अक्षकुमार वध, Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण-४४ से आगे
बाल सूर्य की भाँति प्रभायुक्त एवं जाम्बूनद सोने की भाँति प्रतप्त राक्षसश्रेष्ठ (नैर्ऋतर्षभ) अक्षकुमार रथारूढ़ हो कर निकला – बालदिवाकरप्रभं प्रतप्तजाम्बूनदजालसन्ततम्। तप से प्राप्त उसका रथ भी उसी की भाँति कान्तिमान था – तपस्सङ्ग्रहसञ्चयार्जितं प्रतप्तजाम्बूनदजालशोभितम् । उसका ध्वज रत्नविभूषित था तथा उसमें वायु के समान गति वाले आठ अश्व जुते हुये थे – रत्नविभूषितध्वजं मनोजवाष्टाश्ववरैः सुयोजितम्। तूणों के साथ यथाक्रम आठ असियाँ, शक्ति व तोमर उस रथ में रखे हुये थे – सतूणमष्टासिनिबद्धबन्धुरं यथाक्रमावेशितशक्तितोमरम् । उसने चंद्र व सूर्य के समान प्रकाशमान स्वर्णमाला धारण कर रखी थी – सहेमदाम्ना शशिसूर्यवर्चसा तथा रथ पर बह दिवाकर सूर्य की भाँति आभासित हो रहा था – दिवाकराभं रथमास्थितस्ततस्स।
उसकी सेना के अश्वों, हाथियों एवं महारथों की ध्वनियों से आकाश, समूची पृथ्वी व पर्वत भर गये – स पूरयन्खं च महीं च साचलां तुरङ्गमातङ्गमहारथस्वनैः। वह तोरण पर चढ़े हुये हनुमान के समक्ष पहुँच गया।
वह बालसूर्य के समान था तो हनुमान बाल्यकाल में सूर्य का पराभव करने हेतु प्रसिद्ध थे। उसके अश्वों की गति वायु समान थी तो आञ्जनेय हनुमान स्वयं वायुपुत्र थे। सिंहाक्ष अक्षकुमार ने हनुमान को देखा, वे युगान्त के समय समस्त प्रजा का नाश करने वाली अग्नि के समान लगे – हरिं हरीक्षणो युगान्तकालाग्निमिव प्रजाक्षये। सम्भ्रमित विस्मय से भर कर उसने उन्हें सम्मान के साथ देखा – विस्मितजातसम्भ्रम समैक्षताक्षो बहुमानचक्षुषा। वेगं च कपेर्महात्मनः पराक्रमं चारिषु पार्थिवात्मजः – उन महाबली की गति और पराक्रम की समीक्षा कर राजपुत्र अक्षकुमार हेमन्त के समय के सूर्य की भाँति उत्साह से भर उठा – बलं महाबलो हिमक्षये सूर्य इवाभिवर्धते। प्रसमीक्ष्य विक्रमं स्थिरं स्थिरस्सम्यति दुर्निवारणम् – हनुमान की स्थिरता, विक्रम एवं युद्ध में दुर्निवारता की समीक्षा कर राक्षसकुमार अनंतर क्रुद्ध हो गया – जातमन्युः। उन्हें उत्तेजित करने के लिये उसने तीन तीक्ष्ण बाण मारे – प्रचोदयामास शरैस्त्रिभि श्शितैः। तब तक हनुमान श्रमजनित शैथिल्य से मुक्त हो शत्रु को पराजित करने के सङ्कल्प से भर चुके थे – जितश्रमं शत्रुपराजयोर्जितम्। प्रगृहीतकार्मुकः, धनुष हाथ में लिये हुये अक्षकुमार ने उन्हें गर्वित हो कर देखा – ततः कपिं तं प्रसमीक्ष्य गर्वितम्। उसने निष्कमण्डित स्वर्ण अङ्गद व सुंदर कुण्डल पहन रखे थे – हेमनिष्काङ्गदचारुकुण्डल। हनुमान युद्धरत हुये। उन दोनों के तुमुल सङ्ग्राम से भूमि मानो त्रास में भर कर चीखने लगी, सूर्य तापहीन हो गये, वायु का प्रवाह थम गया, पर्वत हिल उठे, आकाश में तड़ित रव भर गया तथा सागर भी प्रक्षुब्ध हो गया!
