यह स्वाभाविक है कि शिक्षण संस्थाओं में असीमित समय तक यदि अनुदान मिले तो व्यक्ति को न ही उत्तीर्ण होने में रुचि होगी, न गुणवत्ता में। सनातन दर्शन में कुछ भी निःशुल्क प्राप्त करने या उसकी आकाङ्क्षा करने के स्थान पर कर्म से उपार्जन को श्रेष्ठ माना गया है।
सनातन संस्कृति ज्ञान प्रधान रही है जिसमें विद्या के महत्त्व के लिए यथेष्ट विधियाँ निर्धारित हैं। पुराणों तथा स्मृतियों में नि:शुल्क गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के असंख्य प्रसंग मिलते हैं। अनेकों शिष्यों के गुरु आश्रमों में जीवनयापन के प्रसंग हैं। कृष्ण-बलराम ने गुरु संदीपनी के आश्रम में निवास किया व बृहस्पति पुत्र कच ने शुक्राचार्य के आश्रम में। भारद्वाज, मार्कण्डेय, कण्व इत्यादि अनेक पौराणिक गुरुकुल प्रसिद्ध थे। विद्यार्थी जीवन की समय सीमा निर्धारित थी तथा वहाँ जीवन बिताने के अत्यंत कठिन नियम थे।
अनुशासन की प्रमुखता थी जिसमें गुरु सम्मान विशेष रूप से वर्णित है। आलस्य, अकर्मण्यता, अनैतिकता इत्यादि स्वीकार्य नहीं थे। आचार्य समाज एवं राज्य में पूजित थे तथा आश्रमों की आर्थिक व्यवस्था मुख्यतया दान पर निर्भर थी। गुरु, आचार्य, उपाध्याय, प्रवक्ता, श्रोत्रिय, ऋत्विक इत्यादि नामों से विभिन्न युगों में व्यावसायिक ज्ञान, कला इत्यादि की शिक्षा देने वाले गुरुओं का वर्गीकरण भी मिलता है। शिक्षा के आर्थिक स्रोत मुख्यतया राजकीय दान ही थे परंतु शिष्यों द्वारा आचार्यों को दक्षिणा प्रदान करने की परम्परा थी।
विष्णु पुराण में उल्लिखित है कि शिष्य आचार्य को गुरुदक्षिणा प्रदान कर ही अपने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे। गुरु दक्षिणा पर तो अनेक लोकप्रिय पौराणिक कथाएँ भी हैं। भीष्म ने द्रोणाचार्य को धन धान्य से पूर्ण किया था। मनु के अनुसार ब्रह्मचारी आचार्य को भूमि, सुवर्ण, गौ, अश्व, छाता, वस्त्र, इत्यादि दक्षिणा के रूप में प्रदान करना चाहिये। ह्वेनसांग के आगमन तक भी विश्वविद्यालयों में गुरुदक्षिणा की प्रथा थी परंतु विद्या विक्रय की वस्तु नहीं थी तथा शुल्क लेकर पढ़ाने वालों की शास्त्रों में निंदा की गयी है। आचार्य शिष्य को पुत्रवत मानते थे। उपनिषदों के अनुसार माता पिता से भौतिक शरीर प्राप्त होता है परंतु गुरु से ही शिष्य का बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। महाभारत के अनुसार भी गुरु ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करता था अर्थात गुरु-शिष्य सम्बंध स्नेहवत, गरिमामय, पावन एवं उदात्त थे।
शिष्य गुरु के व्यक्तिगत तथा आश्रम के कार्य भी करते थे। गुरु के आदेश से सेवा, सुरक्षा, दैनिक सहायता इत्यादि कार्य करना शिष्यों के कर्तव्य थे। शिष्यों का वर्गीकरण भी कुछ ग्रंथों में मिलता है – यथा उपकुर्वाण , नैष्ठिक, दण्डमानव, अंतेवासी इत्यादि। पुनः मनुस्मृति के अनुसार उपकुर्वाण स्नातक यथाशक्ति गुरुदक्षिणा समर्पित कर गृहस्थ बन जाते परंतु नैष्ठिक आजीवन ब्रह्मचारी रह आचार्य बनते।
