथा ऐतिहासिक नहीं है। वह किसी भाव-प्रवण एवं कल्पनाशील कथाकार द्वारा एक निश्चित उद्देश्य हेतु गढ़ा हुआ कथानक है जिसके पात्र इतिहास से आहरित अवश्य हैं तथा यह कथा काव्य एवं नाट्य की दृष्टि से भले सफल हो, उसमें सत्यता का अंश शून्य है। वास्तव में यह कहना अधिक उचित होगा कि कथा कुछ-कुछ सत्य तो अवश्य है किन्तु वह उस रूप में नहीं है जिस रूप में वह प्रचलित है अतः हरिश्चन्द्र का विश्वामित्र को स्वप्न में दान देना, दक्षिणा के लिये पत्नी, पुत्र तथा स्वयं को भी बेचना, उनके पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु, शवदाह के समय उनका अपनी ही पत्नी से कराधान आदि प्रचलित कथा मात्र एक गल्प-आख्यान है। यद्यपि इस कथा का उद्देश्य कलुषित नहीं है क्योंकि यह कथा धर्म तथा कर्तव्य पर अडिग रहने की शिक्षा देती है, तब भी कथा के करुण दृश्यों की उत्पत्ति हेतु जो कारण तथा जो पात्र प्रयुक्त हुआ है वह अनुचित तथा आधारहीन है। यहाँ तक कि जिस हरिश्चन्द्र घाट का पौराणिक महत्व वर्णित करने में लेखनियाँ घिस गयी हैं वह हरिश्चन्द्र घाट भी पौराणिक काल का नहीं है और न ही वहाँ का श्मशान ही कोई जाग्रत श्मशान है और यही कारण है कि तंत्र-साधना हेतु इस श्मशान को कोई महत्व प्राप्त नहीं है।
हरिश्चन्द्र से सम्बंधित जो शुनःशेप वाली पहली कथा है वह ऐतिहासिक है, उसके पात्र ऐतिहासिक हैं किन्तु कथा यह भी उस रूप में सत्य नहीं है जिस रूप में यह लिखित है या जिस रूप में प्रचलित है। प्रसिद्धि इस कथा की भी अल्प नहीं है। भले यह कथा बहुश्रुत तथा बहुज्ञात न हो, तो भी इस कथा ने शुनःशेप तथा उसके पिता को एक किम्वदंती तो बना ही दिया है। किस प्रकार एक लोभी ब्राह्मण पिता मात्र कुछ गायों के लिये अपने पुत्र को बलि हो जाने देने के लिये बेच देता है, कैसे वह पुत्र देवताओं की प्रार्थना कर के मुक्त होता है तथा तत्पश्चात वह पुत्र अपने ही पिता को पिता मानने से मना कर देता है तथा विश्वामित्र को अपना पिता मान लेता है आदि करुण आख्यान पाठक, श्रोता, दर्शक को द्रवित करते हैं जो कथाकार की सफलता है, किन्तु इस प्रचलित कथा ने एक महान सत्य को किस प्रकार अंधकार में धकेल दिया है इसका किसी को आभास तक नहीं है।
इन दोनों कथाओं ने कवियों, लेखकों, नाटककारों आदि को बहुत आकर्षित किया है और इन दोनों कथाओं की भित्ति पर अनेक कविताओं, कहानियों, नाटकों आदि की रचना हुई है किन्तु वे सब उसी प्रचलित कथा के अविकल रूपांतरण हैं, भाषा तथा शैली भले रचनाकार की अपनी हो। हिन्दी साहित्य के दो मूर्धन्य रचनाकार श्री जयशंकर प्रसाद तथा श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इन दोनों कथाधाराओं में से एक-एक को चुन कर अपनी प्रसिद्ध रचनायें की हैं। शुनःशेप की कथा को आधार बना कर जयशंकर प्रसाद ने ‘करुणालय’ नामक चार अंकों का गीतिनाट्य रचा है तथा दान-दक्षिणा, पुत्र-पत्नी सहित हरिश्चन्द्र का स्वयं का विक्रय तथा श्मशान में कराधान आदि वाली कथा को आधार बना कर भारतेन्दु ने ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नामक नाटक लिखा है। इन के अतिरिक्त भी हर वह लेखक जो इन दोनों कथाओं से प्रभावित हुआ उसने अपनी रचनाओं में इनका सीधे या प्रकारान्तर से उपयोग किया और शनैः शनैः ये दोनों कथायें इतनी रूढ़ हो गयीं कि इनके पीछे का सत्य अब ढंग से साँस भी नहीं ले पाता।
हरिश्चन्द्र घाट पर डोम राजा के भृत्य बने राजा हरिश्चन्द्र की घटना कथा-कहानियों में कब आ गयी यह स्पष्ट बताना कठिन है किन्तु कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं कि यह कथा भारतीय इतिहास के मध्य काल में गढ़ी गयी जब कान्यकुब्ज अधीश्वर ‘जयित्रचन्द्र’ (जयचन्द) अपनी अपरूप सौन्दर्यमयी रक्षिता ‘सूहव देवी’ की दुरभिसंधि के कारण चन्दावर (आज का फिरोजाबाद) के युद्ध में पराजित हुआ। बूढ़े सिंह जयित्रचन्द्र के अवसान के पश्चात उसके सूहव देवी से उत्पन्न निर्वीर्य पुत्र ‘हरिश्चन्द्र’ ने ‘गोरी’ की अधीनता स्वीकार कर ली। हरिश्चन्द्र का गोरी की अधीनता स्वीकार करना जनता को भला नहीं लगा तथा ‘हरिश्चन्द्र डोम के हाथ बिक गया’ यह निन्दात्मक वाक्य सारे देश में प्रचलित हो गया, तब सूहव देवी के ‘जयित्रचन्द्र’ के औरस से उत्पन्न पुत्र ‘हरिश्चन्द्र’ को इस निन्दात्मक वाक्य की छाया से निकालने हेतु ‘सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्र’ से ‘ऋषि विश्वामित्र’ के माँगे गये दान की घटना का सहारा ले कर ‘सूर्यवंशी हरिश्चन्द्र’ का ‘काशी के डोम के हाथों बिकना’ वाला रूपक गढ़ दिया गया तथा इस प्रकार यह मिथ्या-आख्यान अस्तित्व में आया अतः इस कथा की चर्चा तो व्यर्थ है। किन्तु शुनःशेप की कथा, जिसे संभवतः अधिक लोग नहीं जानते, उसका दुहराना अनुचित न होगा। वैसे भी, जो कथा अनेक बार अनेकों द्वारा अनेकों प्रकार से दुहराई जा चुकी हो, उसके एक बार और दुहराव से हानि ही क्या है?
शुनःशेप आख्यान का विस्तृत तथा सुगठित वर्णन ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ के तैंतीसवे अध्याय में है और वही इस प्रचलित कथा का मूल है। अब चूँकि इस आलेख का आधार यही कथा है तो मूल कथा में मेरी अपनी छौंक-बघार के साथ संक्षेप में यह कथा कुछ इस प्रकार है –
‘सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत’ के पुत्र ‘राजा हरिश्चन्द्र’ की सौ रानियाँ थीं किन्तु उन्हें किसी भी रानी से कोई पुत्र न था। अब पुत्र शब्द का तो अर्थ ही है – ‘जो पुं नामक नरक से त्राण दे!’ तो राजा हरिश्चन्द्र की चिन्ता का अन्त न था। ऐसे में एक दिन उनके पास ऋषि पर्वत तथा ऋषि नारद आये। राजा ने अपनी चिन्ता उन्हें बताई तो वे राजा को ढाढ़स क्या देते, और डरा दिया तथा अन्त में अभिमत दिया,“राजन! वरुण देव की उपासना करो! तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।”
लोककथाओं में नारद का कैसा चरित्र वर्णित है यह किसी से छिपा नहीं है। जिस घर के द्वार पर उनकी ढेंकी उतरी उसका सवा-सत्यानाश निश्चित है। राजा ने नारद की सलाह मान कर वरुण देव की उपासना की, और स्वस्फूर्त वचन दिया कि जो भी पुत्र उन्हें प्राप्त होगा उसे वे वरुण देव को समर्पित कर देंगे – पुत्रो मे जायतां तेन त्वा यजा इति। वरुण देव ने बात मान ली और समय आने पर राजा को पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम रोहित या रोहिताश्व रखा गया।
अब वरुण देव तो अड़ ही गये। इधर पुत्र उत्पन्न हुआ, उधर उनकी माँग आ गयी कि पुत्र को समर्पित करो! राजा ने कहा कि बलि-पशु भी यदि दस दिनों से कम का हो तो उसकी बलि नहीं देते, यह तो अभी जन्मा है। दस दिन पश्चात वरुण ने पुन: स्मरण कराया तो राजा ने कहा कि जब तक बलि-पशु के दाँत न निकलें तब तक उसकी बलि नहीं दी जाती, अभी रोहित के दाँत नहीं निकले। रोहिताश्व के दाँत भी निकल आये। वरुण ने पुनः स्मरण कराया तो राजा ने कहा,“उसके दूध के दाँत तो गिर जाने दीजिये!” रोहित के दूध के दाँत भी समय आने पर गिरे और वरुण की माँग पुनः उपस्थित! राजा ने कहा,“नये दाँत आ जाने दीजिये केवल!” रोहित के नये दाँत भी आ गये और साथ ही वरुण का तगादा भी – अब तो समर्पित करो! राजा ने कहा कि क्षत्त्रिय की बलि शस्त्रास्त्रों के साथ ही उचित है, अतः उसे शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने दें! रोहित ने शस्त्रास्त्रों का ज्ञान भी अर्जित कर लिया। अब राजा के पास कोई बहाना न था। उन्होंने रोहित को बुलाया और उसे बताया कि जिसकी कृपा से मैंने तुम्हें प्राप्त किया, मैं तुम्हें उसे ही समर्पित करता हूँ – पुत्रमामन्त्रयामास ततायं वै मह्यं त्वामददाद्धन्त त्वयाऽहमिमं यजा इति।
रोहित था राजपुत्र! उस पर युवा! उस पर तात्कालिक, जो प्रत्येक काल में न्यूनाधिक होती ही है, उस आधुनिकता का प्रतिनिधि! सूर्यवंश का सिंहासन जिसकी प्रतीक्षा कर रहा हो वह वरुण को समर्पित होने क्यों जाय? उसने समर्पित होने से मना कर दिया और राजदण्ड से रक्षा हेतु अपना धनुष ले कर अरण्य में चला गया और वहीं संवत्सर भर घूमता रहा।
वचन-भंग करने के कारण वरुण का कोप हरिश्चन्द्र पर ‘जलोदर’ रोग बन कर टूटा। रोहित ने सुना तो पिता के मोह में उनसे मिलने अरण्य से ग्राम की ओर चला। वह वन से लौट ही रहा था कि मार्ग में उसे पुरुष वेशधारी इन्द्र ने उसे चरैवेति की सूक्ति के साथ अविश्रान्त रहते हुये शाश्वत विचरण का उपदेश दिया –
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम। पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति॥
[हे रोहित! परिश्रम से थके व्यक्ति को ही विभिन्न प्रकार की श्री प्राप्त हो पाती है ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है। एक स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान् व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं। और विचरण में लगे जन का साथी तो इन्द्र होता है। अतः तुम चलते ही रहो! चर एव! चरैवेति!]
ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र की मन्त्रणा को आदर देते हुये रोहित घर लौटना स्थगित कर दूसरे संवत्सर भी विचरण करता रहा।
घर से भाग जाना और बात है किन्तु घर से भागे युवक को क्या-क्या भोगना पड़ता है यह वही जान सकता है जिसने कभी यह दुस्साहस किया हो। रोहित कोई कर्मकर या श्रमिक नहीं था! वह था राजा हरिश्चन्द्र का एकमात्र पुत्र! घाम-शीत से दूर पला एक सूर्यवंशी राजपुत्र! घर से भागने से पूर्व उसका जीवन सुख-सुविधाओं से भरा था। वर्ष भर और बीता कि उसका मन पुनः डिगने लगा। उसने पुनः घर लौटने का निश्चय किया किन्तु इन्द्र तो जैसे देवलोक का अपना सारा कार्य छोड़ कर रोहित के ही पीछे पड़े थे। वे मार्ग में पुनः ब्राह्मण वेश में रोहित से जा मिले और चरैवेति का एक पाठ पुनः पढ़ा दिया –
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः। शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
[ निरंतर चलने वाले की जंघायें पुष्पित होती हैं, (अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं) और उसका शरीर (बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी) फलग्रहण करता है। प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं (अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं)। अतः तुम चलते ही रहो, विचरण ही करते रहो! चर एव! चरैवेति!]
रोहित का मन दुविधा में रहा होगा! पिता के प्रति मोह और वरुणदेव को अर्पित हो जाने के भय के राग-विराग दोलन में इन्द्र की मन्त्रणा ने उसे अरण्य में ही विचरण करते रहने का विकल्प पुन: प्रदान कर दिया। चरैवेति चरैवेति का पालन करते तीसरा संवत्सर वर्ष बीत गया। लौटूँ कि न लौटूँ के असमञ्जस वाला रोहित पुन: अरण्य से ग्राम की ओर चल पड़ा किन्तु पुरुष वेशधारी श्रीमान इन्द्र जी ने पुनः उसे धर लिया और एक पाठ पुनः पिला दिया –
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः। शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति॥
[ जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका भग (भाग्य या सौभाग्य) भी रुका रहता है। जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है। जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है। और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है। इसलिए तुम विचरण ही करते रहो। चर एव! चरैवेति!]
असमंजस और अनिर्णय की मानसिकता से ग्रस्त रोहित! उसने घर लौटना पुनः स्थगित कर अपने सौभाग्य को गतिमान करने वन लौट गया। विचरण करते चौथा संवत्सर भी बीत गया, रोहित पुनः अरण्य से ग्राम की ओर चला कि मार्ग में ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने उसे पुनः घेर लिया –
कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति॥
[ शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सतयुग) के समान है। अतः तुम चलते ही रहो। चर एव! चरैवेति!]
