sundarkand व्यर्थ ब्रह्मास्त्र, वाल्मीकीय रामायण – ४५ से आगे (सुन्दरकाण्ड)
मारुति ने अद्भुत कर्म एवं बारम्बार घोषणाओं से अपनी विशिष्टता सिद्ध कर दी। उत्पाती वानर कोई साधारण वानर नहीं था तथा उसे पकड़ने हेतु महान एवं बुद्धिमान योद्धा की आवश्यकता थी। अपने समान योद्धाओं, सेनापतियों, अमात्यपुत्रों एवं पुत्र अक्षकुमार के मारे जाने से क्षुब्ध रावण ने निज तूणीर का सबसे घातक अस्त्र प्रयोग करने का निश्चय किया – पुत्र मेघनाद।
मनस्समाधाय सदेवकल्पं समादिदेशेन्द्रजितं सरोषः – रुष्ट महान राक्षसराज ने अपने आप को नियन्त्रित कर देवसम पराक्रमी इन्द्रजित को आदेश दिया।
त्वमस्त्रविच्छस्त्रविदां वरिष्ठस्सुरासुराणामपि शोकदाता। सुरेषु सेन्द्रेषु च दृष्टकर्मा पितामहाराधनसञ्चितास्त्रः॥
तुम अस्त्रविद एवं शस्त्रविदों में श्रेष्ठ हो। सुरों एवं असुरों को संतप्त करने वाले हो। पितामह (ब्रह्मा) की आराधना द्वारा प्राप्त अस्त्रों से तुमने इन्द्र सहित सुरों के विरुद्ध भी अपने पराक्रम को सिद्ध किया है।
तुम्हारे अस्त्रबल की समानता न सुर कर सकते हैं, न ही मरुद्गण – तवास्त्रबलमासाद्य नासुराः न मरुद्गणाः।
न कश्चित्त्रिषु लोकेषु संयुगेन गतश्रमः। भुजवीर्याभिगुप्तश्च तपसा चाभिरक्षितः॥
देशकालविभागज्ञस्त्वमेव मतिसत्तमः।
तुम्हारे अतिरिक्त तीनो लोकों में कोई ऐसा नहीं है जो युद्ध में थकता न हो। तुम अपने भुजबल से सुरक्षित हो तथा तप से भी। तुम कार्य हेतु देश एवं काल के उचित विभाग के ज्ञाता हो व बुद्धि से भी सर्वश्रेष्ठ हो।
न तेऽस्त्यशक्यं समरेषुकर्मणा न तेऽस्त्यकार्यम्मतिपूर्वमन्त्रणे। न सोऽस्ति कश्चित्त्रिषु सङ्ग्रहेषु वै न वेद यस्तेऽस्त्रबलं बलं च ते॥
तुम्हारे लिये समर में कुछ भी अशक्य नहीं। तुम बिना पहले बुद्धिपूर्वक विचार किये कार्य नहीं करते। त्रिलोकी में ऐसा कोई वीर नहीं जो तुम्हारे शारीरिक बल एवं अस्त्रबल को न जानता हो।
ममानुरूपं तपसो बलं च ते पराक्रमश्चास्त्रबलं च संयुगे। न त्वां समासाद्य रणावमर्दे मनश्श्रमं गच्छति निश्चितार्थम्॥
तुम्हारा तप, बल, पराक्रम एवं युद्ध में अस्त्रबल मेरे समान हैं। तुम रणरत होते हो तो मुझे कोई चिंता नहीं होती क्योंकि यह निश्चित रहता है कि तुम्हारी विजय होगी। सभी किङ्कर मारे गये, जम्बुमाली, अमात्यपुत्र एवं पाँच सेनानायक भी। तुम्हारा प्रिय सहोदर कुमार अक्ष भी मारा गया। हे शत्रुहन्ता, उनमें वह शक्ति नहीं थी, जो तुममें है – न हि तेष्वेव मे सारो यस्त्वय्यरिनिषूदन।
बुद्धिमान व शक्तिशाली वानर के विरुद्ध जिस पुत्र को रावण भेज रहा था, उसका उत्साह बढ़ाने को उसने मरुद्गणों के पराजय का उल्लेख किया, हनुमान तो मरुतपुत्र थे न! उसके रणचातुर्य को सराहा क्योंकि हनुमान ने चतुराई का भी प्रदर्शन किया था; मानो वह इन सङ्केतों के साथ साथ स्वयं को भी आश्वस्त कर रहा था कि इस बार तो पराजय नहीं ही होगी। मन की बात जिह्वा पर आ ही गयी –