आचार्य बहुधा दरिद्र होते क्योंकि विद्यार्थियों से शुल्क लेना घृणित कार्य था अर्थात विद्या नि:शुल्क थी, परंतु तब भी शिष्य प्रयत्न करता कि गुरुदक्षिणा में कुछ अवश्य समर्पित करे। विद्यार्थी जीवन सरल नहीं था। गुरु कठिन परीक्षा भी लेते। आचार्य धौम्य द्वारा आरुणी की ली गयी परीक्षा प्रसिद्ध है। मनु स्मृति के अनुसार शिक्षा का रूपक इस प्रकार है जैसे मनुष्य यान्त्रिक युक्ति से गड्ढा खोद कुएँ से निरन्तर जल प्राप्त करता है उसी प्रकार निरंतर प्रयास से विद्या अर्जित होती है। आचार्य विद्यार्थियों को अधिकतम व्यस्त रखने का प्रयास करते थे। उपनिषदों के अनुसार विद्यार्थियों को विभिन्न कार्यों यथा – सेवा, सुरक्षा, भिक्षाटन, अग्नि परिचर्या इत्यादि में सम्मिलित किया जाता था। अश्वलायन गृह्यसूत्र तथा वसिष्ठ धर्म सूत्र में विद्यार्थियों की पूरी दिनचर्या निर्धारित मिलती है, जिसमें भोजन, शयन, अध्ययन, सेवा, भिक्षाटन, पशुओं की देखभाल, समिधा एकत्र करना, इत्यादि वर्णित हैं। शिक्षा के लिए योग्यता भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। शिष्यों को निरंतर कठिन परीक्षा देकर योग्यता सिद्ध करनी पड़ती। निष्ठा, अनुशासन और योग्यता शिक्षा के आवश्यक अंग थे।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार भी शिष्य के लिए आवश्यक था कि वह ज्ञान ग्रहण के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। पापी, अपवित्र, तथा एक वर्ष से अल्प निवासी हेतु ज्ञान निषिद्ध था। मनु के अनुसार जिस शिष्य में धर्म तथा अर्थ न हो या शिष्य अनुरूप सेवावृत्ति न हो, उसे ऊसर समझ कर विद्यारूपी बीज का दान नहीं करना चाहिए।
संक्षेप में, कठिन अनुशासन, अकर्मण्यता तथा आलस्य का अभाव एवं दायित्वबोध द्वारा एक स्वावलम्बी समाज की निरन्तरता गुरुकुलों में सुनिश्चित की जाती थी। रोचक यह है कि गुरुकुल में सभी स्तर के छात्र आते थे। गुरुदक्षिणा सामर्थ्य एवं योग्यता पर निर्भर थी, कोई श्रम से देता तो कोई पराक्रम से। सम्भवतः दक्षिणा के पीछे गुरुजन की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व भाव था। यदि निर्धन शिष्य गुरु की दक्षिणा स्वयं न दे सके तो राजा से उसे पाने का उसको अधिकार था। वह किसी भी दशा में विमुख नहीं किया जा सकता था। कौत्स की गुरुदक्षिणा के लिए रघु से सहायता लेने का प्रसंग है। स्पष्टत: दक्षिणा विद्या का शुल्क नहीं वरन दायित्वबोध तथा स्वावलंबी समाज की व्यवस्था थी। सामर्थ्य के अनुसार एक सामाजिक संतुलन भी बनाये रखा गया था। विगत कुछ वर्षों की घटनाओं तथा अध्ययनों से विरोधाभासी लगने वाली इस व्यवस्था का मूल्य पता चलता है।
विगत वर्षों में उच्च शिक्षा के नि:शुल्क होने या विद्यार्थियों को आर्थिक अनुदान प्राप्त होने के विषय में अनेक अध्ययन हुए हैं। इनमें रोचक है डेनमार्क में उच्च शिक्षा की स्थिति। डेनमार्क की गिनती विश्व के सर्वाधिक सुखी देशों में होती है, जहाँ वर्षों से उच्च शिक्षा नि:शुल्क होने के साथ ही विद्यार्थियों को मासिक अनुदान भी प्राप्त होता है। परंतु धीरे-धीरे पंचवर्षीय पाठ्यक्रम को पूरा करते हुये प्रायः सभी विद्यार्थी छः वर्ष लगा देते हैं क्योंकि अनुदान छः वर्ष तक प्रदान किया जाता है। डेनमार्क में इस अधिक वर्ष के लिए एक शब्द भी प्रचलित है – fjumreår अर्थात निकर्मा समय व्यतीत करने का वर्ष या कुछ भी न करने का वर्ष (gap year, silly year), जिसमें विद्यार्थी छुट्टियाँ इत्यादि लेकर स्वेच्छा से उपाधि लेने में विलम्ब करते हैं जिससे उन्हें बिना कुछ किए अनुदान प्राप्त होता रहे। समय सीमा नहीं, अनुशासन नहीं तथा धन!
