प्रलोभन (temptation) और आत्मसंयम (self-control ) सदियों से मनीषियों के चिंतन के विषय रहे हैं। मनोवैज्ञानिक भी इस विषय का अध्ययन करते रहे हैं। विकासवादी जीव विज्ञान और बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने वाले प्रो. रोबर्ट राइट ‘इच्छा’ के रूप में भी इसका वर्णन करते हैं और वैज्ञानिक इसे मस्तिष्क में डोपामिन के स्तर से भी जोड़ कर अध्ययन करते हैं। अर्थात मानवता के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान युग तक सामान्य से प्रतीत होने वाले ये भाव गहन वैज्ञानिक अध्ययन के विषय भी हैं।
वासना और अनुरक्ति जैसे शब्द सनातन दर्शन में अनेकों प्रसंगों में विभिन्न रूपों में वर्णित हैं। आत्मसंयम और आत्म-अनुशासन का वैसे तो संसार की अन्य परम्पराओं में भी किसी ना किसी रूप में उल्लेख मिलता है परंतु जितनी प्रमुखता और विस्तार से सही अर्थों में इनका सनातन दर्शनों में वर्णन है उतना संसार में कहीं और मिलना दुर्लभ है।
इस विषय पर आधुनिक अध्ययनों में पिछली सदी के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वॉल्टर मिशेल का ‘मार्शमैलो अध्ययन’ प्रमुखता से उद्धृत किया जाता है।
इस अध्ययन में ये पाया गया कि वे बच्चे जो त्वरित हो एक ‘मार्शमैलो’ लेने के स्थान पर बीस मिनट के अंतराल के पश्चात दो मार्शमैलो लेने की प्रतीक्षा को वरीयता देते हैं अर्थात जो आत्मसंयम का परिचय देते हैं वे आगे चलकर जीवन में भी अधिक सफल होते हैं। मनोविज्ञान में इसे अस्थायी कटौती (temporal discounting) भी कहते हैं। अर्थात अपने दीर्घकालिक लाभ की दूरदर्शी सोच के स्थान पर अल्पकालिक क्षणिक सुख के प्रलोभन में उलझ जाना।
इसके अनेकों उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में ही देखने को मिल जाते हैं, यथा व्यायाम न कर स्वादिष्ट भोजन करने पर ही लगे रहना, व्यय और भोजन की सामान्य प्रलोभन से जुड़े टेव कुटेव, विद्यार्थी जीवन में अल्पकालिक प्रलोभनों में उलझ दीर्घकालिक लाभ के कार्य न करना इत्यादि।
मेट्कैफ़ और वॉल्टर मिशेल के १९९९ में प्रकाशित अध्ययन में इसे मस्तिष्क के दो विभागों से जोड़ा गया — भावात्मक (emotional “hot”) और तार्किक (rational “cool”) । जो मस्तिष्क के उसी प्रणाली के सदृश है जिसका अवलोकन हम पिछले लेखों में कर चुके हैं।
पिछले कुछ वर्षों में किए गए अध्ययनों में इन बातों की अन्य सूक्ष्म विशेषताएँ और रोचक पक्ष देखने को मिलते हैं। वर्ष २०११ में जर्नल ओफ़ पर्सनालिटी एंड सोशल साइकोलोज़ी तथा सोशल, साइकोलोजिकल और पर्सनालिटी साइंस में प्रकाशित दो विभिन्न शोधों का निष्कर्ष यह था कि जो व्यक्ति अधिक आत्मनियंत्रण तथा आत्मसंयम का प्रयास करते हैं वे उनसे अधिक सफल नहीं थे जिन्हें प्रलोभन का अनुभव ही कम होता है अर्थात जिन्हें आत्म नियंत्रण का अत्यधिक प्रयास करना पड़ता है उनसे अच्छे वे थे जिन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