इदं हि दृष्ट्वा मतिमन्महद्बलं कपेः प्रभावं च पराक्रमं च। त्वमात्मनश्चापि समीक्ष्य सारं कुरुष्व वेगं स्वबलानुरूपम्॥
हे मतिमान! कपि के महान बल, प्रभाव एवं पराक्रम को देख सुन एवं अपनी शक्ति की भी समीक्षा कर निज बल के अनुरूप शीघ्र कार्य करो।
भीतर छिपा भय मुखरित होता चला गया। उसने इंद्रजित को उसके श्रेष्ठ अस्त्रविद होने की बारम्बार स्मृति दिलाई, हे अस्त्रविद, हे शत्रुओं को शान्त करने वाले! अपने बल की पूर्वसमीक्षा कर शत्रु से इस प्रकार निपटो जिससे कि हमारी सेना का और विनाश न हो – बलावमर्दस्त्वयि सन्निकृष्टे यथा गते शाम्यति शान्तशत्रौ। तथा समीक्ष्यात्मबलं परं च समारभस्वास्त्रविदां वरिष्ठ॥
न वीरसेना गणशोच्यवन्ति न वज्रमादाय विशालसारम्। न मारुतस्यास्य गतेः प्रमाणं न चाग्निकल्पः करणेन हन्तुम्॥
हे वीर! बड़ी सेना ले कर न जाओ क्योंकि उस महावीर वानर हेतु किसी काम की नहीं। उसका तो वज्र भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मारुत के गति की कोई माप नहीं। वह उस अग्निकल्प के समान है जिसे किसी साधन विशेष से नहीं मारा जा सकता! (अत: समीक्षा पूर्वक अस्त्र प्रयोग अपेक्षित है।) स्मरंश्च दिव्यं धनुषोऽस्त्रवीर्यं – अपने दिव्य धनुष एवं अस्त्रों के प्रभाव की स्मृति रखना। स्वकर्मसाम्यात्, समाहितात्मा – अपने काम में सामञ्जस्य रख, एकनिष्ठ हो, व्रजाक्षतं कर्म समारभस्व, ऐसा कर्म करने हेतु प्रस्थान करो जो अक्षत हो।
रावण के मन में किञ्चित पुत्रमोह ने सिर उठाया किंतु उसने उसे राजधर्म की आड़ दे दी –
न खल्वियं मतिश्श्रेष्ठा यत्त्वां सम्प्रेषयाम्यहम्। इयं च राजधर्माणां क्षत्रियस्य[१] मतिर्मता॥
नानाशस्त्रेषु सङ्ग्रामे वैशारद्यमरिन्दम। अवश्यमेव बोद्धव्यं काम्यश्च विजयो रणे॥
तुम्हें भेज रहा हूँ, यह निश्चित रूप से कोई बहुत अच्छा विचार नहीं है, (किंतु) राजधर्म के अनुसार यह काम एक क्षत्रिय हेतु करणीय है। हे अरिसूदन, तुम नानाप्रकार के शस्त्रप्रयोगों में प्रवीण हो। अत:, यह समझो कि मैं सङ्ग्राम में केवल तुम्हारे निश्चित विजय की चाहना रखता हूँ।
रावण के मन में जो पिता एवं राजा का सङ्घर्ष चल रहा था, उसे इंद्रजित ने समझ लिया। आदिकवि पिता एवं भर्तार शब्दप्रयोगों द्वारा द्वंद्व को रेखाङ्कित करते हैं।
तत: पितुस्तद्वचनं, पिता के उक्त वचन सुन कर देवसम प्रभावी वीर इंद्रजित ने युद्ध हेतु सुनिश्चित हो भर्तार अर्थात राजा की प्रदक्षिणा की – भर्तारमदीनसत्त्वो रणाय वीरः प्रतिपन्नबुद्धिः। कहने वाला पिता है अत: उसका कहा मानना है, भरण पोषण करने वाला राजा भी है, अत: शासन अनुशासन के समक्ष न मानने का विकल्प भी नहीं। वह युद्धोद्धत सोत्साह बढ़ चला – युद्धोद्धतः कृतोत्साहस्सङ्ग्रामं प्रत्यपद्यत। सागरक्षेत्र का वासी योद्धा ऐसे बढ़ा जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र हो – निर्जगाम महातेजास्समुद्र इव पर्वसु ।
