उपनिषदों में अति प्राचीन एवं बृहत् बृहदारण्यक उपनिषद में अद्वैत वेदांत का सुंदर वर्णन है। इस उपनिषद में प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त, इसका शांति पाठ ‘ॐ पूर्णमद:’, ‘असतो मा सद्गमय’ तथा ‘नेति नेति’ जैसे विषय हैं। दार्शनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस उपनिषद में जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) से जुड़े अद्वितीय दर्शन हैं। जीवात्मा के ब्रह्मांड में व्याप्त होने तथा उसे होने वाले नाना प्रकार के भानों की व्याख्या, प्रकृति के मूर्त तथा अमूर्त रूपों का विश्लेषण है। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं, आत्मा और ब्रह्म एक हैं – जो ‘अविनाशी वा अरेऽयमात्मा अनुच्छित्तिधर्मा’ — अनंत, अपार, अविनाशी और विज्ञानधन है। ब्रह्मात्मैक्य-बोध — ब्रह्म भवति य एवं वेद से जीव ब्रह्मभूत हो जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद के दर्शन तथा जीव एवं ब्रह्म के स्वरूप का यह विश्लेषण विस्तृत, शाश्वत परंतु कठिन भी है। इस लेखांश में इस ग्रंथ के मात्र एक अंश के एक पक्ष को आधुनिक दृष्टि से समझने का दुस्साहस भर है।
बृहदारण्यक उपनिषद में अनेक अत्यंत सुन्दर संवाद है (प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी, याज्ञवल्क्य-जनक संवाद इत्यादि), जिनमें से एक है शाकल्य द्वारा याज्ञवल्क्य से ईश्वर एवं कर्मकाण्ड के विषय में पूछे गए प्रश्नजनित संवाद। तृतीय अध्याय के नवें ब्राह्मण के ये प्रश्नोत्तर विशेष रूप से कठिन नहीं हैं। प्रश्न है — कति देवाः? अर्थात (सनातन धर्म में) कितने देवता हैं?
अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छ कति देवा याज्ञवल्क्येति । स हैतयैव निविदा प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्रेत्य् ओमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । त्रयस्त्रिशदित्य् ओमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । षडित्य् ओमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति । त्रय इत्य् ओमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्य् द्वावित्य् ओमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्य् अध्यर्ध इत्य् ओमिति होवाच । कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्य् एक इत्य् ओमिति होवाच । कतमे ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च सहस्रेति ॥ १॥
स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिशत्त्वेव देवा इति कतमे ते त्रयस्त्रिशदित्य् अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्यास् ते एकत्रिशद् इन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिशाविति ॥ २ ॥
कतमे वसव इत्य् अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चाऽऽदित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं वसु सर्व हितमिति तस्माद्वसव इति ॥ ३ ॥
कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस् ते यदाऽस्माच्छरीरान्मर्त्यादुत्क्रामन्त्य् अथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति ॥ ४ ॥
कतम आदित्या इति । द्वादश वै मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीद सर्वमाददाना यन्ति ते यदिद सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति ॥ ५ ॥
कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति । स्तनयित्नुरेवेन्द्रो यज्ञः प्रजापतिरिति । कतमः स्तनयित्नुरित्य् अशनिरिति । कतमो यज्ञ इति । पशव इति ॥ ६ ॥
कतमे षडित्य् अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चाऽऽदित्यश्च द्यौश्चैते षड् एते हीद सर्वं षडिति ॥ ७ ॥
कतमे ते त्रयो देवा इति इम एव त्रयो लोका एषु हीमे सर्वे देवा इति । कतमौ तौ द्वौ देवावित्य् अन्नं चैव प्राणश्चेति । कतमोऽध्यर्ध इति । योऽयं पवत इति ॥ ८ ॥
