Paternity and Human evolution
मनोविज्ञान तथा मानवशास्त्र (anthropology) में मातृत्व का गहन अध्ययन हुआ है, यथा माता बनने पर स्त्रियों के ग्रंथियों से अंतःस्राव (हार्मोन) में परिवर्तन तथा मस्तिष्क में होने वाले परिवर्तन इत्यादि जिन्हें सीमित रूप में ममता का जनक कहा जा सकता है। साहित्य तथा काव्य इत्यादि में भी मातृत्व की विस्तृत चर्चा मिलती है। परंतु पितृत्व, जिसकी मानव विकास तथा समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, पर अध्ययन नगण्य रहे हैं।
विगत वर्षों में इस विषय पर रोचक अध्ययन हुए हैं। इन अध्ययनों से पूर्व यह मान्यता प्रमुख रही कि पितृत्व मातृत्व की भाँति स्वाभाविक नहीं होता। पितृत्व को ममता की भाँति एक भावना या आंतरिक गुण के रूप में कभी नहीं देखा गया। यह भी मान्यता रही कि पिता का सन्तान से उस प्रकार का सम्बंध या लगाव नहीं होता जैसा माताओं का। इस प्रकार पिताओं को अल्पतर महत्त्व का पालक तथा रक्षक मात्र माना जाता रहा, जिसका कारण भी मूलतः सामाजिक माना जाता रहा। परंतु वैज्ञानिक अध्ययनों ने इस विषय में नए निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। Parental Care in Mammals पुस्तक के अनुसार जीव संसार के मात्र पाँच प्रतिशत स्तनधारियों में ही पूर्णकालिक समर्पित पिता पाए जाते हैं। इस विषय में मानवशास्त्रियों की अब यह मान्यता है कि (विकासवाद के अनुसार) मानव के विकास तथा उत्तरजीविता के लिए पितृत्व अत्यावश्यक होता गया और इस हेतु पुरुष के उत्तरोत्तर विकास में जटिल शारीरिक, मनोविज्ञानिक तथा व्यावहारिक परिवर्तन हुए।
जीव संसार में मानव नवजात शिशु ही जन्म के समय उत्तरजीविता के लिए आश्चर्यजनक रूप से सर्वाधिक निर्बल तथा निर्भर होते हैं। इसका मुख्य कारण होता है – द्विपादी होने के कारण मानव मादा जन्म नलिका का संकीर्ण होना जिससे गर्भ में एक सीमा से अधिक विकास सम्भव नहीं। साथ ही मानव नवजातों का मस्तिष्क भी अन्य जीवों की तुलना में बड़ा होता है अर्थात गर्भ में शरीर की तुलना में मस्तिष्क का विकास अधिक होता है। जहाँ अन्य जीवों का गर्भ में शारीरिक विकास होता है, वहीं मानव गर्भ में मस्तिष्क का विकास होता है। इसका अर्थ यह भी है कि माता और शिशु दोनों के ही (तथा मानव प्रजाति की) उत्तरजीविता के लिए जन्म आवश्यक अवधि से पूर्व होता है। शरीर ही नहीं, मस्तिष्क भी पूर्ण विकसित नहीं होता। गर्भ में अल्प समय तथा संकीर्ण नलिका से जन्म के संतुलन का अर्थ यह भी है कि जन्म के पश्चात शुश्रूषा-स्तन्याहार समय अधिक होना चाहिए परंतु वह भी तुलनात्मक जीवों यथा चिम्पैन्ज़ीयों के पाँच वर्ष की तुलना में अल्प ही होता है।
विकासवाद और मानव शास्त्र के अनुसार यदि यह अवधि पाँच वर्ष होती तो मानव प्रजाति उस तीव्र गति से संतानोत्पति नहीं कर पाती जो मानव प्रजाति की सफलता के लिए आवश्यक था। इन समस्त सूक्ष्म संतुलनों का एक परिणाम था – अनेक वर्षों तक नौनिहाल। विकास की आवश्यकता ने स्तन्याहार की अवधि अल्प की जिससे मानव अधिक सन्तान उत्पन्न कर सके, परन्तु इस संतुलन में यह भी आवश्यक हो गया कि नौनिहालों तथा माताओं की भी सुरक्षा तथा उत्तरजीविता के लिए उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता होने लगी।
प्रजनन और उत्तरजीविता ही विकासवाद के प्रमुख लक्ष्य होते हैं। मानव मस्तिष्क का अध्ययन करने वाले मानवशास्त्री यह पाते हैं कि जैसे-जैसे मानव मस्तिष्क बड़ा होता गया, नौनिहाल जन्म के समय अधिक असहाय होते गए। माताओं को अधिक सहायता की आवश्यकता होने लगी और विकासप्रिय प्रकृति आनुवंशिक रुप से पुरुष को यह दायित्व निभाने हेतु उत्तरोतर विकसित करने लगी। बिना आनुवंशिक मोह तथा पितृत्व भावना के मानव प्रजाति की उत्तरजीविता असम्भव होने लगी। पुरुष को एक ही स्त्री तथा सन्तान के प्रति मोह होने के लिए उसमें विकासवाद के अनुकूल आनुवंंशिक परिवर्तन होते गए – अनुकूलन।
समय के साथ मानव प्रजाति की जटिलता बढ़ती गयी। बाल्यावस्था में सुरक्षा के अतिरिक्त किशोरावस्था में भी उपजने वाली अन्यमनस्कता तथा अन्य भ्रांतियों एवं बाधाओं को समझने के लिए भी मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ने लगी। माताओं के व्यस्त होने की अवस्था जटिल युग में भी बनी रही तो विकासवाद के अनुसार उत्तरजीविता के लिए आवश्यक गुणों के विकास के लिए पितृत्व का उत्तरोत्तर विकास होता गया। पितृत्व की यह भूमिका आज भी हर प्रकार के समाज में पायी जाती है।
