भारतीय इतिहास बोध को ले कर बहुत कुछ अवाञ्छित कहा जाता रहा है। उदाहरण के लिये पुराणों का नाम लिया जाता है। पुराण अध्ययन करते हुये हम बहुधा दो अतियों पर पाँव जमाये रहते हैं। एक अति वह है जिसके अनुसार पुराण शाश्वत हैं, वेद नष्ट हो जाते हैं किंतु पुराण बचे रहते हैं जिनसे वेदों का पुन: उद्धार किया जाता है। वर्तमान में उपलब्ध सकल चार लाख श्लोकों वाले अट्ठारह पुराणों की रचना वेद व्यास ने की जो कि अक्षरश: पाँच हजार वर्षों से यथावत हैं।
दूसरी अति वह है जिसके अनुसार पुराण पुरोहितों द्वारा मनगढ़न्त कथायें बना जन सामान्य का शोषण करने की युक्ति मात्र हैं। पुराण पूर्णत: अवैज्ञानिक हैं जिनमें जाने कितना कूड़ा कचरा भरा हुआ है।
ये दोनो अतियाँ त्याज्य हैं। संसार में विरले ही कोई ऐसी संस्कृति सभ्यता होगी जो सहस्राब्दियों से सञ्चित अपनी थाती के प्रति इस प्रकार एक साथ घोर उपेक्षा, उदासीनता, श्रद्धा एवं गर्व का भाव रखती हो ! भारतीय रखते हैं।
भारतीय जन की दृष्टि स्थूल, जड़ एवं स्थैतिक न रह कर सूक्ष्म, चैतन्य एवं गतिशील रही है जिसके सबसे बड़े प्रमाण पुराण हैं। जब हम इतिहास के पाश्चात्य निकष को किनारे रख जीवन एवं समस्त सृष्टि को एक सतत प्रवाह के रूप में देखते हैं तो पुराणों की सार्थकता समझ में आती है।
पश्चिमी दृष्टि से देखें तो भारत पर आक्रमण का पहला ऐतिहासिक प्रमाण हमें आज से लगभग ढाई हजार वर्षों से भी पुराना मिलता है। तब से ले कर ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने तक जाने कितने झञ्झावात एवं बवण्डर भारत भूमि झेलती रही एवं सब कुछ पी कर गिरती पड़ती पुन: पुन: उठती रही। जाने कौन से महाभूत काल से ही दानवों के आक्रमण की उहात्मक कथाओं से आरम्भ कर ब्रिटिश काल तक की गाथायें लिखी जाती रहीं। इतिहास, काव्य, शिल्प, धातुकर्म, कृषि, नाक्षत्रिकी, वास्तु, वैद्यकी, पर्व, ऋतु, नदी, पर्वत, उपत्यका, समुद्र सहित समस्त भूगोल, जाने कितने ब्रह्माण्ड, लाखों अरबों वर्षों के गणना सूत्र आदि आदि समेटती पुराण परम्परा अपने प्रति, अपने देश के प्रति, अपने जन के प्रति इतनी जागृत जीवित रही कि अक्षुण्ण प्रवाह सुनिश्चित रखा।
विभीषिका, अकाल, दुकाल, ईति भीति के मारे जाने कितनी बार सर्वनाश तक हो गया किंतु अहो जिजीविषा, अहो लगन कि पुन: पुन: सत्र आयोजित कर, सूत चारण घुमंतू गवैयों से पूछ जाँच परख पुराण परम्परा सुरक्षित की जाती रही। स्वयं के अवदान के प्रति कोई ममत्व नहीं कि सब वेदव्यास के नाम कर दिया! जीवन शक्ति इतनी कि सहस्राब्दियों पुरानी संस्कृत भाषा आज भी पढ़ी जाती है, समझी जाती है, अध्ययन में है। वह संस्कृत जिस पर कि कीचड़ उछाल कर, जिसकी महत्ता पर प्रश्नचिह्न लगा कर जाने कितनों के घर चल रहे हैं! कौन से देश में ऐसा होता होगा?