रोहिताश्व जी कृतयुग होने की अभिलाषा में पुनः प्रत्यावर्तित हो गये। पाँच संवत्सर पश्चात वह पुनः घर लौटने को उद्यत हुये किन्तु सहस्राक्ष इन्द्र की दृष्टि से बचना इतना सरल कहाँ था? मार्ग में इन्द्र पुनः उपस्थित! और रोहिताश्व को एक बार पुनः घर न लौटने हेतु समझा ही लिया –
चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदुम्बरम् । सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
[ इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं। सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरण करते हुए किञ्चित भी आलस्य नहीं करता है। उसी प्रकार तुम भी चलते रहो! चर एव! चरैवेति!]
रोहित ने घर लौटना पुनः स्थगित कर दिया और भरपूर मधु एवं उदुम्बर खाने एक बार पुनः वन चला गया।
छह संवत्सर! किंकर्तव्यविमूढ़ मानसिकता में इक्ष्वाकुकुल का उत्तराधिकारी छह संवत्सर भर भटकता रहा और इन्द्र उसे भटकाते रहे। किन्तु छठे संवत्सर उसकी भेंट ‘सुयवस पुत्र अजीगर्त’, ऋषि अजीगर्त, निर्धन ऋषि अजीगर्त, आङ्गिरस अजीगर्त से हो गयी जिसके तीन पुत्र थे – शुनःपुच्छ, शुनःशेप तथा शुनःलाङ्गूल!
‘सुयवस’ का अर्थ है जिसके पास पर्याप्त ‘यव’ हो! नाम से तो यही प्रतीत होता है कि ऋषि सुयवस एक धनाढ्य व्यक्ति रहे होंगे किन्तु नाम का क्या है? परन्तु अजीगर्त शब्द का अर्थ है ‘जिसके पास निगलने तक को कुछ न हो!’ और अजीगर्त दरिद्र थे यह लिखित है। और अजीगर्त का एक अर्थ अजगर भी है। अब रहे अजीगर्त के तीन पुत्र! तो शुनः का अर्थ है श्वान! कुत्ता! और पुच्छ, शेप तथा लांगूल तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है – पूँछ। कैसा परिवार था? और कैसा वह ऋषि था जिसने अपने तीनों पुत्रों को एक ही नाम दिया और ऐसा नाम दिया – ‘कुत्ते की पूँछ’। ऐसे नाम अनायास न ही रखे जाते हैं न ही ऐसे नाम अनायास प्रचलित होते हैं! निश्चित ही तीनों ऋषिपुत्र कुत्ते की पूँछ की भांति कभी सीधे न हो सकने वाले टेंढ़े स्वभाव के रहे होंगे – हठी, क्रोधी, उद्दण्ड, स्वेच्छाचारी आदि-आदि! वैसे इन तीनों में शुनःशेप उजड्ड चाहे जितना रहा हो, था वह विद्वान् और बुद्धिमान। साथ ही वह कवि-हृदय भी था, भावुक भी था और संभवतः माता-पिता द्वारा उपेक्षित भी। एक तो मझला पुत्र वैसे ही माता-पिता के स्नेह का भाजन अल्प ही होता है, ऊपर से वह कविता भी करता था। कवियों तथा कवि-हृदयों को उपेक्षा तो भाग्य-प्रदत्त ही होती है। कौन जाने कि सत्य क्या था, किन्तु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह तो सत्य है कि अजीगर्त के तीनों पुत्रों के नाम यही थे – शुनःपुच्छ, शुनःशेप तथा शुनःलाङ्गूल।
रोहित राजपुत्र था। अपने अध्ययन-काल में उसने राजनीति भी सीखी ही होगी! उसने अजीगर्त की निर्धनता देखी और ‘को न याति वशं लोके मुखं पिण्डेन पूरितः’ की नीति अपनाते हुए उसने प्रस्ताव रख दिया – ऋषिवर! यदि आप अपने इन तीनों पुत्रों में से एक को मेरे स्थान पर वरुण देव को समर्पित करने हेतु प्रदान कर दें तो मैं आप को सौ गायें दूंगा।
कथा के अनुसार ऋषि का बड़ा पुत्र शुनःपुच्छ पिता को प्रिय था, छोटा पुत्र शुनःलाङ्गूल माता को प्रिय था, बचा बेचारा मझला पुत्र शुनःशेप! ऋषि ने शुनःशेप का सौ गायों के मूल्य पर विनिमय स्वीकार कर लिया। रोहित ने ऋषि अजीगर्त को सौ गायें दीं, शुनःशेप को साथ लिये घर लौटा और पिता हरिश्चन्द्र को बताया कि वह अपने स्थान पर वरुण की बलि हेतु इस ऋषिपुत्र शुनःशेप को लाया है।
नवीनतम स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में वरुण देव से सम्पर्क स्थापित किया गया तो यह कह कर कि ‘क्षत्रिय से ब्राह्मण श्रेयस्कर है’ वरुण देव ने भी रोहित के स्थान पर शुनःशेप को स्वीकार करने हेतु सहमति दे दी और राजा को राजसूय यज्ञ का उपदेश दिया। यज्ञ की तिथियाँ निश्चित हो गयीं। ऋषि विश्वामित्र इस यज्ञ के होता, ऋषि जमदग्नि अध्वर्यु, ऋषि अयास्य उद्गाता तथा ऋषि वसिष्ठ इस यज्ञ के ब्रह्मा नियुक्त हुये और यज्ञ प्रारम्भ हुआ। किन्तु जब बलि-पशु के स्थान पर शुनःशेप को बलि-यूप से बाँधने का अवसर आया तो पशु के स्थान पर एक मनुष्य को यूप से बाँधने के इस कुकृत्य को करने हेतु कोई प्रस्तुत न था। इस अवसर पर अजीगर्त ने स्वयं यह प्रस्ताव रखा कि यदि एक सौ गायें मुझे और प्रदान की जाँय तो यह कृत्य मैं ही सम्पन्न कर दूँगा और उसने ऐसा ही किया भी! यज्ञ-विधि के अनुसार यूप से बँधे शुनःशेप के परितः पर्यग्नि घुमाई गयी और तत्पश्चात जब बलि देने का समय आया और कोई अन्य शुनःशेप की बलि देने को सहमत नहीं हुआ। अजीगर्त, ऋषि अजीगर्त, लोभी ऋषि अजीगर्त पुनः एक सौ गायों के मूल्य पर इस कृत्य हेतु भी तत्पर हो गया।
बेचारा शुनःशेप! उसे प्रतीत हुआ कि अब वह जीवित नहीं बचेगा। किसी पशु की भांति उसका शिरच्छेद होगा और उसकी इहलीला समाप्त हो जायेगी। उसने मान लिया कि देवों के अतिरिक्त अब उसका आश्रय अन्य कोई नहीं। उसने देवों से ही प्राण-रक्षा हेतु निवेदन करने का निश्चय किया। किन्तु उसे यह स्पष्ट नहीं था कि किस देवता की प्रार्थना से उसे इस परिस्थिति से त्राण मिले। वह करुण क्रंदन कर उठा –
कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥
[मैं अमर देवों में से किस देवता के सुन्दर नाम का स्मरण करूँ? कौन मुझे महती अदिति पृथ्वी की पुनर्प्राप्ति करायेगा जिससे मैं अपने पिता तथा माता का पुनः दर्शन कर सकूंगा?]
कवि-हृदय व्यक्ति का क्रंदन भी काव्य बन कर प्रस्फुटित होता है, उसका रुदन भी गीत बन जाता है और शुनःशेप एक भावुक कवि था। उसका क्रंदन गीत बन गया, वरन् गीत से भी बढ़ कर उसका क्रंदन एक ऋचा बन गया। अपना प्रजा रूप ध्यान आया, रक्षा हेतु शुन:शेप ने पहले प्रजापति का ध्यान किया। प्रजापति ने उससे कहा कि सभी देवों में अग्नि समीपवर्ती है, अत: तुम अग्नि के पास जाओ।
शुनःशेप ने अग्नि की प्रार्थना की –
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥
[हम (मैं) अमर देवों में से प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का स्मरण करें (करूँ)! वह मुझे महती अदिति पृथ्वी की पुनर्प्राप्ति करायेंगे जिससे मैं अपने पिता तथा माता का पुनः दर्शन कर सकूँगा।]
अग्निदेव ने बात सविता पर टाल दी कि प्रेरक रूप में सविता समस्त कर्मों के स्वामी हैं, उनकी स्तुति करो। शुनःशेप ने सवितृदेव की प्रार्थना की –
अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमाहे॥
[हे सदा रक्षणशील सविता देव! आप वरणीय संपदा के स्वामी हैं! हम आपसे ऐश्वर्यों के उत्तम भाग की याचना करते हैं।]
किन्तु सविता ने कहा कि तुम यहाँ राजा वरुण के निमित्त लाये गए हो अतः तुम्हारी प्रार्थना को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना उन्हीं के अधिकार में है। बात सत्य भी थी।
तब, कातर शुनःशेप, निराश शुनःशेप, मृत्यु भय से त्रस्त शुनःशेप, भाव-विह्वल शुनःशेप ने राजा वरुण की स्तुति प्रारम्भ की। उसके कातर कण्ठ से हृदय की भावुक तरलता वाग्धारा बन कर प्रवाहित होने लगी। एक – एक कर उसने इकतीस स्वरचित ऋचाओं से राजा वरुण देव की स्तुति की।
कहते हैं कि यदि प्रार्थना के शब्दों में हृदय की भावुकता भी सम्मिलित हो तो देवताओं के आसन डिगने लगते हैं और यदि मन से रोया जाय तो फूटी आँखों से भी अश्रु झरते हैं किन्तु राजा वरुण देव नहीं पिघले! या यह कहें कि पिघले तो, किन्तु न पिघलने सा ही। उन्होंने शुनःशेप को अग्निदेव के पास पुनः भेज दिया कि वह सभी देवों के मुखस्थानीय हैं और सुहृदय हैं, उनकी स्तुति करो, मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।
इस बार का अवसर सम्भवतः अंतिम अवसर भी था। शुनःशेप ने अग्निदेव के समक्ष अपने अन्तःकरण को निचोड़ कर रख दिया। एक के पश्चात एक बाईस ऋचायें! किन्तु अग्निदेव ने इस बार उसे विश्वेदेवा की प्रार्थना करने को कह दिया। विश्वेदेवा ने प्रार्थना सुन अवश्य ली किन्तु कहा कि देवों में इंद्र सर्वाधिक ओजस्वी, बलिष्ठ, सहिष्ठ, श्रेष्ठ और पार लगाने वाले हैं, उनकी स्तुति करो तो तुम्हें मुक्ति मिले।
मरता क्या नहीं करता? शुनःशेप ने इन्द्रदेव की भी स्तुति की –
यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि।
आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वऽश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥
[हे सत्यस्वरूप सोमपायी इन्द्र! यद्यपि मैं प्रशंसा पाने का पात्र तो नहीं हूँ तथापि हे इन्द्रदेव! आप हमें सहस्रों गौवें तथा अश्व प्रदान कर हमें संपन्न बनायें।]
इन्द्र ने प्रसन्न हो कर शुनःशेप को सुवर्ण निर्मित रथ दिया जिसे शुनःशेप ने स्वीकार भी किया किन्तु जब प्राणों पर आ बनी हो तो कोई सुवर्ण निर्मित रथ ले कर क्या करेगा? निरुपाय शुनःशेप ने पुनः प्रार्थना की –
आ व इन्द्रं किविं यथा वाजयन्तः शतक्रतुम्। मंहिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः॥
[जिस प्रकार अन्न की कामना करने वाले खेत को सींचते हैं उसी प्रकार हम बल के अभिलाषी साधक महान इन्द्रदेव को सोम से अभिसिञ्चित करते हैं।]
किन्तु इन्द्र ने भी वह नहीं किया जिसके लिये शुनःशेप प्रार्थनायें कर रहा था। उन्होंने शुनःशेप से अश्विद्वय की प्रार्थना करने को कहा और शुनःशेप ने उनकी प्रार्थना ‘आश्विनावश्वावत्येषा यातं शवीरया। गोमद्दस्रा हिरण्यवत्॥ – हे शक्तिशाली अश्विद्वय! आप बलशाली अश्वों के साथ अन्न, गौ तथा स्वर्ण आदि धन ले कर यहाँ पधारें।’ कह कर की किन्तु अश्विनीकुमारों ने उसे उषा की प्रार्थना करने को कह दिया।
अंततः उषा की प्रार्थना ‘त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दुहितर्दिवः। अस्मे रयिं नि धारय॥ – हे द्युलोक की पुत्री उषे! आप उन दिव्य बलों के साथ यहाँ आयें तथा हमें उत्तम ऐश्वर्य धारण करायें।’
नवारम्भ की देवी माता की प्रार्थना के साथ ही शन:शेप के बन्धन खुलते गये और ऐक्ष्वाकु हरिश्चन्द्र को रोग से भी मुक्ति मिलती गयी।
यज्ञ में सम्मिलित ऋषियों ने उन प्रार्थनाओं से प्रभावित होकर शुनःशेप को अपने जैसा ऋषि-पद प्रदान किया, उसे सोम का अधिकारी माना गया। उसने अञ्ज अर्थात सरल विधि से सोमरस निकालने की विधि का दर्शन किया, सोम की प्रशंसा में भी ऋचायें कहीं, यज्ञ के समापन कार्यक्रम अवभृतस्नान में ऋषि रूप में सम्मिलित भी हुआ तथा किसी यज्ञ में यजमान द्वारा सम्पादित किया जाने वाला अंतिम कार्य – आहवनीय अग्नि स्थापना का आदेश, हरिश्चन्द्र को उसी के द्वारा निर्गत किया गया। राजसूय यज्ञ पूर्ण हुआ।
यज्ञ पूर्ण हुआ किन्तु कथा पूरी नहीं हुई। कथा कहती है कि यज्ञ के सम्पन्न होने पर शुनःशेप विश्वामित्र के निकट जा बैठा। अजीगर्त ने उसे जब अपने निकट आने को कहा (जिसका वर्णन इस प्रकार है कि अजीगर्त ने विश्वामित्र से अपना पुत्र माँगा) तो विश्वामित्र ने मना कर दिया और कहा – ‘यह देवताओं द्वारा मुझे दिया गया है अतः अब यह मेरा पुत्र देवरात है! देवरात वैश्वामित्र! अब यह शुनःशेप आजीगर्ति नहीं रहा!’ अजीगर्त से कपिल एवं बभ्रु गोत्रीय हुये – तस्यैते कापिलेय बाभ्रवा।
अजीगर्त ने ऋषि पद पा चुके शुनःशेप से ही कहा कि वह अपना ‘अङ्गिरा’ गोत्र त्याग कर उचित नहीं कर रहा किन्तु अमर्ष से भरे शुनःशेप ने अपने पिता की ही भर्त्सना की कि आप के हाथ में जो शास (खङ्ग) देखी गयी, उसे तो कोई शूद्र भी नहीं लेता, हे अङ्गिरा गोत्रोत्पन्न! आप ने तो मेरे निमित्त तीन सौ गायें भी प्राप्त कर ली हैं तथा स्वयं को उसका पुत्र मानने से मना कर दिया। अजीगर्त ने वे गायें शुन:शेप को दे कर पाप का निवारण करने की बात की किन्तु शुन:शेप ने यह कहते हुये काट दिया कि एक बार पाप कर लेने वाला अन्य पाप भी कर सकता है। बिना सोचे समझे किये गये क्षुद्र कर्म से आप निवृत्त नहीं हो सकते।
इस अवसर पर विश्वामित्र ने भी शुनःशेप का ही साथ दिया – ममैवोपेहि पुत्रतामिति। शुन:शेप ने उनसे पूछा कि हे राजपुत्र! बताइये कि मैं अङ्गिरा गोत्रोत्पन्न हो कर आप की पुत्रता कैसे प्राप्त करूँ – स वै यथा नो ज्ञपया राजपुत्र तथा वद यथैवाङ्गिरसः सन्नुपेयां तव पुत्रताम् इति। उसे अपने पुत्रों में प्रथम स्थान दिया। कहते हैं कि विश्वामित्र के सौ पुत्र थे जिनमें से पचास ने शुनःशेप को अपना ज्येष्ठ मानने से मना कर दिया था किन्तु इक्यावनवें पुत्र मधुच्छन्दा तथा उसके अनुजों ऋषभ, रेणु, अष्टक आदि ने इसे स्वीकार किया था। न मानने वाले विश्वामित्र के प्रथम पचास पुत्र उनके द्वारा अभिशप्त हो अन्ध्र, पुण्ड्र, शबर, पुलिन्द, मूतिब आदि रूपों में दस्यु जातियों के आदिपुरुष हुये तथा शुनःशेप अब शुनःशेप न रह कर विश्वामित्र का ज्येष्ठ पुत्र ‘देवरात वैश्वामित्र’ हो गया।
मनोरञ्जन की दृष्टि से देखें तो कथा दारुण है, विचलित करने वाली है, पढ़-सुन कर मन फट जाता है, कोमल हृदय वाले ‘आँखें भीग गईं, कण्ठ भर आया’ आदि भी कह सकते हैं और कुछ तो संभवतः दो-चार दिनों हेतु अवसाद-ग्रस्त ही हो जाँय। इस कथा की सरसता का कारण भी यह करुणा ही है, किन्तु यह कथा कुछ प्रश्नों को जन्म अवश्य देती है –
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इस कथा को इस प्रकार सँजोने एवं ढोने का औचित्य क्या है?
