लघु दीप अँधेरों में, पिछली कड़ियाँ : 1 , 2
सुभाषित
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्त:।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या
धिक्ताञ्च तं च मदनं च इमां च मां च ॥
[भर्तृहरि कृत नीतिशतकं, 2]
मैं सदा जिस (अपनी स्त्री)का चिन्तन करता रहता हूँ, वह मुझसे विरक्त होकर अन्य पुरुष की कामना करती है, एवं वह अन्य पुरुष किसी अन्य स्त्री की कामना करता है तथा वह अन्य स्त्री मुझसे प्रेम करती है। अतएव, मेरी स्त्री को, उस अन्य पुरुष को, मुझ में आसक्त उस अन्य स्त्री को, मुझे एवं उस कामदेव को भी धिक्कार है!
जर्मनी से आई गाँव की स्वच्छता
नब्बे के दशक में जबकि भारत आर्थिक उदारीकरण में आँखें खोल रहा था, एक उत्साही जर्मन बाला मीरियम यहाँ आई थीं। स्वयं के लिये बुलेट मोटरसाइकिल खरीद उन्होंने लगभग 13000 किलोमीटर की यात्रा कर भारत को देखा, सुना एवं अनुभव किया तथा इस देश की विविध शतरङ्गी प्रकृति एवं जन के प्रेम में पड़ गईं। उन्हें यह अधिक भाया कि आर्थिक उन्नति के जिन पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से पश्चिम जूझ रहा था, भारत उनसे मुक्त था तथा यहाँ प्रकृति के प्रति सजग सम्मान भाव था जो उसे प्रदूषण से बचाता था।
लगभग दो दशक पश्चात जब वह भारत लौटीं तो कचरे के ढेर तथा प्रकृति के विनाश को देख बहुत आहत हुईं, आर्थिक प्रगति ने अपनी छाप छोड़ दी थी। अपने पति मेजर पी. शङ्कर के साथ उन्होंने एक न्यास बनाया तथा सामर्थ्य भर काम में जुट गईं।
बंगलुरू के निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में उन्होंने Ecogram प्रकल्प आरम्भ किया जिसका उद्देश्य कूड़ा निस्तारण, मृदा क्षरण तथा भूगर्भीय जल के गहरे होते जाने की समस्याओं से निपटना था। आज उनके प्रयासों से थरायउनिसे गाँव में कूड़े को ठोस, द्रव तथा जैविक तीन भागों में बाँट कर निस्तारित किया जाता है। स्वच्छता कर्मचारियों का आत्मसम्मान सुनिश्चित करने के साथ साथ मृदा क्षरण रोकने के लिये रिक्त भूमि पर मलाबार नीम का पौधा रोपण अभियान भी चल रहा है। स्वयं को भारतीय बताने वाली मीरियम की योजना इसे बेट्टहलसूर ग्राम पञ्चायत के समस्त 10 टोलों में लागू करने की है जिनमें 20000 जन निवास करते हैं। मीरियम का उद्देश्य परोक्ष रूप से उनके इस कथन मेंं ध्वनित होता है – India is wasting it’s waste. कचरा उपयोग में आये, हानि न पहुँचाये; यही उनके अभियान का सार है।
[स्रोत : www.thebetterindia.com एवं http://www.taict.org]
रागी मँड़ुवा
अधिक दिन नहीं बीते जब कथित मोटे अन्न हिन्दी क्षेत्र के दैनन्दिन आहार का अङ्ग थे। चावल के स्थान पर कोदो तथा गेहूँ के आटे के स्थान पर मँड़ुवे का आटा खाया जाता था। खनिजों एवं पोषक तत्त्वों से युक्त इन मोटे अन्नों के साथ ‘निर्धनता’ या ‘असम्भ्रान्तता’ का ठप्पा कब लगा, कैसे लगा एवं हरित क्रांति की बाढ़ में इनका खाद्य के रूप में उपयोग क्यों कर बह गया? इन प्रश्नों के उत्तर सरल नहीं हैं। अल्प उपज की समस्या तो उन्नत बीज विकसित कर निपटाई जा सकती थी। सौभाग्य से मँड़ुवे का प्रयोग मध्य, पश्चिम एवं दक्षिण भारत में बना रहा तथा आज यह कैल्सियम, उन्नत प्रोटीन एवं आवश्यक अमीनो एसिड CH3 SCH2 CH2 CH(NH2)COOH, मेथायनीन (methionine) के समृद्ध सुलभ स्रोत के रूप में स्थापित हो चुका है। नगरों में दुगुने से पाँच गुने के मूल्य पर बिकता यह ‘मोटा अन्न’ आज ‘सम्भ्रान्त’ शाकाहारी खाद्य के रूप में सम्मानित है। गेहूँ, धान, गन्ने, सरसो इत्यादि की खेती के साथ हर किसान इसे क्यों न अपनाये?
सरसो से इसके नाम पर ध्यान गया, इस कारण कि काली सरसो (Brassicaceae या Cruciferae परिवार) के संस्कृत नामों मधुलिका तथा राजिका से इसे भी संयुक्त कर दिया गया है जो कि ठीक नहीं है। इसका संस्कृत नाम मट्टकम् है। एक अन्य नाम नृत्यकुण्डलक भी है जो मराठी नाम नाचणी का अर्थसहोदर है। इसका वैज्ञानिक नाम Eleusine coracana तथा आंग्ल में इसे Finger Millet बोलते हैं।
रागी नाम राजस्थान एवं मलयालम में प्रचलित है जब कि असमिया में यह मरुबा धान है। स्पष्ट है कि समस्त भारत में पसरा मँड़ुवा राष्ट्रीय अन्न सम्पदा का महत्त्वपूर्ण अङ्ग है।
इसकी खेती के लिये मिट्टी के कुछ आवश्यक गुण हैं जिन्हें कि शोधन पश्चात देसी खाद, कम्पोस्ट आदि से प्राप्त किया जा सकता है। इसकी पूरी सम्भावना है कि धान, गेहूँ, चना, सरसो, बाजरा आदि उपजाता आप का खेत इसके लिये भी उपयुक्त होगा। जाइये न, निकट की सरकारी मृदा प्रयोगशाला में, जहाँ परीक्षण सुविधा उपलब्ध है, कई स्थानों पर तो लगभग नि:शुल्क भी! नहीं पता? प्रत्येक जिला मुख्यालय पर ऐसी प्रयोगशाला मिल जायेगी। कभी नहीं गये तो अब जाइये। मँड़ुवा उगा हानिकारक गोली एवं कृत्रिम पूरक रसायनों के स्थान पर प्राकृतिक कैल्सियम तथा मेथायनीन को अपने आहार में इसकी रोटी या दलिया या भाकरी के रूप में स्थान दीजिये। हड्डियों की निर्बलता osteoporosis तथा यकृत के रोग बढ़ रहे हैं न!