असह्य वेग वाला इंद्र समान पराक्रमी इंद्रजित पक्षीराज गरुड़ के समान तीव्र गति से ऐसे रथ पर आरूढ़ हो चल पड़ा जिसमें श्वेत एवं तीक्ष्ण दाँतों वाले चार व्याल जुते हुये थे – स पक्षि राजोपमतुल्यवेगैर्व्यालैश्चतुर्भिः सिततीक्ष्णदंष्ट्रैः।[२]
उसके रथ की ध्वनि एवं धनुष्टङ्कार सुन कर हरिवीर हनुमान हर्षित हो गये – स तस्य रथनिर्घोषं ज्यास्वनं कार्मुकस्य च। निशम्य हरिवीरोऽसौ संप्रहृष्टतरोऽभवत्॥
रणपण्डित इंद्रजित ने अपने विशाल धनुष पर तीखे फल वाला बाण चढ़ा कर हनुमान को लक्षित किया – सुमहच्चापमादाय शितशल्यांश्च सायकान्। हनुमन्तमभिप्रेत्य जगाम रणपण्डितः॥
तीव्र गति से रथ पर आते इन्द्रजित को देख कर कपि ने निज देह स्फीत कर तीव्र किलकारी भरी – विननाद महानादं व्यवर्धत च वेगवान्॥
दोनों के बीच ऐसा युद्ध आरम्भ हो गया जैसा परस्पर वैरी सुरों एवं असुरों के बीच हुआ था – सुरासुरेन्द्राविव बद्धवैरौ । वेग का वेग से सामना था। इंद्रजित के क्षिप्र बाणों को अपने पिता के समान अतुलित गति वाले हनुमान ने व्यर्थ कर दिया – शरप्रवेगं व्यहनत्प्रवृद्ध श्चचार मार्गे पितुरप्रमेयः।
ततश्शरानायततीक्ष्णशल्यान् सुपत्रिणः काञ्चनचित्रपुङ्खान्। मुमोच वीरः परवीरहन्ता सुसन्नतान् वज्रनिपातवेगान्॥
इंद्रजित ने उन पर वज्र के समान गति से सुंदर परों एवं किञ्चित झुकी स्वर्णिम नोकों वाले लम्बे एवं तीक्ष्ण बाण छोड़े । ततस्तु तत्स्यन्दननिस्स्वनं, तब उसके रथ की ध्वनि एवं धनुष की टङ्कार के साथ हनुमान ने पुन: छलाँग भरी – कार्मुकस्य निशम्य घोषं पुनरुत्पपात । महाकपि हरि ने आशु गति से बाणों के बीच गमन करते हुये उन्हें व्यर्थ कर दिया – शराणामन्तरेष्वाशु व्यवर्तत महाकपिः। हरिस्तस्याभिलक्ष्यस्य मोघयन्लक्ष्यसंग्रहम्॥
दोनों रणकर्म विशारद योद्धाओं ने युद्ध में ऐसा उत्तम प्रदर्शन किया कि समस्त प्राणियों के मन बँध गये – तावुभौ वेगसम्पन्नौ रणकर्मविशारदौ। सर्वभूतमनोग्राहि चक्रतुर्युद्धमुत्तमम् ॥
परस्परं निर्विषहौ बभूवतुः समेत्य तौ, दोनों अपनी वेग प्रबलता के कारण एक दूसरे हेतु अप्रतिहत हो गये, न तो राक्षस हनुमान को हत कर पा रहा था, न ही मारुति उस महान राक्षस को – हनुमतो वेद न राक्षसोऽन्तरं न मारुतिस्तस्य महात्मनोऽन्तरम्।
हनुमान अस्त्र शस्त्र से हीन निहथ्थे थे, मात्र अपनी क्षिप्र गति से प्रभावी बने हुये थे। अपने बाण निष्फल होते देख इंद्रजित बड़ी चिंता में पड़ कर मानो समाधिस्थ हो विचार करने लग गया – ततस्तु लक्ष्ये स विहन्यमाने शरेष्वमोघेषु च संपतत्सु। जगाम चिन्तां महतीं महात्मा समाधिसंयोगसमाहितात्मा॥