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यह कथा हमें किस आदर्श की शिक्षा देती है?
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इस कथा के द्वारा कथाकार सन्देश क्या देना चाहता है?
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राजा वरुण देव को न रोहित की ही बलि मिली, न शुनःशेप की ही! कथा स्वयं घोषित करती है कि नरबलि हुई ही नहीं, किन्तु आयोजन तो अत्यन्त तीव्र, गम्भीर, हृदय-विदारक ढंग से प्रस्तुत किया गया है! छः संवत्सर वन में एकाकी भटकते रोहित के पास सौ गायें कहाँ से आयीं कि वह अजीगर्त को शुनःशेप का मूल्य चुका सके?
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जब एक बार क्रय-विक्रय हो गया और रोहित शुनःशेप को ले कर अपने पिता के पास लौटा तो अजीगर्त क्या करने साथ आया?
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चलिये, मान लिया कि रोहित ने कहा होगा कि वह मूल्य अपने राज्य पहुँच कर चुकायेगा तो अजीगर्त उस मूल्य को लेने साथ आ गया, किन्तु मूल्य ले कर लौटा क्यों नहीं?
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क्या अपने पुत्र की हत्या होते देखने हेतु रुका रहा?
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और राजा तथा यज्ञ के पुरोधा ऋषियों ने उसे भगाया क्यों नहीं? कि मूल्य मिल गया अब निकल यहाँ से!
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और वरुण, अग्नि, सविता, विश्वेदेव, इन्द्र, उषा सभी देवता साक्षात उपस्थित हो कर प्रार्थनायें सुनते रहे, एक-दूसरे पर बात टालते रहे, और यज्ञ रुका रहा?
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जब अजीगर्त तीसरी बार बलि-कर्म हेतु सौ गायें ले ही चुका था तब क्यों उसे आदेश नहीं दिया गया कि काट-पीट कर छुट्टी करे?
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यदि बलि होनी ही होनी है तो वह बकरे के मिमियाने के कारण रुकी रहेगी?
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और अंतिम प्रार्थना भी शुनःशेप ने किसकी की? उषा की! तो उषा की प्रार्थना तो काव्य की दृष्टि से सामान्य प्रकृति-वर्णन के अधीन आयेगी। और उषा देवता का क्या इतना प्रभाव था कि वह वरुण का ग्रास उसके सामने से छीन ले?
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और शुनःशेप को विश्वामित्र क्यों अधिग्रहीत कर ले गये? महानता प्रदर्शित कर के उन्हें पिता-पुत्र के मध्य की कटुता समाप्त करने का प्रयास करना चाहिये था न कि यह कि दूसरे का पुत्र ही हथिया लिया?
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और वह भी अपने पचास पुत्रों के निष्कासन के मूल्य पर?
पूरी की पूरी कथा असंगतियों एवं विसंगतियों से भरी है और इस कथा का महत्त्व मात्र इस कारण है कि यह कथा अपनी प्रस्तुति के आधार पर मन को कचोटती है, आह, ओह, हाय, का सृजन करती है किन्तु ध्यान से देखें तो यह कथा किसी अपरिपक्व लेखनी द्वारा रचित एक अनगढ़ कथा है जिसके ताने-बाने कहीं तो अत्यंत विरल हैं और कहीं परस्पर अत्यंत उलझे हुए। किन्तु कथा ऐतिहासिक है अतः इतना तो निश्चित है कि कुछ तो हुआ था! किन्तु क्या? निश्चित ही इस कथा में कोई रहस्य है, किन्तु कौन सा? यही तो जानना है!
इस रहस्य का नीहार-आवरण खुले, या न खुले, इसे खोलने के प्रयास में कथा की पृष्ठभूमि, पात्रों की पृष्ठभूमि एवं उनका चरित्र, उनके परस्पर सम्बंध, घटना के मूल बीज, घटना-क्रम आदि सभी का अन्त्य-परीक्षण करना होगा। श्रम-साध्य है, समय-साध्य है, किन्तु करना होगा। किन्तु मैं कोई कण्टकशोधन अधिकारी तो हूँ नहीं? अतः मेरे परीक्षण भी किसी कंटकशोधन अधिकारी जैसे नहीं हो सकते। तो जब सभी कहानियाँ लिख सकते हैं तो एक कहानी मेरी भी सही!
सर्वप्रथम तो इस कथा का कथाकार!
जिस ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में यह कथा है, उस ब्राह्मण ग्रन्थ के रचयिता है ‘महिदास ऐतरेय’ तथा अपने विषयवस्तु, उसकी प्रस्तुति, तथा विशद-विस्तृत वर्णन के कारण यह ग्रन्थ सभी ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ऐतरेय शाखा नाम से संहिता उपलब्ध नहीं है किंतु ऐतरेय ब्राह्मण को ऋग्वेद की शाकल शाखा से सम्बद्ध माना जाता है। ब्राह्मण की का ब्राहमण तो उपलब्ध है किन्तु संहिता उपलब्ध नहीं है। सायणाचार्य के अनुसार वे एक ऋषि के औरस से उनकी दूसरी पत्नी से उत्पन्न थे।
यह पता नहीं कि इनकी माता का नाम ही ‘इतरा’ था अथवा ‘मूल पत्नी से इतर अन्य पत्नी’ होने के कारण उसे इतरा कहा जाता था या कहा गया, किन्तु इतरा के पुत्र होने के कारण ही उनके नाम ‘महिदास’ में ‘ऐतरेय’ जुड़ा। सुखप्रदा वृत्ति में कहा गया है – महिदासैतरेयर्षिसंद्रिष्टं ब्राह्मणं तु यत्। आसीद विप्रो यज्ञवल्को द्विभार्यस्तस्य द्वितीयामितरेति चाहुः॥
इसके अनुसार ‘महिदास ऐतरेय’, यज्ञवल्क के द्वितीय भार्या के पुत्र हैं। यज्ञवल्क का पुत्र याज्ञवल्क्य होगा। गार्गी से वाद-विवाद वाले याज्ञवल्क्य भिन्न हैं। सम्भवतः याज्ञवल्क्य अनेक हैं और चूंकि यह प्रकृत विषय नहीं है अतः इस पर कुछ कहना उचित भी नहीं है।
अब प्रश्न यह है कि ऐतरेय ब्राह्मण जैसे यज्ञ-विधियों के नियामक ग्रन्थ में ‘महिदास’ ने यह ‘शुनःशेप आख्यान’ क्यों लिखा? तो सर्वप्रथम यह कि ‘महिदास’ इस ग्रन्थ के लेखक थे यह भ्रम है! वे इस ब्राह्मण ग्रन्थ के सङ्कलनकर्ता थे। और जिस कालखण्ड में वे यह ग्रन्थ संकलित कर रहे थे उस समय तक वैदिक आख्यानों, देवताओं, घटनाओं, मन्त्रों, ऋचाओं, सूक्तों आदि का मूल पाठ तो सायास बचाये रखा गया था किन्तु उनके सन्दर्भ अधिकांशतया विस्मृत हो चुके थे। ऐसे में महिदास के पास एक यज्ञ से सम्बंधित इस शुनःशेप वाली घटना की सुनी-सुनाई सी एक कहानी पहुँची जिसका सत्य न कहानी सुनाने वाले को ज्ञात था, न कहानी सुनने वाले को ही उसका कोई रहस्य ज्ञात हो सका, किन्तु एक कहानी थी जो वैदिक काल से, विश्वामित्र, वसिष्ठ, जमदग्नि, अजीगर्त, शुनःशेप के काल से चली आ रही थी तो उसमें कोई तो बात होगी, कोई तो पेंच होगा, कोई तो रहस्य होगा? यह सोच कर महिदास ने इस कथा को ऐतरेय ब्राह्मण में स्थान दिया कि भविष्य में कोई तो इस रहस्य का अनावरण करने में सक्षम होगा? कथाएँ जीवित रहें तो उनके रहस्य भी खुल जाते हैं। कथाओं को मरने नहीं देना चाहिये, चाहे वे कितनी भी निरर्थक हों और कथायें जीवित रहती हैं कहते-सुनते रहने से! इस कारण, मात्र इस कारण ‘महिदास ऐतरेय’ ने इस कथा को अपने ग्रन्थ में स्थान दिया!
कथा का प्रथम खल-चरित्र है वरुण राजा, देव जिसने हरिश्चन्द्र को पुत्र तो दिया किन्तु इस वचन के मूल्य पर कि उस पुत्र को वरुण देव को ही समर्पित कर दिया जाय! प्रथम तो हरिश्चन्द्र को ऐसा कोई वचन देना ही नहीं चाहिये था, यदि उन्होंने भावुकता में ऐसा कोई वचन दिया तो वरुण देव को उसे स्वीकार नहीं करना था। किन्तु ऐसा हुआ नहीं! हरिश्चन्द्र ने वचन भी दिया, वरुण ने उसे स्वीकार भी किया और स्वीकार ही नहीं किया, वरुण देव ने तो हठ ही पकड़ लिया था और तगादे पर तगादा भेजते रहे थे! किन्तु क्या ऐसा संभव है?
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हरिश्चन्द्र तथा विश्वामित्र के जीवन काल में वरुण देव की सशरीर उपस्थिति संभव नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक वरुण देव कश्यप के औरस से अदिति से उत्पन्न द्वादश आदित्यों में से ज्येष्ठ आदित्य हैं। इन्ही के छोटे भ्राता विवस्वान के पुत्र वैवस्वत से सूर्यवंश चला जिसकी तीन शाखाएं थीं जिसमें अनरण्य शाखा में अनरण्य पुत्र त्रैयारुण के पुत्र महाबल सत्यव्रत हुए। वही सत्यव्रत, जिसे संसार त्रिशङ्कु के नाम से जानता है। इन्ही सत्यव्रत ‘त्रिशंकु’ के पुत्र थे हरिश्चन्द्र जिनका पुत्र था रोहिताश्व! तो स्पष्ट है कि वैदिक देवता के रूप में वरुण देव स्वीकृत थे किन्तु एक व्यक्ति के रूप में हरिश्चन्द्र के काल में उनकी उपस्थिति कदापि संभव नहीं है। तब भी वरुण देव को वचन दिया तो गया था! किन्तु यह वचन वैसा ही था जैसे एक सामान्य व्यक्ति आज भी प्रण करता है कि यदि मुझे पुत्र हुआ तो उसे देश के लिए समर्पित कर दूँगा, या दुर्गा को समर्पित कर दूँगा आदि!
यदि ऐसा था तो वरुण देव की ओर से ये तगादे कौन कर रहा था?
यहाँ पर हरिश्चन्द्र आख्यान की वह दूसरी कथा-धारा जिसमें ऋषि विश्वामित्र द्वारा हरिश्चन्द्र से स्वप्न में दान और दक्षिणा की कथा है, वह आ कर जुड़ती है। वे तगादे विश्वामित्र ही कर रहे थे, किन्तु उसका रूप भी वह नहीं था और उसका कारण भी वह नहीं था जैसा वर्णित है। पुन: क्या कारण था? कुछ तो था ही! अस्तु!