पश्चिम इतिहास राजाओं एवं शासकों का लिखता है, बहुत सावधानी के साथ दिनाङ्क वर्ष इत्यादि सँजोता है। आवश्यक है, किन्तु सौ सवा सौ वर्ष पश्चात क्या होता है? प्रश्नचिह्न एवं विवाद उठने आरम्भ हो जाते हैं। इतिहास विजेता लिखते हैं – यह कथन अधूरा है। कहा यह जाना चाहिये कि इतिहास वे लिखते हैं जो नश्वरता के मध्य अमरता के बिंदु सँजोते हैं, जिनके लिये जड़ समय की कोई महत्ता नहीं, जिनके लिये इसका कोई महत्त्व नहीं कि कौन कब हुआ अपितु इसका महत्व है कि किसी का सनातन अवदान क्या रहा ! यदि उसका अवदान अप्रतिम असाधारण रहा तो उसे काल की सीमाओं से परे चिरञ्जीवी बना उसके साथ स्थान स्थान जोड़, नये सीमांत रचने वाले इतिहास लिखते हैं। चिरञ्जीवियों की अद्भुत परिकल्पना भारत में ही मिलेगी। देखें तो भारत को लिखने वालों के लिये काल एक झुनझुना मात्र रहा।
लाख वर्ष तपस्या करने वाले, गर्भ में ही समस्त ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले, दिक्काल आयामों की सीमाओं को छिन्न भिन्न कर विचरण करने वालों का इतिहास पुराण हैं। जिन्हें मिथ कहा जाता है, वे शाश्वती समा आयाम की उच्च मानवीय रचनायें हैं, जो अमर हैं।
पुराण परम्परा ऋषियों, राजन्यों के साथ साथ जन सामान्य को भी अपने इतिहास बोध में समेटती चलती है। जब अनपढ़ एवं साधारण जन व्रत, उपवास, तीर्थ इत्यादि के वर्णन से गुम्फित कथा में किसी साधारण सी महिला को अपने तप से चमत्कार करते हुये सुन रहे होते हैं तो उनकी चेतना का संस्कार हो रहा होता है – इतनी पुरानी कथा में भी एक साधारण द्वारा असाधारण कर्म आज तक सुरक्षित है! वह महिला, वह कथा, उसका काल उनकी जातीय चेतना का एक अङ्ग हो जाती है। अपनी माटी, परिवेश, जन एवं आराध्य से भी लगाव के तन्तु सशक्त होते जाते हैं। जब तक पुराणों के अध्ययन में श्रद्धा एवं घृणा से दूर हो कर नहीं बैठा जायेगा, उनके स्थायी चिरयुवा प्रभाव को समझना असम्भव होगा।
संसार में ऐसा कौन सा देश होगा जिसमें जन सामान्य से यह अपेक्षा हो कि वह अपनी पिछली सात पीढ़ियों का नाम स्मृति में रखे तथा तब दुहराये जब वह विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर रहा हो! यह अनूठा, जन सामान्य का इतिहास बोध अन्यत्र कहाँ है?
प्रत्येक माङ्गलिक अनुष्ठान के संकल्प में जहाँ पिता एवं माता, दोनों पक्षों की पीढ़ियों का नामोच्चार होता हो, न पता हो तो सीधे हरि एवं श्री से सम्बंध जुड़ें; ऐसा अन्यत्र कहाँ होता है?
पुराण पढ़ें। अपनी श्रद्धा, मान्यतायें, आग्रह, अहङ्कार, ममत्व; सब किनारे रख पढ़ें। सहस्राब्दियों के कथित मिथ शनै: शनै: आप को वहाँ ले जायेंगे जहाँ कि समय निरर्थक हो जाता है। आप नारद हो जाते हैं, जिससे कि कुछ नहीं छिपा। एक एक शब्द, एक एक घटना आप को अनंत से जोड़ने लगती है। जो अशुभ होगा, अवांछित लगेगा; वह भी वहाँ सोद्देश्य है। कहा भी गया है कि सित एवं असित दोनों से संसार है, उनसे ही पुराण हैं।
इस अङ्क में रामायण की कड़ी स्थगित रखी गयी है। उपनिषदों के पाँच प्रकार के शान्ति पाठ सरलार्थ के साथ दिये गये हैं, मनन करें। स्वस्ति।
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