तदाहुर्यदयमेक एव एक इवैव पवते ।आथ कथमध्यर्ध इति । यदस्मिन्निद सर्वमध्यार्ध्नोत् तेनाध्यर्ध इति । कतम एको देव इति । प्राण इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥९ ॥
इस सरल एवं गूढ़ सम्वाद में याज्ञवल्क्य ने देवों की संख्या सहस्रों (३३०६) से आरम्भ कर क्रमशः तैंतिस, छ:, तीन, दो, डेढ़ ऐसे विभिन्न प्रकार से बताते हुए, अंत में ये सारे एक ही ईश्वर के विविध रुप हैं, ऐसा कह कर अत्यंत ही सुंदर एवं तार्किक उत्तर दिया अर्थात वास्तव में ईश्वर या देव केवल एक है जिसके अनेक रूप हैं। आधुनिक अध्ययनों के संदर्भ में इस व्यापक दर्शन की शाश्वत रूप से प्रासंगिकता और वैश्विक मानव जाति के लिए एक प्राकृतिक एवं स्वाभाविक धर्म के मर्गदर्शक के रूप में यह दार्शनिकता स्थापित होती है। यहाँ बहुदेववाद में एकेश्वरवाद, सर्वेश्वरवाद, सर्वात्मवाद इत्यादि अनेक मतों की कड़ियाँ समाहित प्रतीत होती हैं। यहाँ धर्म एक संकीर्ण विचारधारा नहीं होकर ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा (श्वेताश्वतरोपनिषद)’ है। संसार एवं धर्म को इस प्रकार देखने से स्वाभाविक रूप से संसार की विभिन्नता तथा बहुलता की गहन समझ विकसित होती है। सहिष्णुता के प्रतीक अनेकांतवाद दर्शन में भी उपनिषद के इस दर्शन की स्पष्ट झलक मिलती है जिसकी चर्चा हम पिछले लेखांशों में कर चुके हैं।
बहुदेववाद एवं एकेश्वरवाद के सिद्धान्तों का ऐसा अद्वितीय संगम सनातन दर्शन के अतिरिक्त संसार में कहीं नहीं मिलता। हर व्यक्ति को अपनी बुद्धिमता और अवधारणाओं के अनुसार अपने इच्छित रूप में अपने अभीष्ट के पूजन के साथ साथ नैतिक जीवन व्यतीत करते हुए एक पूर्ण ब्रह्म के मार्ग पर अग्रसर होने की यह सुंदर परिकल्पना अन्य किसी भी धर्म, दर्शन या आध्यात्मिक परम्परा में दुर्लभ है। अन्यों के यहाँ ऐसे ‘अविनाशी वाअरेऽयमात्मा अनुच्छित्तिधर्मा’ ब्रह्म की अवधारणा नहीं है जो किसी अधीनता की अपेक्षा नहीं रखता, न किसी को दंड देता है। सनातन दर्शन में उस ब्रह्म के समरूप किसी शैतान की उपस्थिति की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती।
पश्चिमी दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक अध्ययनों में इस बात का अन्वेषण करने का प्रयास मिलता है कि किस प्रकार अब्राहमी धर्मावलम्बियों में अनन्य एकेश्वरवाद (exclusive monotheism) से अन्य मतों के लिए असहिष्णुता की भावना अत्यधिक एवं स्वाभाविक रूप से होती है। वर्ष २००२ में जैस्पर ग्रिफ़िन ने अपने आलेख The Jealousy of God में इन विचारों को रखा। आलेख का केंद्रीय प्रश्न यह था कि संसार के तीन प्रमुख एकेश्वरवादी अब्राहमी मजहबों का आपस में जिस कटुता, टकराव एवं रक्तपात का इतिहास रहा है उसका अवलोकन करें तो क्या प्राचीन ग्रीक और रोम साम्राज्य का बहुदेववाद बुद्धिमत्तापूर्ण एवं श्रेष्ठतम नहीं था? इस विस्तृत आलेख में हिंदू धर्म और जापान में विभिन्न मतों के मंदिर एक साथ होने का संदर्भ देते हुए उनका अवलोकन था कि इन एकेश्वरवादी मजहबों के मानने वालों को यह स्वाभाविक लगता है कि आस्था के किसी मार्ग का स्वरूप तो अनन्य (exclusive) और अन्य मान्यताओं के प्रति असहिष्णु (intolerant ) ही होता है।
Islam, Judaism and the Christian (or post-Christian) West found themselves everywhere involved in conflict, bitterness and bloodshed: Orthodox Christians versus Muslims in Yugoslavia; Protestants versus Catholics in Ulster; the rage of the Islamic world against Israel; terrorists, religiously inspired, destroying the World Trade Center; good old-fashioned wars of religion in Sudan, in Nigeria, in Indonesia; the list is long, and it could be extended. And we cannot fail to notice that it is above all the great monotheistic religions whose followers behave in this way.