अब वरुण देव के सम्बंध में कुछ विशिष्ट तथ्य।
मनु ने जो सुषा नाम की नगरी बसाई थी वह जल-प्रलय के समय उजड़ गयी थी। दक्ष की पुत्री अदिति के ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ आदित्य वरुण ने इस नगरी को पुनः बसाने हेतु नगर में रुके प्रलय से आये बाढ़ के जल को नहरें खुदवा कर पुनः समुद्र में बहा दिया। ‘जल का नियमन’ करने के कारण ही वे जल के देवता प्रसिद्ध हुए। नार का भी अर्थ जल होता है और नारायण का विरुद भी वास्तव में पहले वरुण का ही था। शतपथ ब्राह्मण तथा मत्स्य पुराण आदि इस तथ्य का संकेत देते हैं – आदित्यश्चाहि भूतत्वात् ब्रह्मा ब्रह्म पठन्नभूत। दिवं भूमि समं करोत्त दण्डशकलद्वयं। (मत्स्य, अ० १)। कालांतर में सभी आदित्यों का समाहार विवस्वान सूर्य जो कालान्तर में विष्णु नाम से प्रसिद्ध हुये, में ही हो जाने के कारण अन्य सभी भाइयों के विरुद भी विष्णु तथा सूर्य पर ही आरोपित हुए। बस एक नाम, एक विरुद, जो न विष्णु पर आरोपित हुआ और न वरुण के साथ ही रह सका वह विरुद था ब्रह्मा का। ब्रह्मा का अर्थ ही होता है ज्येष्ठ और आदित्यों में ही नहीं, कश्यप की सभी संतानों में वरुण ही ज्येष्ठ थे अतः उन्ही का एक नाम ब्रह्मा भी था और दैत्य, दानव, आदित्य सभी उनका सम्मान करते थे। वरुण ही ब्रह्मा थे। कथा कहानियों में जब किसी का आदि ज्ञात नहीं होता तो उसे ब्रह्मा का मानस-पुत्र भले कह दिया जाय, ऐतिहासिक ब्रह्मा वरुण देव ही थे।
जेनेसिस, अवेस्ता तथा पुराणों के आख्यान यदि एक साथ मिला कर देखे जाँय तो यह ज्ञात होता है कि वरुण के शासन क्षेत्र की भूमि ही शीनार या श्रीनार थी और उसी का नाम ‘भूमि’ भी था। वरुण देव सुमेरु सभ्यता के संस्थापक थे तथा अपने जीवन काल में ही वे विधाता के नाम से ख्यात हो चुके थे। ऋग्वेद में भी वरुण की बहुत प्रशंसा है। इन्हें ‘असुर’ तथा ‘असुर महत्’ भी कहा गया है। असुर शब्द की विवेचना अन्यत्र की जा चुकी है अतः पिष्टपेषण का कोई प्रयोजन नहीं। यही ‘असुर महत्’ अवेस्ता में वर्णित पारसीयों का ‘अहुर मज्दा’ है जो हमारे वरुण देव का ही नाम है।
वरुण के दो पुत्र अङ्गिरा तथा भृगु थे। अंगिरा के पुत्र वृहन्मति थे जो बृहस्पति कहलाये। भृगु की दो पत्नियाँ थीं। प्रथम थी दैत्य हिरण्यकशिपु या हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या जिसके पुत्र थे शुक्र, जो शुक्राचार्य कहलाये। शुक्राचार्य का एक नाम काव्य भी था। भृगु की दूसरी पत्नी दानव पुलोमा की पुत्री पौलोमी थी जिससे च्यवन उत्पन्न हुए। च्यवन के पुत्र थे आप्तवान। आप्तवान के पुत्र उर्व, उर्व के पुत्र थे ऋचीक। और इन ऋचीक ने एक सहस्र श्यामकर्ण अश्व शुल्क में दे कर कान्यकुब्ज के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह किया था। उस समय तक गाधि के कोई पुत्र न था। ऋचीक के प्रयासों से उनके श्वशुर गाधि को एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम विश्वरथ था और संयोग से उसी दिन ऋचीक को भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम जमदग्नि था। जमदग्नि इस प्रकार विश्वरथ के सगे भाञ्जे थे। दोनों, मामा-भाञ्जे ऋचीक के ही आश्रम के छात्र थे तथा शास्त्र तथा शस्त्र दोनों विद्याओं में परम निष्णात थे। सम्बन्ध की मधुरता के अतिरिक्त वयस की समानता के कारण दोनों में प्रगाढ़ मित्रता भी थी। और यही विश्वरथ आगे चल कर ऋषि विश्वामित्र हुए। जमदग्नि के पुत्र राम थे जो कालान्तर से परवर्ती पुराण अंशों में परशुराम नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार परशुराम विश्वामित्र की सगी बड़ी बहन के पौत्र थे।
वरुण के सम्बंध में यह प्रचलित कथन है कि उन्होंने आकाशीय पिण्डों का मार्ग निर्धारित किया। स्वयं शुनःशेप ने भी वरुण की प्रार्थना करते हुए कहा –
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥
[हे वरुण देव! अंतरिक्ष में उड़ते पक्षियों के मार्ग को तथा समुद्र में संतरण करती नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते हैं।]।
ये अन्तरिक्ष में उड़ते पक्षी खगोल और ज्योतिष के पिण्ड ही हैं जिनके मार्ग का ज्ञान वरुण को था। और पक्षी शब्द का एक पर्याय ‘खग’ भी है। ‘ख’ का अर्थ है शून्य अंतरिक्ष तथा ‘ग’ का अर्थ है गमन करने वाला। आकाशीय पिण्ड भी खग ही हैं अतः स्पष्ट है कि वरुण देव एक निष्णात खगोलज्ञ थे और उन्होंने कुछेक या अनेक ग्रहों, नक्षत्रों आदि का भ्रमण-पथ जान लिया था अतः उनके पथ-निर्धारण का श्रेय उन्हें अवश्य है और यही इस कथन का तात्पर्य भी है कि वरुण देव ने आकाशीय पिण्डों का मार्ग निर्धारित किया। अतः संभवतः, संभवतः, वरुण की कोई वेधशाला थी जो उनके न रहने पर अपने संसाधनों के साथ उपेक्षित पड़ी थी और भृगु, शुक्र, च्यवन आदि से होते हुए उस समय ऋचीक के अधिकार में थी। वरुण के वंश में उत्पन्न ऋचीक के पुत्रवत श्यालक विश्वरथ (विश्वामित्र) जब खगोल में रुचि लेने लगे तो ऋचीक ने उस वेधशाला का प्रभार विश्वामित्र को ही सौंप दिया जहाँ अपने प्रेक्षणों से विश्वामित्र ने अनेक नये आकाशीय पिण्डों, ग्रहों, नक्षत्रों, ताराओं, धूमकेतुओं आदि की, विशेषतः अंतरिक्ष के दक्षिण गोलार्ध के आकाशीय पिण्डों की खोज की। विश्वामित्र स्वभाव से ही नवोन्मेषी थे। उन्होंने मरुस्थल में उपयोगी पशु ऊँट का पालन, मरुस्थल के उपयोगी वृक्ष नारियल का उपयोग आदि अनेक नवीन बातें भी प्रचलित कीं। सत्य है कि अग्नि का प्रथम नियंत्रित उपयोग अथर्वाङ्गिरसों ने प्रचलित किया और इसी कारण दहकते हुए कोयले को अङ्गारा कहा जाता है किन्तु अग्नि के उत्पादन हेतु प्रथम यन्त्र विश्वामित्र ने ही बनाया था। ऋग्वेद तृतीय मंडल के उन्तीसवें सूक्त के १ से १२ तक के मन्त्र इसकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने तैंतीस देवताओं के स्थान पर अनेक अन्य तत्वों में दैवीय सम्प्रभुता खोज ली (कुल ३३३९, ऋग्वेद तृतीय मण्डल, नवम सूक्त, नवम मन्त्र)। उनके अनुसंधान इतने महत्त्वपूर्ण तथा इतने अधिक थे कि उनके सम्बंध में यह उक्ति ही विख्यात हो गयी कि विश्वामित्र तो एक नई सृष्टि ही कर रहे हैं।
यह वह काल-खण्ड था जब सूर्यवंशी महाबल सत्यव्रत अपने कतिपय अपराधों के कारण यौवराज्य से च्युत हो कर ‘त्रिशङ्कु’ दुर्नाम धारण कर निर्वासित भटक रहा था। त्रैयारुण की मृत्यु के पश्चात भी उसका राज्याभिषेक नहीं हो सका। उसने विश्वामित्र की सेवा की थी अतः विश्वामित्र ने उसे राज्य-प्राप्ति में सहयोग किया। इस प्रकार हरिश्चन्द्र के कुल पर विश्वामित्र का भावनात्मक ऋण था।
हरिश्चन्द्र के एक भी पुत्र का न होना एक बड़ी समस्या थी। हरिश्चन्द्र के कुलगुरु वसिष्ठ थे अवश्य, किन्तु इस विषय में वे हरिश्चन्द्र की कोई सहायता नहीं कर सकते थे क्योंकि वसिष्ठों के पास ऐसी कोई तकनीक ही नहीं थी। यह समस्या दशरथ के समय भी आयी थी। यहाँ यह कहना असमीचीन न होगा कि वसिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, परशुराम आदि ऐतिहासिक नाम तो हैं ही, किन्तु या तो इन नामों की एक परम्परा भी रही है जो उन ऋषियों के शिष्यों द्वारा आगे बढ़ी अन्यथा दाशराज युद्ध में भाग लेने वाले विश्वामित्र तथा वसिष्ठ, त्रिशंकु के स्वर्गारोहण (राज्याभिषेक) में परस्पर विरोध में खड़े विश्वामित्र तथा वसिष्ठ, हरिश्चन्द्र का यज्ञ करा रहे विश्वामित्र तथा वसिष्ठ तथा दाशरथि राम के समय के विश्वामित्र तथा वसिष्ठ यदि एक ही हैं तो या तो दशराज युद्ध से ले कर रावण वध तक की समस्त घटनायें परस्पर अत्यंत निकट कालखंडों की हैं, सुदास, दशरथ, तथा हरिश्चन्द्र परस्पर समकालीन हैं, अथवा वे विश्वामित्र तथा वसिष्ठ विभिन्न काल में तत्संबंधी पीठों के प्रमुख रहे होंगे। वैसे सुदास पाञ्चाल दशरथ के सगे फूफा थे अतः यहाँ यही मानना उचित है कि सुदास तथा दशरथ समकालीन थे। किन्तु यहाँ जिन विश्वामित्र, जमदग्नि तथा वसिष्ठ की चर्चा है वे ऐतिहासिक मूल पुरुष ही थे।
वसिष्ठ के पास वन्ध्या या काकवन्ध्या नारियों अथवा अल्पवीर्य पुरुषों की चिकित्सा का कोई उपाय न था किन्तु जमदग्नि के पिता ऋचीक के पास ऐसी विद्या, ऐसी विधा, ऐसे भेषज्य थे जिनका सफल प्रयोग वे अपनी पत्नी तथा अपनी सास दोनों पर कर चुके थे। विश्वामित्र की सहायता से वही तकनीक प्रयोग करने पर हरिश्चन्द्र को रोहिताश्व नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था।
विश्वामित्र अब बूढ़े हो चले थे। वरुण की वेधशाला तथा खगोल अनुसन्धानशाला, जिसके कुलपति विश्वामित्र ही थे, उनके सौ शिष्यों, जिनमें उनके अपने पुत्र भी थे, के साथ अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पित रूप से कार्यरत थी किन्तु विश्वामित्र को अपने सभी पुत्रों एवं शिष्यों में कोई ऐसा नहीं दिख रहा था जो चालित अनुसंधानों को अपने जीवनकाल में पूर्ण कर सके। इस हेतु उन्हें एक ऐसे अल्प वयस शोधार्थी की खोज थी जो अब तक ज्ञात प्रेक्षणों को हृदयङ्गम भी कर सके तथा चालित शोध को आगे भी बढ़ा सके और वह शोध था लघु सप्तर्षि मण्डल तथा वृहत सप्तर्षि मण्डल का निरीक्षण! यह कुछ दिनों या कुछ वर्षों में समाप्त होने वाला कार्य नहीं था। इस कारण वरुण की वेधशाला हेतु – वरुण-यज्ञ हेतु, उन्होंने जन्म से पूर्व ही रोहिताश्व को माँग लिया था। रोहिताश्व का प्रशिक्षण विषय-विशेष के क्षेत्र में उसी अनुसन्धानशाला में ही होना था और यही कारण था कि वे बारम्बार रोहिताश्व को वरुण-कार्य हेतु अर्थात वरुण की अनुसन्धानशाला में कार्य करने हेतु माँगा करते थे।
किन्तु रोहिताश्व ने जब यह जाना कि उसे वरुण देव की बलि चढ़नी है तो वह पिता की अवहेलना कर घर से अरण्य को चला गया और छठे वर्ष जब लौटा तो उसके साथ थे अजीगर्त एवं शुनःशेप।
जब रोहिताश्व ने अजीगर्त से शुनःशेप को माँगा था तो अजीगर्त रोहिताश्व का भ्रम, अज्ञान तथा भय तीनों भाँप गया था। उसने अपने मझले पुत्र शुनःशेप को इस वरुण कार्य हेतु उपयुक्त जाना क्योंकि उसे भी वरुण देव की प्रयोगशाला हेतु एक योग्य शोधार्थी हेतु विश्वामित्र की व्यग्रता का सम्भवतः ज्ञान था और उसका पुत्र शुनःशेप स्वभाव से हठी, दुराग्रही, शीघ्रकोपी आदि भले था किन्तु था वह कवि-हृदय तथा अध्ययन-शील। पता नहीं रोहिताश्व को छ: वर्ष तक भटकाने वाले इंद्र ही थे या….? अस्तु!
