सुख के मनोवज्ञानिक अध्ययनों से जुड़े लेखांशों में हमने ये अवलोकन किया कि सनातन दर्शन के सिद्धान्त किस प्रकार से आधुनिक मनोविज्ञान के पूरक ही नहीं बल्कि उसमें गुंथे हुए हैं। नीति तथा शास्त्रों में वर्णित कई बातों को देश, काल और परिस्थितियों के संदर्भ में अध्ययन करने को शास्त्रों में भी कहा गया है। पर सनातन दर्शन की कई बातें एक सर्वकालिक और सार्वभौमिक विचार हैं विशेषतया मनुष्य की प्रवृति और उससे उपजने वाले दुःख का विश्लेषण।
देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बाह्य माध्यम परिवर्तित होते रहे परन्तु मानवीय संवेदनायें, भ्रांतियाँ एवं उससे जनित मायाजाल अर्थात संज्ञानात्मक पक्षपात उसी प्रकार बने रहे। ये बात आधुनिक अध्ययनों से स्पष्ट है। आधुनिक युग के सबसे क्रांतिकारी परिवर्तनों में से एक है संचार क्रांति और सामाजिक संचार माध्यम (social media)। सामाजिक संचार माध्यमों से होने वाली सुविधा के अतिरिक्त इससे उपजी जटिलताओं का अध्ययन मनोविज्ञानों के लिए एक रोचक एवं नवीन विषय है।
वर्ष २०१८ में सॅन फ़्रांसिस्को राज्य विश्वविद्यालय के प्रो. एरिक पेपर और रिचर्ड हार्वी ने नयूरो रेगुलेशन में प्रकाशित अपने अध्ययन Digital Addiction: Increased Loneliness, Anxiety, and Depression में ये पाया कि संचार माध्यमों का अधिक उपयोग करने वाले व्यक्तियों में अकेलापन, अवसाद तथा व्यग्रता भी उच्च्तर स्तर में था। शोधकर्ताओं का मानना था कि ऐसा इसलिए भी होता है कि संचार माध्यमों से होने वाले वार्तालाप में मेल मिलाप में होने वाले शारीरिक संकेत तथा भाव भंगिमा या तो अनुपस्थित होती है या उसका सटीक संप्रेषण तथा विश्लेषण नहीं हो पाता। साथ ही संदेशों की निरंतर अधिसूचना (notifications) हमें त्वरित रूप से उन्हें देखने को प्रेरित करते हैं। ऐसा होने से मस्तिष्क के वही हिस्से सक्रिय होते हैं जो आसन्न संकट (imminent danger) यथा सिंह की उपस्थिति इत्यादि की स्थिति में होते हैं। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल सुझाया – इससे उत्पन्न आसक्ति को समझते हुए इन माध्यमों का संतुलित उपयोग तथा इस बात का संज्ञान रखना कि आधुनिक संचार माध्यम हमारे जैविक अनुक्रिया प्रणाली (biological response system) को प्रभावित करते हैं।
वर्ष २०१६ में इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में मैकमास्टर विश्वविद्यालय कनाडा के शोधकर्ताओं ने पाया कि अंतरजाल आसक्ति (internet addiction) वाले व्यक्ति अवसाद और व्यग्रता से अधिक प्रभावित तो होते ही हैं वो समय प्रबंधन में भी अकुशल होते हैं तथा किसी भी कार्य में उनका ध्यान केंद्रित (attentional impulsivity and ADHD symptoms) नहीं होता। ऐसे अनेक अध्ययन हैं जिनमें मोबाइल फ़ोन तथा संचार माध्यमों के अत्यधिक उपयोग को अवसाद, आत्महत्या, संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर दुष्प्रभाव तथा कैंसर तक से जुड़ा पाया गया।
यहाँ रोचक ये है कि ठीक इसके विपरीत ऐसे अध्ययन भी हैं जिनमें इन्हीं संचार माध्यमों के विपरीत लाभ भी पाए गए हैं जैसे अकेलेपन से मुक्ति तथा मानसिक लाभ। ऐसे अध्ययनों से एक विरोधाभासी परिस्थिति उत्पन्न होती है क्योंकि शोधों में ये भी पाया गया कि समाजिकता, उत्तम सम्बन्ध और परस्पर सहयोग सुख के कारण हैं। सामाजिक संचार माध्यमों से समाजिकता, सम्पर्क तथा सम्बन्धों में वृद्धि एवं मधुरता होती प्रतीत तो होती है परन्तु इससे मानसिक विकृतियों में वृद्धि भी पायी गयी। इन अध्ययनों का अवलोकन करने पर स्पष्ट है कि संचार क्रांति के माध्यमों के उपयोग से अधिक लाभ या हानि इस बात पर निर्भर करती है कि हम उसका उपयोग किस प्रकार से करते हैं। माध्यमों से अधिक स्वयं व्यक्ति ये निर्धारित करता है कि वो इनका सदुपयोग कर रहा है या आसक्त होकर दुरुपयोग।