पिता की बात ध्यान में आई – करणे न हन्तुम्, वह समझ गया कि हनुमान शस्त्रास्त्रों से अवध्य हैं तथा सोचने लगा कि इस वानर को कैसे पकड़ा जा सकता है? अवध्यतां तस्य कपेस्समीक्ष्य कथं निगच्छेदिति निग्रहार्थम् । उस श्रेष्ठ अस्त्रविद राक्षस ने तब कपिश्रेष्ठ की ओर पैतामक अर्थात ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया – ततः पैतामहं वीरः सोऽस्त्रमस्त्रविदां वरः। संदधे सुमहत्तेजा: तं हरिप्रवरं प्रति, तथा उन्हें पकड़ लिया – निजग्राह महाबाहुर्मारुतात्मजमिन्द्रजित् ।
तेन बद्धस्ततोऽस्त्रेण राक्षसेन स वानरपपात स महीतले ॥[३]
उस राक्षस के अस्त्र से बँध कर हनुमान निश्चेष्ट गतिहीन हो गये तथा भूमि पर गिर पड़े। वह समझ गये कि प्रभु ब्रह्मा के प्रभाव से उस अस्त्र में बँधने के कारण उनकी गति जाती रही। उन्हें स्वयं के ऊपर पितामह के अनुग्रह की स्मृति हो आई – ततोऽथ बुद्ध्वा स तदस्त्रबन्धं प्रभोः प्रभावाद्विगतात्मवेगः। पितामहानुग्रहमात्मनश्च विचिन्तयामास हरिप्रवीरः॥
ततस्स्वायम्भुवैर्मन्त्रैर्ब्रह्मास्त्रमभिमन्त्रितम्, स्वायम्भु ब्रह्मा के मन्त्र से अभिमंत्रित ब्रह्मास्त्र द्वारा बाँधा गया हूँ, इस अनुभव के साथ ही वह पितामह द्वारा दिये वरदान पर सोचने लगे – हनुमांश्चिन्तयामास वरदानं पितामहात् ।
न मेऽस्त्रबन्धस्य च शक्तिरस्ति विमोक्षणे लोकगुरोः प्रभावात्। इत्येव मत्वा विहितोऽस्त्रबन्धो मयात्मयोनेरनुवर्तितव्यः॥
लोकगुरु ब्रह्मा के प्रभाव से इस अस्त्रबन्ध से मुक्त होने की मुझमें शक्ति नहीं है, ऐसा मान कर मुझे अस्त्र से बाँधा गया है। मुझे इसका आदर करना चाहिये। उन्होंने उस अस्त्र से मुक्त होने की शक्ति का स्मरण कर निर्णय लिया कि मुझे पितामह की आज्ञा का पालन करना चाहिये – विमोक्षशक्तिं परिचिन्तयित्वा; पितामहाज्ञामनुवर्तते स्म।
अस्त्रेणापि हि बद्धस्य भयं मम न जायते। पितामहमहेन्द्राभ्यां रक्षितस्यानिलेन च॥ – अस्त्र से बँधे होने पर भी मैं पितामह, इन्द्र एवं वायु द्वारा रक्षित हूँ, अत: मुझमें भय का सञ्चार नहीं हो रहा।[४]
ग्रहणे चापि रक्षोभिर्महन्मे गुणदर्शनम्। राक्षसेन्द्रेण संवादस्तस्माद्गृह्णन्तु मां परे॥
यह भी कि राक्षस द्वारा बँधे रहने का महान लाभ यह है कि मुझे राक्षसराज से संवाद का अवसर मिलेगा। अत: शत्रु मुझे पकड़ कर ले चलें।
स निश्चितार्थः परवीरहन्ता समीक्ष्यकारी विनिवृत्तचेष्टः। परैः प्रसह्याभिगतैर्निगृह्य ननाद तैस्त्रै: परिभर्त्स्यमानः॥
सारा आगा पीछा विचार कर विचारपूर्ण कार्य करने वाले शत्रुसंहारक मारुति निश्चेष्ट हो गये। ऐसी स्थिति देख शत्रुओं ने सावधानी पूर्वक धीरे धीरे उनके निकट आ कर बलपूर्वक पकड़ लिया तथा दुर्वचन कहने लगे। उनसे मानो कष्ट पा रहे हों, ऐसा प्रदर्शित करते हुये हनुमान ने निनाद किया।
ततस्तं राक्षसा दृष्ट्वा निर्विचेष्टमरिंदमम्। बबन्धुश्शणवल्कैश्च द्रुमचीरैश्च संहतैः॥
