बरसाती दिन थे। बचे खुचों में एक इशवरचन्द लाहौर की ग़लियों में घूम रहा था। अचानक जोर जोर से बारिश होने लगी तो भीगने से बचने के लिये पास की मस्जिद में घुस गया। वह हड़बड़ी में अपने जूते बाहर रखना भूल गया।
उसे देख मौलवी की त्यौरियाँ चढ़ गयीं – लाहौल बिला … कमबख्त! जूते पहने इबादतगाह में घुस आये? तुम्हारे दोनों पाँव काट दिये जायेंगे। सहमे इशवरचन्द ने सलाम बोला तो मौलवी ने सजा बढ़ाई – तुम्हारी नापाक जुबान भी काट ली जायेगी।
मारे आतंक के इशवरचन्द ने मौलवी के पाँव पकड़ लिये। गिड़गिड़ाते हुये बोला – बख्श दो मियाँ।
मौलवी ने कहा – कलमा पढ़ और ईमान ला तो जान बख्शूँ। इशवरचन्द ने कोई और राह न देख कहा – कर लेंगे मियाँ, इशवरचन्द खुदाबख्श हो जायेगा, क्या अंतर पड़ता है? नाम कोई हो, ऊपरवाला तो एक ही है।
मौलवी गरज उट्ठा – खामोश काफिर! ऊपर वाला बस अल्लाह है और उसका बस एक नबी है। बन्द कर अपनी गलीज जुबान!
इस पर इशवरचन्द को बुरा लग गया। वह तन कर बोला – तब तो यह सिद्ध करने को कि तुम एक नम्बर के झूठे और अहमक हो, मैं कलमा कत्तई नहीं पढ़ूँगा। कर ले जो करना है!
मौलवी भीतर दौड़ा। चाकू तो कहीं नहीं मिला पर बटवारे की लूट में मिली पिस्तौल हाथ लग गयी। उसने आव न देखा ताव, इशवरचन्द को गोली मार दी। मरते हुये भी इशवरचंद चिल्लाया – मौलवी! तुम एक नम्बर के झूठे और अहमक हो, साबित हो गया!
उसे ठोकर मार कर हाथ ऊपर फैला मौलवी बुदबुदाया – तेरा लाख लाख शुकर है। इस हथियार से पहली कुरबानी काफिर की हुई।
आमीन।