किन्तु अजीगर्त के अपने भी कुछ उद्देश्य थे और उस उद्देश्य की पूर्ति किसी विद्वत्सभा द्वारा ही संभव थी। अजीगर्त जानता था कि वरुण-यज्ञ का जो आयोजन होने वाला है उसमें एक से बढ़ कर एक विद्वान् उपस्थित होंगे क्योंकि यह सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्र का यज्ञ है। वह इस अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसने एक ढेले से दो पक्षियों को मारने का निश्चय किया। जब रोहिताश्व ने उसे सौ गायें देने का प्रस्ताव रखा तो उसने स्वीकार कर लिया। रोहिताश्व के पास उस समय गायें कहाँ थीं? फलतः अजीगर्त को हरिश्चन्द्र तक आना ही आना था। किन्तु जब उसे सौ गायें दी जाने लगीं तो उसने यज्ञ में उपस्थित रहने के निवेदन के साथ उन गायों को पश्चात में ले लेने की बात कही और इसमें किसी को आपत्ति नहीं थी।
वैदिक शब्द गो या गावः के अनेक अर्थ हैं। एक तो साधारण अर्थ गाय नामक पशु है ही, किन्तु इसके अन्य अर्थ वाणी, इन्द्रियाँ, पश्चातल, जल, भूमि, रश्मि या किरण आदि भी हैं तथा इसका एक अर्थ सूर्य भी है। जिस ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप आख्यान नामक यह कथा है उसी ऐतरेय ब्राह्मण का कथन है – गवामयेन यान्ति गावो वा आदित्या, आदित्यानामेव तदयने नयन्ति॥ (ऐतरेय ब्राह्मण ४।१७) सूर्य भी गाय है। सूर्य का चलना (अयन) ही गवामयन है। आज यह अयन शब्द सूर्य के शरद विषुव से बसंत विषुव तक की और बसंत विषुव से शरद विषुव तक की यात्रा की अवधि के रूप में रूढ़ है किन्तु वह उत्तरायण एवं दक्षिणायन है – उत्तर को चलना और दक्षिण को चलना। ‘अयन’ का सामान्य अर्थ तो ‘चलना’ है। अतः सूर्य का चलना ही सूर्य का अयन है और यह चालन तो दैनिक भी है अतः वैदिक सन्दर्भ में जहाँ गायों की संख्या का उल्लेख हो वहाँ उसे दिनों की संख्या के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। अजीगर्त ने यहीं पर शब्दों से खेलने का निर्णय लिया।
उस काल तक वैदिक ऋषियों ने सफलता पूर्वक चार प्रकार के वर्षों का भेद जान लिया था। ३६५१/४ दिनों का सायन या सावन वर्ष, ३६० दिनों का लौकिक वर्ष, ३६६ दिनों का नाक्षत्र वर्ष तथा ३५४ दिनों का चान्द्र वर्ष होता है यह उनके समक्ष स्पष्ट था तथा नाक्षत्र वर्ष का सायन वर्ष से सामञ्जस्य स्थापित करना ही तब गवामयन कहलाता था। तीन क्रमिक वर्षों के उपरांत चौथे वर्ष में सायन वर्ष के चार छूटे हुए एक चौथाई दिन की अवधि के तुल्य एक दिन को चौथे वर्ष की अवधि में जोड़ कर उसे ३६६ दिन का बना लिया जाता था तथा इस प्रकार प्रत्येक चौथे वर्ष नाक्षत्र वर्ष का सायन वर्ष से समन्वय हो जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण का ही इन्द्र द्वारा रोहिताश्व को पढ़ाया पाठ ‘कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति॥’ संकेत में यही बताता है। किसी भी चार वर्षीय चक्र की समाप्ति जिस दिन भी हो, सूर्यास्त के साथ मानी जायेगी अतः अगले चक्र के प्रथम ३६५१/४ दिनों का सायन वर्ष का प्रारम्भ सूर्यास्त से प्रारम्भ हो कर अगले वर्ष तीन सौ छाछठवें दिन अर्द्धरात्रि को समाप्त होगा जो सामान्यतः शयन का समय है। यही कलि है जो सोये होने में ही व्यतीत हो जाता है। अगला सायन वर्ष अर्द्धरात्रि से प्रारम्भ हो कर अगले वर्ष सूर्योदय के समय समाप्त होगा जो उठने (जागने) का समय है, यही द्वापर है। इसी प्रकार तीसरा वर्ष मध्याह्न में समाप्त होगा जो खड़े रहने, चैतन्य रहने आदि का समय होता है जो त्रेता है और संध्याकाल के समाप्त होने वाला चौथा वर्ष जो संध्या को सूर्यास्त के समय समाप्त होता है वह तो सबके घर लौटने, चलते होने का संकेतक है तथा कार्य के कृत होने का भी द्योतक है साथ ही वर्ष के दिनों के समन्वय का कार्य तो निश्चित ही कृत हो चुकता है अतः वही कृत है। कलि, द्वापर, त्रेता तथा कृत क्रमशः एक, दो, तीन तथा चार के द्योतक भी हैं और प्राचीन काल के द्यूत के पासे जो चौकोर लम्बी शलाका के रूप में होते थे उनके एक, दो, तीन और चार अंकों को कलि, द्वापर, त्रेता तथा कृत ही कहा जाता था।
३६० दिनों के लौकिक वर्षों का भी समन्वय इसी प्रकार किया जाता था। प्रत्येक सायन तथा लौकिक वर्ष के सवा पाँच दिन के अंतर चार वर्षों में एकत्र हो कर इक्कीस दिन हो जाते थे जिसे चौथे लौकिक वर्ष में जोड़ कर उसे भी समञ्जित कर लिया जाना चाहिए था किन्तु जोड़ने के स्थान पर उन इक्कीस दिनों को चार वर्षों की अवधि में समान रूप से बाँट दिया जाता था और इस प्रकार उन इक्कीस दिनों को गणना-बाह्य कर दिया जाता था। यह कार्य भारी आडम्बर के साथ विद्वानों, ऋषियों, खगोलविदों, ज्योतिषियों आदि की उपस्थिति में होता था जो यज्ञ रूप धारण कर लेता था। यह कल्पना की जाती थी कि इन दिनों की बलि दे दी गयी। बलि को प्रतीकात्मक रूप से आयोजित भी किया जाता था और यज्ञों के इक्कीस बलि-यूप से बँधे पशु उन्हीं इक्कीस दिनों के प्रतीक थे जिनमें से प्रत्येक यूप से पन्द्रह पशुओं के बँधे होने की कल्पना की जाती थी और कुछ पशु वास्तव में भी बांधे जाते थे। इस प्रकार उन इक्कीस यूपों से कुल ३१५ पशु बंधे माने जाते थे मध्य का मुख्य यूप ही इक्कीसवां यूप होता था जिसका नाम अग्निष्ठ था।
एकविंश॑म्मध्यमम॑हर्भवति। असौ वा॑आदित्य॑एकविंशः सो॒ऽश्वमेधः स्वे॑नैवइ॒नं स्तो॑मेन स्वा॑यां देव॑तायाम् प्रतिष्ठापयति॥ (शतपथ ब्राह्मण १३।३।३।३)
[बीच का दिन ही इक्कीस है। वही इक्कीसवां सूर्य है, और वही अश्वमेध है, वही स्तोम है और वही देवता हो कर प्रतिष्ठित है।]
शि॑रो वा॑एत॑द्यज्ञ॑स्य य॑देकविंशः। यो वा॑अश्वमेधे त्री॑णि शीर्षा॑णि वे॑द शि॑रो ह रा॑ज्ञाम्भवत्येकविंशो॒ऽग्निर्भ॑वत्येकविंश स्तो॑म ए॑कविंशतिर्यू॑पा एता॑नि वा॑अश्वमेधे त्री॑णि शीर्षा॑णि ता॑नि य॑एवं वे॑द शि॑रो ह रा॑ज्ञाम्भवति यो वा॑अश्वमेधे॑तिस्र॑: ककु॑दो वे॑द ककु॑द्ध रा॑ज्ञाम्भवत्येकविंशो॒ऽग्निर्भ॑वत्येकविंश स्तो॑म ए॑कविंशतिर्यू॑पा एता अश्वमेधे॑तिस्र॑: ककु॑दस्ता य॑एवं वे॑द ककु॑द्ध रा॑ज्ञाम्भवति। (शतपथ ब्राह्मण १३।३।४।१)
[यह इक्कीसवां ही यज्ञ का शीर्ष है। जो अश्वमेध के इन तीन शिरों को जानता है वह निश्चित ही राजाओं का प्रमुख बनता है। वेदी इक्कीस हैं, स्तोम इक्कीस हैं, यूप इक्कीस हैं। यही अश्वमेध के तीन शिर हैं और जो इन्हें जानता है वह राजाओं का प्रमुख हो जाता है।]
बलि के अभिनय में एक-एक पशु के चतुर्दिक प्रज्ज्वलित अग्नि जिसे पर्यग्नि कहा जाता था घुमा कर खदिर काष्ठ से बनी असि जिसे यज्ञासि कहते थे उसे पशु के कण्ठ से लगा कर उसकी बलि का अभिनय होता था जिसे आलभन कहते थे, तथा अंत में उसे मुक्त विचरण हेतु स्वतंत्र कर दिया जाता था। यदि कोई चाहता था तो यज्ञ के ऋत्विजों को दक्षिणा स्वरुप कुछ शुल्क दे कर उस पशु को ले सकता था। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का अर्थ यह नहीं है कि वैदिक यज्ञों में की गयी हिंसा को हिंसा नहीं माना जा सकता, बल्कि उसका अर्थ है कि वैदिकी हिंसा वास्तविक हिंसा है ही नहीं, वह हिंसा का मात्र अभिनय है। वैदिक बलि का अर्थ त्यागना या समर्पण से हैं। ध्यान रहे कि यह वैदिक बलि की विधि है, तांत्रिक तथा कौलाचार आदि में होने वाले बलि की नहीं। बलि की इस वैदिक विधि को, बलि के इस रहस्य को न तो रोहिताश्व जानता था, न ही शुनःशेप! संभवतः हरिश्चन्द्र को भी यह रहस्य नहीं ज्ञात था। वे यही समझते थे कि बलि में शिरोच्छेद होगा। न तो उन्होंने किसी से पूछा, न किसी ने उन्हें बताया। किन्तु अजीगर्त स्वयं ऋषि था। उसे वैदिक यज्ञों की विधि ज्ञात थी। वह जानता था कि यदि हरिश्चन्द्र के अश्वमेध के साथ वरुण हेतु उसके पुत्र के समर्पण का यज्ञ पुरुषमेध भी होता है तो भी उसके पुत्र को कोई हानि नहीं पहुँचनी! उसे विश्वामित्र द्वारा एक योग्य, समर्पित, गुणी, मेधावी, कर्तव्यनिष्ठ, संकल्पित किशोर के खोज तथा उसके कारणों का भी ज्ञान था, अतः उसने अपने पुत्र के माध्यम से एक बड़ा मूल्य लेने का निर्णय कर लिया, ऐसा बड़ा मूल्य जिसे देने की सामर्थ्य हरिश्चन्द्र में भी नहीं थी। वह मूल्य उसे विश्वामित्र, जमदग्नि तथा वसिष्ठ ही दे सकते थे और वह मूल्य उसने अपने लिये नहीं, समाज के लिये चाहा था!
वैदिक कर्मकाण्ड वास्तव में एक पूरा मनोविज्ञान-शास्त्र है जिसका मूल विविध कारणों से नष्ट किया जा चुका है। इन कर्मकाण्डों की न तो आज किसी को उपयोगिता का भान है, न ही इनकी विशुद्ध पद्धति ही ज्ञात है और इनके रहस्यों का ज्ञान तो लगभग असम्भव ही है। किन्तु तब भी, इस देश में ऐसे अनेक महापुरुष अवश्य होंगे जिन्हें इन यज्ञों की उपयोगिता, विधि तथा रहस्य ज्ञात होगी। हम उन्हें नहीं जानते, यह और बात है।
महायज्ञों के नाम से उल्लिखित कुल दो सौ तिरसठ यज्ञ हैं जो सभी के सभी ‘सोमयाग’ हैं। अश्वमेध, पुरुषमेध, गवामयन, वाजपेय, राजसूय, सौत्रामणि आदि सभी यज्ञ मूलतः सोमयाग के विभिन्न भेद हैं। इन सभी यज्ञों का विस्तार से वर्णन करने का न तो कोई औचित्य है, न ही प्रयोजन, किन्तु इतना अवश्य कहना है कि जिस यज्ञ को ‘नरमेध’ यज्ञ कहा जाता है वह नरमेध यज्ञ नहीं वरन् ‘पुरुषमेध’ यज्ञ है। ‘पुरुष’ शब्द का ‘नर’ शब्द से विस्थापन कुछ घटनाओं में वास्तविक रूप से भयङ्कर नरसंहार होने के कारण आलङ्कारिक रूप से किया गया जो यज्ञ नहीं वरन् प्रतिशोध की घटनायें थीं किन्तु वे सब बहुत कालान्तर की घटनायें हैं। वैदिक कर्मकाण्ड में यज्ञ रूप में ‘पुरुषमेध’ का आयोजन कोई नरबलि नहीं थी। वह पुरुष सूक्त का नाट्य-रूपान्तर था। लगभग सभी यज्ञों के अधिकांश कर्मकाण्ड एक ही हुआ करते थे, केवल विशिष्ट यज्ञों हेतु कुछ विशिष्ट कर्मकाण्ड भिन्न से होते थे जिनके नाम पर उस यज्ञ का नामकरण होता था और ‘पुरुषमेध यज्ञ’ का मुख्य भाग ‘पुरुष सूक्त’ के सहस्रशीर्षा पुरुष की अभ्यर्थना थी।
जिसे वैदिक कर्मकाण्डों का किञ्चित सा भी ज्ञान हो, वह जानेगा कि इस याग की तेईस दीक्षायें, बारह उपसद तथा पाँच सुत्या होती थी। यह यज्ञ चालीस दिनों में सम्पन्न होता था। इसका प्रारम्भ चैत्र शुक्ल दशमी को होता था तथा स्थूल गणना से इसका समापन ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी को होता था। ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी को अवभृतस्नान तथा आहवनीय अग्नि की स्थापना होती थी। इस यज्ञ के ग्यारह यूप तथा ग्यारह अग्निस्तोम पशु होते थे। प्रत्येक आठवें दिन सुत्या का आयोजन होता था जिसमें प्रथम तथा पाँचवीं सुत्या के दिन अग्निष्टोम साम, द्वितीय तथा चतुर्थ सुत्या के दिन उक्थ्य साम तथा तीसरी सुत्या के दिन अतिरात्र साम का आयोजन होता था। दीक्षा, उपसद तथा सुत्या वैदिक कर्मकाण्ड के अङ्गभूत क्रिया-विधियों के नाम हैं जिन्हें विस्तार देना यहाँ सम्भव नहीं।
यजुर्वेद के उन्तीसवें अध्याय के अट्ठावनवें तथा उनसठवें मन्त्र में विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित पशु किस प्रकार के हों, इसका उल्लेख है –
आग्नेयः कृष्णग्रीवः सारस्वती मेषी बभ्रुः सौम्यः पौष्णः श्यामः शितिपृष्ठो बार्हस्पत्यः शिल्पो वैश्वदेवऽऐन्द्रोऽरुणो मारुतः कल्माषऽऐन्द्राग्नः सꣳहितोऽधोरामः सावित्रो वारुणः कृष्णऽएकशितिपात् पेत्वः ॥
अग्नयेऽनीकवते रोहिताञ्जिर् अनड्वान् अधोरामौ सावित्रौ पौष्णौ रजतनाभी वैश्वदेवौ पिशंगौ तूपरु मारुतः कल्माषऽआग्नेयः कृष्णोऽजः सारस्वती मेषी वारुणः पेत्वः॥
[ कृष्ण-ग्रीव पशु अग्नि से सम्बंधित, मेषी (भेड) सरस्वती से सम्बंधित, पिंगल-वर्णी पशु सोम सम्बंधी, कृष्ण-वर्णी पूषा सम्बंधी, कृष्ण-पृष्ठ वाला बृहस्पति से सम्बंधी, चित्रकर्बुर पशु विश्वेदेवों से, अरुण वर्ण वला इंद्र से, कल्मष वर्ण वाला मरुद्गणों से, दृढ़ अंगों वाला इंद्राग्नि से, जिसका अधोभाग श्वेत हो वह सूर्य से, तथा जिस पशु का एक चरण श्वेत किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण गात्र कृष्णवर्ण का हो वह वरुण से सम्बंधित पशु है।
जिसके अधोमुख रोहितवर्णी (रोहित, लोहित, लाल) रोम सेना की भांति सजे हों ऐसा वृष अग्नि से, जिसके अधोदेश में श्वेत रोम हों वह सविता से, शुक्ल नाभि वाला पूषा से, पीतवर्ण का किन्तु जिसके सींग न उगे हों वह विश्वेदेवों से, चितकबरा हो तो मरुद्गणों से, कृष्ण वर्णी अज भी अग्नि से, मेषी सरस्वती से तथा कोई भी वेगवान पशु (तात्पर्य अश्व से ही है) वरुण से सम्बंधित होता है। – यजुर्वेद, अध्याय २९, मन्त्र ५८, ५९]
इस मन्त्र का तात्पर्य यह नहीं कि तत्सम्बन्धित देवता हेतु ऐसे पशु की बलि चढ़ा दी जाय! इसका तात्पर्य है कि देवताओं का पशु रूप में प्रतीक निर्धारित किया जाय। शतपथ ब्राह्मण कहता है – यद् अपश्यत् तस्मादेते पशवः! जिस तत्व को जिस स्वरूप में देखा जा सके वह उस तत्व का पशु है। यजुर्वेद ३१।१५ –
सप्तास्यासन् परिध यस्त्रिः सप्त समिधः कृता। देवा यद्यज्ञं तन्वानां अबध्नन् पुरुषं पशुम्॥
के अनुसार – जब देवताओं के मानस यज्ञ को विस्तृत किया गया तो इस विराट पुरुष में पशु रूप की भावना कर के बाँधा गया और तब इस यज्ञ की सात परिधियाँ हुईं तथा इक्कीस छन्द ही समिधायें हुई!