वर्ष २०१८ में प्रकाशित पुस्तक Life of Dad में डॉ अन्ना मचीन इस सिद्धांत के बारे में विस्तार से चर्चा करती हैं। नवीन अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि करने का प्रयास किया है कि मानव प्रजाति के विकास में माताओं की ही भाँति पिता की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा यह भी मातृत्व की भाँति ही सहज एवं स्वाभाविक मानवीय प्रकृति है – शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा व्यावहारिक रूप से।
वर्ष २०१५ में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार पिताओं में भी ग्रंथियों से अंतःस्राव तथा मस्तिष्क में उसी प्रकार के परिवर्तन होते हैं जैसे माताओं में। पिता बनने के पश्चात पुरुषों में वृषणि (testosterone) में ह्रास तथा ऑक्सीटोसिन (oxytocin) के स्तर में वृद्धि रूपी परिवर्तन होते हैं जिसके दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं – पुरुष अन्य स्त्री के प्रति आकर्षित न हों तथा पिता के रूप में संवेदनशील एवं उत्तरदायी बन पाएँ। इसके साथ मस्तिष्क की संरचना में भी इस प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिनसे सन्तान के प्रति स्नेह स्वतः ही पनपता है।
वर्ष २०१२ में इज़राइली मनोवैज्ञानिकों ने मस्तिष्क का अध्ययन कर सिद्ध किया कि ऐसा होते हुए भी पुरुष तथा स्त्री एक दूसरे को प्रतिस्थापित नहीं कर सकते वरन एक दूसरे के पूरक होते हैं। ये परिवर्तन पुरुष और स्त्री में एक जैसे होते हुए भी भिन्न होते हैं, दोनों का लक्ष्य भिन्न होता है। विकासवाद भला एक ही कार्य के लिए दो भिन्न प्राणियों की आवश्यकता क्यों रखेगा?
वर्ष २०१४ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पिताओं और बिना सन्तान वाले पुरुषों के मस्तिष्क का अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ कि बच्चों के चित्र देख पिताओं के मस्तिष्क में पारितोषिक प्रदान करने वाले क्षेत्र सक्रिय हो जाते हैं। इस विषय ने पिछले दशक में शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया तो सारे अध्ययनों में पुरुष में पितृत्व से होने वाले इन परिवर्तनों की पुष्टि हुई । पश्चिमी विज्ञान अंततः पितृत्व के महत्त्व को मान्यता देता प्रतीत होता है।
इन अध्ययनों से तीन बातें स्पष्ट हैं – पिता बनने पर पुरुष के मस्तिष्क में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं; मातृत्व की ही भाँति पितृत्व भी मानव प्रजाति के साथ साथ व्यक्ति के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है तथा मातृत्व एवं पितृत्व एक दूसरे के पूरक हैं एक दूसरे को प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।
मस्तिष्क में होने वाले इन परिवर्तनों को समझना तथा भ्रांतियों से दूर रहना भी उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार अन्य मनोवैज्ञानिक भ्रांतियों से। पश्चिमी मनोविज्ञान में जहाँ अभी ऐसे अध्ययन आरम्भ ही हुए हैं, वहीं सनातन दर्शन में सन्तान-स्नेह की चर्चा तो सुलभ है ही, साथ ही सन्तान मोह की भी विस्तृत चर्चा है। अधिक क्या रामायण में राजा दशरथ तथा महाभारत के धृतराष्ट्र से बड़े उदाहरण भला क्या हो सकते हैं! यदि इन पात्रों के मनोवैज्ञानिक पक्षों का अवलोकन करें तो मनोविज्ञान के अनेक स्तर स्पष्ट होते हैं। पिता की महत्ता तो हर ग्रंथ में है ही – पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता हि परमं तप:, माता व पिता की महत्ता में कोई विरोधाभास भी नहीं है – सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता।
वृषणि में ह्रास तथा ऑक्सीटोसिन के स्तर में वृद्धि के संदर्भ में इस श्लोक का अवलोकन करें तो!
दारुणे च पिता पुत्रे नैव दारुणतां व्रजेत्। पुत्रार्थे पदःकष्टाः पितरः प्राप्नुवन्ति हि॥
तथा सन्तान स्पर्श से होने वाले परिवर्तन के शोध कुछ इस प्रकार ही तो हैं –
एवं च भाषते लोकश्चन्दनं किल शीतलम्। पुत्रगात्रस्य संस्पर्शश्चन्दनादतिरिच्यते॥
और पुन: रक्षक के रूप में तो पिता शब्द ही ‘पा रक्षणे’ धातु से निष्पन्न होता है। ‘यः पाति स पिता’ जो रक्षा करे, वह पिता कहलाता है। जिस प्रकार के आनुवंशिक परिवर्तनों तथा मानव प्रजाति के विकास में भूमिका, सुरक्षा की भावना की बातें आधुनिक अध्ययनों में प्रकाशित हुई हैं, वे महाभारत के इस श्लोक से भी तो स्पष्ट हैं –
शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुञ्जते। क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने॥
अर्थात प्रथम तो गर्भाधान द्वारा मानव शरीर का निर्माण करने वाला, द्वितीय अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करने वाला और तृतीय जिसका अन्न भोजन किया जाता है। ये तीनों पिता होते हैं।