अरिन्दम हनुमान को चेष्टाहीन देख राक्षस उन्हें सन की सुतली, वल्कल एवं वृक्षों की खाल से बने व चीर से बाँधने लगे।
स रोचयामास परैश्च बन्धनं प्रसह्य वीरैरभिनिग्रहं च। कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः॥
शत्रुओं द्वारा इस प्रकार बलपूर्वक बाँधा जाना व अवमानना मारुति को रुचे क्योंकि उन्हें लगा कि हो सकता है राक्षसराज रावण कौतुहल वश उन्हें देखने का निर्णय ले। इस निश्चय के साथ ही उन्होंने सब सहन किया।
अयोध्या के राजभवन में सीता द्वारा चीर वल्कल पहन कर ही वनगमन को ले कर वाद विवाद हुआ था, अन्तत: वैसा हुआ नहीं। जिस वनवासिनी दिव्याम्बरा को रावण हर लाया था, उनकी मुक्ति का सन्देश ले कर पहुँचा दूत ब्रह्मास्त्र के साथ साथ चीर वल्कल द्वारा भी बाँध दिया गया! और अद्भुत घटित हुआ।
स बद्धस्तेन वल्केन विमुक्तोऽस्त्रेण वीर्यवान्। अस्त्रबन्धः स चान्यं हि न बन्धमनुवर्तते॥
वल्क रज्जु से बाँधे जाते ही वीर हनुमान अस्त्रबन्ध से विमुक्त हो गये क्योंकि वह अस्त्रबन्ध अपने ऊपर किसी अन्य बन्धन को नहीं सहता।
अथेन्द्रजित्तं द्रुमचीरबद्धं विचार्य वीरः कपिसत्तमं तम् । विमुक्तमस्त्रेण जगाम चिन्तां नान्येन बद्धो ह्यनुवर्ततेऽस्त्रम् ॥
अहो महत्कर्म कृतं निरर्थकं न राक्षसैर्मन्त्रगतिर्विमृष्टा । पुनश्च नास्त्रे विहतेऽस्त्रमन्यत्प्रवर्तते संशयिताः स्म सर्वे ॥
इन्द्रजित ने वीर कपिश्रेष्ठ को इस प्रकार साधारण रस्सों से बँधा देखा और जान गया कि ब्रह्मास्त्र द्वारा कोई अन्य बंधन न सहे जाने के कारण यह वानर उससे मुक्त हो चुका है। उसे भारी चिन्ता हो आई और वह विचार करने लगा, हा! राक्षसों ने मंत्र शक्ति को जाने बिना ही मेरा बड़ा काम निरर्थक कर दिया। एक बार विहत हो जाने पर उक्त अस्त्र का दुबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता। अब हम सभी सङ्कट में पड़ गये!
अस्त्रेण हनुमान्मुक्तो नात्मानमवबुध्यते । कृष्यमाणस्तु रक्षोभि स्तौश्च बन्धैर्निपीडितः॥
हन्यमानस्ततः क्रूरै राक्षसैः काष्ठमुष्टिभिः। समीपं राक्षसेन्द्रस्य प्राकृष्यत स वानरः॥
अस्त्र से मुक्त होने पर भी हनुमान ने दर्शाया नहीं तथा राक्षस उन्हें घसीटते एवं बंधन में पीड़ित करते चले। वे क्रूर उन्हें लाठियों व मुक्कों से पीटते हुये रावण तक घसीट ले गये।
कहाँ ब्रह्मास्त्र, कहाँ लाठी मुक्के! कहाँ महान शस्त्रविद इन्द्रजित, कहाँ निहथ्थे वानर हनुमान! भावी विपर्यय की जैसे भूमिका ही लिखी जा रही थी।
अथेन्द्रजित्तं प्रसमीक्ष्य मुक्तमस्त्रेण बद्धं द्रुमचीरसूत्रैः। न्यदर्शयत्तत्र महाबलं तं हरिप्रवीरं सगणाय राज्ञे॥
संशय का सङ्कट बड़ा विकट होता है, कहा भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता। आत्माभिमानी इन्द्रजित ब्रह्मास्त्र चला कर भी उन सम्भावनाओं का नाश नहीं कर पाया जिनके लिये रावण ने उसे भेजा था। बताता तो हास्य का पात्र ही बनता!