यजुर्वेद के तीसवें अध्याय में वर्णित है कि विशिष्ट प्रकार की देव-शक्तियों के हेतु विशिष्ट प्रकार के लोगों की नियुक्ति की जाती थी। यजुर्वेद का यह पूरा अध्याय ही इसी वर्णन से भरा है अतः विशेष जिज्ञासु वहाँ से सन्दर्भ ग्रहण कर लें! यज्ञ-यूपों से पुरुषों का बंधन ये नियुक्तियाँ ही थीं। यजुर्वेद का इकतीसवां अध्याय वही महनीय पुरुष-सूक्त है जो ऋग्वेद के दशम मण्डल में भी है, तथा अथर्ववेद में भी ‘सहस्रबाहु’ भेद से मिलता है। यजुर्वेद का बत्तीसवाँ अध्याय इस पुरुष-मेध यज्ञ की उपलब्धि-कामना है। यज्ञों का जो भी स्वरुप अन्यान्य ग्रंथों में वर्णित है, वह यजुर्वेद की यज्ञ-विधियों पर ही आधारित है क्योंकि यजुर्वेद है ही यज्ञ-विधियों का, यज्ञ की मूल विधियों का वर्णन यद्यपि इन्हें कर्मकाण्ड तक ही सीमित नहीं माना जा सकता! अतः यजुर्वेद के अध्याय तीस, इकतीस तथा बत्तीस, पुरुषमेध यज्ञ का मूल स्वरुप प्रस्तुत करते हैं, गपोड़ी इसे नरमेध कहें या कुछ भी कहें!
अतः स्पष्ट है कि हरिश्चन्द्र का यज्ञ अश्वमेध हो या पुरुषमेध या राजसूय या कोई अन्य, अजीगर्त जानता था कि होना क्या है। उसने वसिष्ठ, विश्वामित्र तथा जमदग्नि जैसे ऋषियों के साथ एक गम्भीर कार्य हेतु एक द्यूत खेलने का निश्चय किया जिसमें दाँव पर था उसका अपना ही पुत्र शुनःशेप तथा उसे ज्ञात था कि विजय उसी की होनी है। और यही उसकी भूल थी! द्यूत में कभी भी कोई सर्वतोभावेन नहीं जीतता! वह बहुत कुछ जीत कर भी बहुत कुछ हार जाता है। वेद तक में भी द्यूत की निन्दा अनायास नहीं है। द्यूत पासों का हो, या बिना पासों का, इसका अंतिम परिणाम मात्र शोक है!
और उस यज्ञ में वास्तव में हुआ यह था कि… नहीं! ‘वास्तव में हुआ यह था’ कहना उचित नहीं है क्योंकि मेरा पास न तो यह कहने का कोई आधार है, और न ही यह कहने का अधिकार!
अतः सम्भवतः उस यज्ञ में हुआ यह था कि …
यज्ञ का चालीसवाँ दिन, अग्निष्टोम साम के पश्चात!
वरुण के कार्य हेतु, वरुण की वेधशाला हेतु रोहित के स्थान पर शुनःशेप, जिसके वाम-चरण में श्वेत धब्बा था, जिसका शरीर कृष्णवर्ण का था, उसे प्रस्तुत करने का आदेश हुआ। अजीगर्त अपने पुत्र के साथ यज्ञ-स्थल पर उपस्थित था। उसने अपने सुविचारित निर्णय के अनुरूप अपना पहला पासा फेंक दिया –
“यज्ञ-स्थल पर उपस्थित सभी विद्वान् ऋत्विज सुनें! यह मेरा पुत्र शुनःशेप है जिसे मैं वरुण देव हित समर्पित करने हेतु प्रस्तुत हूँ! किन्तु मेरी एक जिज्ञासा है! आशा करता हूँ कि यहाँ उपस्थित विद्वन्मण्डल मेरी उस जिज्ञासा का समाधान करेगा। यागों की इस परम्परा में जिस संवत्सर नाम प्रजापति का प्रारम्भ में यजन हुआ वह संवत्सर चार प्रकार का है। लौकिक, सायन तथा नाक्षत्र संवत्सरों के समायोजन की विधियाँ खोजी जा चुकी हैं किन्तु चान्द्र वर्ष जो मात्र तीन सौ चौवन दिनों का है, उसका अन्य तीन प्रकार के वर्षों से समायोजन आज तक नहीं किया जा सका इस कारण प्रति वर्ष चान्द्र-वर्ष की अवधि लौकिक वर्ष से ६ दिन तथा नाक्षत्र वर्ष से १२ दिन पीछे सरकती जा रहा है। सायन वर्ष की तुलना में भी यह प्रति वर्ष सवा ग्यारह दिन पीछे सरक रहा है। अन्य तीन वर्षों की अवधि को प्रत्येक चौथे वर्ष समायोजित कर लिया जाता है किन्तु चान्द्र-वर्ष की उपेक्षा हो रही है। क्या यह सभा मुझे बतायेगी कि ऐसा क्यों है?”
प्रश्न उचित था और प्रकरण महत्वपूर्ण किन्तु इस सम्बंध में सत्य ही अभी तक किसी ने विचार नहीं किया था। विश्वामित्र की भृकुटि सङ्कुचित हो गयी – “आप चाहते क्या हैं ऋषि अजीगर्त?”
“स्पष्ट है ऋषिवर! मैं चाहता हूँ कि चान्द्र वर्ष का भी समायोजन अन्य वर्षों की भाँति किया जाय क्योंकि ऐसा न होने पर संवत्सर विकल है।”
“किन्तु यह चाहा भी जाय तो तत्काल संभव कहाँ है? आज से पचास वर्ष पूर्व वह स्थिति आयी थी जब चान्द्र वर्ष भी अन्य वर्षों के साथ ही प्रारम्भ हुआ था। किन्तु अब चान्द्र वर्ष तो लौकिक वर्ष से तीन सौ दिन पीछे हो चुका है। यदि यह सामंजस्य किया भी जाना होगा तो हमें दस वर्षों की अभी और प्रतीक्षा करनी होगी।”
“लौकिक वर्ष के साथ समायोजन हेतु प्रति चौथे वर्ष सायन वर्ष के इक्कीस दिनों की बलि दी जा सकती है, नाक्षत्र वर्ष के साथ सायन वर्ष के समायोजन हेतु एक दिवस बढ़ाया जा सकता है, तो चान्द्र वर्ष के समायोजन हेतु ऐसी कोई विधि तत्काल क्यों नहीं अपनायी जा सकती?”
“क्या विधि हो सकती है?”
“जो व्यतीत हो गया उसको त्याग कर!”
“त्यागने का कोई आधार? कोई कारण?”
“बड़े कार्यों के मूल्य भी बड़े होते हैं गाधिनन्दन!”
“कैसा मूल्य?”
“यज्ञ में उपस्थित सभी विद्वान्, सभी ऋत्विज सुनें! मैं अपने पुत्र शुनःशेप को वरुण देव के हित तब तक समर्पित नहीं करूँगा जब तक पश्चवर्ती दैनिक अयन करती सौ गायें मुझे न प्रदान कर दी जाँय! ये सौ गायें वरुण हित समर्पित होने जा रहे मेरे पुत्र का मूल्य हैं ऋषि विश्वामित्र! देहि मे शत गावं! यदि आप मेरा वांछित मुझे प्रदान करते हैं तो यह है मेरा पुत्र शुनःशेप! इसे आप वरुण देव हित ले जा सकते हैं!”
शुनःशेप भ्रमित था। उसने अपने पिता का विरोध कर दिया,“मैं क्यों आपकी गायों हेतु अपनी बलि दूँ? वरुण देव हित मैं ही क्यों?”
अजीगर्त झल्ला उठा। वह दाँत पीसते हुए फुसफुसाया,“तू चुप रह शुनःशेप! बाधा न दे!”
विश्वामित्र ने देखा – शुनःशेप अपने पिता का मंतव्य समझ नहीं सका है। उन्हें शंका हुई कि क्या यह शुनःशेप वरुण कार्य हित उपयुक्त है भी? किन्तु विश्वामित्र विश्वामित्र थे। अपने समय के राजा विश्वरथ! अपने समय के त्रिशंकु उद्धारक! नयी सृष्टि की संरचना हेतु विख्यात! उन्होंने अजीगर्त का खेल तो समझ लिया किन्तु उन्हें प्रतीत हुआ कि अजीगर्त ने दाँव पर खोटा सिक्का लगा दिया है। तो भी, खेल तो प्रारम्भ हो चुका था। एक ऐसा खेल जिसे कोई समझ नहीं रहा था किन्तु विश्वामित्र ने इस खेल में अजीगर्त को विजयी होने देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने जमदग्नि की ओर देखा। जमदग्नि तथा विश्वामित्र के नेत्र परस्पर मिले और जमदग्नि ने खेल समझ लिया।
“दिया ऋषि अजीगर्त! सभी याज्ञिकों की साक्षी में महाराज हरिश्चन्द्र की ओर से सौ गायें तुम्हारी हुईं! और शुनःशेप वरुण का हुआ! किन्तु मात्र सौ गायें? समस्या तो यथावत है।”
पहला पासा अजीगर्त के पक्ष में पड़ा था। उसने विश्वामित्र के दाँव की प्रतीक्षा की किन्तु विश्वामित्र मौन थे। उनकी ओर से जमदग्नि खेल रहे थे। विश्वामित्र ने जमदग्नि को संकेत किया।
जमदग्नि ने पासा फेंका,“शुनःशेप को बलि-यूप से बाँध दिया जाय!”
सभी ऋत्विज अवाक्! यह कैसे संभव है? बलि-यूप से पशु के स्थान पर, प्रतीकात्मक पशु के स्थान पर एक मनुष्य? शान्तं पापं!
जमदग्नि का फेंका पासा अभी अधर में था। उन्होंने हरिश्चन्द्र से कहा,“राजन! अपने सेवकों को इस बलि-पशु को यूप से बाँधने का आदेश दो!”
सेवक सहमत नहीं हुए। उन्हें तो ज्ञात भी नहीं था कि यहाँ खेल क्या चल रहा है।
जमदग्नि ने यज्ञ-कर्म में सहायक अन्य ऋषियों से कहा,“इसे बलियूप में बाँध दो!”
अन्य ऋषियों ने कोई रुचि नहीं दिखाई। शुनःशेप मन ही मन सोच रहा था कि संभवतः वह बच गया। किन्तु अजीगर्त ने जमदग्नि का फेंका हुआ पासा आगे बढ़ कर लपक लिया,“यदि मुझे अन्य सौ गायें भी दी जाँय – अपरं शतं दत्ताहं – तो मैं स्वयं शुनःशेप को बलि-यूप से बाँधने को प्रस्तुत हूँ!”