यही नहीं, इन मजहबों में अपने ही मजहब के विभिन्न मतों के मानने वालों के बीच भी अतिशय कटुता होती है। मजहब का आधार कट्टर निराकार-एकेश्वरवाद होते हुए भी इनमें अनेक शाखाओं, मतों तथा संतों की आराधना का प्रचलन हो जाने से यह भी स्थापित होता है कि मानव प्रकृति अंततः पदानुक्रमी बहुदेववाद से ही मेल खाती है। बर्क्ली स्थित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय की प्रो पेज डूब्वॉ अपनी पुस्तक A Million and One Gods: The Persistence of Polytheism में इसी बात का अध्ययन प्रस्तुत करती हैं।
मनोवैज्ञानिक जेम्स हिलमैन ने अपने अनेक अध्ययनों एवं पुस्तकों में बहुदेववाद संस्कृति की समझ और उत्कृष्टता को स्थापित करने के प्रसंगों तथा मिथकों को मनोविज्ञान से जोड़ा। उन्होंने यह अवधारणा भी प्रतिपादित की कि बहुदेववाद मान्यता (polytheistic culture) वाली संस्कृतियों में धार्मिक युद्ध की सम्भावना अल्प होती है। बहुदेववाद की समझ रखने वाले व्यक्ति स्वाभाविक रूप से किसी मत को लेकर अधिक सहिष्णु होते हैं तथा अन्य मत मतान्तरों की विभिन्नता को लेकर वे विवाद या युद्ध नहीं करते। पश्चिमी इतिहास में ग्रीक एवं रोमन युग में धर्म को लेकर कभी युद्ध नहीं हुए वरन एक दूसरे के धर्मों के देवताओं को उन्होंने अपनी सभ्यताओं में समाहित कर लिया। इसके विपरीत एकेश्वरवाद मतावलम्बी सामान्यतया ऐसा विश्वास रखते हैं कि मात्र एक उनका मार्ग ही सत्य है जिसके लिए वे हर युग में युद्ध भी करते रहे हैं, अन्य मतों से ही नहीं, स्वयं के मजहब में भी यदि मत भिन्नता हो तो भी। यह मानव मस्तिष्क की प्राकृतिक संरचना एवं सांसारिक विभिन्नता का विरोधाभासी है। न्यूयॉर्क टाइम्स में वर्ष १९९५ में छपे एक आलेख में हिलमैन के अध्ययनों पर ये शब्द थे :
Hillman wants society to turn away from its obsession with the unanchored altitudes of spirit, and come back down to earth, to the soul. He also asks us to reject the judgmental thinking of monotheism and return our psyches to the polytheism exemplified by ancient Greece.
दार्शनिक डेविड ह्यूम ने १७५७ में The Natural History of Religion में तथा जोनाथन किर्स्च ने अपनी पुस्तक God Against the Gods: The History of the War Between Monotheism and Polytheism में ऐसे ही मतों का वर्णन एवं समर्थन किया। इतिहासकार डैन्यल स्नेल वर्ष २०११ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘Religions of the Ancient Near East’ में हिंदू धर्म का संदर्भ देकर लिखते हैं — Polytheisms do not tend to be interested in orthodoxy, and they are frequently open to new customs and gods. इस पुस्तक में वह कहते हैं कि एकेश्वरवाद की आक्रामक प्रवृति के संसर्ग में भी सनातन धर्म ने अपने को ही परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित किया। बहुदेववाद की सहिष्णुता का एक सुंदर उदाहरण रोमन साम्राज्य भी है। आक्रांता होते हुए भी रोमन साम्राज्य ने जब नए देशों में अपना साम्राज्य विस्तार किया तो स्थानीय धार्मिक मान्यताओं पर न कोई प्रतिबंध लगाया, न उसे परिवर्तित करने का कोई प्रयत्न ही किया वरन इसके विपरीत उन्होंने स्थानीय धार्मिक मान्यताओं और देवताओं को अपने धर्म में समाहित कर लिया।
यहाँ एक रोचक तथ्य यह भी है कि मानवी मनोवैज्ञानिक संरचना कुछ इस प्रकार है कि कट्टर एकेश्वरवाद होते हुए भी इन मतों या मजहबों में ऐसी मान्यताएँ हैं जिन्होंने बहुदेववाद के नए रूपों को जन्म दिया है। यथा इनकी विभिन्न शाखाएँ या संत पूजन की परम्परा जिसमें बहुधा स्थानीय देवों को ही संत के रूप में पूजा जाने लगा। इसका एक उदाहरण यह है कि आयरलैंड के इसाईकरण के पश्चात वहाँ की देवी ब्रिगिड को सेंट ब्रिगिड बनाकर पूजा जाने लगा।
इन सारे अध्ययनों का एक सुव्यवस्थित प्रारूप विख्यात एवं लोकप्रिय पुस्तक Sapiens में मिलता है। पुस्तक के इस प्रसंग से जुड़े कुछ अंश इस प्रकार हैं :
…The insight of polytheism is conducive to far-reaching religious tolerance. Since polytheists believe, on the one hand, in one supreme and completely disinterested power, and on the other hand in many partial and biased powers, there is no difficulty for the devotees of one god to accept the existence and efficacy of other gods. Polytheism is inherently open-minded, and rarely persecutes ‘heretics’ and ‘infidels’.
The fundamental insight of polytheism, which distinguishes it from monotheism, is that the supreme power governing the world is devoid of interest and biases, and therefore it is unconcerned with the mundane desires, cares and worries of humans. It’s pointless to ask this power for victory in war, for health or for rain, because from its all-encompassing vantage point, it makes no difference whether a particular kingdom wins or loses, whether a particular city prospers or withers, whether a particular person recuperates or dies. The Greeks did not waste any sacrifices on Fate, and the Hindus built no temples to Atman.
