Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण -39 से आगे
मणि देकर देवी सीता ने कहा :
अभिज्ञानमभिज्ञातमेतद्रामस्य तत्त्वतः । मणिं तु दृष्ट्वा रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति।
वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च ॥
इस चिह्न को राम भली भाँति जानते हैं। इसे देख कर वे निश्चय ही तीन जन – मेरी माता, मुझे एवं राजा दशरथ का एक साथ स्मरण करेंगे।
स भूयस्त्वं समुत्साहे चोदितो हरिसत्तम । अस्मिन्कार्यसमारम्भे प्रचिन्तय यदुत्तरम् ॥
त्वमस्मिन्कार्यनिर्योगे प्रमाणं हरिसत्तम । तस्य चिन्तय यो यत्नो दुःखक्षयकरो भवेत् ॥
हरिश्रेष्ठ! अपरञ्च तुम विशेष उत्साह से प्रेरित हो। इस कार्य की सिद्धि हेतु जो भावी कर्तव्य हो, उस पर विचार करो। तुम इसके लिये कोई ऐसा उपाय विचारो जो (मेरे) दु:ख का क्षय करने वाला हो।
अतिपराक्रमी मारुति ने वैसा ही कार्य करने की प्रतिज्ञा ले वैदेही सीता की सिर नवा कर वन्दना की तथा वहाँ से जाने का उपक्रम करने लगे।
स तथेति प्रतिज्ञाय मारुतिर्भीमविक्रमः
शिरसावन्द्य वैदेहीं गमनायोपचक्रमे
मारुति को प्रत्यागमन को उद्यत जान मैथिली अश्रुगद्गद वाणी में बोलीं,”हनुमन्! तुम श्रीराम एवं लक्ष्मण, दोनों को एक साथ ही मेरी कुशल बताना, उनका पूछना। अमात्यों सहित सुग्रीव एवं समस्त वृद्ध वानरों से भी बताना एवं पूछना।
यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः
अस्माद्दुःखाम्बुसंरोधात्त्वं समाधातुमर्हसि
महाबाहु राघव जिस प्रकार इस दु:ख के समुद्र से मेरा उद्धार करें, उस प्रकार से तुम्हें उन्हें आश्वस्त करना चाहिये।”
प्रिय से जीते जी पुनर्मिलन की इच्छा तो थी ही, उनकी कीर्ति की भी चिंता थी कि राघव उनके जीवित रहते नहीं मिले तो उनकी कीर्ति धूमिल पड़ जायेगी। कतिपय भाष्यकारों ने कीर्ति एवं यश में सूक्ष्म भेद बताया कि जहाँ यश धर्मानुसार असैन्य आचरण से सम्बंधित है, वहीं राजन्य कीर्ति युद्ध में अभीष्ट प्राप्ति के साथ विजय से है। श्रीराम की कीर्ति देवी सीता को जीते जी लौटा लाने में थी।
जीवन्तीं मां यथा रामः संभावयति कीर्तिमान्
तत्त्वया हनुमन्वाच्यं वाचा धर्ममवाप्नुहि
हनुमान! कीर्तिमान राम जिससे जीते जी मेरा उद्धार करें, तुम उनसे वैसी ही बात कहना तथा ऐसा कर के वाणी के धर्माचरण का फल प्राप्त करना।
नित्यमुत्साहयुक्ताश्च वाचः श्रुत्वा मयेरिताः
वर्धिष्यते दाशरथेः पौरुषं मदवाप्तये
मत्संदेशयुता वाचस्त्वत्तः श्रुत्वैव राघवः
पराक्रमविधिं वीरो विधिवत्संविधास्यति
ऐसे तो दाशरथि राम सदा ही उत्साह से भरे रहते हैं तथापि मेरी कही गुई बातें सुन कर मेरी प्राप्ति हेतु उनका पुरुषार्थ और भी बढ़ेगा। तुम्हारे मुख से मेरे संदेश सुन कर ही वे वीर विधिवत अपने पराक्रम कर्म में लग जायेंगे।
सीता जी से के वचन सुनकर मारुतात्मज हनुमान ने सिर पर अञ्जली बाँध कर उत्तर दिया :
क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थो हर्यृक्षप्रवरैर्वृतः
यस्ते युधि विजित्यारीञ्शोकं व्यपनयिष्यति
न हि पश्यामि मर्त्येषु नामरेष्वसुरेषु वा
यस्तस्य वमतो बाणान्स्थातुमुत्सहतेऽग्रतः
अप्यर्कमपि पर्जन्यमपि वैवस्वतं यमम्
स हि सोढुं रणे शक्तस्तवहेतोर्विशेषतः
स हि सागरपर्यन्तां महीं शासितुमीहते
त्वन्निमित्तो हि रामस्य जयो जनकनन्दिनि