विश्वामित्र के नेत्रों में एक चमक सी आ कर लौट गयी। शुनःशेप ने अपने पिता की ओर कातर नेत्रों से देखा मानो पूछ रहा हो – आप मेरे पिता ही हैं न? किन्तु अजीगर्त का ध्यान शुनःशेप पर नहीं विश्वामित्र पर था। वह समझ रहा था कि ऋषि जमदग्नि अपने पासे ऋषि विश्वामित्र के संकेत पर ही चल रहे हैं।
“दिया ऋषि अजीगर्त! सभी याज्ञिकों की साक्षी में महाराज हरिश्चन्द्र की ओर से सौ अन्य गायें तुम्हारी हुईं! अपने पुत्र को यूप से बाँध दो!”, जमदग्नि ने अजीगर्त से कहा।
अजीगर्त शुनःशेप को पकड़ कर बलि-यूप की ओर ले चला। शुनःशेप ऐसे खिंच रहा था जैसे सत्य ही कोई पशु वध हेतु जा रहा हो। अजीगर्त ने अंततः शुनःशेप को यूप से बाँध ही दिया। विश्वामित्र हर्षित मन से, प्रसन्नता के साथ अपना दूसरा दाँव हार रहे थे। उन्होंने जमदग्नि को पुनः संकेत किया और जमदग्नि ने अपना तीसरा पासा फेंका – पशु की बलि हो!
वसिष्ठ को यह प्रहसन अब तक कुछ भी समझ में नहीं आया था। वे इस यज्ञ के ब्रह्मा थे। उन्होंने प्रश्न किया,“क्या रहस्य है ऋषि विश्वामित्र? यह क्या है ऋषि जमदग्नि? शुनःशेप पशु नहीं है!”
विश्वामित्र के अधरों पर एक कुटिल मुस्कान छा गयी किन्तु वे मौन रहे। उत्तर दिया जमदग्नि ने,“अजीगर्त का यह पुत्र राजा हरिश्चन्द्र की ओर से वरुण की बलि है महर्षि! आप को तो ज्ञात ही है! बलि तो होगी। ऋषि अजीगर्त दो सौ गायें ले चुके हैं!”
और इस बार विश्वामित्र ने आगे बढ़ कर जमदग्नि के स्थान पर अपना पासा स्वयं उछाल दिया,“किन्तु इसकी बलि करेगा कौन? इस यज्ञ का होता मैं हूँ। किन्तु मैं यह कर्म नहीं करूँगा! यज्ञ का ब्रह्मा यह कर्म कर नहीं सकता क्यों कि वह तो मात्र यज्ञ का सञ्चालक है अतः ऋषि वसिष्ठ भी यह कर्म नहीं कर सकते! अध्वर्यु तथा उद्गाता को बलि करने का आदेश नहीं है! तो बलि करेगा कौन?”
शुनःशेप को प्रतीत हुआ कि अब मात्र ऋषि विश्वामित्र ही उसके तारणहार हो सकते हैं। किन्तु अजीगर्त समझ चुका था कि विश्वामित्र उसके विरोध में नहीं, उसके पक्ष में खेल रहे हैं। वह समझ गया कि ऋषि विश्वामित्र द्वारा उसे अगली सौ गायों को माँगने का अवसर दिया जा रहा है। विश्वामित्र का उछाला पासा भी अजीगर्त ने कुशलता के साथ लपका,“यदि मुझे सौ अन्य गायें और दी जाँय तो यह बलि मैं स्वयं कर दूंगा!”
शुनःशेप का मन अपने पिता के प्रति घृणा से भर उठा। वह चीखा,“आप मेरे पिता नहीं हैं ऋषि अजीगर्त! आप मेरे पिता हो ही नहीं सकते! मेरे प्रति आप से अधिक दयालु तो ऋषि विश्वामित्र हैं! आह, ये मेरे पिता होते! तो मुझे आपको प्राप्त होने वाली मात्र तीन सौ गायों हेतु इस प्रकार की मृत्यु न मिलती!”
अजीगर्त फुसफुसाया,“तुम मूर्ख हो शुनःशेप! तुम कुछ नहीं जानते!”
विश्वामित्र ने ऋषि जमदग्नि को सङ्केत किया। जमदग्नि बोल उठे,“दिया ऋषि अजीगर्त! सभी याज्ञिकों की साक्षी में महाराज हरिश्चन्द्र की ओर से सौ अन्य गायें भी तुम्हारी हुईं! पर्यग्नि लाई जाय!”
सहायक याज्ञिकों ने पर्यग्नि को शुनःशेप के चतुर्दिक घुमाया।
विश्वामित्र ने जमदग्नि की ओर पुनः देखा और –
“अपने पुत्र की बलि दो ऋषि अजीगर्त!” कहते हुए जमदग्नि ने खदिर काष्ठ से निर्मित बावन अंगुल लम्बी, सात अंगुल चौड़ी, शताब्दियों पुरानी, अपने पिता ऋषि ऋचीक द्वारा कुल-परम्परा से प्राप्त, यज्ञ का घृत पी पी कर समय के साथ कालायस की भांति काली पड़ चुकी यज्ञासि अजीगर्त को थमा दी। देखने वालों को वह यज्ञासि खदिर-काष्ठ की नहीं, शुद्ध कालायास की ही प्रतीत हो रही थी। शुनःशेप भय से पाण्डुर हो गया किन्तु याज्ञिकों को ज्ञात था कि वह असि नहीं, यज्ञासि है।
सभी याज्ञिक यह सोच रहे थे कि खदिर काष्ठ की वह यज्ञासि अजीगर्त शुनःशेप के कंठ से लगायेंगे और उसके पश्चात शुनःशेप को मुक्त कर दिया जायेगा। परम्परा ही यही थी! विधि भी यही थी! किन्तु!
किन्तु यह परम्परा, यह विधि, न शुनःशेप को ज्ञात थी, न रोहित को, न हरिश्चन्द्र को! तीनों यह समझ रहे थे कि अब शुनःशेप का शिरोच्छेद होगा। रोहित अपने प्राण बच जाने के कारण मन ही मन प्रसन्न था। यजमान हरिश्चन्द्र अपने निर्णय के प्रति मन ही मन पश्चाताप कर रहे थे और शुनःशेप भय से चीत्कार कर रहा था,“मेरी रक्षा करिये ऋषि विश्वामित्र! यह पापी अजीगर्त मात्र तीन सौ गायों के लिये मेरी हत्या कर देगा!”
विश्वामित्र को इसी क्षण की तो प्रतीक्षा थी! उन्हें प्रारम्भ से ही संदेह था कि सोमयाग की शृङ्खला का इतना महत्वपूर्ण याग – ‘पुरुषमेध’, और शुनःशेप ऋषिपुत्र हो कर भी इसका रहस्य तो क्या, इसकी विधि तक नहीं जानता? इसका पिता तो विद्वान् भी है, चतुर भी! उसने खेल-खेल में एक बड़ी समस्या सुलझा दी थी कि यदि पिछले पचास वर्षों में अन्य वर्षों की तुलना में चान्द्र वर्ष के पीछे खिसक चुके तीन सौ दिनों को गणना-बाह्य मान लिया जाय तो चान्द्र वर्ष का समायोजन भी संभव है। भविष्य में इसके सामंजस्य हेतु अन्य कलनात्मक विधियाँ विकसित की जा सकती थीं। किन्तु जिस कार्य हेतु रोहित अपने व्यक्तित्व की दुर्बलता के कारण स्पष्टतः अयोग्य सिद्ध हो चुका था उस कार्य हेतु शुनःशेप भी उपयुक्त है या नहीं? यदि नहीं तो पाप ढोने से लाभ? तो क्यों न इसी समय इसकी परीक्षा ले ली जाय?
और तब …
तब विश्वामित्र ने वह दाँव खेला जिसे अजीगर्त भी नहीं समझ सका। अंतिम दाँव! उन्होंने अजीगर्त से कहा – “रुकिये ऋषि अजीगर्त!”
शुनःशेप की अँटकी हुई साँस लौटी।
विश्वामित्र ने शुनःशेप से कहा,“तुम देवताओं की प्रार्थना करो शुनःशेप! यदि उन्होंने चाहा तो तुम्हारे प्राण बच सकते हैं।”
और शुनःशेप को भी लगा कि अब इस धरा पर उसके प्राण बचा सकने वाला कोई नहीं! किन्तु किसकी प्रार्थना करे वह? अपने असमंजस में वह बोल उठा –
कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥
किसी देवता को न आना था, न कोई आया। विश्वामित्र ही उन प्रार्थनाओं को सुन रहे थे, गुन रहे थे और प्रार्थना करने को नये-नये देवताओं का नाम भी शुनःशेप को वे ही सुझा रहे थे। वहाँ उपस्थित अन्य जन तो शुनःशेप की कोमल-कान्त पदावली तथा अजस्र वाग्धारा का आनन्द ले रहे थे। स्वयं अजीगर्त भी नहीं जानता था कि उसका पुत्र ऐसे छन्द भी रच सकता है। अब यज्ञस्थल पर हो रहे नाटक में जैसे मात्र दो ही व्यक्ति रह गए थे – एक था शुनःशेप, वरुण की वेधशाला का अभ्यर्थी, जिसे स्वयं नहीं ज्ञात था कि वह अभ्यर्थी भी है और दूसरे थे वरुण की वेधशाला के वर्तमान कुलपति ऋषि विश्वामित्र जो अभ्यर्थी की परीक्षा ले रहे थे। जैसे ही शुनःशेप ने कहा –
अमी च ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृशे कुह चिद्दिवेयुः।
अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥
[ये सप्तर्षि, ये रीछ, ये नक्षत्र रात्रि के समय तो दीखते हैं किन्तु ये दिन में कहाँ चले जाते हैं? विशेषतः प्रकाशित चंद्रमा तो रात्रि में ही आता है! वरुण के व्रत-नियमादि परिवर्तित नहीं हो सकते!]
तो विश्वामित्र को लग गया कि शुनःशेप यज्ञ-विधियाँ भले न जानता हो, नक्षत्र-विद्या में कोरा नहीं है। किन्तु परीक्षक इतनी सरलता से मान जाय तो परीक्षा ही कैसी? और परीक्षार्थी को मिलने वाला पद भी तो कोई छोटा पद नहीं था। विश्वामित्र के पुत्रों तथा पुत्रवत शिष्यों के प्रधान-पद की परीक्षा थी! लम्बी चली! किन्तु शुनःशेप विश्वामित्र की परीक्षा में सफल हुआ।
याज्ञिक कर्मकाण्ड की पूर्ति बलि के बिना नहीं हो सकती थी। बलि होनी ही थी! उसी प्रकार से, जिस प्रकार विहित था। ऋषि विश्वामित्र ने अजीगर्त के हाथ से यज्ञासि ले ली और जा कर शुनःशेप के कण्ठ से स्पर्श कराया। पुरुष-आलभन की क्रिया निष्पन्न हुई। तत्पश्चात विश्वामित्र ने शुनःशेप के बन्धन खोल दिये। याज्ञिक समवेत स्वर में गा उठे –
तदेवाग्निस्तदादित्यद्वायुस्तदु चन्द्रमा।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता ऽ आपः स प्रजापतिः॥
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न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः॥
हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हि ग्वं सोदित्येषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः॥
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सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
सनिं मेधामयासिषं स्वाहा॥
यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते ।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा॥
मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः।
मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा॥
इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम्।
मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमां तस्यै ते स्वाहा॥ (सभी मंत्र यजुर्वेद अध्याय ३२ से)
किन्तु इस अंतिम दाँव में अजीगर्त अपना सब कुछ हार गया! अपना पुत्र हारने तो वह आया ही था, किन्तु पुत्र के साथ वह हार गया अपनी प्रतिष्ठा भी, और अपना पितृत्व भी! क्योंकि इस प्रहसन में विश्वामित्र के प्रति शुनःशेप के मन में इतनी श्रद्धा तथा अजीगर्त के प्रति उसके मन में इतनी घृणा उत्पन्न हो चुकी थी, कि उसने अजीगर्त को न मात्र अपना पिता स्वीकार करने से मना कर दिया, वरन् उसने स्वयं को विश्वामित्र का ही पुत्र घोषित कर दिया। यह होना ही था। विश्वामित्र के सभी शिष्य उनके पुत्र थे और उनके सभी पुत्र उन्हीं के शिष्य भी, किन्तु शुनःशेप ने तो विश्वामित्र का गोत्र भी स्वीकार कर लिया और विश्वामित्र ने भी उसे अपना गोत्र ही नहीं एक नया नाम भी दिया – ‘देवरात वैश्वामित्र’। इतना ही नहीं, विश्वामित्र ने शुनःशेप को अपना ज्येष्ठ पुत्र घोषित किया अर्थात वरुण देव की उस प्रयोगशाला का प्रमुख भी घोषित कर दिया जिसका स्वाभाविक विरोध हुआ। उनके शिष्यों में से आधे ने एक नवागत को अपना वरिष्ठ मानने से मना कर दिया किन्तु जिसे योग्य समझा उसको उसका अधिकार देने में विश्वामित्र हिचके नहीं! अपने सौ में से पचास पुत्रों या शिष्यों या दोनों के निष्कासन के मूल्य पर भी वरुण की उस प्रयोगशाला का अधीक्षक उन्होंने शुनःशेप को ही नियुक्त किया। अजीगर्त का अपना पुत्र वापस माँगना, इसी गोत्र-परिवर्तन का विरोध था। अंततः पिता अपने पुत्र में ही तो जीवित रहता है? किन्तु यह हो न सका!