ररास भूमिर्न तताप भानुमा न्वनौ न वायुः प्रचाचल चाचलः। कपेः कुमारस्य च वीक्ष्य संयुगं ननाद च द्यौरुदधिश्च चुक्षुभे ॥
राक्षस था ही, अक्षकुमार ने पूरी एकाग्रता व लक्ष्यवेधी कौशल से – समाधिसम्योगविमोक्षतत्त्ववित्, हनुमान को सर्पों के समान लगते विषलेपित बाण मारे – सविषानिवोरगान्।
छंद प्रकार, शैली व वर्णन से रामायण का यह अंश परवर्ती प्रतीत होता है, पर है काव्य सौंदर्य युक्त। दोनों वीरों की तुल्यता दर्शाने हेतु कवि ने बारम्बार सूर्य व प्रकाश का आश्रय लिया है तथा समान उपमाओं से दोनों का वर्णन किया है।
बाणों के लगते ही हनुमान के ललाट से रक्तधार बह चली। वह दीप्त किरणों से सुशोभित नव-आदित्य की भाँति लगने लगे! नवोदितादित्यनिभ श्शरा अंशुमान् व्यराजतादित्य इवांशुमालिकः।
हनुमान को आभास हो चला। सैन्य, रथ, साजसज्जा, शस्त्रास्त्र व अश्व ही यह सिद्ध करने को पर्याप्त थे कि आगन्तुक राजकुलीन था, कोई साधारण योद्धा नहीं। वानरराज के श्रेष्ठ मंत्री पिङ्गाधिपमन्त्रिसत्तमः, हर्षपूरित हो युद्ध आह्वान के स्वागत हेतु तत्पर हो गये- जहर्ष चापूर्यत चाहवोन्मुखः।
मन्दराग्रस्थ इवांशुमालिको – वह मंदराचल की चोटी पर स्थित किरणों से युक्त सूर्य की भाँति लग रहे थे जो अक्षकुमार व उसकी सैन्य को अपनी भयानक आँखों से निकलती किरणों से जला रहा थे – ददाह नेत्राग्निमरीचिभिस्तदा। पर्वताकार कपि पर अक्षकुमार ने बाणों की झड़ी लगा दी मानों उन पर बादल बरस रहे हों –
हरीश्वराचले वलाहको वृष्टिमिवाचलोत्तमे ।
कपि ने रणचण्डविक्रम अक्षकुमार को तेज बल से युक्त हो बादलों की भाँति बढ़ते देख उनकी गड़गड़ाहट की भाँति निनाद किया – संयुगे ननाद हर्षाद् घनतुल्यविक्रमम् ।
युद्ध में बालभाव से भरा अक्षकुमार क्रुद्ध एवं आरक्त नयन लिये अप्रतिम हनुमान की ओर ऐसे बढ़ा जैसे कोई हाथी घास से ढके हुये गड्ढे की ओर बढ़ता है – स बालभावाद्युधि वीर्यदर्पितः प्रवृद्धमन्युः क्षतजोपमेक्षणः। समाससादाप्रतिमं कपिं रणे गजो महाकूपमिवावृतं तृणैः॥
उसके बाणों से आहत हनुमान ने घननाद किया एवं अपनी भुजाओं तथा जाँघों को पसार, घोर रूप ले ऊँची छलाँग लगाई – स तेन बाणैः प्रसभं निपातितैश्चकार नादं घननादनिस्स्वनः । समुत्पपाताशु नभस्स मारुतिर्भुजोरुविक्षेपणघोरदर्शनः ॥
प्रवरः प्रतापवान्, प्रतापी एवं बलशाली राक्षस ने विशालकाय हनुमान पर ऐसी बाणवर्षा की जैसे पर्वत पर बादल ओले बरसा रहे हों – पयोधरश्शैलमिवाश्मवृष्टिभिः।
मन के समान गति वाले चण्डविक्रम हनुमान उन बाणों से अपने को बचाते हुये वायुगामी लग रहे थे – वीरः पथि वायुसेविते। शरान्तरे मारुतवद्विनिष्पतन्मनोजवस्संयति चण्डविक्रमः ॥
उसकी प्रशंसा के साथ साथ मारुति का मन इस चिंता में भी लगा था कि अक्षकुमार से पार कैसे पाया जाय !
