Sagittarius A धनु अ गुरुत्व एवं परिक्रमा करते तारक : कल्पित Artistic Image
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गत ज्येष्ठ (अधिक) पञ्चमी को गुरुत्व के सापेक्षिकता सिद्धांत से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण प्रेक्षण घटित हुआ।
हमारी आकाशगङ्गा मंदाकिनी के नाभिक में ‘धनु अ*’ (Sagittarius A*) नाम का घनीभूत नाक्षत्रिक विकिरण स्रोत है जिसके केंद्र में एक अतिमान कृष्ण विवर है। कृष्ण विवर (black hole) नाम इस कारण है कि इस दिक्काल क्षेत्र का गुरुत्वीय आकर्षण बल इतना बली होता है कि उससे कोई भी द्रव्य या विकिरण बाहर नहीं आ सकता अर्थात प्रकाश भी नहीं।
उसके नाम में तारक चिह्न * का कारण रोचक है। उसे यह नाम देने के काल में आणविक भौतिकी में उच्च ऊर्जा की स्थिति वाले परमाणुओं के नाम में यह चिह्न अभिजान के लिये लगाया जाता था। अन्वेषक ब्राउन ने उस घनीभूत विकिरण स्रोत हेतु ऐसे सादृश्य मूलक विधान को उपयुक्त समझा।
कितना बली कि प्रकाश को भी बंदी बना ले? जानने हेतु हमें धरित्री के दिक्काल में सीमित अपने मस्तिष्क तंतुओं को तानना होगा। उन आयामों का पुराणों के करोड़ों वर्ष एवं योजनों से साम्य समझें। धनु अ* में सूर्य के द्रव्यमान से चालीस लाख गुना द्रव्यमान है जिसके आकार का व्यास 4.6 करोड़ किलोमीटर है।
सूर्य के द्रव्यमान की सापेक्षिकता ऐसे समझें कि यदि समस्त ग्रहों के द्रव्यमान मिला दें तो भी सूर्य का द्रव्यमान उस योग से 745 गुना पड़ता है जो कि पृथ्वी से तीन लाख तैंतीस हजार गुना है !
प्रचलित गणन की पद्धति की सीमा यहीं समाप्त हो जाती है। उससे आगे दिक्काल-द्रव्यमान-ऊर्जा की जटिल सापेक्षिकता आरम्भ हो जाती है। अस्तु।
दक्षिण यूरोपी वेधशाला (ESO) ने धनु अ* के गुरुत्वीय क्षेत्र से निकट जाते हुये तारे S2 के प्रेक्षण से आइंस्टीन के उस भविष्य कथन की पुष्टि की जिसके अनुसार अत्युच्च गुरुत्वीय क्षेत्र से गतिमान प्रकाश को अपनी ऊर्जा के कुछ भाग से वञ्चित होना पड़ता है जिसे रङ्गावली (spectrum) में नीचे लाल रङ्ग की दिशा में विचलन से जाना जा सकता है। इसे ‘गुरुत्वीय लाल-विचलन (gravitational redshift)’ कहते हैं।
धनु अ* के गुरुत्वीय क्षेत्र से जाते S2 से निर्गत प्रकाश के साथ यही हुआ। कृष्ण विवर ने उससे निर्गत प्रकाश की कुछ ऊर्जा सोख ली !
यह प्रेक्षण आधुनिक तकनीकी से सम्भव हो पाया जिसमें परांशु पथक (laser guide) के साथ उच्च क्षमता वाले चार अवरक्त दूरदर्शी प्रयुक्त हुये। इनका सकल प्रभाव ऐसे प्रेक्षणों में प्रयुक्त एकल दूरदर्शियों से पंद्रह गुनी अधिक सुग्राहिता जितना था। सामान्य जन ऐसे समझें कि यह कुछ ऐसा ही था जैसे धरती से चंद्रमा पर पड़ी टेनिस की गेंद दिख जाय !