अंतःकरण की कोमल भावनात्मक अनुभूतियाँ भी एक प्रकार की ऋद्धि हैं। जिस मनुष्य के पास यह ऋद्धि हो वह तो भाग्यशाली होता ही है किन्तु जिसे उन कोमल भावनात्मक अनुभूतियों को सरस तथा अलङ्कृत वाणी में व्यक्त करने की कला आती है वह और भी सौभाग्यशाली है क्यों कि सरस तथा अलंकृत अभिव्यक्ति ही काव्य है तथा अनुभूतियों को सरस अभिव्यक्ति देने वाला ही कवि है। किन्तु जो काव्य सरस तथा अलंकृत होने के साथ प्राण-गर्भित तथा प्रभावोत्पादक भी हो वह काव्य से कहीं अधिक, मंत्र होता है और ऐसे मंत्रतुल्य काव्य का सर्जक ही ऋषि होता है, वह द्रष्टा हो जाता है। सभी मंत्र काव्य हैं तथा सभी ऋषि कवि हैं, किन्तु सभी काव्य मंत्र और सभी कवि ऋषि नहीं हो जाते। मनुष्य का कवि होना सौभाग्य है तो उसका ऋषि होना सौभाग्य का चरम है। कैशोर्य तथा युवावस्था की संधि पर खड़ा शुनःशेप आजीगर्ति, उपनाम देवरात वैश्वामित्र, अंतःकरण की कोमल भावनात्मक अनुभूतियों से समृद्ध था, उन अनुभूतियों को सरस अभिव्यक्ति भी दे सकता था और उसकी अभिव्यक्तियाँ प्रभावोत्पादक भी थीं अतः वह कवि था, वह ऋषि था, जो आगे चल कर एक वैज्ञानिक ऋषि हुआ, और इसी कारण उसकी दृष्ट ऋचायें ऋक् संहिता में संकलित हुईं। ऋग्वेद प्रथम मण्डल के सूक्त २४ से सूक्त ३० तक का द्रष्टा ऋषि यही शुनःशेप है, ऋषि ‘शुनःशेप आजीगर्ति कृत्रिम नाम देवरात वैश्वामित्र’, और ये सूक्त वही हैं जो उसने विश्वामित्र द्वारा ली गयी परीक्षा के उत्तर में देवताओं की प्रार्थना में कहे थे! किन्तु उसका अभागा पिता अजीगर्त? वह तो संस्कृत साहित्य से ले कर आधुनिक साहित्य तक, विभिन्न कथा – कहानियों से ले कर विभिन्न विमर्शों तक, उसे एक धनलोलुप, निर्दयी, अवसरवादी तथा क्रूर पिता के रूप में चित्रित करते ग्रंथों की पोथियों, उपन्यासों, कहानियों, वार्त्ताओं, नाटकों तथा कविताओं के शब्द प्रति शब्द बोझ से दबा आज भी कराह रहा है तथा उसकी प्रत्येक कराह से मात्र यही ध्वनि उभर रही है – “मैं धनलोलुप नहीं था! मैं अवसरवादी नहीं था! मैं निर्दयी तथा क्रूर भी नहीं था! मैंने तो उस काल में प्रथम बार विभिन्न प्रकार के वर्षों के सामंजस्य हेतु एक प्रयास किया था जिसका परिणाम मुझे इस अपमान, इस उपेक्षा, इस घृणा के रूप में प्राप्त हुआ!”
कालान्तर में इसी चान्द्र वर्ष के अन्य तीन प्रकार के वर्षों के साथ सामंजस्य हेतु अधिक मास की कलनात्मक प्रणाली विकसित की गयी, दिनों का प्रारम्भ तथा तिथियों की गणना सूर्योदय के समय से माने जाने के नियम बने। संभवतः इसी के पश्चात विश्वामित्र ने श्रावण मास से नये संवत्सर का प्रारम्भ भी प्रचलित किया जिसमें प्रथम बार अधिमास व्यवस्था सम्मिलित की गयी किन्तु जो कालक्रम में अब लुप्त हो चुका है, तदपि अधिक मास द्वारा चान्द्र वर्ष का सायन तथा नाक्षत्र वर्ष से समन्वय अब भी यथा-रूप स्वीकार्य है।
वेद के छह अंगों में एक अंग ‘कल्प’ भी है। ‘कल्पो वेदविहितानां कर्मणमानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्’ अर्थात कल्प का तात्पर्य है वेदविहित कर्मों, अनुष्ठानों आदि का क्रमपूर्वक कल्पना करने वाला शास्त्र। किन्तु है यह अंततः कल्पनाशास्त्र ही। और जब ऋषिगण नहीं रहे तब मनुष्यों ने देवों से कहा कि अब हमारा ऋषि कौन होगा? तो देवों ने ‘तर्क’ को ऋषिरूप में मनुष्यों को प्रदान किया – ऋषिषूत्क्रामत्सु मनुष्या देवानऽब्रुवन् को न ऋषिर्भविष्यतीति तेभ्यः तर्कमृषिं प्रायच्छन्॥ अतः इतिहास के अस्थिभंग पर कल्पना का ओषधि-लेप कर के उस पर तर्क की पट्टियाँ बाँध कर उसे ठीक किया जा सकता है, ऐसा मेरा विश्वास है। यह आलेख जिस तथ्य की ओर संकेत करता है वह सत्य हो भी सकता है, सत्य नहीं भी हो सकता है, किन्तु ऐसा नहीं है कि सत्य हो ही नहीं सकता।
अब अंत में यह निवेदन है कि इन पंक्तियों का लेखक वैदिक साहित्य या उसके अंगों, खगोल और ज्योतिष, तंत्र तथा आगम, वैदिक या तांत्रिक कर्मकांड, प्राच्य विद्याओं, प्राच्य इतिहास आदि का कोई विद्वान नहीं है। विद्वान क्या, वह तो इन विषयों का गम्भीर अध्येता तक नहीं है। ज्ञान से शून्य, उसके पास यदि कुछ है तो इन विषयों में थोड़ी रुचि, थोड़ी सी विश्लेषणात्मक बुद्धि, थोड़ी सी शब्द-संपदा तथा थोड़ी सी कल्पना के उड़ान की सामर्थ्य। और इन सबके साथ उसके पास यदि कुछ और है, तो वह व्यक्तिगत है और वह है वेदों में श्रद्धा, पुराणों में आस्था, उपनिषदों पर गर्व, ब्राह्मण ग्रंथों पर अभिमान, कर्मकाण्डों में निष्ठा, तंत्र पर विश्वास तथा भारतीय वैदिक संस्कृति, उसका इतिहास, तंत्र तथा आगम को जानने की, समझने की एक उत्कट अभिलाषा! इन क्षुद्र संसाधनों के बल पर किसी अज्ञ द्वारा कोई गम्भीर शोधपरक आलेख प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, अतः यह आलेख भी कोई शोधपरक आलेख नहीं है। किसी भी विषय में शोध का कार्य उस विषय के विद्वानों का है जिनके पास शोध की योग्यता भी है और शोध हेतु उपलब्ध आवश्यक संसाधन भी। यह आलेख तो मात्र एकान्तिक बुद्धि-विलास का परिणाम है जिसमें थोड़ा निबंध है, थोड़ी वार्ता और थोड़ी कहानी, जिसे यथासंभव थोड़ा ललित कलेवर दे कर प्रस्तुत किया गया है। स्पष्ट है कि यह आलेख न तो किसी पूर्व-प्रचलित धारणा, मंतव्य या आख्यान का खण्डन करने हेतु है और न ही किसी नयी स्थापना के लिये। ललित साहित्य का ऐसा कोई उद्देश्य होता भी नहीं।
ललित साहित्य का उद्देश्य तथा उत्तरदायित्व तो पाठक के चित्त को एक परिमार्जित भव्यता और उसकी चित्त-ऋद्धि को एक विस्फार देना तथा इसके साथ ही पाठक के मन को उसके अवकाश के क्षणों में कुछ शुद्ध तथा सात्विक रंजन उपलब्ध कराना मात्र है। इस आलेख का उद्देश्य तथा उत्तरदायित्व भी मात्र इतना ही है। किन्तु बहुधा ललित साहित्य पाठक के भावाकाश में स्थित किसी अदृश्य रहस्य-महल के कुछ अनदेखे-अनजाने वातायन खोज कर खोल देता है जिससे हो कर सत्य की कोई किरण आये, या न आये, किन्तु ऐसे किसी किरण के आने की सम्भावना अवश्य जन्म लेती है और वह सम्भावना किसी ठिठके प्रश्न को मुखर तथा गतिशील कर सकती है एवं उस प्रश्न के भटकते उत्तर को उसका लक्ष्य एवं दिशा बता सकती है। किन्तु यह आलेख तो किसी ठिठके प्रश्न को गति देने या उस प्रश्न के भटकते उत्तरों को उनका लक्ष्य बताने या दिशा दिखाने का प्रयास भी नहीं है। यह आलेख मात्र यह बताने का प्रयास है कि कुछ प्रश्न हैं जो ठिठके हैं और कुछ उत्तर हैं जो भटक रहे हैं, किन्तु उनके सम्बंध में किसी को सोचने का अवकाश नहीं है।
कहानियों के पीछे की कहानियाँ कहना संकट भरा कार्य है क्योंकि उनका कोई प्रमाण नहीं होता और इस शुनःशेप कथा के पीछे की कहानी कहना तो किसी कुत्ते की पूँछ को सीधा करने के प्रयास के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। और कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं हो सकती। यह जानते हुए भी यह आलेख प्रकृत्या टेढ़ी एक शुनःशेप-कथा के कभी सीधे हो सकने की सम्भावना के खोज का प्रयास है जिसमें त्रुटियाँ भी हैं, दोष भी है। किन्तु आचार्य वराहमिहिर ने पञ्चसिद्धान्तिका में कहा है –
प्रस्तावेऽपि न दोषान् जानन्नपि वक्ति यः परोक्षस्य,
प्रथयति गुणांश्च तस्मै सुजनाय नमः परहिताय॥
[दूसरे के दोष जानते हुए भी और उन्हें उद्घाटित कर देने का अवसर उपलब्ध होने पर भी जो उन दोषों को न बता कर उसके गुणों को ही प्रकाशित करता है ऐसे परहितकारी सज्जन को नमस्कार है।]
शुनः प्राणस्य शेपः रूपमिति शुनःशेपः। अपने ही प्राण का, स्वभाव का, वह अंश जो श्वान के पूँछ की भांति टेढ़ा हो, कुटिल हो, वर्तुल हो, वही अंश शुनःशेप है। मैं अपने स्वभाव के उस टेढ़े अंश को जानता हूँ! मैं भी शुनःशेप हूँ! ऋषि शुनःशेप नहीं, मात्र शुनःशेप! किसी अजीगर्त का हारा हुआ अंतिम दाँव!
अद्भुत शोध-परक आलेख है। अभिभूत हो गया।
ये वही समय था जब ऋग्वेद के सातवें मंडल में वर्णित विश्व का पहला महायुद्ध – ‘दसराजयुद्ध’ में राजा सुदास ने विश्वामित्र के सहयोग से विजय प्राप्त की। हज़रत इब्राहीम भी राजा सुदास के समकालीन थे, ये बात तत्कालीन ग्रंथों के शोध से प्रमाणित है।
आपके द्वारा प्रस्तुत ‘शुन:शेप आख्यान’ शायद
इसके बाद की घटना है कि अजिगर्त ऋषि का पुत्र शुन:शेप जिसे राजा हरिश्चन्द्र द्वारा यज्ञ में इंद्र (आपके आलेख के अनुसार विश्वामित्र) को बलि/शोध हेतु दान देने का प्रयास किया गया था और इंद्र/विश्वामित्र द्वारा बिना बलि के ही यज्ञ पूर्ण मान लेने के कारण बच गया। वैदिक काल के इस घटना का हवाला दे कर कुछ विचारधारा-विशेष के इतिहासकारों द्वारा हमेशा से कोहराम मचाया जाता रहा है कि – ‘हिन्दू धर्म में तो नर-बलि की प्रथा थी।’
अब ये तो शोध का विषय है कि – इब्राहिमी धर्म ग्रंथों में उल्लिखित ‘हजरत इब्राहिम द्वारा अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी’ की घटना’ और ‘वैदिक कालीन अजिगर्त ऋषि के पुत्र शुन:शेप की बलि की घटना’ ये एक ही समय की घटना है, और एक ही घटना है, या अलग-अलग? क्यूंकि तत्कालीन ग्रंथों के अवलोकन से तो दोनों कथा हू-बहू एक ही जैसी है, एक ही समय की है और एक ही स्थान की। सिर्फ नाम का फर्क है। खैर! इब्राहिमी धर्म ग्रंथों में उल्लिखित इस ‘कुर्बानी’ पर तो ये विद्वान हमेशा से चुप्पी ही साधे रहे हैं।
वैसे ये तो स्पष्ट है कि इब्राहिमी धर्म ग्रंथों में उल्लिखित ‘हज़रत इब्राहिम’ ही पहले पैगंबर/हज़रत थे। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी ‘अजिगर्त’ और ‘हज़रत’ शब्दों के उच्चारण की समानता को बिल्कुल नजरंदाज भी नहीं किया जा सकता है। इस दृष्टि से ‘इब्राहिम’ और ‘अजिगर्त’ के एक ही व्यक्ति होने की संभावना प्रबल हो जाती है।
कहीं ये प्रलय की घटना के समान तो नहीं जिसे सिर्फ नाम बदल कर यहूदी अथवा अन्य इब्राहिमी धर्म ग्रंथों में शामिल कर दिया गया हो? और प्रलय वाले ‘मनु’ ही ‘हज़रत नूह’ बन गए!
ये भी पाया जाता है कि ऋग्वेद में जो हमारे महानायक हैं वही लोग कुछ दूसरे धर्म के ग्रंथों में खलनायक हैं क्यूंकि वे उनके द्वारा कुचल दिए गए थे। हमारे वेद और ग्रंथों में जिनका कोई खास महत्व कभी नहीं रहा वे लोग कुछ दूसरे धर्म ग्रंथों में महानायक और हजरत – पैगंबर तक हो गए। ‘इधर ना तो उधर सही’ वाली बात चलती रही, काफिला टुटता गया और और नए-नए धर्म-संस्कृतियों का उदय होता रहा।
लेखक भले ही स्वयं को विषय विशेषज्ञ व विद्वान न माने यह उनकी समस्या है लेकिन उन्होंने आज मुझे एक नया दृष्टिकोण, अद्वितीय ज्ञान सिखाया है और कई ऐसी बातों से परिचित करवाया है जो अन्यथा असंभव थी ।
निःशब्द हूँ गुरुजी
अद्भुत लेखन।
साधुवाद
प्रणाम! जैसा कि आप ने बताया, ब्रह्मा ही वरुण है। सिंधप्रान्त के वरुणावतार झुलेलाल भी ब्रह्मा के समान वृद्ध रूप धारी हैं,यह आपकी तथ्य को सिद्ध करते हैं। विश्वामित्र द्वारा परीक्षा (यद्यपि शुन: शेप की थी), का रहस्योद्घाटन हुआ। हरिश्चन्द्र की दोनों कथाएँ सत्य है भी, नहीं भी। वस्तुत: एक ही घटना के सूत्र उलझ कर ऐसे खण्डित हुए कि दो कथाओं के रूप में प्रचलित हो गए। धन्यवाद, कथा को पूर्णरूपेण समझाने हेतु। पुनश्च धन्यवाद।