ड्युक विश्वविद्यालय में व्यावहारिक मनोविज्ञान की शोधकर्ता जेना क्लार्क ने behavioral scientist पत्रिका में छपे एक आलेख में इस प्रश्न का विश्लेषण किया कि किन अवस्थाओं में सामाजिक संचार माध्यम सकारात्मक रिश्तों को जन्म देते हैं और किन अवस्थाओं में हमें इनसे सावधान रहना चाहिए। ये अभी भी शोध का एक विषय है परन्तु कुछ बातें स्पष्ट हैं – इन माध्यमों के उपयोग से यदि हम वैसे मधुर रिश्ते विकसित कर पाते हैं जो हम समाज में वास्तविक मेल मिलाप से करते हैं तो इन माध्यमों के स्पष्ट लाभ हैं। परन्तु यदि हम आभासी भ्रमिक रिश्ते विकसित करते हैं या इनसे हमारे मधुर सम्बन्ध भी बिगड़ जाते हैं तो ये हमारे लिए हानिकारक है। अपने आलेख में वो कहती हैं –
Like eating junk food, social snacking can temporarily satisfy you, but it’s lacking in nutritional content. Looking at your friends’ posts without ever responding might make you feel more connected to them, but it doesn’t build intimacy.
अर्थात व्यक्ति के मस्तिष्क से जुड़े सनातन सिद्धांत अब भी उसी प्रकार कार्य करते हैं। मरिचिका के माध्यम भले परिवर्तित हो गए हैं। भर्तृहरि के भ्रांतियों के समझ होने के सनातन ज्ञान का अवलोकन करें –
अजानन्दाहात्म्यं पततु शलभस्तीव्रदहने। स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम्। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिला-. न्न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा॥
जिस प्रकार अपना भला समझे बिना पतंगा अग्नि की ओर तथा मछली काँटे की ओर खिंची चली जाती है उसी प्रकार।
अवसाद या व्यग्रता इत्यादि का माध्यम कुछ भी हो उसकी समझ, उससे बचाव एवं निवारण का मार्ग तो वही होना है। वो समझ जिसके बाद स्वयं स्पष्ट हो जाए कि गुण-दोष क्या हैं –
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥
स्वस्थ सम्बन्धों से सुख की परिकल्पना तो वेदों से ही की गयी है। भला उसमें भी नया क्या। अथर्ववेद के अनुसार –
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥
अर्थात भाई, भाई से, बहन, बहन से द्वेष न करते हुए, समान गति से एक-दूसरे का आदर-सम्मान करते हुए। परस्पर सहयोग से कर्मों को करने वाले हो। तथा भद्रभाव से परिपूर्ण हो सम्भाषण करें।
संक्षेप में कहें तो नए अध्ययन इन माध्यमों के सदुपयोग में परस्परोपग्रहो जीवानाम् करने को ही कहते हैं।
सनातन दर्शनों की विशेषता यही है कि मानव मस्तिष्क की जो विवेचना उसमें की गयी है वो विभिन्न देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार भी सत्य है। यथा सभा का स्वरूप भले परिवर्तित हो गया हो परन्तु उस सभा में कब क्या बोलना चाहिए, किससे प्रेम करना चाहिए तथा कब और कितना क्रोध करना चाहिए जो इन बातों को जानता है उसे ही तो अब भी पंडित कहा जाएगा –
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः॥
और संचार माध्यमों के दुष्प्रभाव से बचने का मार्ग भी वही तो है –
इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत्पण्डितो नरः। देशकालः बलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्॥
बगुले के समान इंद्रियों को वश में कर देश, काल एवं बल का संज्ञान कर विद्वान अपना कार्य सफल करें।