वेग को हम आवृत्ति एवं तरङ्ग दैर्ध्य के गुणन के रूप में जानते हैं। ऊर्जा का सम्बंध आवृत्ति से होता है, ऊर्जा के घटने का अर्थ है आवृत्ति का भी घटना। चूँकि प्रकाश का वेग स्थिर रहना है, तरङ्गदैर्ध्य = स्थिराङ्क(वेग)/आवृत्ति से हम समझ सकते हैं कि तरङ्गदैर्ध्य को बढ़ना होगा। यही रङ्गावली में लाल की दिशा में विचलन है क्यों कि इंद्रधनुषी रङ्गावली में नीललोहित (violet) की तरङ्ग दैर्ध्य न्यूनतम होती है एवं लोहित या लाल की अधिकतम।
इस प्रेक्षण को एक महान उपलब्धि माना जा रहा है जिसका श्रेय दिन प्रतिदिन उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर उद्योगधर्मी मानवता को जाता है। एक सहज प्रश्न उठता है कि यह सब जान कर हम करेंगे क्या? इस ज्ञान की सिद्धि क्या है? यह क्यों महत्वपूर्ण है? पेरिस स्थित वेधशाला से ओडेले स्टॉब ने उत्तर दिया कि गुरुत्व ब्रह्माण्ड का मूलभूत गुण है। ब्रह्माण्ड की समझ विकसित करने के लिये गुरुत्व को यहाँ पृथ्वी पर, आकाशगङ्गा में एवं उससे परे भी समझना महत्वपूर्ण है।
दर्शन इस उत्तर से आगे चलता है जो कि भौतिक उपादानों से अधिक अनुभूतियों पर केंद्रित है। वैज्ञानिकों का उत्तर भौतिकी पर आधारित होगा जो कि अपने उच्च रूप में दर्शन का ही रूप ले लेती है। ज्ञान की सिद्धि क्या है? इस प्रश्न के साथ ही जीवन की सिद्धि के, उद्देश्य के, आदर्श के विविध प्रश्न स्वत: ही उपस्थित हो जाते हैं। मनुष्य रोटी, वस्त्र एवं सदन मात्र से संतुष्ट नहीं रह सकता। यह उसकी उच्च मानसिक क्षमता का अपमान ही होगा। ऐसे प्रश्न उसके आगे उपस्थित होते ही इस कारण हैं कि वह मानसिक रूप से विराट क्षमता का स्वामी होता है। ये प्रश्न एवं ब्रह्माण्डीय आयामों का स्पर्श करते अभियान उनके लिये हैं ही नहीं जो मात्र मूलभूत आवश्यकताओं में ही वैविध्य एवं नवोन्मेष में उलझे रहते हैं। विचित्र सी बात है कि मूलभूत गुण को समझने हेतु क्या भौतिक, क्या दार्शनिक; उच्चतम मानसिक क्षमता की आवश्यकता पड़ती है। यह विचित्र तथ्य विस्मित करने वाला तो है ही, एक निर्वात में ला कर छोड़ भी देता है जिसके आगे ईश्वर आता है। ईश्वर है या नहीं? रूपाकार है या निराकार? वास्तव में है क्या? इन सब पर अंतहीन विमर्श चर्चायें होती रही हैं, रहेंगी। उनसे परे हट कर देखें तो उत्कृष्ट मानव के जीवन की, ज्ञान की, अस्तित्त्व की, उद्योग की; सबकी सिद्धि भी ‘उत्कृष्टता’ में निहित है। जो जहाँ भी है, वहीं उत्कृष्टता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर रहे तो वह अपने मूल के एवं ईश्वर के भी निकट होगा।
इसी अनुभूति ने परोपकार, समस्त जड़ चेतन से ऐक्य, संरक्षण, सम्मान इत्यादि अवधारणाओं के विविध रूपों का जनन किया। अमूर्तता को इस प्रकार भाव मूर्तियों का रूप दे कर मानव ने स्वयं को उत्कृष्टता की दिशा में प्रस्थित किया। देवप्रतिमाओं के निर्माण के नेपथ्य में भी यह यत्न प्रयोजन किसी न किसी रूप में समाहित है। यही उसका गुरुत्व है, यही उसकी शक्ति है। इस गुरुत्व का प्रदाता गुरु ईश्वर से भी श्रेष्ठ कह दिया गया क्यों कि वह साक्षात साथ होता है – पग पग पर निर्देश देता, सिखाता, सुधारता एवं निखारता हुआ।
कभी सोच कर देखें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भौतिकी का ब्रह्माण्डीय गुरुत्व ही दार्शनिक पद्धति का पुरुष या ईश्वर है ? गुरुता बहुआयामी है, बड़ी तो है ही।
आप उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर रहें, गुरु पूर्णिमा पर यही शुभकामना है।