महाबली वानरवीर को अस्त्र से मुक्त एवं रस्सियों से बँधा हुआ जान इंद्रजित ने उन्हें सभासदों सहित रावण के सम्मुख प्रस्तुत किया। कपिश्रेष्ठ हनुमान बंधन में पड़े मत्त हाथी की भाँति लग रहे थे – मत्तमिव मातङ्गं बद्धं कपिवरोत्तमम्।
हाथी में बहुत शक्ति होती है किंतु वह साधारण रस्सी से भी बँधा रहता है। मदमत्त होने की स्थिति में वह सारे बंधन तोड़ देता है। शांत दिखते हनुमान हेतु मत्त मातङ्ग शब्द प्रयोगों से कवि ने भावी का सूक्ष्म सङ्केत कर दिया है कि रावण से मिलने व संवाद की इच्छा पूरी होते ही कपि मदमत्त गज की भाँति ही संहार करने वाला है!
कोऽयं कस्य कुतोवात्र किं कार्यं को व्यपाश्रयः। इति राक्षसवीराणां तत्र सञ्जज्ञिरे कथाः॥
हन्यतां दह्यतां वापि भक्ष्यतामिति चापरे। राक्षसास्तत्र सङ्क्रुद्धा: परस्परमथाब्रुवन्॥
हनुमान ने वाटिका व राक्षस संहार करते हुये अपने परिचय की घोषणायें तो बहुत की थीं किंतु राजसभा को उनका परिचय ज्ञात नहीं था। बड़बोले क्रुद्ध सभाराक्षस एक दूसरे से कहने लगे, कौन है यह, किसका पुत्र है, यहाँ कौन से कार्य हेतु आया है? इसके सहायक कौन हैं? इसे मार दो, जला दो या इसे अभी खा जायें क्या?
अतीत्य मार्गं सहसा महात्मा स तत्र रक्षोधिपपादमूले। ददर्श राज्ञः परिचारवृद्धान् गृहं महारत्नविभूषितं च॥[५]
स ददर्श महातेजा रावणः कपिसत्तमम्। रक्षोभिर्विकृताकारैः कृष्यमाणमितस्ततः॥
महात्मा हनुमान ने मार्ग पार किया तथा सहसा ही महामूल्यवान रत्नों से विभूषित भवन में राक्षसराज रावण के चरणों के निकट वृद्ध एवं अनुभवी मन्त्रियों को देखा। उस समय महातेजस्वी रावण ने विकृत आकार वाले राक्षसों द्वारा घसीटे जाते कपिश्रेष्ठ हनुमान को देखा।
राक्षसाधिपति कपि के समक्ष था, तेज व बलयुक्त, भास्कर के समान तपता हुआ – तेजोबलसमायुक्तं तपन्तमिव भास्करम् । जिससे संवाद साक्षात्कार हेतु हनुमान ने अस्त्रबंध में बने रहने का अभिनय किया था, वह सामने था।
अक्षकुमार सूर्य समान तेजस्वी था, कपि द्वारा पराभूत हुआ। मेघवज्र के देवता इन्द्र को जीतने वाले इंद्रजित ने उन्हें पकड़ने में सफलता पाई। पुन: सूर्य की उपमा सूर्यवंशी श्रीराम के दूत हनुमान के शत्रु राक्षसराज हेतु! आदिकवि, आप की इङ्गिति क्या है?
सरोषसम्वर्तितताम्रदृष्टिर्दशाननस्तं कपिमन्ववेक्ष्य। अथोपविष्टान् कुलशीलवृद्धान् समादिशत्तं प्रति मन्त्रिमुख्यान्॥
यथाक्रमं तैस्स कपिर्विपृष्टः कार्यार्थमर्थस्य च मूलमादौ।
रोष से आरक्त हुये नेत्रों को घुमाते हुये बिना पलक झपकाये रावण कपि को देखता रहा और निज कुल के शीलवान वृद्ध जनों तथा महत्त्वपूर्ण मन्त्रियों को हनुमान से पूछताछ करने की आज्ञा दी।
उन सबने पहले कपिवर हनुमान से क्रमश: उनका कार्य, प्रयोजन तथा उसके मूल कारण के बारे में पूछा।
हनुमान ने निवेदन किया, मैं वानरराज के पास से आया हूँ और उनका दूत हूँ – निवेदयामास हरीश्वरस्य दूतः सकाशादहमागतोऽस्मि॥
अभिमानी राक्षसराज के आगे प्रथम परिचय में बुद्धिमान हनुमान ने अपने को रामदूत न बता कर वानरराज का दूत बताया। संवाद आरम्भ करने को वैसे राजा से स्वयं को पहले एक अन्य राजा का दूत बताना आवश्यक था। राम तो निर्वासित थे!