डेनमार्क, जहाँ आजीविका के अनेक साधन सुलभ हैं वहाँ इससे सरकारी कोष पर अतिरिक्त भार होने के साथ साथ कर से होने वाली आय तथा उत्पादकता में भी घटोत्तरी होती है क्योंकि उत्पादकता तथा कर दोनों से होने वाली आय का एक वर्ष गँवा दिया जाता है। जिन्हें विश्वविद्यालयों से निकल कर मुख्यधारा में सम्मिलित हो अर्थव्यवस्था में सहयोग करना चाहिए तथा कर का भुगतान करना चाहिए, वे अनुदान पर एक अतिरिक्त वर्ष व्यतीत करते हैं। वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिए नि:शुल्क कुछ भी नहीं होता क्योंकि अंततः अन्य करदाता इस अतिरिक्त व्यय का भुगतान करते हैं।
डेनमार्क की सरकार ने अनुदान के लिए समय सीमा निश्चित करने की नीति बनायी तो अनेक विश्वविद्यालयों में इसके विरुद्ध प्रदर्शन हुए। नियम परिवर्तन होने के उपरांत भी विद्यार्थी अपने को अस्वस्थ घोषित कर वैधानिक रूप से छः वर्ष तक अनुदान लेते रहे। इस सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्या को मनोविज्ञान तथा अर्थशास्त्र में अनेक सिद्धांतों द्वारा जाना जाता है जिनमें प्रमुख हैं – नैतिक संकट (moral hazard), Perverse subsidies(प्रतिकूल अनुदान), Welfare trap(कल्याण छल) इत्यादि।
Moral hazard की अवस्था तब होती है जब व्यक्ति को पता होता है कि उसके किए की भरपायी किसी और को करनी है। जैसे जब वित्तीय संस्थाओं को यह पता होता है कि संकट में सरकार उन्हें उबार लेगी तो वे नि:सङ्कोच ऐसे निर्णय लेते हैं जिनसे वित्तीय व्यवस्था ही संकट में आ जाती है।
Perverse incentive अर्थात किसी योजना के अनिच्छित एवं अप्रत्याशित विपरीत परिणाम। जिसका एक उदाहरण ब्रिटिश भारत में नागों को पकड़ने के लिए चलायी गयी योजना है। इस योजना में नागों को पकड़ने पर पैसे मिलते थे। ऐसा माना जाता है कि इस योजना के पश्चात लोग नागों को पालने लगे! यह सञ्ज्ञान में आने पर सरकार ने योजना समाप्त कर दी तो लोगों ने सारे पाले हुए नाग भी छोड़ दिए। अंततः नागों की संख्या में और भी वृद्धि हो गयी।
Perverse subsidy या welfare trap (or unemployment trap) के उदाहरण वे लोग हैं जो सामाजिक कल्याण भत्ता पा रहे होते हैं परन्तु मुख्य धारा में नहीं आते। कारण स्पष्ट है, यदि उन्हें अल्प आय वाले कार्य मिलें तथा कर भुगतान के पश्चात यदि उन्हें सामाजिक कल्याण में मिलने वाले भत्ते से अधिक आय हो तो व्यक्ति बिना कुछ किए सामाजिक कल्याण भत्ते पर रहने को वरीयता देते हैं। इससे उत्पादकता में तो ह्रास होता ही है, राजकोष पर भी बोझ बढ़ता है। स्वाभाविक है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में यह समस्या उन देशों या विश्वविद्यालयों में और बढ़ जाती है जहाँ अनुदानों की कोई समय सीमा ही नहीं! वर्ष २०१७ में यूरोपीय आयोग के उच्च शिक्षा की आर्थिक नीति में २०१२ में गैरिबॉल्डी के स्विट्ज़रलैंड तथा फ़्रीक के २०१३ में इटली में किए गए अध्ययनों से बताया गया कि वित्तीय सहायता की समयसीमा निर्धारित कर देने से उत्तीर्ण होने की विलम्ब दर में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ।
इसका एक अन्य रोचक पक्ष यह है कि इन अनुदानों से उच्च गुणवत्ता के शोध में वृद्धि भी नहीं होती। इसके लिए एक अन्य रोचक मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस प्रकार है –