जो युद्ध में सारे शत्रुओं को जीत कर आप के शोक का निवारण करेंगे, वे काकुत्स्थ राम श्रेष्ठ वानरों एवं ऋक्षों के साथ शीघ्र ही यहाँ पधारेंगे। मैं मनुष्यों, असुरों अथवा देवताओं में भी किसी को ऐसा नहीं देखता, जो बाणों की वर्षा करते हुये राम के समक्ष ठहर सके। विशेषत: आप के लिये तो वे युद्ध में सूर्य, पर्जन्य एवं वैवस्वत यम का भी सामना कर सकते हैं। वे सागरपर्यन्त समस्त मही को भी जीत लेने योग्य हैं। जनकनंदिनी! आप के निमित्त युद्ध करते राम को निश्चय ही विजय प्राप्त होगी।
आतप, जलवर्षा एवं वायु उपद्रव; मानवसभ्यता इन तीन से संघर्ष करते करते यम अर्थात मृत्यु को झेलती रही है। हनुमान ने इन चारों का राम द्वारा सामना विशेष दृष्टि से बताया जिसमें कि उनकी अनिवार्य विजय के प्रति आस्था अंतर्निहित थी।
हनुमान के युक्तियुक्त, सम्यक एवं सत्य वचन सुन कर जानकी ने उनके प्रति बड़ा आदर व्यक्त किया। प्रस्थित होते हनुमान को बारम्बार देखती हुई देवी सीता की मन:स्थिति विचित्र थी, मन में आस बँध गयी थी, महाकपि के साथ अपनापन हो गया था, उनके जाने से मन पुन: शोकग्रस्त तो हो ही रहा था, प्रश्नों के गुञ्जलक भी घिरने लगे थे। सबके नेपथ्य में अपने प्रिय के दर्शन की उत्कट इच्छा थी। राक्षसों के बीच रहती दुखिया हेतु नर का दर्शन ही दुर्लभ था, नरोत्तम राम तो बहुत दूर थे, उनका संदेशवाहक भी आया तो वानर, अपने भर्त्ता राम के प्रति सौहार्द एवं स्नेह से युक्त देवी सीता सम्मानपूर्वक कह उठीं :
यदि वा मन्यसे वीर वसैकाहमरिंदम
कस्मिंश्चित्संवृते देशे विश्रान्तः श्वो गमिष्यसि
मम चेदल्पभाग्यायाः साम्निध्यात्तव वीर्यवान्
अस्य शोकस्य महतो मुहूर्तं मोक्षणं भवेत्
गते हि हरिशार्दूल पुनरागमनाय तु
प्राणानामपि संदेहो मम स्यान्नात्र संशयः
तवादर्शनजः शोको भूयो मां परितापयेत्
दुःखाद्दुःखपरामृष्टां दीपयन्निव वानर
अयं च वीर संदेहस्तिष्ठतीव ममाग्रतः
सुमहांस्त्वत्सहायेषु हर्यृक्षेषु हरीश्वर
कथं नु खलु दुष्पारं तरिष्यन्ति महोदधिम्
तानि हर्यृक्षसैन्यानि तौ वा नरवरात्मजौ
त्रयाणामेव भूतानां सागरस्येह लङ्घने
शक्तिः स्याद्वैनतेयस्य तव वा मारुतस्य वा
तदस्मिन्कार्यनिर्योगे वीरैवं दुरतिक्रमे
किं पश्यसि समाधानं त्वं हि कार्यविदां वरः
हे अरिन्दम वीर! यदि तुम ठीक समझो तो यहाँ किसी गुप्त स्थान पर एक दिन और निवास कर कल चले जाना। हे वानर! तुम्हारे निकट रहने से मुझ अल्पभागा को (प्रिय के विछोह के) महान शोक से मुहूर्त भर (थोड़े समय के अर्थ में प्रयुक्त) निवारण हो जायेगा। हे कपिश्रेष्ठ! विश्राम के पश्चात यहाँ से यात्रा करने के अनंतर यदि तुम लोगों के आने में संदेह या विलम्ब हुआ तो मेरे प्राणों पर भी संकट आ जायेगा, इसमें संशय नहीं है। मैं दु:ख पर दु:ख उठा रही हूँ। तुम्हारे चले जाने पर तुम्हें न देख पाने का शोक मुझे पुन: दग्ध करता हुआ-सा संताप देता रहेगा।
हे वीर वानरेश्वर! तुम्हारे साथी ऋक्षों और वीरों के विषय में मेरे समक्ष अब भी यह बड़ा संदेह तो है ही कि ऋक्ष एवं वानर सैन्य तथा वे दोनों राजकुमार इस दुष्पार महोदधि को पार कैसे करेंगे? समुद्र को लाँघने की शक्ति तो केवल तीन प्राणियों में देखी गयी है – तुममें, गरुड़ में अथवा वायु देवता में। वीर! इस प्रकार इस समुद्रलङ्घनरूपी कार्य को निभाना अत्यंत कठिन है। ऐसी दशा में तुम्हें सिद्धि का कौन सा उपाय दिखता है, यह बताओ? कार्यसिद्धि का उपाय जानने वालों में तुम सबसे श्रेष्ठ हो।
देखें तो वैसी विषम स्थिति में भी देवी सीता के प्रश्न एक राजकन्या हेतु सर्वथा उपयुक्त थे।
उन्हें शत्रु की सामर्थ्य एवं सुदृढ़ स्थिति का ज्ञान था, हनुमान के रूप में उसके योग्य प्रतिरोधी समक्ष थे, सीता सब जान लेना चाहती थीं – अपनी सेना की शक्ति, सङ्कट एवं बाधाओं से निपटने की सामर्थ्य एवं सबसे पहले यह कि सेना इस पार आयेगी कैसे?