[१] युद्ध व राजनीति क्षत्रियों के क्षेत्र हैं। अत: रावण यहाँ क्षात्रधर्म की आड़ लेता दिखता है। वैसे भी रावण पर कथित ब्राह्मणत्व का आरोपण अपेक्षतया कालान्तर की बात ही प्रतीत होती है।
[२] व्याल के स्थान पर अनेक पाठभेद मिलते हैं – व्याघ्र, सिंह, व्याड, व्याळ। भाष्याकारों ने इसके अर्थ बाघ या सिंह किये हैं। बाघ का घर माने जाने वाले बङ्ग क्षेत्र के पाठ में सिंह मिलता है। पिछले अंश में बताये गये खर की भाँति यह भी विडाल जाति का ही कोई भव्य छवि वाला जंतु लगता है जो पाल्य रहा होगा। मामा के यहाँ से लौटते भरत के साथ उपहार के रूप में विशेष श्वानों का उल्लेख भी रामायण में मिलता है। राजघरानों में हिंस्र, भव्य व भयानक जंतुओं को पालतू बनाये रखने के अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें बाघ व चित्रक (चीता) मुख्य हैं। आश्चर्य ही है कि चीता अल्प उल्लिखित है। चाहे जो जंतु रहा हो, रथ में जुते वाहक के रूप में उसकी उपयोगिता अश्व सी तो नहीं ही रही होगी। राजकुमार की विशिष्टता व व्यक्तिगत अभिरुचि इस प्रकार के उपयोग के मुख्य कारण होंगे।
[३] बङ्ग – तत्स्तं ब्रह्मणो स्त्रेण बबन्धेन्द्रजिदस्त्रवित्।
[४] ब्रह्मास्त्र प्रकरण में बङ्ग पाठ में श्लोकों का क्रमभेद है। एकाधिक श्लोक बहुत ही भिन्न गढ़न व पाठ लिये हुये हैं। पश्चिमोत्तर पाठ में भी अंतर मिलते हैं। सम्भव है कि रावण पर ब्राह्मणत्व के आरोपण के साथ ही कुल की विशिष्टता दर्शाने हेतु अस्त्र के रूप में ब्रह्मबन्ध जोड़ा गया हो। प्रचलित पाठ में भी स्पष्टता नहीं दिखती।
[५] पश्चिमोत्तर पाठ –
स हन्यमानो बहुभिश्चतत्र, समेत्य रक्षोऽधिपपादमूलम्।
ददर्श राज्ञः पर वीरहन्तुर्गृहं महारत्नपरिच्छदं तत्॥
रामायण में कुछ उपसर्ग प्रयोग आज की दृष्टि से विचित्र हैं। वाल्मीकि सु का प्रयोग ‘गरल सराहिय मीचु’ के अर्थ में भी करते हैं। उदाहरण, आज सु से सभी अच्छा मानते हैं किन्तु जब सुदुष्करम् लिखा मिले तो उसे अच्छा दुष्कर न मान कर अति अति दुष्कर मानें कि करने में कठिन तो है ही, उसकी कठिनाई अच्छे से बनी है!
इसी श्रेणी में महात्मा शब्द है जिसे रावण हेतु प्रयुक्त देख आधुनिक काल के कुछ विद्वान चकरा गये थे। महात्मा का जो आज रूढ़ अर्थ अच्छा वाला हो गया है, पहले अच्छाई बुराई निरपेक्ष था। महान् आत्मा अर्थात जो भी कर रहा है, उसमें महान है।
ऐसे ही तेजस्वी शब्द है, अच्छा बुरा नहीं देखना, योद्धा अपनी प्रवीणता से दैदीप्यमान है तो तेजस्वी है। कुम्भकर्ण भी है, रावण भी, श्रीराम तो हैं ही।