…In many cases the imperial elite [Roman] itself adopted the gods and rituals of subject people. The Romans happily added the Asian goddess Cybele and the Egyptian goddess Isis to their pantheon. The only god that the Romans long refused to tolerate was the monotheistic and evangelizing god of the Christians. The Roman Empire did not require the Christians to give up their beliefs and rituals, but it did expect them to pay respect to the empire’s protector gods and to the divinity of the emperor. This was seen as a declaration of political loyalty. When the Christians vehemently refused to do so, and went on to reject all attempts at compromise, the Romans reacted by persecuting what they understood to be a politically subversive faction. And even this was done half-heartedly. Still, if we combine all the victims of all these persecutions, it turns out that in these three centuries, the polytheistic Romans killed no more than a few thousand Christians. In contrast, over the course of the next 1,500 years, Christians slaughtered Christians by the millions to defend slightly different interpretations of the religion of love and compassion.
…Monotheists have tended to be far more fanatical and missionary than polytheists. A religion that recognizes the legitimacy of other faiths implies either that its god is not the supreme power of the universe, or that it received from God just part of the universal truth. Since monotheists have usually believed that they are in possession of the entire message of the one and only God, they have been compelled to discredit all other religions. Over the last two millennia, monotheists repeatedly tried to strengthen their hand by violently exterminating all competition.
…Still, humans have a wonderful capacity to believe in contradictions. So it should not come as a surprise that millions of pious Christians, Muslims and Jews manage to believe at one and the same time in an omnipotent God and an independent Devil. Countless Christians, Muslims and Jews have gone so far as to imagine that the good God even needs our help in its struggle against the Devil, which inspired among other things the call for jihads and crusades.
…In fact, monotheism, as it has played out in history, is a kaleidoscope of monotheist, dualist, polytheist and animist legacies, jumbling together under a single divine umbrella. The average Christian believes in the monotheist God, but also in the dualist Devil, in polytheist saints, and in animist ghosts. Scholars of religion have a name for this simultaneous avowal of different and even contradictory ideas and the combination of rituals and practices taken from different sources. It’s called syncretism. Syncretism might, in fact, be the single great world religion.
सम्पादकीय टिप्पणी :
ऋग्वेद (३.९.९ गाथिन विश्वामित्र एवं १०.५२.६ अग्नि सौचीक) में ३३३९ देवों का उल्लेख है —
त्रीणि॑ श॒ता त्री स॒हस्रा॑ण्य॒ग्निं त्रिं॒शच्च॑ दे॒वा नव॑ चासपर्यन् । औक्ष॑न्घृ॒तैरस्तृ॑णन्ब॒र्हिर॑स्मा॒ आदिद्धोता॑रं॒ न्य॑सादयन्त ॥
संख्या की संरचना क्रमानुसार इस प्रकार है — ३००+३०००+३०+९
यहाँ, उपनिषद में याज्ञवल्क्य के उत्तर में क्रमानुसार संरचना इस प्रकार है ३+३+३००+३००० (= ३३०६)। दोनों में ३३ का अन्तर है जो कि वैदिक वाङ्मय में अन्यत्र बताये गये देवों की संख्या है। याज्ञवल्क्य भी ३३ की संख्या बताते हैं — अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्यास् ते एकत्रिशद् इन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिशाविति — आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, इन्द्र एवं प्रजापति, कुल तैंतिस। पूरा प्रकरण एक ऐसी प्रवाहमान धारा को इङ्गित करता है जिसकी पूरी व्याख्या अब अनुपलब्ध है।
संख्या श्रेणी में दोनों को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है — ३०००+३००+३+३ (बृहदारण्यक) एवं ३०००+३००+३०+३+३+३ (ऋग्वेद)।
ऋग्वेद(१.१३९.११) ही ३३ देवों को इस प्रकार बताता है —
ये दे॑वासो दि॒व्येका॑दश॒ स्थ पृ॑थि॒व्यामध्येका॑दश॒ स्थ । अ॒प्सु॒क्षितो॑ महि॒नैका॑दश॒ स्थ ते दे॑वासो य॒ज्ञमि॒मं जु॑षध्वम् ॥
अर्थात द्यु में ११, पृथ्वी में ११ एवं अन्तरिक्ष में ११, कुल ३३। इन तीन लोकों में देवों की संख्याओं के तीन आधारित विविध स्तरों को देखने से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि चेतना के क्रमश: ऊर्ध्ववर्ती होने के साथ साथ प्रतीक संख्या भी परिवर्तित होती जाती है तथा एक नैरन्तर्य भी दृष्टिगत होता है।
बढ़ती हुई वासना जिसे भौतिकवादी दृष्टिकोण कहा जाता है, उसने एकेश्वरवाद कोई जन्म दिया।