अत्यधिक प्रयास से आत्म संयम करने वालों की ऊर्जा भी अधिक क्षीण होती है। आदर्श अवस्था वह होती है जब हमारे पास प्रलोभन से बचने की अंतर्दृष्टि होती है और हमें आत्म संयम की आवश्यकता ही नहीं होती। यही नहीं, ऐसे व्यक्तित्व वाले लोग स्वतः सदाभ्यास विकसित करते हैं और अपने हर कार्य को अधिक आनंद पूर्वक भी करते हैं। पुनः यह शोध उसी दर्शन की ओर ले जाते हैं — बिना आसक्त हुए निष्काम कर्म, संसार को वस्तुनिष्ठ रूप में देखने की अंतर्दृष्टि विकसित करना।
इन नए अध्ययनों से रोचक तथ्य उद्घाटित होते हैं तथा सीखें मिलती हैं। प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डैन ऐरीयली अपने व्याख्यानों में प्रो मिशेल के मार्शमैलो अध्ययन और उसी प्रकार के अन्य अध्ययनों से यह सीख लेने को कहते हैं कि यदि हम प्रलोभनों से बच नहीं पाते तो भी उनसे हम अपना ध्यान हटाना सीख कर अपने लिए जो अच्छा है, उसके लिए स्वयं को बाध्य कर सकते हैं या अपने को वैसे प्रलोभन दे सकते हैं जिनसे हम अपने दीर्घकालिक भले के काम करें।
इसके लिए वह ग्रीक मिथक से ओडिसस (Odysseus) और जलपरियों (sirens) की कथा का उदाहरण देते है। समुद्र यात्रा करते समय ओडिसस को एक द्वीप के समीप से जाना था जिसके बारे में विख्यात था कि उस पर रहने वाली जलपरियों के संगीत के प्रलोभन से कोई बच नहीं सकता। उस सुमधुर संगीत को सुनने वाला उस द्वीप में ही फँस कर रह जाता। ओडिसस को उस द्वीप पर फँसना भी नहीं था और संगीत भी सुनना था। इस प्रलोभन से बचने के लिए ओडिसस ने एक युक्ति निकाली। उसने अपने सहयात्रियों के कान मोम से भर दिए और स्वयं को जलयान के ध्वजदण्ड से बँधवा लिया।
इस प्रकार ओडिसस प्रलोभन से तो नहीं बच पाया परंतु वह उससे होने वाली हानि से बचने में भी सफल रहा। प्रो एरीयली इस प्रकार की युक्तियाँ निकालते रहे हैं। जैसे व्यायाम करने के लिए उनकी युक्ति है कि व्यायामशालाओं को पहले पैसे ले लेने चाहिए और उन व्यक्तियों को थोड़े थोड़े पैसे लौटाने चाहिए जो नियमित व्यायाम करने आते हैं! अर्थात प्रलोभन की समझ नहीं होते हुए भी उससे बचने की युक्ति निकालना।
ओडिसस की कथा और इन युक्तियों को यदि नए शोध परिणामों के संदर्भ में देखें तो इससे सनातन दर्शन और पश्चिमी दर्शन के अंतरों का पता चलता है। पश्चिमी दर्शन जहाँ मुख्यतया युक्तियों पर आधारित है वहीं सनातन दर्शन उससे परे सनातन एवं सार्वभौमिक हल प्रस्तुत करता है। सनातन दर्शन, विशेषकर बौद्ध दर्शन एवं उससे प्रेरित ज़ेन – प्रलोभन और आत्म संयम के न केवल वास्तविक अर्थ समझाते हैं अपितु उसके सार्वभौमिक, चिरकालिक एवं उत्कृष्ट हल भी बताते हैं। आत्मसाक्षात्कार एवं अंतर्दृष्टि जैसी परिकल्पना आत्म संयम के साथ साथ संसार को वस्तुनिष्ठ रूप में देख प्रलोभनों से परे हो जाने की परिकल्पना संसार में कहीं और मिलनी कहाँ सम्भव है?
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहःक्षमा सत्यं दम: शम:। सुखं दुखं भवोऽभावी भयं चाभयमेव च॥
…
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
…
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥
अधिक क्या कहा जाय — गीता के अध्याय ६ का तो नाम ही आत्मसंयम योग है!
चित्र आभार : pixabay.com/geralt