तमात्तबाणासनमाहवोन्मुखं खमास्तृणन्तं विशिखैश्शरोत्तमैः। अवैक्षताक्षं बहुमानचक्षुषा जगाम चिन्तां च स मारुतात्मजः॥
वायु एवं मन दोनों की गति चञ्चल होती है। गति हेतु इन उपमाओं के प्रयोग से कवि ने एक ओर हनुमान हेतु समानधर्मा उपमा का प्रयोग किया है तो दूसरी ओर मन एवं वायु की गति के विपरीत स्थिर मन से रणनीति पर विचार करते दर्शा कर विरोधभाव की सौंदर्य सर्जना की है – विचिन्तयामास रणे पराक्रमम्।
हनुमान उसके अल्पायु में ही सङ्ग्राम गुणों से युक्त होने पर मुग्ध से थे कि यह तो बालदिवाकर की भाँति है, अतिशक्तिशाली है। अपनी आयु के योद्धाओं की तुलना में महान कर्मशोभा से युक्त अबालवत है। इसमें युद्ध की सर्व अर्हतायें हैं। मेरा मन इसे इसका स्थान दिखाने का नहीं करता, मेरा मन इसे मारने को नहीं मानता। यह तो महान व्यक्तित्त्व का स्वामी है, प्रशंसायोग्य है और युद्ध के कष्टों को (बालक सम होते हुये भी) सहने में सक्षम है।
अबालवद्बालदिवाकरप्रभः करोत्ययं कर्म महन्महाबलः। न चास्य सर्वाहवकर्मशोभिनः प्रमापणे मे मतिरत्र जायते ॥
अयं महात्मा च महांश्च वीर्यत स्समाहितश्चातिसहश्च संयुगे।
पराक्रम एवं उत्साह से इसकी मानसिक क्षमता भी बढ़ी हुई है। सम्मुख खड़ा हो आँखों से आँखें मिलाता है – पराक्रमोत्साहविवृद्धमानस स्समीक्षते मां प्रमुखाग्रतःस्थितः।
अब यदि इसकी मैं उपेक्षा करता हूँ तो यह मुझ पर भारी पड़ेगा। इसका पराक्रम बढ़ता ही जा रहा है। इसे मार डालना ही उचित होगा। बढ़ती हुई अग्नि की उपेक्षा ठीक नहीं!
न खल्वयं नाभिभवेदुपेक्षितः पराक्रमो ह्यस्य रणे विवर्धते। प्रमापणं त्वेव ममाद्य रोचते न वर्धमानोऽग्निरुपेक्षितुं क्षमः ॥
शत्रु का वेग देखते हुये हनुमान ने अपना कर्मयोग निश्चित कर लिया। उसके वध का मन बना कर उन्होंने अपना वेग बढ़ा दिया –
इति प्रवेगं तु परस्य चिन्तयन्स्वकर्मयोगं च विधाय वीर्यवान्। चकार वेगं तु महाबलस्तदा मतिं च चक्रेऽस्य वधे महाकपिः॥
वीर पवनसुत ने अपनी हथेलियों के प्रहार से अक्षकुमार के रथ में जुते अश्वों का वध कर डाला –
स तस्य तानष्टहयान्महाजवान् समाहितान्भारसहान्विवर्तने। जघान वीरः पथि वायुसेविते तलप्रहारैः पवनात्मजः कपिः॥
ततस्तलेनाभिहतो महारथ – उनकी हथेलियों के प्रहारों से अक्षकुमार के महारथ का कूबर छूट गया व भीतर का आसन भी भग्न हो गया – प्रभग्ननीडः परिमुक्तकूबरः। रथ छिन्न भिन्न हो गया।
मारुततुल्यविक्रम महावीर हनुमान ने उछल कर अक्षकुमार को पाँवों से पकड़ लिया – समेत्य तं मारुततुल्यविक्रमः क्रमेण जग्राह स पादयोर्दृढम्॥
अपने पिता वायु के समान ही विक्रम वानरश्रेष्ठ ने उसे वैसे ही पकड़ा जैसे गरुड महासर्प को। सहस्रो बार उसे घुमा कर उन्होंने भूमि पर पटक दिया! स तं समाविध्य सहस्रशः कपिर्महोरगं गृह्य इवाण्डजेश्वरः । मुमोच वेगात्पितृतुल्यविक्रमो महीतले संयति वानरोत्तमः॥
उनके इस प्रहार से उस राक्षस की भुजायें, जङ्घायें, कटि एवं गला टूट गये, अस्थियों का चूर्ण बन गया, आँखें निकल आईं। देह की समस्त संधियों के भङ्ग होने के साथ साथ उसके देहबन्ध भी ढीले पड़ गये। वह रक्त बहाता भूमि पर पटका जा कर मारा गया।
स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः। सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः ॥
राक्षसराज रावण ने सुना और उसके हृदय में महान भय व्याप्त हो गया – तं चकार रक्षोधिपतेर्महद्भयम्।
अक्षकुमार को मार कर लोहितलोचन वीर हनुमान इन्द्रपुत्र के समान प्रभायुक्त दिखने लगे तथा पुन: तोरण द्वार पर जनहानि करने वाले काल की भाँति विराजमान हो गये (कि देखें अब कौन आता है!)
निहत्य तं वज्रिसुतोपमप्रभं कुमारमक्षं क्षतजोपमेक्षणम्। तमेव वीरोऽभिजगाम तोरणं कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये॥
(अगले अङ्क में – इन्हें यह भी नहीं ज्ञात कि ब्रह्मपाश के ऊपर से कोई बंधन लगाने पर वह प्रभावहीन हो जाता है!)