बिना प्रयास और नि:शुल्क यदि हमें कुछ प्राप्त हो तो हमें वह वस्तु न केवल अत्यंत प्रिय होती है, हम उसे प्राप्त करने के लिए अच्छी वस्तुओं का भी त्याग कर देते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में लोगों को मूल्य घटाने के उपरांत दो विभिन्न के प्रकार के चॉक्लेट दिए. उच्च गुणवत्ता के (१ रुपए की तुलना में मात्र १५ पैसे) तथा निम्न गुणवत्ता वाले (१० पैसे की तुलना में मात्र १ पैसा) । ऐसी स्थिति में प्रायः सभी लोग अधिक मूल्य वाले चॉक्लेट लेते हैं क्योंकि वास्तव में उनका मूल्य अधिक होता है. परन्तु यदि अल्प मूल्य वाले को निःशुल्क कर दिया जाय और अधिक मूल्य वाले को १५ पैसे का, तो सभी लोग निःशुल्क वाला ले लेते हैं! अर्थात समान या अधिक लाभ होते हुए भी निःशुल्क पाने के लिए हम निम्न गुणवत्ता को वरीयता देते हैं।
साथ ही यदि हमें कुछ निःशुल्क मिलने लगे तो उसके पश्चात उसी वस्तु के लिए हम कुछ भी देने को सहमत नहीं होते, यथा अन्तर्जाल पर निःशुल्क खोज (गूगल) के स्थान पर अब यदि हमें शुल्क देकर खोज करना पड़े तो अच्छा नहीं लगेगा, यदि अन्तर्जाल पर होने वाली हमारी गतिविधियों से होने वाली आय हमें देकर कोई उतना ही शुल्क लेने को कहे तो भी नहीं। निःशुल्क वस्तुओं में जो गुप्त शुल्क होता है, वह हम नहीं देख पाते।
मानव मस्तिष्क निःशुल्क देखकर कभी भी तार्किक निर्णय नहीं ले पाता। मनोवैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि निःशुल्क वस्तुओं एवं सेवाओं से आशाएँ इतनी न्यून होती हैं कि निम्न गुणवत्ता से भी हम अत्यंत संतुष्ट हो जाते हैं। इसके विपरीत जब लोग किसी सेवा या वस्तु के लिए भुगतान करते हैं या परिश्रम करते हैं तो उससे उनमें योग्यता, गर्व तथा प्रभुत्व की भावना आती है। व्यक्ति उस वस्तु या अनुभव का मूल्याङ्कन अधिक करते हैं तथा असंतुष्टि में भी ह्रास होता है, moral hazard की अवस्था नहीं होती। कहा भी गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति को आलस्य न कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्धि के लिए सदैव प्रयत्न करना चाहिए। नि:शुल्क मनोरथों से भला क्या प्राप्त हो सकता है!
यह स्वाभाविक है कि शिक्षण संस्थाओं में असीमित समय तक यदि अनुदान मिले तो व्यक्ति को न ही उत्तीर्ण होने में रुचि होगी, न गुणवत्ता में।
सनातन दर्शन में कुछ भी निःशुल्क प्राप्त करने या उसकी आकाँक्षा करने के स्थान पर कर्म से उपार्जन को श्रेष्ठ माना गया है। कर्म का यशोगान असंख्य रूपों में वर्णित है। ऋग्वेद की एक श्रुति का अंश है –
अ॒क॒र्मा दस्यु॑र॒भि नो॑ अम॒न्तुर॒न्यव्र॑तो॒ अमा॑नुषः, जिसमें अकर्मण्य जन को अमन्तु, अन्यव्रत, अमानुष कहते हुये दस्यु बताया गया है तथा उनके नाश की प्रार्थना की गयी है। अकर्मा लाभ लेना एक प्रकार से डकैती ही तो है! इसी मन्त्र के दूसरे भाग में ऐसों को दास कहा गया है, अमानुष से जोड़ कर देखें तो मनस्विता से हीन मूर्ख दास।
सत्य ही है –
यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्। एवं पुरूषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥
जिस प्रकार एक पहिये वाले रथ की गति संभव नहीं है, उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ केवल दैव से कार्य सिद्ध नहीं होते हैं।
और फिर यह भी – सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेत्विद्यां विद्यार्थी व त्यजेत् सुखम् ।